25/09/2025: मणिपुर के बाद अब आग़ लद्दाख में | अयोध्या में मस्जिद मामला सियासी हुआ | सूखने लगी है गंगा | कागज़ों के बाद भी विस्थापन, फिर घुसपैठिया करार | ईडी का ताकतों पर सवाल | महिषासुर की पूजा |
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
लद्दाख में बवाल: पूर्ण राज्य की मांग पर प्रदर्शन हिंसक, बीजेपी दफ्तर में आगजनी।
वोटर लिस्ट पर पहरा: अब नाम जोड़ने-हटाने के लिए आधार-लिंक्ड फोन नंबर ज़रूरी, चुनाव आयोग का बड़ा फैसला।
बिहार में कांग्रेस का दांव: RJD को ‘आत्मसम्मान’ का संदेश, महागठबंधन पर साधी चुप्पी।
अयोध्या पर फिर विवाद: विनय कटियार का भड़काऊ बयान- “वहां मस्जिद नहीं बनने देंगे”।
गंगा घाटी पर संकट: 1,300 साल के सबसे भयंकर सूखे की चपेट में, नई स्टडी में खुलासा।
हिंदुत्व का एजेंडा?: नवरात्रि में मांस पर बैन, मॉब लिंचिंग से उठे सवाल।
बुलेट ट्रेन की सुस्त रफ्तार: 2027 तक सिर्फ 50 किमी चलेगी, मुंबई पहुंचने में लगेंगे और साल।
ईडी की मनमानी पर सुप्रीम कोर्ट सख्त: कहा- ‘आप सारी हदें पार कर रहे हैं’।
असम का दर्द: सरकारी दस्तावेज़ के बावजूद ‘घुसपैठिया’ कहे जा रहे बेदखल लोग।
ट्रंप बनाम सादिक खान: लंदन के मेयर ने अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘नस्लवादी, सेक्सिस्ट और इस्लामोफोबिक’ बताया।
तुर्की में अभिव्यक्ति पर हमला: पैगंबर पर चुटकुले के लिए कॉमेडियन और रैपर को जेल।
मणिपुर के बाद अब आग़ लद्दाख में
लद्दाख में राज्य के दर्जे की मांग को लेकर प्रदर्शन हिंसक, लेह में भाजपा कार्यालय में आगजनी
लेह में बुधवार को लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर हो रहा विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया. द इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, प्रदर्शनकारियों, जिनमें ज्यादातर युवा शामिल थे, ने लेह में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यालय में आग लगा दी और लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (एलएएचडीसी) के परिसर में भी तोड़फोड़ की. एक सुरक्षा वाहन को भी आग के हवाले कर दिया गया.
संघर्ष के दौरान कई लोगों के मारे जाने और कई अन्य के घायल होने की खबर है. कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “तीन से पांच युवकों की मौत हुई है क्योंकि पुलिस ने गोलीबारी की थी”.केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी एक बयान में स्वीकार किया कि पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिसमें “दुर्भाग्य से कुछ लोगों के हताहत होने की सूचना है”. झड़पों में लगभग 30 सुरक्षाकर्मी भी घायल हुए. हिंसा के बाद लेह में कर्फ्यू लगा दिया गया है.
यह हिंसा उस समय भड़की जब छात्र और युवा संगठनों ने बंद का आह्वान किया था. यह फैसला मंगलवार को दो बुजुर्ग अनशनकारियों की तबीयत बिगड़ने और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराए जाने के बाद लिया गया. कांग्रेस नेता सेरिंग नामग्याल ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “कल एक बुजुर्ग महिला और एक पुरुष बेहोश हो गए. यह खबर तेजी से फैली, और छात्रों ने आज (बुधवार) बंद का आह्वान किया. आज सुबह, बड़ी संख्या में लोग अनशन स्थल की ओर बढ़े. युवा नियंत्रण से बाहर हो गए”.
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे प्रसिद्ध कार्यकर्ता सोनम वांगचुक 15 दिनों से भूख हड़ताल पर थे.हिंसा के बाद, उन्होंने शांति की अपील की और अपना अनशन समाप्त कर दिया. उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया, “लेह में बहुत दुखद घटनाएं. शांतिपूर्ण रास्ते का मेरा संदेश आज विफल हो गया. मैं युवाओं से अपील करता हूं कि कृपया इस बकवास को बंद करें. यह केवल हमारे उद्देश्य को नुकसान पहुंचाता है”.
दूसरी ओर, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हिंसा के लिए सोनम वांगचुक के “भड़काऊ बयानों” को जिम्मेदार ठहराया. मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि वांगचुक के उकसावे पर भीड़ ने हिंसक रूप ले लिया, जबकि सरकार लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के साथ बातचीत कर रही थी. सरकार ने कहा कि बातचीत की अगली तारीख 6 अक्टूबर तय होने के बावजूद वांगचुक ने अपना अनशन जारी रखा और लोगों को गुमराह किया.
यह विरोध प्रदर्शन 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किए जाने के बाद से चल रहा है. लद्दाख को बिना विधायिका वाला केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, जिससे वहां के लोगों में अपनी जमीन, संस्कृति और पहचान की सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ गईं. प्रदर्शनकारियों की मुख्य मांग लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची के तहत लाना है, जो इस क्षेत्र की 90% से अधिक आदिवासी आबादी को देखते हुए विधायी और वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करेगी.
राहुल गांधी के आरोपों के एक हफ्ते बाद, चुनाव आयोग ने मतदाता सूची से नाम हटाने के लिए आधार-लिंक्ड फोन नंबर को अनिवार्य किया
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा यह आरोप लगाने के एक सप्ताह से भी कम समय बाद कि कर्नाटक के आलंद और महाराष्ट्र के राजुरा में मतदाता सूची में गलत तरीके से नाम जोड़ने और हटाने का काम एक सॉफ्टवेयर के माध्यम से केंद्रीकृत तरीके से किया जा रहा था, भारतीय चुनाव आयोग ने अपने ईसीआईनेट (ECINet) पोर्टल और ऐप पर एक नई ‘ई-साइन’ सुविधा शुरू की है. यह सुविधा नाम जोड़ने या हटाने के लिए आवेदन करने वालों के सत्यापन के लिए आधार-लिंक्ड फोन नंबरों का उपयोग करती है.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, 23 सितंबर को चुनाव आयोग के ईसीआईनेट पोर्टल पर ई-साइन सुविधा दिखाई दे रही थी, जबकि पहले यह मौजूद नहीं थी. इस नए बदलाव के तहत, फॉर्म 6 (नए मतदाताओं के पंजीकरण के लिए) या फॉर्म 7 (मौजूदा सूची से नाम हटाने या शामिल करने पर आपत्ति के लिए) का उपयोग करने वाले किसी भी आवेदक को अब ई-साइन प्रदान करना होगा. आवेदक को यह सुनिश्चित करना होगा कि आवेदन के लिए उपयोग किए जा रहे वोटर कार्ड पर नाम वही हो जो उनके आधार कार्ड पर है, और दिया गया फोन नंबर वही हो जो उनके आधार से जुड़ा हुआ है.
यह नई सुविधा राहुल गांधी द्वारा 18 सितंबर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लगाए गए आरोपों के कुछ दिनों बाद आई है. उन्होंने आरोप लगाया था कि कर्नाटक के आलंद निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 6,018 वोटों को बाहर के मोबाइल नंबरों का उपयोग करके, मतदाताओं का प्रतिरूपण करके, और एक सॉफ्टवेयर के माध्यम से व्यवस्थित रूप से उन बूथों को निशाना बनाकर हटाया गया था, जहां कांग्रेस जीत रही थी. गांधी ने कहा था, “किसी ने एक स्वचालित कार्यक्रम चलाया जिसने यह सुनिश्चित किया कि बूथ का पहला मतदाता ही आवेदक हो. उसी व्यक्ति ने राज्य के बाहर से मोबाइल फोन मंगवाए और उनका उपयोग करके अपने आवेदन दाखिल किए. और हमें पूरा यकीन है कि यह एक केंद्रीकृत तरीके से किया गया था, और यह बड़े पैमाने पर किया गया था.”
सीडब्ल्यूसी में ‘आत्मसम्मान’ की चर्चा,
महागठबंधन का जिक्र नहीं, अति पिछड़ा से जुड़ाव की रणनीति
बिहार में कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक, जो 1940 के बाद पहली बार इस राज्य में आयोजित की गई थी, में राहुल गांधी ने सहयोगी राजद (आरजेडी) को एक सूक्ष्म संदेश दिया. एक बंद कमरे की बैठक में उन्होंने नेताओं से कहा कि आगामी विधानसभा चुनावों के लिए सीट-बंटवारे की बातचीत में पार्टी की विचारधारा और कार्यकर्ताओं के आत्म-सम्मान से कोई समझौता नहीं किया जाएगा. इस बैठक के बाद जारी हुए सीडब्ल्यूसी के प्रस्ताव में भी ‘महागठबंधन’ का कोई उल्लेख नहीं था.
हालांकि, बाद में महागठबंधन ने मिलकर अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) तक पहुंच बनाने की कोशिश की, जो दो दशकों से जद (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार की राजनीति का मुख्य आधार रहा है. “द इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, इस गठबंधन ने ‘अति पिछड़ा न्याय संकल्प’ नामक एक 10-सूत्रीय घोषणापत्र जारी किया, जिसमें अति पिछड़ा वर्ग के लिए कई लाभों का वादा किया गया है. इसमें एससी-एसटी एक्ट की तर्ज़ पर ‘ईबीसी अत्याचार निवारण कानून’ पारित करने की बात है, पंचायत व नगरपालिका में आरक्षण 20% से बढ़ाकर 30% करना, शिक्षा व सरकारी ठेकों में अलग कोटा, जाति सूची पुनः समीक्षा समिति बनाना आदि शामिल हैं. अति पिछड़ा आबादी बिहार में 36% है, जो अब तक नीतीश कुमार का मुख्य वोट बेस रहा है. लेकिन अब महागठबंधन के सूत्रों के मुताबिक़, यह समर्थन टूट रहा है. इसी को ध्यान में रखकर जून में राजद ने ईबीसी समुदाय से मंगनीलाल मंडल को बिहार अध्यक्ष नियुक्त किया, जो धानुक समुदाय से हैं.
सीडब्ल्यूसी की बैठक के लिए पटना के ऐतिहासिक सदाकत आश्रम का चयन करना कांग्रेस की भावनाओं का स्पष्ट संकेत है. वह बिहार में अपनी अलग पहचान कायम कर रही है और राजद द्वारा तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में मान्यता देने के दबाव से बचना चाहती है. इसीलिए सीडब्ल्यूसी के प्रस्ताव में बताया गया कि कांग्रेस ने बिहार के औद्योगिक, ढांचागत और सामाजिक विकास में अहम भूमिका निभाई है, जैसे गरहारा रेलयार्ड, सिंदरी की पहली उर्वरक फैक्ट्री, दामोदर घाटी परियोजना आदि. जमींदारी प्रथा का अंत, बाबू जगजीवन राम जैसे नेताओं का योगदान, और चिकित्सा व शिक्षा संस्थानों की स्थापना का भी उल्लेख किया गया.
सीडब्ल्यूसी के प्रस्ताव में मोदी सरकार के तहत ‘वोट चोरी’ का मुद्दा उठाया गया और बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की टाइमिंग पर सवाल किया गया. इसमें भारत की चीन और अमेरिका को लेकर विदेश नीति की भी आलोचना की गई. सीडब्ल्यूसी ने कहा, “चोरी गए जनादेश और गड़बड़ मतदाता सूची पर बनी सरकार की कोई नैतिक अथवा राजनीतिक वैधता नहीं. लोकतांत्रिक जवाबदेही के बिना सरकार को बेरोजगारी, किसान आत्महत्या, महंगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारभूत संरचना की चिंता नहीं है.” राहुल गांधी की यात्रा का उल्लेख करते हुए, प्रस्ताव में कहा गया कि कांग्रेस ने संकल्प लिया है कि वह भाजपा द्वारा उत्पीड़ित और हाशिए के लोगों के लिए अपनी लड़ाई कभी नहीं छोड़ेगी, और कांग्रेस नेता की प्रशंसा की गई.
अयोध्या में किसी मस्जिद की अनुमति नहीं दी जाएगी, कटियार की टिप्पणी ने विवाद खड़ा किया
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व लोकसभा सदस्य विनय कटियार ने बुधवार को यह कहकर एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया कि “अयोध्या में धन्नीपुर मस्जिद की अनुमति नहीं दी जाएगी और मुसलमानों को सरयू नदी के पार किसी अन्य जिले में मस्जिद का निर्माण करना चाहिए.” बजरंग दल के पूर्व अध्यक्ष कटियार की ये टिप्पणियां अयोध्या विकास प्राधिकरण द्वारा धन्नीपुर मस्जिद के नक्शे को खारिज किए जाने के बाद आईं.
संजय पांडेय के अनुसार, राम मंदिर आंदोलन के एक प्रमुख चेहरे रहे कटियार ने कहा कि वह कुछ नेताओं के इस बयान को कोई महत्व नहीं देते कि मस्जिद का निर्माण अयोध्या के पास धन्नीपुर में किया जाएगा. उन्होंने कहा, “अयोध्या सिर्फ भगवान राम की है.... यहां मस्जिद का कोई उपयोग नहीं है. मुसलमानों को अयोध्या छोड़कर कहीं और बसना चाहिए.” अयोध्या से समाजवादी पार्टी (सपा) के सांसद अवधेश प्रसाद ने कटियार की टिप्पणियों की निंदा करते हुए कहा कि भाजपा नेता ने अपना ‘मानसिक संतुलन’ खो दिया है. कटियार अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता खो चुके हैं.
1,300 वर्षों में सबसे बुरे सूखे के दौर से गुज़र रही है गंगा घाटी
नए अध्ययन से पता चला है कि बार-बार पड़ने वाले सूखे के कारण पिछले 30 सालों में गंगा बेसिन को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ा है. 60 करोड़ से अधिक लोगों की जीवनरेखा मानी जाने वाली गंगा नदी बेसिन ने 1991 से 2020 के दौरान सबसे गंभीर सूखे की प्रवृत्ति का अनुभव किया. एक नए शोध के अनुसार, यह पिछले 1,000 वर्षों में सबसे भयानक था. इस शोध में 1,300 वर्षों के नदी प्रवाह के आंकड़ों और अनिश्चित मानसून के बीच बढ़ती सूखे की आवृत्ति की जांच की गई.
कल्याण रे की खबर के अनुसार, यह अध्ययन आईआईटी गांधीनगर के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किया गया था, जिन्होंने मानसून एशिया ड्रॉट एटलस के साथ-साथ प्राचीन जलवायु रिकॉर्ड और कंप्यूटर मॉडल का उपयोग करके 700 से 2012 ईस्वी तक के नदी प्रवाह के इतिहास का पुनर्निर्माण किया.
पीएनएएस नामक एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित विश्लेषण से पता चला है कि देश के सबसे बड़े नदी बेसिनों में से एक को हाल के दशकों में बार-बार और लंबे समय तक सूखे का सामना करना पड़ा है.
सबसे बड़े नदी बेसिन में बदलते हालात का असर इस क्षेत्र के साथ-साथ नेपाल और बांग्लादेश में भी जल और खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है, जहां से होकर यह नदी बहती है. उदाहरण के लिए, 2015-17 के दौरान, गंगा नदी के मध्य और निचले हिस्सों में जल स्तर ऐतिहासिक रूप से बहुत कम हो गया था, जिससे पीने के पानी की आपूर्ति, बिजली उत्पादन, सिंचाई और नौवहन गंभीर रूप से बाधित हो गए, जिसका असर 12 करोड़ से अधिक लोगों पर पड़ा.
मध्यप्रदेश में हिंदू राष्ट्र आगे बढ़ रहा है, नवरात्रि में मांसाहार की बिक्री पर बैन
विदेश मंत्री एस. जयशंकर से वर्ष 2023 में वाशिंगटन में जब भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के उल्लंघन के बारे में पूछा गया था, तो उन्होंने कहा था, “मैं आपको चुनौती देता हूं कि मुझे भेदभाव दिखाएं.” तो, यहां पिछले एक सप्ताह में एक ही राज्य मध्यप्रदेश से सिर्फ दो उदाहरण सामने आए हैं. जिला प्रशासन ने घोषणा की है कि नौ दिवसीय हिंदू त्योहार नवरात्रि के कारण मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में मांस, मछली और अब अंडों की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है. यह नौ दिवसीय प्रतिबंध भोपाल में भी लागू है, जहां की 26.28% आबादी मुस्लिम है. पिछले हफ्ते, मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के मुल्तानपुरा गांव के 32 वर्षीय मुस्लिम युवक शेरू सुसड़िया की राजस्थान के भीलवाड़ा में स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा बेरहमी से पीट-पीट कर हत्या कर दी गई. उन लोगों ने शेरू पर झूठा आरोप लगाया था कि वह पशु तस्कर है. “द इंडियन एक्सप्रेस” की खबर है कि इस मामले में भीलवाड़ा पुलिस ने पांच व्यक्तियों को गिरफ्तार किया है और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की विभिन्न धाराओं के तहत हत्या का प्रयास, स्वेच्छा से चोट पहुंचाना, गलत तरीके से रोकना, जबरन वसूली और गैरकानूनी सभा के लिए एक एफआईआर दर्ज की है. मृतक के चचेरे भाई मंजूर पेमला (36) ने आरोप लगाया, “उन्होंने उन दोनों को गाड़ी से बाहर खींच लिया और गोहत्या का आरोप लगाकर उन्हें पीटना शुरू कर दिया. हालांकि शेरू और मोहसिन ने समझाया कि बैल को मेले से कानूनी रूप से खरीदा गया था, लेकिन भीड़ ने उनकी बात सुनने से इनकार कर दिया.” इस बीच, पुलिस ने कथित गो तस्करी का एक अलग मामला भी दर्ज किया है.
बुलेट ट्रेन याद है? न सिर्फ सालों देर से चल रही है, बल्कि चलेगी भी तो 50 किमी ही!
पहली बार 2014 में मोदी के गुजरात को उपहार के रूप में इस पर विचार किया गया था. बुलेट ट्रेन हाई-स्पीड लाइन का आधिकारिक शिलान्यास सितंबर 2017 में किया गया था, उस समय सरकार और परियोजना भागीदारों ने घोषणा की थी कि पहला खंड “2022 तक पूरा होने की उम्मीद है”, यहाँ तक कि शुरुआती योजनाओं का लक्ष्य भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस को चिह्नित करने के लिए 15 अगस्त 2022 को परिचालन शुरू करना था. अब हमें बताया जा रहा है कि बुलेट ट्रेन केवल 2027 तक चालू होगी, वह भी सिर्फ 50 किलोमीटर के हिस्से पर. इसके मुंबई पहुंचने का सबसे पहला अनुमान 2029 है.
भारत की पहली बुलेट ट्रेन दिसंबर 2027 तक मुंबई-अहमदाबाद हाई-स्पीड रेल कॉरिडोर के शुरुआती 50 किलोमीटर के हिस्से पर परिचालन शुरू कर देगी. यह घोषणा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने शनिवार को मुंबई में एक टनल सफल होने के मौके पर की. शुरुआती परिचालन खंड सूरत और बिलिमोरा के बीच होगा.
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, रेल मंत्री वैष्णव ने बताया कि इस लाइन का विस्तार 2028 तक थाणे और 2029 तक मुंबई के बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स (बीकेसी) तक होने की उम्मीद है. बुलेट ट्रेनें शुरुआत में 30 मिनट के अंतराल पर चलेंगी और एक बार परिचालन ढांचा स्थापित हो जाने के बाद, आवृत्ति को हर 20 मिनट तक बढ़ा दिया जाएगा. वैष्णव ने कहा, “आवश्यक बुनियादी ढांचा तैयार होने के बाद, बुलेट ट्रेनें हर 10 मिनट में चलेंगी. इससे मुंबई-अहमदाबाद मार्ग को 2 घंटे और 7 मिनट में तय करने की उम्मीद है”. उन्होंने यह भी कहा कि बुलेट ट्रेन का किराया हर किसी के लिए किफायती होगा.
परियोजना की प्रगति पर अपडेट साझा करते हुए, वैष्णव ने कहा कि 320 किलोमीटर से अधिक के वायाडक्ट का निर्माण पूरा हो चुका है, और शेष हिस्सों पर काम तेजी से आगे बढ़ रहा है. उन्होंने कहा, “जापान में पहली बुलेट ट्रेन शुरू होने के बाद ओसाका और टोक्यो के बीच के क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा बदलाव आया, और इसी तरह का आर्थिक विकास मुंबई-अहमदाबाद मार्ग पर भी देखा जाएगा”. उन्होंने दावा किया कि यह परियोजना आणंद, अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत, वापी और मुंबई को एक ही आर्थिक गलियारे में एकजुट करेगी, जिससे एक एकीकृत बाजार बनेगा और इस गलियारे के साथ औद्योगिक विकास में तेजी आएगी.
एनडीटीवी की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार, तत्कालीन रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने संसद में नई सरकार का पहला रेल बजट पेश करते हुए कहा था, “यह हर भारतीय की इच्छा और सपना है कि भारत जल्द से जल्द बुलेट ट्रेन चलाए. भारतीय रेलवे अपने लंबे समय से संजोए सपने को पूरा करने की राह पर है. मैं अहमदाबाद-मुंबई सेक्टर पर बुलेट ट्रेन का प्रस्ताव करता हूं”. उन्होंने स्वीकार किया कि इस सपने की लागत प्रति ट्रेन 60,000 करोड़ रुपये है.उस समय, दोनों शहरों के बीच सबसे तेज़ ट्रेन शताब्दी एक्सप्रेस थी, जिसमें लगभग सात घंटे लगते थे. हाई-स्पीड ट्रेनों के 320 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम गति से चलने की उम्मीद है.
मौजूदा परियोजना के तहत, लोको पायलट और रखरखाव कर्मचारियों को वर्तमान में जापान में व्यापक प्रशिक्षण दिया जा रहा है. वैष्णव ने मीडिया को बताया, “लोको पायलटों को सुरक्षा और दक्षता के उच्चतम मानकों को बनाए रखने के लिए उन्नत सिमुलेटर पर प्रशिक्षित किया जा रहा है”. परियोजना की तकनीकी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए, मंत्री ने कहा कि दो बुलेट ट्रेनों को समायोजित करने के लिए सिंगल टनल तकनीक का उपयोग और वायाडक्ट निर्माण में 40-मीटर गर्डर्स की तैनाती महत्वपूर्ण तकनीकी उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करती है. भारत में जापान की अगली पीढ़ी की बुलेट ट्रेन, कम से कम 10 E10 शिंकानसेन ट्रेनों को पेश करने के लिए पहले ही चर्चा हो चुकी है.
परियोजना की मुख्य बातें:
मुंबई और अहमदाबाद के बीच 508 किलोमीटर का बुलेट ट्रेन कॉरिडोर.
कुल 12 स्टेशन होंगे.
ट्रेन की गति 320 किमी/घंटा होगी, और कुल दूरी 2 घंटे 7 मिनट में तय की जाएगी.
पीक आवर्स के दौरान ट्रेनें हर 30 मिनट में और बाद में हर 20 मिनट में चलेंगी.
7 किलोमीटर लंबी समुद्री सुरंग का निर्माण किया जा रहा है.
ट्रम्प टैरिफ़ का साया ग्रामीण आय पर, नाबार्ड सर्वेक्षण में दिखी चिंता
भारत के ग्रामीण परिवार, जो आय की संभावनाओं को लेकर आशावादी दिख रहे थे, अब वैश्विक व्यापार में व्यवधान महसूस करने लगे हैं. नाबार्ड द्वारा किए गए एक नए सर्वेक्षण से पता चलता है कि ट्रम्प द्वारा लगाए गए भारी टैरिफ़ भारत भर के गांवों में आय की उम्मीदों को कम कर रहे हैं. सिर्फ़ दो महीने पहले, लगभग तीन-चौथाई ग्रामीण परिवारों को कमाई में वृद्धि का भरोसा था. हालाँकि, ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि यह विश्वास कमज़ोर हो गया है क्योंकि टैरिफ़-संबंधी जोखिम निर्यात और ग्रामीण-संबद्ध क्षेत्रों के लिए ख़तरा बन गए हैं. देश के 600 गांवों में किए गए सर्वेक्षण में कहा गया है, “अगले एक साल की आय की संभावनाओं के लिए, कम प्रतिशत परिवारों ने आय में वृद्धि की उम्मीद जताई है.”
यह सर्वेक्षण नेशनल बैंक फ़ॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) द्वारा सितंबर 2025 के लिए किया गया द्वि-मासिक ग्रामीण आर्थिक स्थिति और भावना सर्वेक्षण है. यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे कृषि और गैर-कृषि निर्यात के लिए टैरिफ़-संबंधी जोखिमों ने ग्रामीण आय और रोज़गार पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण ग्रामीण परिवारों के बीच विश्वास को कम कर दिया है.
जुलाई में, लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को अगले 12 महीनों में उच्च आय की उम्मीद थी. सितंबर में यह आंकड़ा घटकर 72.8 प्रतिशत पर आ गया है. अल्पावधि आशावाद में भी गिरावट आई, 51.6 प्रतिशत परिवारों ने अगली तिमाही में सुधार की उम्मीद की, जो जुलाई में 56.4 प्रतिशत थी.
नाबार्ड सर्वेक्षण का सातवां दौर भी पहले की तरह भारत भर के 600 गांवों में आयोजित किया गया था. यह नवीनतम सर्वेक्षण ट्रम्प द्वारा भारतीय सामानों पर 50 प्रतिशत टैरिफ़ लगाने की पृष्ठभूमि में आया है - जो विश्व स्तर पर सबसे ज़्यादा है - और यह अमेरिका में भारत के 55 प्रतिशत शिपमेंट को प्रभावित करने के लिए तैयार है. इन शुल्कों में समुद्री भोजन सहित मजबूत ग्रामीण संबंधों वाले क्षेत्र शामिल हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, सर्वेक्षण का अधिकांश हिस्सा जीएसटी सुधारों को लागू करने से पहले पूरा हो गया था, जिसका अर्थ है कि अपेक्षाओं पर उनका संभावित सकारात्मक प्रभाव परिणामों में परिलक्षित नहीं होता है.
सर्वेक्षण के निष्कर्ष उधार लेने के व्यवहार में बदलाव को भी रेखांकित करते हैं. वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए निरंतर नीतिगत प्रयासों के कारण, 54.5 प्रतिशत परिवारों ने केवल ऋण के औपचारिक स्रोतों पर निर्भर रहने की सूचना दी - सर्वेक्षण शुरू होने के बाद से यह सबसे अधिक है. फिर भी, पांचवां हिस्सा अभी भी विशेष रूप से अनौपचारिक चैनलों से उधार लेना जारी रखता है, जिसमें आधे से अधिक उधार दोस्तों और रिश्तेदारों से होता है.
अनौपचारिक ऋण की लागत अभी भी ऊंची बनी हुई है. औसत ब्याज दर लगभग 17-18 प्रतिशत के आसपास रही, जबकि माध्यिका 12 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रही. लगभग 30 प्रतिशत परिवारों - संभवतः परिवार और दोस्तों से उधार लेने वालों - ने कोई ब्याज नहीं चुकाया, जबकि एक तिहाई को 20 प्रतिशत से अधिक की दरों का सामना करना पड़ा.
जिन परिवारों ने पिछले एक साल में आय में वृद्धि की सूचना दी, उनकी औसत आय में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो सर्वेक्षण के पिछले दौर में बताई गई दर से अधिक है. इस बीच, मुद्रास्फीति की उम्मीदें और कम हुईं. सितंबर में मुद्रास्फीति की औसत अनुमानित दर घटकर 4.09 प्रतिशत हो गई, जबकि माध्यिका 3 प्रतिशत पर बनी रही. नवंबर 2024 से, औसत मुद्रास्फीति की धारणा में लगभग 150 आधार अंकों की गिरावट आई है.
सर्वेक्षण यह भी बताता है कि ग्रामीण सड़कें ग्रामीण विकास के शीर्ष क्रम के क्षेत्र के रूप में उभरी हैं, जिसमें 45.3 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने बेहतर होती स्थितियों पर संतोष व्यक्त किया है, इसके बाद शिक्षा (12.0 प्रतिशत) और बिजली (8.7 प्रतिशत) का स्थान है.
हिंदू काउंसिल ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया पर इस्लामोफ़ोबिया का आरोप, शिकायत दर्ज
ऑस्ट्रेलियाई मानवाधिकार आयोग में दायर एक शिकायत में हिंदू काउंसिल ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया पर इस्लामोफ़ोबिया के बार-बार उदाहरणों और नस्लीय भेदभाव अधिनियम की धारा 18C का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया है, जिसके बाद आयोग ने आरोपों की जांच शुरू कर दी है.‘अलायंस अगेंस्ट इस्लामोफ़ोबिया’ द्वारा दायर शिकायत में कहा गया है कि मई 2024 और जुलाई 2025 के बीच, काउंसिल, इसके अध्यक्ष साई परावस्तु और मीडिया प्रमुख नीलिमा परावस्तु ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) और इंस्टाग्राम पर दक्षिण एशियाई मुसलमानों - भारतीय, बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों - के ख़िलाफ़ नस्लीय घृणा के गंभीर और बार-बार सार्वजनिक कृत्य किए और सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कीं.
शिकायत में आरोप लगाया गया है कि कई पोस्ट का आशय यह था कि मुसलमान “स्वाभाविक रूप से अपराधी, ख़तरनाक, हिंसक या दुष्ट” थे, “बच्चों, वृद्धों और कमज़ोर लोगों का शिकार करते हैं” और “एक शक्तिशाली ख़तरे के रूप में सामने आते हैं”. शिकायत में सोशल मीडिया पोस्ट की प्रतियां भी शामिल हैं, जिसमें चार्ली किर्क और ब्रिटेन के धुर-दक्षिणपंथी व्यक्ति टॉमी रॉबिन्सन के पोस्ट साझा करना शामिल था. शिकायत में उद्धृत अन्य पोस्टों में विशेष रूप से भारतीय, बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों पर आक्षेप लगाया गया है.
‘द गार्डियन ऑस्ट्रेलिया’ द्वारा देखी गई ‘अलायंस अगेंस्ट इस्लामोफ़ोबिया’ की शिकायत में सोशल मीडिया पोस्ट की प्रतियां हैं. आयोग उन शिकायतों पर टिप्पणी नहीं कर सकता जिनकी वह जांच कर रहा है, लेकिन माना जा रहा है कि उसने 16 सितंबर को इस मामले को स्वीकार कर लिया है. टिप्पणी के लिए परिषद और परावस्तु दंपति से संपर्क किया गया था.
शिकायत में एक औपचारिक सार्वजनिक माफ़ी, सभी प्लेटफ़ॉर्म से कथित रूप से आपत्तिजनक सामग्री को तत्काल हटाने, आगे किसी भी तरह के अपमानजनक आचरण को रोकने के लिए एक प्रवर्तनीय उपक्रम और “हुए नुक़सान और परेशानी के लिए मुआवज़े” की मांग की गई है.
शिकायत में रॉबिन्सन के एक एक्स पोस्ट की एक प्रति शामिल है, जिसे नीलिमा परावस्तु द्वारा रीपोस्ट किया गया था, जिसमें लिखा था: “मैं कई सालों से अमेरिका को इस्लाम द्वारा लाई गई समस्याओं के बारे में चेतावनी देता रहा हूं, उम्मीद है कि वे हमारी तरह अंधे नहीं होंगे जैसे हम यूरोप में थे.” इन प्रकाशनों में बुर्का और न्यूयॉर्क के मेयर पद के उम्मीदवार ज़ोहरान ममदानी की आलोचना करने वाले पोस्ट भी शामिल हैं.
लेकिन ज़्यादातर शिकायत उन पोस्टों पर केंद्रित है, जिनमें दक्षिण एशियाई पृष्ठभूमि के मुसलमानों पर आक्षेप लगाया गया है, और इसमें हिंदी में कई पोस्ट शामिल हैं. इसमें कई समाचार लेखों की प्रतियां भी शामिल थीं, जिनमें साई परावस्तु द्वारा स्कूलों में मुस्लिम प्रार्थना कक्षों को हटाने की कथित टिप्पणी का उल्लेख किया गया था. शिकायत में नस्लीय भेदभाव अधिनियम की धारा 18C के उल्लंघन और ऑस्ट्रेलियाई मानवाधिकार आयोग अधिनियम के अर्थ में गैर-क़ानूनी भेदभाव का आरोप लगाया गया है. धारा 18C ऐसे कृत्यों को गैर-क़ानूनी बनाती है जो किसी व्यक्ति को उनकी जाति या जातीयता के कारण नाराज़ करने, अपमानित करने, नीचा दिखाने या धमकाने की संभावना रखते हैं.
असम : यदि वे घुसपैठिया हैं, तो सरकारी दस्तावेज़ उन्हें क्यों मिले?
4 साल पहले असम में हुए हिंसक बेदखली अभियान ने उन्हें खेती से दूर कर दिया था. अब प्रधानमंत्री उन्हें ‘घुसपैठिया’ कह रहे हैं.
14 सितंबर को, असम की यात्रा के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्होंने “घुसपैठियों से लाखों बीघा ज़मीन” मुक्त कराई है. उन्होंने विशेष रूप से दरांग जिले के गरुखुटी का उल्लेख किया. सितंबर 2021 में, भाजपा की सरकार ने इस क्षेत्र में लगभग 2,000 बंगाली मूल के मुस्लिम परिवारों के घरों को यह आरोप लगाकर गिरा दिया था कि उन्होंने सरकारी ज़मीन पर कब्जा कर रखा था. उन्हें जैविक खेती के एक कार्यक्रम की खातिर जगह बनाने के लिए बेदखल किया गया था, जिसका उद्देश्य केवल उन लोगों के लिए रोज़गार पैदा करना था, जिन्हें असम का “मूल निवासी” माना जाता है. यह असम में सबसे हिंसक बेदखली अभियानों में से एक साबित हुआ, जहां विरोध होने पर पुलिस ने गोली चला दी. इसमें दो लोग मारे गए, जिनमें एक 12 साल का लड़का भी शामिल था.
गरुखुटी ने हिमंत बिस्वा सरमा सरकार के तहत राज्य में बेदखली अभियानों के लिए एक मिसाल कायम की, जिनमें अक्सर पुलिस की ज्यादतियां देखने को मिली हैं. राज्य में भाजपा के पिछले नौ वर्षों के शासन में, राज्य राजस्व और आपदा प्रबंधन विभाग तथा जिला अधिकारियों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, लगभग 17,600 परिवारों को सरकारी ज़मीन से बेदखल किया गया है, जिनमें से अधिकांश बंगाली मूल के मुसलमान हैं. बेदखली के दौरान कम से कम आठ मुसलमानों की गोली मारकर हत्या कर दी गई है.
“स्क्रॉल” के लिए रोकिबुज़ ज़मान की लंबी रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन लोगों को अपनी ज़मीन और रोज़गार से हाथ धोना पड़ा, आज प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें ‘घुसपैठिया’ कहा जा रहा है. ये समुदाय दशकों से इस भूमि पर रह रहे थे, और अधिकतर लोग विस्थापन, बाढ़ व नदी कटाव का शिकार होकर यहां आए थे. बेदखली के बाद बड़ी संख्या में पुरुष अपना पेट पालने के लिए असम छोड़ अन्य राज्यों में चले गए हैं, जबकि महिलाएं और बच्चे अस्थायी टेंटों में रह रहे हैं.
राज्य सरकार का कहना है कि ये लोग ‘अवैध प्रवासी’ हैं, जबकि स्थानीय निवासी अपना नागरिकता प्रमाणपत्र, आधार कार्ड और मतदाता पहचानपत्र होने का दावा करते हैं. बेदखली के बाद प्रभावित लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने की भी घोषणा हुई है. आलोचकों का मानना है कि इस पूरी प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य एक विशेष समुदाय (मुसलमानों) को निशाना बनाना है.
जो लोग उजाड़े गए हैं, वे अपने बच्चों के भविष्य और स्थायी पुनर्वास की मांग कर रहे हैं. उनके पास पर्याप्त रोजगार या ज़मीन नहीं है, और सरकार द्वारा दी जाने वाली राहत अपर्याप्त है. स्थानीय लोग पूछ रहे हैं कि यदि वे सच में घुसपैठिया हैं, तो सरकारी दस्तावेज़ उन्हें क्यों मिले?
बहरहाल, असम में बेदखली अभियान और ‘घुसपैठिया’ कहा जाना, स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लिए न सिर्फ आजीविका, बल्कि पहचान और अस्तित्व का भी संकट बन गया है. बेदखली और उसके बाद की घटनाओं ने इन लोगों को गरीबी और अनिश्चितता के दलदल में धकेल दिया है. इस पूरी प्रक्रिया का राज्य की सामाजिक और राजनीतिक संरचना पर गहरा असर पड़ रहा है.
ईडी की आलोचना बढ़ी, सुप्रीम कोर्ट अपनी व्यापक शक्तियों पर पुनर्विचार कर रहा है
18 अगस्त 2025 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के साथ तमिलनाडु सरकार के गतिरोध पर सुनवाई के दौरान तनाव बढ़ गया. यह गतिरोध राज्य में शराब बिक्री की जांच से संबंधित था. अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू ने पीठ, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजोरिया कर रहे थे, से एक असामान्य अनुरोध किया. आर्टिकल 14 मे सौरभ दास का लंबा रिपोर्ताज प्रकाशित हुआ है.
राजू ने चेतावनी दी कि ईडी की आलोचना “मीडिया से आगे बढ़कर न्यायपालिका को भी प्रभावित कर रही है.” सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उनका समर्थन करते हुए कहा कि ऐसी आलोचना “विशेषकर निचली अदालतों” को प्रभावित कर रही है. उनके ये बयान मुख्य न्यायाधीश गवई की 22 मई 2025 की टिप्पणियों के संदर्भ में थे, जब उन्होंने उसी मामले में कहा था कि “ईडी सभी हदें पार कर रहा है.” यह मामला तमिलनाडु की ईडी द्वारा राज्य संचालित शराब खुदरा विक्रेता, तमिलनाडु राज्य विपणन निगम (TASMAC) पर छापे और जांच के ख़िलाफ़ अपील से संबंधित है. ईडी ने 1,000 करोड़ रुपये से अधिक के नुकसान का आरोप लगाया है, जिसमें अधिक मूल्य निर्धारण, टेंडर हेरफेर और रिश्वतखोरी शामिल है.
मुख्य न्यायाधीश गवई ने जांच पर रोक लगाते हुए पूछा था, “एक [राज्य] निगम अपराध कैसे कर सकता है? ईडी सभी हदें पार कर रहा है... आप देश की संघीय संरचना का पूरी तरह से उल्लंघन कर रहे हैं.” 18 अगस्त की सुनवाई के दौरान, केंद्र सरकार के शीर्ष विधि अधिकारियों ने अदालत से ईडी के आचरण की अपनी आलोचना को कम करने का आग्रह किया. मुख्य न्यायाधीश ने जवाब दिया, “बेशक, हम किसी के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं रखते... हम केवल तथ्यों पर हैं.”
राजू और मेहता की याचिका अकेली नहीं थी - यह ईडी के तौर-तरीकों पर ट्रायल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बढ़ती न्यायिक चिंता के बीच आई थी. पिछले तीन वर्षों में, कम से कम एक दर्जन आदेशों - और कई और मौखिक टिप्पणियों - में न्यायाधीशों ने ईडी के “अत्यधिक हस्तक्षेप” की कड़ी आलोचना की है. 2021 से अब तक के 20 धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए, 2002) मामलों के आर्टिकल 14 के विश्लेषण से एक पैटर्न का पता चलता है: अवैध गिरफ्तारी और “अमानवीय” पूछताछ से लेकर प्रक्रियात्मक चालबाज़ी तक. अदालतों द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा असामान्य रूप से सीधी रही है: न्यायाधीशों ने ईडी को “प्रतिशोधी,” “द्वेषपूर्ण,” “दमनकारी” कहा है, कहा है कि यह “सुपर कॉप नहीं है,” और यहां तक कि चेतावनी दी है कि यह “ठग की तरह काम नहीं कर सकता.”
ये न्यायिक आलोचनाएं पीएमएलए के तहत निगरानी और जवाबदेही में कमियों पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जो धन शोधन की जांच करने, संपत्तियों का पता लगाने, अवैध धन से प्राप्त संपत्तियों को ज़ब्त करने और अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए ईडी को शक्ति प्रदान करने वाला मुख्य कानून है. आर्टिकल 14 द्वारा परामर्श किए गए कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि ईडी का आचरण कभी-कभी कानूनी सीमाओं का उल्लंघन करता है, प्रक्रियात्मक ग्रे क्षेत्रों का शोषण करता है जो शायद जांच में नहीं टिकेंगे. वरिष्ठ अधिवक्ता देवादात्त कामत ने टिप्पणी की: “एक अभियोजन एजेंसी के रूप में, ईडी को कानूनी रूप से तटस्थ और निष्पक्ष रूप से कार्य करने की आवश्यकता है, हालांकि ऐसा हमेशा नहीं होता है. एजेंसी ने अक्सर अपनी शक्तियों के दायरे से बाहर काम किया है.”
अदालतों ने भी कभी-कभी एजेंसी की शक्तियों को सीमित करने के लिए हस्तक्षेप किया है, हालांकि कुछ आलोचकों का तर्क है कि उच्च न्यायपालिका हमेशा पर्याप्त दूर नहीं गई है. अदालतें ईडी पर “मनमानी” कार्रवाइयों के लिए बार-बार आलोचना करती रही हैं जो बुनियादी मानवाधिकारों और गरिमा का उल्लंघन करती हैं. यहां तक कि नींद का अधिकार और जबरदस्ती से मुक्ति जैसी मौलिक स्वतंत्रताएं भी अक्सर ईडी द्वारा खारिज़ की गई हैं. 2 जनवरी 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व हरियाणा कांग्रेस विधायक सुरेंद्र पंवार के प्रति “अमानवीय” आचरण के लिए ईडी को फटकार लगाई, जिन्हें एक अवैध खनन और धन शोधन जांच में 15 घंटे की रात भर की पूछताछ का सामना करना पड़ा था. पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 29 सितंबर 2024 के एक आदेश में पंवार की गिरफ्तारी को अवैध घोषित किया था और रात भर की पूछताछ को “मानव की गरिमा के ख़िलाफ़” बताया था, जिसमें ईडी को अधिकारियों को “संवेदनशील” बनाने और “बुनियादी मानवाधिकारों के अनुसार निष्पक्ष जांच... सुनिश्चित करने” का निर्देश दिया था.
उस फैसले को बरकरार रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने 2 जनवरी 2025 को अपनी निराशा व्यक्त की. न्यायमूर्ति ओका ने अदालत में कहा, “लोगों के साथ व्यवहार करने का यह तरीका नहीं है. आपने वस्तुतः एक व्यक्ति को बयान देने के लिए मजबूर किया है... चौंकाने वाली स्थिति.” एक अन्य मामले में, बॉम्बे हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने 15 अप्रैल 2024 को ईडी को एक आरोपी के नींद के अधिकार - एक “बुनियादी मानवीय आवश्यकता” - का उल्लंघन करने के लिए फटकार लगाई. अदालतों ने एजेंसी को व्यक्तियों के बुनियादी अधिकारों के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए नए दिशानिर्देश जारी करने का निर्देश दिया.
पीएमएलए के तहत मौजूदा जमानत प्रावधान, जिसके लिए न्यायाधीशों को जमानत के प्रयोजनों के लिए दोषारोपण मान लेना चाहिए, के परिणामस्वरूप ईडी को “राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है.” सुप्रीम कोर्ट के वकील निपुण सक्सेना ने कहा कि “ईडी द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का एक सुसंगत पैटर्न है... प्रक्रिया ही सज़ा है,” जैसा कि उन्होंने संसद में 10 दिसंबर 2024 के एक संघ सरकार के जवाब का हवाला दिया, जिसमें जनवरी 2019 और अक्टूबर 2024 के बीच ईडी मामलों में 6.4% की दोषसिद्धि दर का खुलासा किया गया था. ईडी ने दावा किया कि उसकी दोषसिद्धि दर “94% से अधिक” थी, इस दावे को विशेष पीएमएलए न्यायालयों द्वारा तय किए गए 53 मामलों में 50 दोषसिद्धियों पर आधारित किया. एजेंसी के अनुसार, यह दर “भारत में और विश्व स्तर पर सभी एजेंसियों में सबसे अधिक” थी.
सक्सेना ने 2018 के पीएमएलए में संसदीय संशोधन पर इस हथियार के इस्तेमाल का आरोप लगाया. सक्सेना ने कहा, “धारा 45 के तहत जमानत के लिए draconian दोहरी शर्तें, जिन्हें पहले सुप्रीम कोर्ट ने निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ में समानता, जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन करने के लिए रद्द कर दिया था, वित्त अधिनियम 2018 संशोधन के माध्यम से फिर से पेश किया गया था.” “यह दर्शाता है कि कानून को ईडी को अपनी इच्छानुसार करने के लिए अधिक स्वतंत्रता देने के लिए हथियारबंद किया गया है.” हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि इन “कठोर” जमानत प्रावधानों के साथ-साथ, एजेंसी आरोपी व्यक्ति की कैद को लंबा करने के लिए प्रक्रियात्मक चालों का उपयोग करती है - कभी-कभी अदालतों को भी चौंकाती है.
उदाहरण के लिए, मई 2025 में, पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (2019-2023) के तहत कथित 3,200 करोड़ रुपये के छत्तीसगढ़ शराब घोटाले में ईडी की जांच से संबंधित एक जमानत सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति ओका और भुयान ने ईडी मामलों में एक लगातार “पैटर्न” पर टिप्पणी की. न्यायमूर्ति ओका ने टिप्पणी की, “आप बिना किसी सबूत के सिर्फ़ आरोप लगाते हैं.” पीठ ने नोट किया कि ईडी ने तीन भारी भरकम आरोप पत्र दायर किए थे, लेकिन फिर भी उसने दावा किया कि जांच “अधूरी” बनी हुई है - प्रभावी रूप से आरोपी को अनिश्चित काल के लिए जेल में रखा गया है. न्यायाधीशों ने कहा, “जांच अपनी गति से चलेगी. यह अनंत काल तक चलेगी... आपने प्रक्रिया को ही सज़ा बना दिया है.”
एक अन्य सुप्रीम कोर्ट पीठ ने ईडी से “पारदर्शी, ऊपर-बोर्ड” तरीके से और “प्रतिशोधी नहीं” कार्य करने का आग्रह किया, “निष्पक्ष खेल के प्राचीन मानकों” की आवश्यकता को बरकरार रखते हुए. हाल के महीनों में, मुख्य न्यायाधीश गवई ने बार-बार ईडी को राजनीतिक उपकरण बनने के प्रति आगाह किया है. उन्होंने ईडी के वकील से टिप्पणी की, “मिस्टर राजू, कृपया हमें अपना मुँह खोलने के लिए न कहें... राजनीतिक लड़ाइयाँ मतदाताओं के सामने लड़ी जाएं. आपको क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है...”
यह पैटर्न इतना स्पष्ट है कि न्यायमूर्ति कांत के नेतृत्व वाली एक पीठ ने वास्तविक भ्रष्टाचार के मामलों को राजनीतिक प्रेरणा वाले मामलों से अलग करने के लिए “प्रतिशोध का पता लगाने” की व्यवस्था की भी मांग की. हालांकि सॉलिसिटर जनरल मेहता ने 21 जुलाई 2024 की सुनवाई में कहा था कि “एक संस्था [ईडी] के ख़िलाफ़ एक आख्यान बनाने का एक ठोस प्रयास है,” एजेंसी के अपने अधिकारियों ने, कभी-कभी ऐसी धारणाओं को बढ़ावा दिया है.
लंदन के मेयर सादिक खान ने ट्रम्प को ‘नस्लवादी, सेक्सिस्ट, इस्लामोफोबिक’ बताया
खान, जो पिछले हफ्ते राष्ट्रपति के यूके राजकीय दौरे के दौरान भी ट्रम्प के हमलों के शिकार हुए थे, न्यूयॉर्क में मंगलवार को UNGA के भाषण पर प्रतिक्रिया दे रहे थे, जब ट्रम्प ने लंदन को एक “भयानक, भयानक मेयर” वाला शहर बताया जो “शरिया कानून” की ओर बढ़ रहा था.
लंदन बस दौरे के दौरान पूछे जाने पर खान ने पत्रकारों से कहा, “मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने दिखाया है कि वह नस्लवादी हैं, वह सेक्सिस्ट हैं, वह misogynistic हैं, और वह इस्लामोफोबिक हैं.”
उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि लोग सोच रहे हैं कि इस मुस्लिम मेयर के बारे में क्या है जो एक उदार, बहुसांस्कृतिक, प्रगतिशील, सफल शहर का नेतृत्व करता है, जिसका मतलब है कि मैं डोनाल्ड ट्रम्प के दिमाग में मुफ्त में रहता हूँ.”
उन्होंने आगे कहा, “मैं बस शुक्रगुजार हूँ कि हमारे पास रिकॉर्ड संख्या में अमेरिकी लंदन आ रहे हैं, जब से रिकॉर्ड शुरू हुए हैं. ऐसा कोई दौर नहीं रहा जब इतने अमेरिकी लंदन आए हों. इसका कोई कारण ज़रूर होगा.”
अपने शासित शहर के संदर्भ में, मेयर ने दोहराया कि लंदन “दुनिया का सबसे महान शहर है और यह लंबे समय तक बना रहे.”
ट्रम्प का खान के साथ नवीनतम टकराव यूके से वाशिंगटन वापस जाते समय एयर फ़ोर्स वन में की गई टिप्पणियों के बाद हुआ, जो किंग चार्ल्स III द्वारा आयोजित राजकीय दौरे के समापन पर था.
अमेरिकी राष्ट्रपति ने पत्रकारों से कहा, “मैं उन्हें वहाँ नहीं चाहता था. मैंने कहा था कि वह वहाँ न हों. मुझे लगता है कि लंदन के मेयर, खान, दुनिया के सबसे खराब मेयरों में से हैं और हमारे पास कुछ खराब हैं. मुझे लगता है कि उन्होंने बहुत बुरा काम किया है,” खान की विंडसर कैसल में राजकीय भोज में अनुपस्थिति के संदर्भ में.
यह खान द्वारा ट्रम्प पर राजकीय दौरे से पहले “विभाजनकारी, धुर-दक्षिणपंथी राजनीति” को बढ़ावा देने का आरोप लगाने के बाद आया है.
उनकी सार्वजनिक बहस कुछ साल पहले से चली आ रही है, जब जून 2017 में लंदन ब्रिज पर आतंकवादी हमला हुआ था.
तुर्की ने एक कॉमेडियन, रैपर को इस्लाम के लिए ‘अपमानजनक’ चुटकुले पर जेल भेजा
अंकारा, 24 सितंबर (रॉयटर्स) - तुर्की ने मंगलवार देर रात दो पुरुषों को मुकदमे की प्रतीक्षा में जेल भेज दिया, जब अभियोजकों ने कहा कि उनके ऑनलाइन शो में पैगंबर मुहम्मद के एक हदीस या उपदेश का जिक्र करते हुए एक चुटकुला शामिल था, जिसके बारे में उनका आरोप है कि यह धार्मिक घृणा भड़का सकता है.
इस्तांबुल की एक अदालत ने यूट्यूबर बोगाच सोयदेमिर, कार्यक्रम “सोघुक सवास” के मेज़बान, और उनके मेहमान एनेस अकगुंडुज़, एक रैपर को हिरासत में लेने का आदेश दिया, जब अधिकारियों ने कहा कि शो में हदीस “शराब सभी बुराई की जननी है” के बारे में एक मज़ाक शामिल था.
अभियोजकों ने तर्क दिया कि इस टिप्पणी से धार्मिक आधार पर शत्रुता भड़कने का ख़तरा था. दोनों पुरुषों ने प्रसारण के बाद माफ़ी मांगी और मंगलवार को अदालत में पेश होने पर किसी भी ग़लत काम से इनकार किया. सोयदेमिर ने कहा कि उनका इरादा नफरत भड़काने का नहीं था, उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मुद्दे के बारे में सतर्क किए जाने के बाद उन्होंने वीडियो हटा दिया और अपने सोशल मीडिया खातों पर माफ़ी मांगी. उन्होंने कहा कि यह टिप्पणी एक दर्शक की टिप्पणी थी जिसे उन्होंने हवा में पढ़ा था, जिसे उन्होंने शब्दों का खेल मान लिया था.
अकगुंडुज़ ने भी जानबूझकर अपराध करने के किसी भी सुझाव को खारिज कर दिया और कहा कि उनकी बातचीत की गलत व्याख्या की गई थी. उन्होंने कहा कि यह चुटकुला एक दर्शक की टिप्पणी थी जिसे उन्होंने हवा में पढ़ा था, जिसे उन्होंने एक साधारण शब्दों का खेल मान लिया था, और स्वीकार किया कि उन्हें और अधिक ध्यान से सोचना चाहिए था. यह मामला व्यंग्यात्मक साप्ताहिक लेमन के चार कार्टूनिस्टों को जेल भेजने के बाद आया है, जिन्हें पैगंबर मुहम्मद और मूसा को चित्रित करने वाला माना गया था, जिसे राष्ट्रपति तय्यिप एर्दोआन ने “नीच उकसावा” बताया था.
एक और स्वामी जी! आश्रम में 17 छात्राओं से छेड़छाड़ का मामला दर्ज, फरार
दक्षिण-पश्चिम दिल्ली में एक आश्रम द्वारा चलाए जा रहे संस्थान के मैनेजर के खिलाफ 17 महिला छात्रों के साथ कथित तौर पर छेड़छाड़ करने का मामला दर्ज किया गया है. ये सभी छात्राएं आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) कोटे के तहत पढ़ रही हैं. आरोपी, चैतन्यानंद सरस्वती, फिलहाल फरार है और पुलिस उसे पकड़ने के लिए छापेमारी कर रही है. इस बीच, आश्रम ने एक बयान जारी कर कहा है कि उसने “आरोपी से सभी संबंध तोड़ दिए हैं”.
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस सूत्रों ने बताया कि चैतन्यानंद के खिलाफ पांच मामले दर्ज हैं. इनमें से एक मामला 2016 में इसी संस्थान की एक महिला द्वारा छेड़छाड़ के आरोप में दर्ज कराया गया था. एक अन्य मामला 2009 में डिफेंस कॉलोनी पुलिस स्टेशन में जालसाज़ी का दर्ज हुआ था.
पुलिस के एक अधिकारी के अनुसार, उत्पीड़न का यह मामला अगस्त में सामने आया, जब संस्थान के एक प्रशासक ने पुलिस से संपर्क किया. उस समय चैतन्यानंद लंदन में था. डीसीपी (दक्षिण-पश्चिम) अमित गोयल ने बताया, “4 अगस्त को स्वामी चैतन्यानंद सरस्वती उर्फ पार्थ सारथी के खिलाफ EWS स्कॉलरशिप के तहत उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही महिला छात्रों के यौन उत्पीड़न के संबंध में एक शिकायत मिली थी”.
शिकायत के आधार पर, पुलिस ने कई छात्राओं से पूछताछ की और पाया कि उनमें से लगभग 17 को नियमित रूप से आरोपी के हाथों यौन दुराचार का सामना करना पड़ा. डीसीपी गोयल ने कहा, “पूछताछ के दौरान 32 महिला छात्राओं के बयान दर्ज किए गए, जिनमें से 17 ने आरोपी द्वारा अपमानजनक भाषा, अश्लील व्हाट्सएप/एसएमएस संदेश और अवांछित शारीरिक संपर्क का आरोप लगाया. पीड़ितों ने यह भी आरोप लगाया कि फैकल्टी और प्रशासक के रूप में काम करने वाली महिलाओं ने उन्हें चैतन्यानंद की मांगों को मानने के लिए उकसाया और दबाव डाला”.
पुलिस ने आरोपी के खिलाफ बीएनएस (भारतीय न्याय संहिता) की धाराओं के तहत मामला दर्ज कर तलाशी अभियान शुरू कर दिया है. जांच के दौरान पुलिस ने यह भी पाया कि चैतन्यानंद कथित तौर पर ‘39 UN 1’ नंबर वाली एक लाल वॉल्वो कार का इस्तेमाल कर रहा था, जो कि संयुक्त राष्ट्र (UN) की एक फ़र्ज़ी ‘डिप्लोमैटिक’ नंबर प्लेट है. यह कार संस्थान के बेसमेंट में खड़ी मिली. इस मामले में पुलिस ने जालसाज़ी और धोखाधड़ी की धाराओं के तहत 25 अगस्त को एक और मामला दर्ज किया. पुलिस अधिकारी ने बताया कि चैतन्यानंद का आखिरी लोकेशन आगरा में था, लेकिन दिल्ली और उत्तर प्रदेश में कई छापों के बावजूद उसकी गिरफ्तारी नहीं हो सकी है.
दिल्ली हाईकोर्ट ने तिहाड़ जेल से मकबूल भट और अफ़ज़ल गुरु की कब्रें हटाने की याचिका खारिज की
दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को एक हिंदू दक्षिणपंथी संगठन द्वारा दायर उस जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया, जिसमें तिहाड़ सेंट्रल जेल से मोहम्मद मकबूल भट और मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु की कब्रों को हटाने की मांग की गई थी. मक़तूब मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, “विश्व वैदिक सनातन संघ” नामक संगठन द्वारा दायर याचिका में दावा किया गया था कि तिहाड़ जेल के अंदर इन कब्रों की मौजूदगी “अवैध, असंवैधानिक और जनहित के खिलाफ” है.
मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडा की खंडपीठ ने कहा, “जेल एक सार्वजनिक स्थान नहीं है. जेल राज्य के स्वामित्व वाली जगह है, जिसे एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए स्थापित किया गया है. किसी कब्र के अपराध का कारण बनने का सवाल कहां है?”.
अफ़ज़ल गुरु को दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले की साज़िश के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद मौत की सज़ा सुनाई गई थी. वहीं, कश्मीरी अलगाववादी मकबूल भट को 11 फरवरी, 1984 को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी.
विश्लेषण | प्रेमपाल शर्मा
उच्च शिक्षा के लक्षण देश में ख़राब होते जा रहे हैं
दिल्ली विश्वविद्यालय के 30 मशहूर कॉलेजों में साढ़े सात हज़ार सीटें अभी भी ख़ाली हैं. जहाँ नियमित पढ़ाई की शुरुआत कभी जुलाई के मध्य से हो जाती थी, सितंबर के अंत तक भी दाख़िला चल रहा है. पिछले वर्ष भी प्रवेश प्रक्रिया में गड़बड़ के नाते दाख़िले अक्टूबर में ख़त्म हुए थे. बच्चों को पढ़ने के लिए समय कब मिलेगा? अक्टूबर का महीना दशहरा, दिवाली, छठ में जाएगा और दिसंबर के अंत में क्रिसमस और नए साल की छुट्टियाँ!
नई प्रवेश प्रणाली में और भी कई ख़ामियाँ 4 साल में उजागर हुई हैं. सबसे पहले प्रवेश परीक्षा में ही बार-बार गड़बड़ियाँ सामने आ रही हैं. इसी से जूझते हुए फ़िलहाल यह फ़ैसला लिया गया है कि प्रवेश परीक्षा के अंकों के बजाय उनके 12वीं के अंकों पर दाख़िला दे दिया जाए, जैसे पिछले कई दशकों से हो रहा था. 4 साल पहले शुरू की गई इस कॉमन प्रवेश परीक्षा का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव तो गाँव के ग़रीब बच्चों पर पड़ा है. वे ऑनलाइन परीक्षा कंप्यूटर पर देने के उतने अभ्यस्त नहीं होते. दूसरे, उन्हें जो विषय पढ़ाए गए हैं, परीक्षा में उसके अलावा दूसरे प्रश्न पूछे जाते हैं, जिसके लिए शहरों में कोचिंग का धंधा तेज़ी से फैल रहा है. इसी का अंजाम है कि पिछले 4 सालों में लड़कियों के दाख़िले की संख्या में भी कमी आई है और दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों की संख्या में भी. किसी भी अच्छे विश्वविद्यालय के लिए यह अच्छे लक्षण नहीं हैं, विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए.
इसका और बुरा अंजाम है बच्चों को अपनी रुचि के विषय में दाख़िला न मिलना. आश्चर्य होता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के मशहूर कॉलेजों में कंप्यूटर विज्ञान, गणित जैसे विषयों में भी सीटें ख़ाली हैं. हिंदी, संस्कृत में दाख़िले तो अतीत में भी अच्छे नहीं रहे, लेकिन मौजूदा वक़्त में तो उसमें ऐसी गिरावट आई है कि कहीं भाषा के ये विभाग ही बंद न करने पड़ जाएँ. हिंदी, संस्कृत जैसे विषयों को पढ़ने के लिए बच्चे आगे ही नहीं आ रहे. सरकार ने भारतीय भाषाओं को बढ़ाने के लिए बहुत सारे क़दम उठाए हैं, लेकिन जिस उत्तर भारत के कुछ लोग दक्षिण के लोगों पर अपनी भाषा ज़बरन बढ़ाने की माँग करते हैं, उस समाज में अपनी भाषा में पढ़ना हिक़ारत से देखा जाता है. दिल्ली विश्वविद्यालय समेत उत्तर भारत के सभी विश्वविद्यालय इस बात के गवाह हैं. सरकार की अच्छी नीतियों, योजनाओं के बावजूद समाज में अपनी भाषाओं में पढ़ने के प्रति उत्साह नहीं लौट रहा.
सितंबर का महीना वैसे तो भाषा के पखवाड़े के लिए होता है, लेकिन उसका भी कॉलेज, शिक्षा संस्थान सही उपयोग नहीं कर पा रहे. इन छात्रों को बताने की ज़रूरत है कि अब अपनी भाषा के बूते आप यूपीएससी समेत राज्य की सभी नौकरियाँ, रेलवे और पुलिस की नौकरियों में आराम से भर्ती हो सकते हो. ये बच्चों को प्रोत्साहित करने में पूरी तरह से विफ़ल हैं. नतीजा, हर कॉलेज में सीटें ख़ाली हैं और विशेषकर कमज़ोर वर्ग की. वे सब भी अंग्रेज़ी की तरफ़ अपने नेताओं के कहने पर दौड़ रहे हैं. जहाँ अंग्रेज़ी विषय में सबसे ज़्यादा बच्चे प्रवेश परीक्षा देते हैं, अपनी भाषाओं में सबसे कम. उनके अंदर कहीं यह बैठ गया है कि भले ही सरकार कितने भी ढोल पीटे, हिंदी-संस्कृत पढ़ने से नौकरी नहीं मिलने वाली.
सीटें ख़ाली रहने का कारण यह भी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में फ़ीस दिल्ली के कॉलेजों में कई गुना बढ़ी है. इससे विद्यार्थियों को लगता है कि फिर बीबीए, एमसीए जैसे व्यावसायिक कोर्स अपने गाँव के आस-पास क्यों न किया जाए?
देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक प्रवेश परीक्षा से दाख़िले का विचार इसलिए आया था कि अलग-अलग राज्यों में 12वीं के अंकों का प्रतिशत समान नहीं था और विद्यार्थियों को अलग-अलग विश्वविद्यालयों में भागना पड़ता था. लेकिन उसका विकल्प जो आया है, उसने स्थितियाँ और ख़राब की हैं. जो दाख़िले की प्रक्रिया 15 जुलाई तक पूरी होकर पढ़ाई शुरू हो जाती थी, अभी उस विलंब से बच्चे निराश होकर निजी विश्वविद्यालयों की तरफ़ कई गुना बड़ी फ़ीस देकर भाग रहे हैं. कोचिंग का धंधा तो इससे बढ़ा ही है.
नई शिक्षा नीति बार-बार रटने पर लगाम की बात करती है, लेकिन इस प्रवेश परीक्षा में तो रटना और भी अनिवार्य हो गया है. विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने का अनुभव रखने वाले लोग बताते हैं, विशेषकर अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप के उन देशों में आरंभिक शिक्षा में कम्युनिकेशन पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है. यानी बच्चों को पढ़ना, लिखना, बोलना सबसे ज़रूरी है. नई प्रवेश परीक्षा में जहाँ मल्टीपल चॉइस है, तो उत्तर लिखने की नौबत ही नहीं आती.
मौजूदा वक़्त में जब अमेरिकी राष्ट्रपति रोज़ वीज़ा की फ़ीस बढ़ाने से लेकर भारतीय विद्यार्थियों के लिए नई-नई मुसीबतें पैदा कर रहे हैं, तब हमें तुरंत ऐसे क़दम उठाने होंगे जिससे हमारी युवा पीढ़ी निराश न हो. विश्वविद्यालय उनकी रचनात्मकता को आगे बढ़ाने के लिए होते हैं, रोकने के लिए नहीं. अभी पिछले दिनों जब देश के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग आई थी तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कॉलेज अपने मुँह मियाँ मिट्ठू की तरह जश्न मना रहे थे. जब आपके यहाँ सीटें ख़ाली पड़ी हों और देश के मेधावी विद्यार्थी भी निजी विश्वविद्यालय या विदेशी विश्वविद्यालय को चुनें तो क्या यह जश्न मनाने की बात है? 4 वर्षीय प्रोग्राम के चौथे वर्ष में तो हर विषय में सीटें ख़ाली हैं. इन सबसे शोध की गुणवत्ता और बर्बाद होगी.
पिछले वर्षों में सीटें ख़ाली होने की वजह से देश के कई राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में सबसे ज़्यादा इंजीनियरिंग कॉलेज बंद करने पड़े हैं. वहाँ भी अच्छी फैकल्टी, लैबोरेट्री आदि की सही व्यवस्था न होने की वजह से ऐसा हुआ है. दिल्ली देश की राजधानी है और यहाँ एक दर्जन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं, जिन पर प्रति विद्यार्थी ख़र्च भी देश में सबसे ज़्यादा आता है. इस समय दुनिया का ज्ञान भी सर्वत्र सर्व सुलभ है. हमारी नौजवान पीढ़ी कम मेहनती नहीं है, यह दुनिया के वे सभी देश कहते हैं और इसका प्रमाण भी हैं दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीर्ष पर बैठे हमारे नौजवान. दिल्ली केवल राजनीति और नौकरशाही में ही सत्ता का केंद्र नहीं है, शिक्षा-संस्कृति का भी उभरता केंद्र है. इसलिए दाख़िले की प्रक्रिया से लेकर शिक्षा, पाठ्यक्रम सभी पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. वरना किसी शिक्षाविद का यह कहना सही लगता है कि भारतीय विश्वविद्यालय तो बस तीन काम करते हैं- एडमिशन, इलेक्शन और एग्जामिनेशन! सत्तर-अस्सी के दशकों में मॉरीशस और दूसरे देशों से बहुत से विद्यार्थी अच्छी शिक्षा के लिए इलाहाबाद, बनारस, कोलकाता विश्वविद्यालय में बड़ी संख्या में पढ़ने आते थे. धीरे-धीरे वे दिल्ली तक सिमट गए. अब दिल्ली में अपने देश के विद्यार्थी भी कम हो रहे हैं. जो हैं भी, वे राजधानी में कोचिंग आदि की दूसरी सुविधाओं की वजह से ज़्यादा हैं, विश्वविद्यालय की शिक्षा की वजह से नहीं. हमें शिक्षा नीति में इन पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. दिल्ली का संदेश पूरे देश पर असर करता है.
एशिया कप: बांग्लादेश को हराकर भारत फाइनल में
बुधवार को, अभिषेक शर्मा के शानदार अर्धशतक के साथ-साथ बाएं हाथ के स्पिनर कुलदीप यादव की बेहतरीन गेंदबाजी की बदौलत भारत ने सुपर-4 के मैच में बांग्लादेश को 41 रनों से हराकर एशिया कप के फाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली. भारत द्वारा दिए गए 169 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए, बांग्लादेश की टीम 19.3 ओवर में 127 रनों पर ढेर हो गई. सुपर-4 के अपने दोनों मैच हारने वाली श्रीलंका की टीम अब फाइनल की दौड़ से बाहर हो गई है. गुरुवार को पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच होने वाला मैच रविवार को होने वाले खिताबी मुकाबले में जगह बनाने के लिए एक तरह से नॉकआउट मुकाबला होगा.
महिषासुर की पूजा करने वालों को रोका क्यों जा रहा है?
हर साल दशहरे के आसपास कर्नाटक का मैसूर शहर एक अजीब से तनाव की चपेट में आ जाता है. एक तरफ जहाँ पूरा शहर देवी चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का जश्न मनाता है, जिसे ‘मैसूर दशहरा’ के नाम से दुनिया जानती है, वहीं दूसरी तरफ एक और आयोजन की तैयारी होती है, जिसे ‘महिषा उत्सव’ या ‘महिषा दशहरा’ कहा जाता है. यह उत्सव उन लोगों द्वारा मनाया जाता है जो महिषासुर को राक्षस नहीं, बल्कि अपना नायक, अपना राजा और अपना देवता मानते हैं. इसी वैचारिक टकराव के कारण हर साल प्रशासन को चामुंडी पहाड़ी के आसपास निषेधाज्ञा (धारा 144) लगानी पड़ती है, ताकि दोनों पक्षों में कोई हिंसक झड़प न हो.
यह विवाद दो अलग-अलग कथाओं और पहचानों की लड़ाई है.
मुख्यधारा की पौराणिक कथा: हिंदू धर्म की प्रचलित कथाओं के अनुसार, महिषासुर एक अत्यंत शक्तिशाली असुर था, जिसने अपने आतंक से देवताओं को भी परास्त कर दिया था. तब सभी देवताओं ने मिलकर अपनी शक्तियों से देवी दुर्गा (जिन्हें मैसूर में चामुंडेश्वरी कहा जाता है) का सृजन किया. देवी ने महिषासुर के साथ नौ दिनों तक भयंकर युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध कर दिया. इसी जीत का जश्न विजयादशमी या दशहरे के रूप में मनाया जाता है. इस कथा में महिषासुर बुराई का प्रतीक है.
वैकल्पिक या काउंटर-नैरेटिव: इसके विपरीत, कर्नाटक, झारखंड और भारत के कई अन्य हिस्सों में कुछ दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के समुदाय महिषासुर को एक पराक्रमी और न्यायप्रिय राजा मानते हैं. उनका मानना है कि ‘महिष’ का अर्थ भैंस है और यह समुदाय भैंस पालक थे. उनके अनुसार, महिषासुर ‘महिष मंडल’ (मैसूर का पुराना नाम) के एक बौद्ध या आदिवासी राजा थे, जो समता और न्याय में विश्वास करते थे. इन समुदायों का आरोप है कि आर्यों या ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने उनकी संस्कृति को दबाने के लिए उनके नायक को ‘असुर’ या ‘राक्षस’ के रूप में चित्रित किया और उनकी हत्या को एक धार्मिक जीत के रूप में स्थापित कर दिया. उनके लिए महिषा उत्सव अपनी खोई हुई पहचान और इतिहास को पुनः प्राप्त करने का एक जरिया है.
‘महिषा उत्सव’ का संगठित रूप से आयोजन 2010 के दशक में मैसूर में शुरू हुआ. कुछ बुद्धिजीवियों और दलित संगठनों ने चामुंडी पहाड़ी पर स्थित महिषासुर की विशाल प्रतिमा पर माल्यार्पण करके इस दिन को मनाने की कोशिश की. यहीं से विवाद ने जन्म लिया. भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों ने इसे हिंदू धर्म का अपमान बताते हुए इसका पुरजोर विरोध किया. उनका तर्क है कि यह देवी चामुंडेश्वरी का अपमान है और इतिहास को तोड़-मरोड़कर समाज में नफरत फैलाने की कोशिश है.
यह टकराव तब और बढ़ गया जब मैसूर के सांसद प्रताप सिम्हा जैसे नेताओं ने इस आयोजन के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया. 2019 से 2022 तक, जब राज्य में भाजपा की सरकार थी, इस आयोजन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. तब आयोजकों को शहर के दलित बहुल इलाकों में छोटे स्तर पर यह कार्यक्रम करना पड़ता था. हालांकि, कांग्रेस सरकार के आने के बाद आयोजकों को फिर से बड़े पैमाने पर कार्यक्रम करने की हिम्मत मिली, जिससे यह टकराव और तेज हो गया.
यह वैचारिक लड़ाई सिर्फ मैसूर तक ही सीमित नहीं है. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में भी ‘महिषासुर शहादत दिवस’ मनाने को लेकर कई बार विवाद हो चुका है. झारखंड के आदिवासी समुदाय भी महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और दुर्गा पूजा का विरोध करते हैं. यह बहस इस बात का प्रतीक है कि कैसे भारत में हाशिए पर मौजूद समुदाय अपने इतिहास, अपनी संस्कृति और अपने नायकों को पौराणिक कथाओं के ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से अलग, अपने नजरिए से देखने और स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.
संक्षेप में, महिषा उत्सव का विवाद सिर्फ एक धार्मिक आयोजन का नहीं है, बल्कि यह इतिहास, पहचान, जाति और सत्ता के संघर्ष का प्रतीक है. एक पक्ष के लिए जो ‘दानव’ है, वह दूसरे के लिए ‘देवता’ है, और इसी टकराव के कारण हर साल मैसूर की शांत पहाड़ियां राजनीति और तनाव का केंद्र बन जाती हैं.