26/06/2025: घोषित / अघोषित आपातकाल | संघ की भूमिका का भंडाफोड़ | नाटो में ट्रम्प की चापलूसी के दौर | न जंग का हासिल पता है, न सीज़ फायर के ब्यौरे | ममदानी ने न्यूयॉर्क का मुशायरा लूटा
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
कौन सा ज्यादा बुरा, घोषित या अघोषित ?
जब आरएसएस ने इंदिरा गांधी से मांगी थी माफ़ी
क्या मोदी सरकार एनआरसी को फिर से लागू करना चाहती है?
जम्मू में पुलिस बर्बरता: युवक को अर्धनग्न कर जूतों की माला पहनाकर कार की बोनट पर घुमाया, जांच शुरू
अकाली नेता बिक्रम मजीठिया भ्रष्टाचार के नए मामले में गिरफ्तार, विजिलेंस ब्यूरो ने अमृतसर से दबोचा
गुजरात के माहिसागर ज़िले में 123.22 करोड़ के जल जीवन मिशन घोटाले का हुआ भंडाफोड़, 12 अधिकारी आरोपी
शुभांशु शुक्ला के साथ एक्सियम-4 अंतरिक्ष यान ने उड़ान भरी
वारकरियों के रास्ते में मांस पर प्रतिबंध
"पता नहीं कितने कैदी जेलों में सड़ रहे होंगे," सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को लगाई फटकार
डीयू में जातीय भेदभाव का आरोप, दलित वैज्ञानिक को प्रोफेसर नहीं बनाया, जूनियर्स को प्रमोट किया
'आरएसएस 1975 में आपातकाल के खिलाफ नहीं था. इसके नेता लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल में नहीं थे. वे सिर्फ प्रतिबंध हटाना चाहते थे'
ज़ोहरान ममदानी ने तोड़ी अमेरिकी डेमोक्रेट्स की उदासी!
ट्रम्प की "चापलूसी" पर पाकिस्तान में घमासान, नोबेल शांति पुरस्कार नामांकन पर विवाद
ट्रम्प को खुश करने में जुटा 'नाटो', 'डैडी' की बजट बढ़ाने की बात भी मानी, स्पेन को मिली खुली धमकी
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आपातकाल
कौन सा ज्यादा बुरा, घोषित या अघोषित ?
25 जून 1975 को देश में लगे आपातकाल को 50 साल पूरे हो गए हैं और इस मौके पर आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीति तेज हो गई है. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तक ने कांग्रेस को घेरते हुए इसे एक परिवार का षड्यंत्र और लोकतंत्र की हत्या बताया है. जवाब में कांग्रेस ने इन सभी आरोपों को अपनी नाकामियों से ध्यान भटकाने का एक नाटक बताया है. ‘हरकारा’ ने वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग से बात की, जिन्होंने कहा इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल से इस समय का अघोषित आपातकाल ज्यादा खौफनाक है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपातकाल को याद करते हुए “एक्स” पर लिखा कि इस दिन कांग्रेस ने लोकतंत्र को कैद कर लिया था. प्रेस की स्वतंत्रता खत्म कर दी थी. आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है. आपातकाल के वक्त मैं आरएसएस का युवा प्रचारक था.
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, “आपातकाल कांग्रेस की सत्ता की भूख का ‘अन्यायकाल’ था. आपातकाल में देशवासियों ने जो पीड़ा और यातना सही, उसे नई पीढ़ी जान सके, इसी उद्देश्य से मोदी सरकार ने इस दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ का नाम दिया. यह दिवस बताता है कि जब सत्ता तानाशाही बन जाती है, तो जनता उसे उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है.
इस पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने जवाब दिया कि “ये लोग अपनी गलती छिपाने के लिए यह सब नाटक करते हैं.”
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा, "50 साल बाद भी कांग्रेस उसी मानसिकता के साथ जी रही है. उसके इरादे आज भी वही हैं जो 1975 में थे.
केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, यह एक परिवार की तरफ से रचा गया षड्यंत्र था.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लिखा, “जो लोग हाथ में संविधान की कॉपी लेकर घूमते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि 50 साल बाद भी भारत उस अत्याचार को याद करता है.”
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि इमरजेंसी संविधान, लोकतंत्र और कई संस्थाओं को रौंदने वाली घटना ऐसी है, जिसे कभी नहीं भूलना चाहिए.
इसके बारे में सुनिये ‘हरकारा डीपडाइव’ में श्रवण गर्ग से निधीश त्यागी ने आपातकाल के 50 साल पूरे होने के अवसर पर चर्चा की. श्रवण गर्ग इमरजेंसी के समय में हुए आंदोलन में भागीदार भी हैं और गवाह भी. उन्होंने बताया कि आपातकाल के दौरान आरएसएस की क्या भूमिका रही और किस तरह से जेपी आंदोलन पर वे क़ाबिज़ हुए. साथ ही वे इमरजेंसी की तुलना आज के भारत से भी करते हैं. उनके हिसाब से हम ज़्यादा ख़ौफ़नाक और ख़राब समय में रह रहे हैं.
उन्होंने आरएसएस की भूमिका, तत्कालीन और वर्तमान राजनीतिक माहौल के बीच समानताओं और विषमताओं पर बात की. चर्चा का मुख्य केंद्र बिंदु ए.के. सुब्बैया की किताब "हिडन फेस ऑफ आरएसएस" थी, जिसमें दावा किया गया है कि आपातकाल के दौरान आरएसएस ने इंदिरा गांधी से समझौता करने की कोशिश की थी. श्रवण गर्ग ने अपने अनुभवों के आधार पर बताया कि आज का "अघोषित आपातकाल" 1975 के आपातकाल से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह बिना घोषणा के नागरिकों के अधिकारों का हनन कर रहा है. उन्होंने जोर दिया कि आज के दौर में डर और असुरक्षा का माहौल कहीं ज्यादा गहरा है और मीडिया की स्वतंत्रता भी पहले से कहीं अधिक खतरे में है. चर्चा का समापन इस चिंता के साथ हुआ कि भारत शायद मौजूदा दौर से उस तरह लोकतंत्र में वापस न आ पाए, जैसे वह आपातकाल के बाद आया था.
आरएसएस की भूमिका: ए.के. सुब्बैया की किताब के अनुसार, आपातकाल के दौरान आरएसएस लोकतंत्र की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपने ऊपर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए इंदिरा गांधी से समझौता कर रहा था. आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी के 20-सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करते हुए पत्र लिखे थे. (नीचे किताब के अंश | 'आरएसएस 1975 में आपातकाल के खिलाफ नहीं था. इसके नेता लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल में नहीं थे. वे सिर्फ प्रतिबंध हटाना चाहते थे')
आपातकाल बनाम वर्तमान: श्रवण गर्ग का मानना है कि वर्तमान का "अघोषित आपातकाल" 1975 के घोषित आपातकाल से अधिक खतरनाक है. आज डर का माहौल गहरा है, नागरिकों (विशेषकर अल्पसंख्यकों और दलितों) में असुरक्षा बढ़ी है और संस्थानों को व्यवस्थित रूप से कमजोर किया गया है.
मीडिया की स्वतंत्रता: 1975 में सेंसरशिप के बावजूद पत्रकारिता में प्रतिरोध था. आज का मीडिया ज़्यादातर सरकार के नियंत्रण में है, जो "जर्नलिज्म ऑफ करेज" के दावों के विपरीत है.
राजनीतिक आंदोलन: जेपी आंदोलन को आरएसएस/जनसंघ ने अपने कैडर के बल पर हाईजैक कर लिया था. यही रणनीति बाद में अन्ना आंदोलन में भी अपनाई गई.
नेतृत्व का अंतर: इंदिरा गांधी एक डेमोक्रेट थीं जिनसे लोग डरते थे, जबकि नरेंद्र मोदी से लोग खौफ खाते हैं. आज की सरकार में किसी को नहीं पता कि कब कौन गिरफ्तार हो सकता है.
भविष्य की चिंता: चर्चा इस चिंता के साथ समाप्त हुई कि जिस तरह देश 1977 में आपातकाल से बाहर आकर लोकतंत्र में लौटा था, मौजूदा दौर से वैसी वापसी शायद संभव न हो.
जब आरएसएस ने इंदिरा गांधी से मांगी थी माफ़ी
आपातकाल के बारे में आज के बीजेपी नेता चाहे जो कहें, लेकिन इतिहास की स्मृतियों के जरिए प्रोफेसर डॉ. शम्सुल इस्लाम ने बताया है कि आरएसएस ने किस तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से माफ़ी मांगी थी और संजय गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के लिए श्रीमती गांधी को पत्र लिखा था. इस बारे में यहां भी पढ़ सकते हैं. इसमें लिखा है कि आरएसएस का दावा है कि उसने इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल का बहादुरी के साथ मुकाबला किया और भारी दमन का सामना किया. उस दौर के अनेक कथानक हैं, जो आरएसएस के इन दावों को झुठलाते हैं. यहां हम ऐसे दो दृष्टांतों का उल्लेख कर रहे हैं. इनमें से एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार और विचारक प्रभाष जोशी हैं और दूसरे, पूर्व खुफिया ब्यूरो (आईबी) प्रमुख टीवी राजेश्वर हैं, जिनके द्वारा बताई गई घटनाओं का जिक्र हम यहां करेंगे. आपातकाल जिस समय घोषित किया गया था राजेश्वर आईबी के उप प्रमुख थे. राजेश्वर ने आपातकाल के उस दौर के बारे में बताया है कि किस तरह से आरएसएस ने इंदिरा गांधी के दमनकारी शासन के सम्मुख घुटने टेक दिए थे और इंदिरा गांधी एवं उनके पुत्र संजय गांधी को 20-सूत्रीय कार्यक्रम पूरी वफ़ादारी के साथ लागू करने का आश्वासन था. आरएसएस के अनेक 'स्वयंसेवक' 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के रूप में माफिनामे पर दस्तख़त कर जेल से छूटे थे.
क्या मोदी सरकार एनआरसी को फिर से लागू करना चाहती है?
क्या मोदी सरकार अपने बहुचर्चित और विवादित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) प्रक्रिया को चुपचाप फिर से लागू करने की कोशिश कर रही है? “टाइम्स ऑफ इंडिया” की एक रिपोर्ट के अनुसार, "देशभर की मतदाता सूची में गलती से शामिल अवैध प्रवासियों की पहचान और उन्हें हटाने के उद्देश्य से, चुनाव आयोग ने नए आवेदकों के साथ-साथ मौजूदा मतदाताओं के लिए भी यह अनिवार्य कर दिया है कि वे स्वयं-प्रमाणित घोषणा पत्र जमा करें कि वे भारतीय नागरिक हैं, चाहे जन्म से, या पंजीकरण/नैचुरलाइजेशन के माध्यम से और इसके समर्थन में जन्म स्थान और तारीख से संबंधित दस्तावेज़ या पंजीकरण/नैचुरलाइजेशन प्रमाणपत्र भी प्रस्तुत करें." रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अनिवार्य प्रक्रिया का दुरुपयोग किया जा सकता है और उन मतदाताओं को मतदान के अधिकार से वंचित किया जा सकता है, जिन्हें भाजपा और उसके एनडीए सहयोगियों के खिलाफ वोट देने की संभावना के रूप में देखा जाता है.
जम्मू में पुलिस बर्बरता: युवक को अर्धनग्न कर जूतों की माला पहनाकर कार की बोनट पर घुमाया, जांच शुरू
'द वायर' की रिपोर्ट है कि जम्मू पुलिस ने एक वीडियो वायरल होने के बाद जांच शुरू कर दी है, जिसमें एक अर्धनग्न युवक को जूतों की माला पहनाकर पुलिस वाहन की बोनट पर बैठाकर घुमाते हुए देखा जा सकता है. जहांगीर अली की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस गाड़ी के लाउडस्पीकर से यह घोषणा की जा रही है कि युवक एक "पेशेवर चोर" है. एक पुलिस अधिकारी ने दावा किया कि युवक, जिस पर स्थानीय अस्पताल के बाहर लूटपाट का आरोप है, उसे पकड़ने के समय नशे की हालत में था. स्थानीय राजनेताओं ने इस घटना की निंदा की है, जबकि कुछ लोगों ने इसकी तुलना 2017 में कश्मीर के बडगाम में एक नागरिक को सेना की जीप की बोनट पर बांधकर घुमाने की घटना से की है. वहीं, एक स्थानीय दक्षिणपंथी संगठन ने इस मामले में आंतरिक पुलिस जांच को रद्द करने की मांग की है.
अकाली नेता बिक्रम मजीठिया भ्रष्टाचार के नए मामले में गिरफ्तार, विजिलेंस ब्यूरो ने अमृतसर से दबोचा
'हिन्दुस्तान टाइम्स' की रिपोर्ट है कि पंजाब विजिलेंस ब्यूरो ने बुधवार को शिरोमणि अकाली दल के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया को अमृतसर में उनके निवास से गिरफ्तार कर लिया है. शुरूआती जांच में 540 करोड़ से अधिक प्रॉपर्टी का पता चला है. यह कार्रवाई आय से अधिक संपत्ति मामले में की गई है, जो 2021 के ड्रग तस्करी मामले की जांच के दौरान सामने आए तथ्यों के आधार पर दर्ज की गई एफआईआर से जुड़ी है. विजिलेंस अधिकारियों ने बताया कि राज्य भर में मजीठिया से जुड़ी 25 से अधिक संपत्तियों पर छापे मारे गए, जिनमें 9 संपत्तियां अमृतसर ज़िले में हैं. अधिकारियों ने कहा कि मजीठिया की आय के ज्ञात स्रोतों की तुलना में उनकी संपत्ति और लेन-देन में भारी गड़बड़ी पाई गई, जिससे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई. मजीठिया को आज दोपहर करीब 3 बजे अमृतसर जिला अदालत में पेश किया जाएगा. गौरतलब है कि मजीठिया, अकाली दल के अध्यक्ष और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के साले भी हैं. कांग्रेस सरकार के दौरान उनके खिलाफ 2021 में ड्रग तस्करी का मामला दर्ज किया गया था, जिसकी जांच अभी भी चल रही है.
गुजरात के माहिसागर ज़िले में 123.22 करोड़ के जल जीवन मिशन घोटाले का हुआ भंडाफोड़, 12 अधिकारी आरोपी
'टाइम्स ऑफ इंडिया' की खबर है कि गुजरात के माहिसागर ज़िले में एक बड़ा भ्रष्टाचार घोटाला सामने आया है, जहां 2019 से 2023 के बीच नल से जल योजना के तहत पीने के पानी की परियोजनाओं के लिए आवंटित ₹123.22 करोड़ का दुरुपयोग किया गया. यह राशि ज़िले की सभी तालुकाओं के 620 से अधिक गांवों में पाइपलाइन बिछाने, कुएं खोदने और ट्यूबवेल लगाने जैसे कार्यों के लिए दी गई थी, लेकिन आरोपित अधिकारियों ने जनहित के कामों को अंजाम देने के बजाय आपस में आपराधिक साजिश रचकर इस धन को व्यक्तिगत लाभ के लिए हड़प लिया. सीआईडी क्राइम (वडोदरा ज़ोन) की जांच में यह मामला सामने आया, जिसके बाद 12 सरकारी अधिकारियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज की गई है.
शुभांशु शुक्ला के साथ एक्सियम-4 अंतरिक्ष यान ने उड़ान भरी
'रॉयटर्स' की रिपोर्ट है कि बुधवार तड़के NASA की पूर्व अंतरिक्ष यात्री पेगी व्हिटसन ने अपने करियर की पांचवीं अंतरिक्ष उड़ान भरी. उनके साथ इस मिशन में भारत, पोलैंड और हंगरी के अंतरिक्ष यात्री शामिल हैं, जो अपने-अपने देशों की पहली अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) यात्रा कर रहे हैं. यह अंतरिक्ष मिशन टेक्सास स्थित Axiom Space द्वारा SpaceX की साझेदारी में आयोजित किया गया. अंतरिक्ष यान ने अमेरिका के केनेडी स्पेस सेंटर, केप केनावरल (फ्लोरिडा) से स्थानीय समयानुसार सुबह 2:30 बजे (भारतीय समयानुसार लगभग सुबह 12 बजे) उड़ान भरी. इसमें भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला भी शामिल हैं. शुक्ला, 1984 में राकेश शर्मा के बाद अंतरिक्ष यात्रा करने वाले दूसरे भारतीय बनेंगे. राकेश शर्मा ने सोवियत अंतरिक्ष यान से उड़ान भरी थी. Axiom-4 मिशन के कल सुबह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पहुंचने की उम्मीद है. वहां दो सप्ताह के प्रवास के दौरान चालक दल वैज्ञानिक प्रयोगों को अंजाम देगा. इसरो ने 60 में से 7 प्रयोगों की योजना बनाई है, जिनमें अंतरिक्ष यात्रा का फसलों के बीजों पर प्रभाव, सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में मांसपेशियों का क्षय कैसे होता है और अंतरिक्ष में स्क्रीन देखने का मानव शरीर पर प्रभाव जैसे प्रयोग शामिल हैं.
वारकरियों के रास्ते में मांस पर प्रतिबंध
हिंदू त्योहारों के आसपास शाकाहार थोपना अब भारत के कई राज्यों में धीरे-धीरे एक सामान्य बात बन गई है. ताजा मामला महाराष्ट्र के पंढरपुर वारी का है, जो 700 साल से अधिक पुरानी एक वार्षिक तीर्थयात्रा है और भक्ति आंदोलन से गहराई से जुड़ी हुई है. अब यह यात्रा भी बीजेपी शासित राज्य सरकार के नियंत्रण में आ गई है. महाराष्ट्र के ग्रामीण विकास और पंचायत राज मंत्री तथा बीजेपी नेता जयकुमार गोरे ने सोलापुर जिला प्रशासन, जिसमें पंढरपुर नगर भी शामिल है, को निर्देश दिया है कि आषाढ़ी एकादशी से सात दिन पहले से लेकर तीर्थयात्रियों की पदयात्रा के समापन के तीन दिन बाद तक (कुल 10 दिनों के लिए) किसी भी प्रकार के मांस की बिक्री पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाए. इस अवधि के दौरान जिले में शराब की बिक्री पर भी पूर्ण प्रतिबंध की घोषणा की गई है.
यह प्रवृत्ति केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है. देश के अन्य हिस्सों में भी हिंदू त्योहारों के दौरान मांस और शराब की बिक्री पर इसी तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, जिससे इसे एक नई राजनीतिक और सांस्कृतिक परंपरा के रूप में देखा जाने लगा है.
बीजेपी शासित राज्यों में त्योहारों के नाम पर पहले भक्ति और धार्मिक भावनाओं को तवज्जो दी जाती है, और शासन व प्रशासनिक फैसले बाद में लिए जाते हैं. आलोचकों का कहना है कि यह खाने-पीने की आज़ादी में हस्तक्षेप है और इससे सामाजिक विविधता पर असर पड़ता है.
"पता नहीं कितने कैदी जेलों में सड़ रहे होंगे," सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को लगाई फटकार
सुप्रीम कोर्ट ने एक आरोपी को जमानत आदेश में मामूली तकनीकी खामी के कारण रिहा न करने पर उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई है. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा, "पता नहीं आपकी जेलों में ऐसी तकनीकी खामियों की वजह से कितने कैदी सड़ रहे होंगे". जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने इस मामले में एक जिला जज द्वारा न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं. यह जांच इस बात का पता लगाएगी कि आरोपी की रिहाई में देरी क्यों हुई और क्या इसके पीछे कुछ गलत हो रहा था. कोर्ट ने यूपी सरकार को पीड़ित को 5 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा देने का भी निर्देश दिया है. कोर्ट ने इस बात पर गहरी नाराजगी जताई कि जब जमानत आदेश में अपराध से जुड़ी सभी जरूरी धाराएं लिखी थीं, तो सिर्फ एक उप-धारा का जिक्र न होने पर कैदी को रिहा नहीं किया गया. कोर्ट ने इसे 'बेतुका' करार दिया. सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद आरोपी को रिहा कर दिया गया है.
डीयू में जातीय भेदभाव का आरोप, दलित वैज्ञानिक को प्रोफेसर नहीं बनाया, जूनियर्स को प्रमोट किया
दिल्ली विश्वविद्यालय में एक प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी को प्रोफेसर पद पर पदोन्नति से इसलिए वंचित कर दिया गया, क्योंकि वह दलित हैं. शिक्षक संगठनों और सामाजिक संगठनों ने चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं और जातीय आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया है.
“द मूकनायक” के अनुसार, डॉ. अशोक कुमार, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के भौतिकी और खगोल भौतिकी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और यूरोप की प्रतिष्ठित फिजिक्स लैब सीईआरएन में महत्वपूर्ण शोध कार्य कर चुके हैं, को प्रोफेसर पद के लिए "अनुपयुक्त" घोषित कर दिया गया. इस निर्णय ने जातिगत भेदभाव के आरोपों को जन्म दिया है, क्योंकि डॉ. कुमार अनुसूचित जाति समुदाय से आते हैं, लेकिन उनकी शैक्षणिक उपलब्धियां असाधारण हैं.
डॉ. कुमार का एच-इंडेक्स 120 है, जो भारतीय प्रोफेसरों के औसत एच-इंडेक्स (20 से भी कम) से कहीं अधिक है. एच-इंडेक्स किसी शोधकर्ता की उत्पादकता और प्रभाव का पैमाना है, जो उनके शोधपत्रों को मिले उद्धरणों की संख्या दर्शाता है. इसके अलावा, डॉ. कुमार को 2025 में 3 मिलियन डॉलर के प्रतिष्ठित ब्रेकथ्रू पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है.
जानकारी के अनुसार, डीयू के कुलपति योगेश सिंह की अध्यक्षता में एक चयन पैनल ने करियर उन्नति योजना के तहत तीन एसोसिएट प्रोफेसरों का साक्षात्कार लिया. पैनल में चार विषय विशेषज्ञ, एक अनुसूचित जाति समुदाय के प्रोफेसर और एक विजिटर नामित व्यक्ति शामिल थे. साक्षात्कार के बाद, पैनल ने डॉ. कुमार को "अनुपयुक्त" घोषित कर दिया, जबकि उनके दो जूनियर सहयोगियों को प्रोफेसर पद पर पदोन्नति दे दी गई. यह निर्णय कई शिक्षाविदों और सामाजिक संगठनों के लिए चौंकाने वाला था, क्योंकि डॉ. कुमार की शैक्षणिक उपलब्धियां उनके सहयोगियों से कहीं अधिक प्रभावशाली थीं.
कार्टून | मंजुल
किताब
'आरएसएस 1975 में आपातकाल के खिलाफ नहीं था. इसके नेता लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल में नहीं थे. वे सिर्फ प्रतिबंध हटाना चाहते थे'
कर्नाटक में भाजपा के पहले अध्यक्ष ने खुलासा किया, आरएसएस ने इंदिरा गांधी के 20-सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन किया और सुब्रमण्यम स्वामी को कुर्बान करने की कोशिश की. वरिष्ठ पत्रकार कृष्णा प्रसाद के सब्सटैक पेज ‘द नेटपेपर’ से साभार.
भारतीय समाचार पत्र 1975 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ को (सही मायनों में) व्यापक कवरेज के साथ चिह्नित कर रहे हैं. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, जेल में हुए अत्याचार, मीडिया पर सेंसरशिप, जबरन नसबंदी, इन सभी को याद किया जाना चाहिए ताकि भारत फिर से उस रास्ते पर न जाए. लेकिन यहां एक दोहरी विडंबना है. एक, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की एनडीए सरकार अपने शासन के आलोचकों और राजनीतिक विरोधियों के साथ व्यवहार में कुछ अलग नहीं रही है, अगर बदतर नहीं तो; संस्थाओं का विनाश; नागरिकों के अधिकारों की अवहेलना; मीडिया को नपुंसक बनाना; मुसलमानों और दलितों के साथ व्यवहार, आदि. और उसने यह सब बिना किसी शोर-शराबे के और औपचारिक रूप से आपातकाल घोषित करने की आवश्यकता या साहस के बिना हासिल कर लिया है. दूसरी विडंबना आपातकाल के प्रतिरोध और विरोध को भाजपा द्वारा बेशर्मी से अपनाना है. 25 जून को "संविधान हत्या दिवस" का नाम देकर, भाजपा संविधान के बारे में अपनी दिमाग सुन्न कर देने वाली अज्ञानता को प्रकट करती है. और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को लोकतंत्र के रक्षक के रूप में चित्रित करना चाहती है. जो वह निश्चित रूप से नहीं था.
ए.के. सुब्बैया, जो 1980 में कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पहले अध्यक्ष थे, ने आरएसएस पर कन्नड़ में एक पर्दाफाश करने वाली किताब लिखी, जिसका शीर्षक था "आरएसएस अंतरंग". इसी किताब का डॉ. हयवदन मूडूसग्री ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है, "हिडन फेस ऑफ आरएसएस". यह किताब इस रहस्यमयी संगठन का एक अंदरूनी दृष्टिकोण प्रदान करती है. इस पुस्तक में, सुब्बैया, जो 1975 में आपातकाल के दौरान जेल जाने वाले कर्नाटक के पहले राजनेता थे, उन काले दिनों के दौरान आरएसएस द्वारा निभाई गई (या नहीं निभाई गई) "भूमिका" का प्रत्यक्ष विवरण देते हैं, और खुलासा करते हैं कि लोकतंत्र को बहाल करना उन दिनों आरएसएस नेताओं के दिमाग में सबसे आखिरी बात थी. उनके लिए उनका अपना अस्तित्व सबसे जरूरी बात थी.
ए.के. सुब्बैया द्वारा
एक आम धारणा है कि आपातकाल के खिलाफ लड़ाई में आरएसएस ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन हकीकत में आरएसएस द्वारा आपातकाल के खिलाफ एक उंगली भी नहीं उठाई गई. इसके बजाय, इंदिरा गांधी के सामने पूरी तरह से आत्मसमर्पण करके उन्होंने खुद को मुक्त कराने की पूरी कोशिश की थी. यह सच है कि आपातकाल के दौरान आरएसएस के कई कार्यकर्ता जेल में थे. ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि उन्होंने आपातकाल का विरोध किया था, बल्कि इसलिए कि इंदिरा गांधी ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था और पुलिस ने जिसे भी पकड़ा उसे जेल भेज दिया. उनमें से कुछ जो गिरफ्तारी से बच गए थे, वे भूमिगत गतिविधियों में शामिल थे. चूँकि उनके संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उनके कई कार्यकर्ताओं को जेल भेज दिया गया था, इसलिए उनके लिए संघर्ष करना अनिवार्य हो गया था. लेकिन उनकी लड़ाई अपने आप में आपातकाल के खिलाफ नहीं थी, बल्कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ थी. इस अंतर पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है. यदि कोई उनकी भूमिगत गतिविधियों के दौरान आरएसएस द्वारा निर्मित साहित्य का अध्ययन करता है, तो यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि उनका जोर आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाने और इसके सदस्यों को जेल से रिहा करने पर था. उन्होंने कभी भी इस आधार पर आपातकाल का विरोध नहीं किया कि यह लोकतंत्र के खिलाफ था.
जब मैं आपातकाल के दौरान जेल में था, तो मुझे पता चला कि आरएसएस के नेता इंदिरा गांधी के साथ समझौता करके अपने संगठन पर लगे प्रतिबंध को हटाने की कोशिश कर रहे थे. इस उद्देश्य के लिए उन्होंने एकनाथ रानाडे को चुना था जो कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक के प्रभारी थे. उन्हें इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए इंदिरा गांधी से मिलने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. आरएसएस के हलकों में यह माना जाता था कि रानाडे एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके पास उत्कृष्ट व्यावहारिक ज्ञान और कूटनीति का कौशल था. लेकिन इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी से मिलने के रानाडे के प्रयास व्यर्थ गए. उन्होंने कितनी भी कोशिश की, वह उन दोनों में से किसी से नहीं मिल सके. आरएसएस के दिग्गज, और भाजपा नेता एल.के. आडवाणी मेरे साथ बैंगलोर जेल में थे. जब मैंने उन्हें इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए सुना तो मुझे यह स्पष्ट हो गया कि वे वास्तव में आपातकाल लगाए जाने के खिलाफ नहीं थे. अंत में, कांग्रेस एक प्रस्ताव लेकर आई. वह यह था कि अगर आरएसएस डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी को सरकार के सामने आत्मसमर्पण करवा दे तो वह आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा देगी. उस समय डॉ. स्वामी एक विदेशी देश में भाग गए थे और आपातकाल के खिलाफ भूमिगत गतिविधियों में शामिल थे. मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर सुब्रमण्यम स्वामी भारत में होते तो आरएसएस के लोग खुद उन्हें पकड़कर अधिकारियों को सौंप देते ताकि उन पर से प्रतिबंध हटा लिया जाए.
आपातकाल के दौरान आरएसएस के तत्कालीन सर्वोच्च नेता बालासाहेब देवरस को यरवदा जेल में रखा गया था. उस दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी को दो पत्र लिखे थे. इन पत्रों को महाराष्ट्र की विधानसभा में सार्वजनिक किया गया था. एक पत्र में बालासाहेब देवरस उस 20-सूत्रीय कार्यक्रम की प्रशंसा करते हैं जिसे इंदिरा गांधी ने शुरू किया था और उनसे आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाने की भीख मांगते हैं ताकि जेल में बंद हजारों आरएसएस कार्यकर्ता उनके महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को लागू करने पर काम कर सकें. दूसरे पत्र में वह इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद सदस्य के रूप में बहाल होने पर बधाई देते हैं. उस समय देश भर के सभी लोकतंत्र के हिमायती उनकी कटु आलोचना कर रहे थे क्योंकि उन्होंने एक नया कानून पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू किया था ताकि उन्हें बहाल किया जा सके. ऐसा करके उन्होंने एक बार फिर लोकतंत्र को नष्ट कर दिया था. फिर भी आरएसएस के सर्वोच्च नेता इंदिरा गांधी को उनकी अवैध जीत पर बधाई दे रहे थे. क्या विडंबना है. देवरस ने इंदिरा गांधी के साथ समझौता स्थापित करने के लिए जमीन तैयार करने के लिए पूरी तरह से आत्मसमर्पण के वे दो पत्र लिखे थे. देवरस के उन पत्रों को लिखने के बाद ही इंदिरा गांधी एकनाथ रानाडे से मिलने के लिए सहमत हुईं. आरएसएस के दिग्गजों ने इन सभी मुद्दों पर मेरे सामने चर्चा की. इस तरह मुझे आरएसएस के सभी छिपे हुए उद्देश्यों का पता चला.
आपातकाल के दौरान मैं 11 महीने आरएसएस के लोगों के साथ जेल में था. आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता जेल के अंदर बहुत खुश थे, इसका कारण यह था कि उन्हें जेल में जीवन बाहर के जीवन से बेहतर लगा. जेल में भी वे उन गतिविधियों को जारी रखे हुए थे जो वे बाहर करते थे. लेकिन जो पूर्णकालिक आरएसएस कार्यकर्ता नहीं थे, वे पूरी तरह से टूट गए. ऐसे आरएसएस स्वयंसेवकों को जोर-जोर से रोते हुए देखना कोई दुर्लभ बात नहीं थी. उनमें से कुछ पागल हो गए. अगर उनके पास कोई विकल्प होता, तो वे खुशी-खुशी कबूलनामे के पत्र सौंपकर भाग जाते. बैंगलोर में, आरएसएस के एक दिग्गज को पुलिस ने भारत रक्षा नियम के तहत गिरफ्तार किया था. वह एक इंजीनियरिंग कॉलेज में गणित के प्रोफेसर थे. चूंकि उन्हें कठोर मीसा (आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम) के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया था, इसलिए उन्हें थोड़े समय के भीतर रिहा कर दिया जाता. फिर भी वह एक असहाय महिला की तरह विलाप करते पाए जाते. जब भी उनकी दूसरी पत्नी और बच्चा उनसे जेल में मिलने आते तो उन्हें देखना दयनीय होता. वह जेल अधिकारियों से अपनी पत्नी के साथ दिन बिताने की अनुमति देने के लिए जिद करते. मैं यह यह दिखाने के लिए बता रहा हूं कि आरएसएस चरित्र-निर्माण के बारे में चाहे कितनी भी बातें करे, उनके लोगों में चरित्र की पूरी तरह से कमी है. लेकिन जो लोग आरएसएस के साथ नहीं थे, लेकिन जनसंघ से जुड़े थे, वे जेल में आरएसएस के लोगों की तरह नहीं टूटे. यह दिखाता है कि आरएसएस के बाहर के लोग अधिक मजबूत इरादों वाले हैं.
जेल में भी, आरएसएस के सदस्य अपनी विचारधारा और संस्कृति को दूसरों पर थोपने की कोशिश कर रहे थे. एक बार, जयप्रकाश नारायण की सलामती के लिए प्रार्थना करने के लिए जेल परिसर में एक मंदिर के पास सभी को इकट्ठा होने के लिए कहा गया. वहां इकट्ठा हुए लोगों में अन्य राजनीतिक दलों और धार्मिक समुदायों के सदस्य भी थे. फिर भी, आरएसएस के सदस्यों ने ऐसा व्यवहार किया जैसे वे आरएसएस का कोई कार्यक्रम आयोजित कर रहे हों. इतना ही नहीं, एक आरएसएस की प्रार्थना हम सब पर थोप दी गई. जनसंघ के सदस्य, आनंद मार्गी, उपद्रवी, काला बाजारी करने वाले, चोर आदि सभी आपातकाल के दौरान जेल में थे. हम सब अपना भोजन एक साथ पकाते थे, एक साथ भोजन करते थे और कई विषयों पर गहन बहस करते थे. हमारे बीच कोई मतभेद नहीं था. लेकिन कुछ आरएसएस नेताओं ने दूसरों पर अपने नियम थोपना शुरू कर दिया. भोजन करने से पहले उन्होंने सभी को मंत्रों का जाप करने का आदेश दिया. परिणामस्वरूप, कई लोगों ने अलग से खाना बनाना और खाना शुरू कर दिया. यह केवल यह साबित करता है कि आरएसएस के लोग केवल अपनी संस्कृति से प्यार कर सकते हैं. वे दूसरी संस्कृतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते.
जब मैं बैंगलोर जेल में था, तो मैंगलोर के पास एक जगह कल्लाडका में इस्माइल नाम के एक मुस्लिम की हत्या कर दी गई. कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने इस्माइल की हत्या के लिए आरएसएस के लोगों पर आरोप लगाया. उनका आरोप सुनकर मैं हैरान रह गया. ख़ुफ़िया विभाग की जांच शुरू की गई. कई आरएसएस कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर बैंगलोर जेल लाया गया. बाद में उच्च न्यायालय ने इस मामले को खारिज कर दिया. मुझे यह धारणा थी कि उर्स ने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए आरएसएस को दोषी ठहराया था. मैं विश्वास नहीं कर सकता था कि इसके पीछे आरएसएस के लोग थे. लेकिन सच्चाई मुझे तब पता चली जब मैंने अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी (कन्नड़ नाडु) शुरू की. कल्लाडका में कुछ आरएसएस के लड़के बागी हो गए और मेरी पार्टी में शामिल हो गए. उन लड़कों ने मुझे बताया कि आरएसएस नेताओं ने इस्माइल को मारने की साजिश रचने के लिए कई जगहों पर गुप्त रूप से बैठकें की थीं. कारण: आरएसएस परिवार की एक लड़की मुस्लिम लड़के इस्माइल के साथ प्रेम संबंध में थी.
ए.के. सुब्बैया की "हिडन फेस ऑफ आरएसएस" से उद्धृत | अनुवाद: डॉ. हयवदन मूडूसग्री
| प्रकाशक: लंकेश प्रकाशन, 2015
ज़ोहरान ममदानी ने तोड़ी अमेरिकी डेमोक्रेट्स की उदासी!
भारतीय मूल की प्रसिद्ध फिल्म निर्माता मीरा नायर और युगांडा के विद्वान महमूद ममदानी के बेटे, ज़ोहरान ममदानी ने न्यूयॉर्क शहर के मेयर पद के लिए डेमोक्रेटिक प्राइमरी में एक आश्चर्यजनक जीत दर्ज कर अमेरिकी राजनीति में एक नया अध्याय लिख दिया है. विभिन्न समाचार रिपोर्टों के अनुसार, उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी एंड्रयू क्योमो को हराकर 43.5% वोट हासिल किए, जबकि क्योमो को 36.4% वोट मिले. यह जीत उन्हें न्यूयॉर्क के पहले मुस्लिम और दक्षिण एशियाई मेयर बनने की राह पर ले आई है. अपनी जीत के बाद नेल्सन मंडेला को याद करते हुए ममदानी ने कहा, "जब तक कोई काम हो न जाए, वह हमेशा असंभव ही लगता है."
ममदानी ने हिंदी फिल्मों के गानों और क्लिप्स का इस्तेमाल कर अपना चुनावी कैम्पेन बनाया था.
विरोध और भारतीय प्रवासियों की राजनीति: लेकिन ममदानी की यह राह आसान नहीं थी. जैसा कि प्रज्वल भट की एक रिपोर्ट में बताया गया है, कुछ हिंदू अमेरिकी समूहों ने उनके खिलाफ एक आक्रामक अभियान चलाया. इन समूहों ने ममदानी को एक "खतरनाक कट्टरपंथी" के रूप में चित्रित किया और उन पर न्यूयॉर्क के भविष्य को खतरे में डालने का आरोप लगाया. इस विरोध का एक बड़ा कारण भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ममदानी का आलोचनात्मक रुख भी था, जिसने अमेरिका में मोदी के समर्थकों को नाराज कर दिया. यह अभियान तब और निचले स्तर पर चला गया जब न्यूयॉर्क में (न्यूयॉर्क को वैश्विक इंतिफादा से बचाओ, ममदानी को खारिज करो) जैसे भड़काऊ संदेश वाले बैनर लगाए गए. यह घटनाक्रम दर्शाता है कि कैसे प्रवासी भारतीय समुदाय के कुछ वर्ग लोकतांत्रिक बहस के बजाय सांप्रदायिक भय को हवा दे रहे हैं.
जीत का सफल फॉर्मूला: एक नई राजनीति की दस्तक: तो ममदानी ने यह असंभव सी दिखने वाली जीत कैसे हासिल की? लेखक आनंद गिरिधरदास अपने विश्लेषण में इसकी व्याख्या करते हैं. उनके अनुसार, ममदानी की जीत कोई चमत्कार नहीं, बल्कि सोची-समझी रणनीति का परिणाम है. पहला, उन्होंने "भावनाओं की राजनीति" को अपनाया. उन्होंने समझा कि लोगों को अपनी नीतियों से सहमत कराने से पहले उन्हें भावनात्मक रूप से जोड़ना ज़रूरी है. दूसरा, उन्होंने "अपने समर्थकों को उत्साहित कर मध्यमार्गियों को आकर्षित करने" की रणनीति अपनाई. उन्होंने किराए पर रोक और मुफ्त बस सेवा जैसे साहसिक विचार पेश किए, जिससे उनके समर्थक उत्साहित हुए और उनकी बातें आम लोगों तक पहुंचीं. तीसरा, और सबसे महत्वपूर्ण, उनकी जीत का आधार जमीनी स्तर का संगठन था. उनका अभियान टीवी विज्ञापनों का नहीं, बल्कि घर-घर जाकर लोगों से मिलने का अभियान था.
9/11 के बाद की राजनीति का अंत? इस जीत के गहरे राजनीतिक मायने भी हैं. लेखक स्पेंसर एकरमैन अपने लेख में तर्क देते हैं कि ममदानी की जीत उस शहर में हुई है जो 9/11 हमले का केंद्र था, और यह उस "डर और राष्ट्रवाद की राजनीति" के अंत का प्रतीक है जो दो दशकों से हावी रही है. एकरमैन के अनुसार, शक्तिशाली कॉर्पोरेट और वित्तीय ताकतों ने लोगों को बांटने के लिए डर का इस्तेमाल किया, लेकिन ममदानी की जीत ने दिखाया कि आम लोगों के मुद्दे—जैसे आवास का संकट और महंगाई—विभाजनकारी राजनीति पर भारी पड़ सकते हैं. एक समाजवादी उम्मीदवार की जीत, वह भी दुनिया की वित्तीय राजधानी में, यह दर्शाती है कि लोग अब यथास्थिति से तंग आ चुके हैं. ज़ोहरान ममदानी की जीत सिर्फ एक चुनावी उलटफेर नहीं है. यह एक ऐसे नेता का उदय है जो भारतीय प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं और एक प्रगतिशील, समावेशी और भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई राजनीति की वकालत करते हैं. नवंबर का मुख्य चुनाव अभी बाकी है, लेकिन उनकी प्राइमरी जीत ने पहले ही अमेरिकी राजनीति में, विशेषकर प्रवासी समुदाय के लिए, एक महत्वपूर्ण संदेश दे दिया है.
ट्रम्प की "चापलूसी" पर पाकिस्तान में घमासान, नोबेल शांति पुरस्कार नामांकन पर विवाद
डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ईरान-इज़राइल युद्ध में हस्तक्षेप कर संघर्षविराम घोषित करने के बाद पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2026 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है. हालांकि अब 'द गार्डियन' की रिपोर्ट है कि ईरान पर अमेरिकी हमले के बाद ट्रम्प के नामित होने पर विवाद छिड़ गया है. इस मामले में विपक्ष, पूर्व राजनयिक और कार्यकर्ताओं ने सरकार की आलोचना की है. पूर्व राजदूत मलीहा लोधी ने कहा, "जो लोग यह नामांकन लाए, उन्हें माफी मांगनी चाहिए." सरकार ने बचाव में कहा कि ट्रम्प ने भारत-पाकिस्तान संघर्ष रोकने में निर्णायक भूमिका निभाई थी. रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ बोले, "ट्रम्प के प्रयासों से कई बड़े टकराव रुके." वहीं विपक्ष ने इसे ट्रम्प की "चापलूसी" और "गलत फैसला" बताया.
ट्रम्प को खुश करने में जुटा 'नाटो', 'डैडी' की बजट बढ़ाने की बात भी मानी, स्पेन को मिली खुली धमकी
25 जून को हेग (नीदरलैंड्स) में हुए नाटो शिखर सम्मेलन का सारा ध्यान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर केंद्रित रहा. सम्मेलन का पूरा एजेंडा छोटा कर केवल एक सत्र और एक मुद्दा रखा गया. सदस्य देशों द्वारा 2035 तक रक्षा खर्च को GDP के 5% तक बढ़ाने की प्रतिबद्धता, ताकि ट्रम्प को नाराज़ न किया जाए. ट्रम्प पहले से ही नाटो के प्रति कम प्रतिबद्धता दिखा चुके हैं और उन्होंने यूरोपीय देशों पर अमेरिका पर अधिक निर्भर रहने का आरोप लगाया है. उन्होंने लंबे समय से 5% रक्षा खर्च की मांग की थी. अब ये मांग पूरी कर दी गई है, जिससे माना जा रहा है कि नाटो इस सम्मेलन से सुरक्षित निकल जाएगा. इस बीच दुनिया में चर्चा नाटो के चीफ के ट्रम्प को ‘डैडी’ पुकारने पर भी खूब हो रही है.
सभी 32 नाटो सदस्य देश 2035 तक अपनी GDP का 5% रक्षा और सुरक्षा खर्चों पर सालाना खर्च करेंगे, जिसमें से 3.5% कोर डिफेंस पर और 1.5% साइबर सुरक्षा, अवसंरचना, नवाचार और तैयारियों पर होगा. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा कि वह नाटो शिखर सम्मेलन से “थोड़ा बदला हुआ नजरिया” लेकर लौट रहे हैं और उन्होंने देशों के प्रति उनके “प्यार और जुनून” की सराहना की. उन्होंने 5% लक्ष्य की खुले दिल से तारीफ की और कहा, "हम यहां हैं ताकि उनकी रक्षा में मदद कर सकें. नाटो शिखर सम्मेलन के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा कि वह इस सम्मेलन से नाटो के बारे में "थोड़ा बदला हुआ नजरिया" लेकर जा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने "अपने-अपने देशों के प्रति वहां दिखाया गया प्यार और जुनून" देखा.
नाटो शिखर सम्मेलन के दौरान द हेग में उस स्थल के बाहर प्रदर्शन कर रहे एक्सटिंक्शन रिबैलियन और अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और मौके से घसीटते हुए हटाया. प्रदर्शनकारी गाजा युद्ध को रोकने और जलवायु संकट पर तत्काल कार्रवाई की मांग कर रहे थे. जैसे ही विश्व नेता सम्मेलन में भाग लेने पहुंचे, प्रदर्शनकारियों ने सड़क जाम की और बैनर लहराते हुए नारे लगाए. पुलिस ने तुरंत कार्रवाई करते हुए कई प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया. इस पूरी घटना का वीडियो भी सामने आया है, जिसमें पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को जबरन हटाते देखा जा सकता है.
स्पेन को चेतावनी: ट्रम्प ने खासतौर पर स्पेन को निशाना बनाया, जो इस रक्षा खर्च संकल्प में शामिल नहीं हुआ. उन्होंने धमकी दी कि वे व्यापारिक उपायों के ज़रिये उन्हें “दो गुना भुगतान” कराएंगे और निजी तौर पर वार्ताओं की कमान संभालेंगे. स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज़ ने कहा कि स्पेन बिना 5% लक्ष्य तक पहुंचे भी नाटो की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है. उन्होंने 2027 के आम चुनाव में फिर से चुनाव लड़ने की घोषणा भी की.
यूक्रेन को और मदद का वादा: एक यूक्रेनी पत्रकार के पति के मोर्चे पर तैनात होने की बात सुनकर ट्रम्प ने यूक्रेन को अधिक पैट्रियट मिसाइलें देने पर विचार करने का वादा किया. यह मुद्दा यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के साथ द्विपक्षीय बैठक में भी उठा.
नाटो महासचिव की ट्रम्प की तारीफ: नाटो महासचिव मार्क रुटे ने बार-बार ट्रम्प की नेतृत्व क्षमता की तारीफ की, जिसके चलते रक्षा खर्च पर सहमति बनी. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर “झूठ फैलाने” का आरोप लगाया.
नेताओं की प्रतिक्रियाएं :
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने ट्रम्प को “भरोसेमंद साझेदार” बताया और यूक्रेन को समर्थन जारी रखने की प्रतिबद्धता जताई.
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि सम्मेलन से साबित होता है कि यूरोप अब अपनी रक्षा के प्रति अधिक ज़िम्मेदार हो रहा है.
जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक मर्ज़ ने कहा कि ट्रम्प ने स्पष्ट कर दिया है कि वे नाटो के अनुच्छेद 5 (सामूहिक रक्षा) के प्रति प्रतिबद्ध हैं.
इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने कहा कि नया रक्षा लक्ष्य इटली के लिए व्यावहारिक है क्योंकि इसमें लचीलापन है.
'डैडी को कभी-कभी सख़्त भाषा का इस्तेमाल करना पड़ता है,' नाटो प्रमुख की टिप्पणी
नाटो महासचिव मार्क रुटे ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के ईरान और इज़रायल को लेकर दिए गए तीखे बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा— "डैडी को कभी-कभी सख़्त भाषा का इस्तेमाल करना पड़ता है." यह टिप्पणी ट्रम्प के उस बयान के संदर्भ में थी जिसमें उन्होंने ग़ुस्से में कहा था कि “ईरान और इज़रायल दोनों को ही नहीं पता कि वे क्या कर रहे हैं”, जब दोनों ने उनके घोषित युद्धविराम का उल्लंघन किया था.
ट्रम्प ने यह बयान एक प्रारंभिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिया, जहां पत्रकारों के सवालों का केंद्र ईरान पर अमेरिकी बमबारी और उसके प्रभाव को लेकर उठी रिपोर्टों को ट्रम्प द्वारा खारिज करना था. इस दौरान नाटो महासचिव मार्क रुटे ने ट्रम्प को "डैडी" कहकर प्रशंसा की.
नाटो पर ट्रम्प ने कहा- “हम पूरी तरह उनके साथ हैं. वे आज कुछ बहुत बड़ी घोषणाएं करने जा रहे हैं. मैं कई सालों से कह रहा था कि खर्च 5% तक बढ़ाया जाए. अब वे 2% से सीधे 5% तक जा रहे हैं. बहुत से देश तो पहले 2% भी नहीं दे रहे थे. यह बहुत बड़ी खबर है. नाटो हमारे साथ बहुत मज़बूत होने जा रहा है.” पिछले वक्तव्यों से उलट, इस बार ट्रम्प का मूड सहयोगात्मक रहा, जबकि पहले उन्होंने यूरोपीय और कनाडाई सहयोगियों पर रक्षा में कम खर्च कर अमेरिका की सुरक्षा छतरी का लाभ उठाने का आरोप लगाया था.
नाटो महासचिव रुटे ने ट्रम्प की प्रशंसा करते हुए कहा— “अगर ट्रम्प राष्ट्रपति नहीं होते तो यह कभी नहीं होता. बुधवार को असली धमाका होगा.” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह निर्णय “अमेरिकी करदाताओं से अधिक पैसा मांगने” के लिए नहीं, बल्कि “यूरोप और कनाडा को अधिक ज़िम्मेदारी लेने” के लिए है.
ईरान पर बमबारी को लेकर रुटे बोले- यह न सिर्फ ईरान बल्कि अन्य देशों को भी यह संदेश देता है कि ट्रम्प “शांति के पक्षधर” हैं, लेकिन “अमेरिकी सैन्य ताकत का उपयोग करना जानते हैं.” ईरान पर बमबारी से हुए नुकसान की खबरों पर ट्रम्प ने सीएनएन और न्यूयॉर्क टाइम्स की आलोचना की और उन्हें झूठ फैलाने वाला बताया.
ट्रम्प और हेगसेथ ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले की क्षति को लेकर बदला सुर, नहीं हुआ है 'सबकुछ नष्ट'
'द गार्डियन' की रिपोर्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ ने सप्ताहांत में ईरान के परमाणु ठिकानों पर हुए अमेरिकी हमलों के प्रभाव को लेकर संदेह जताया है. पेंटागन से लीक हुए एक मूल्यांकन के अनुसार, ईरानी परमाणु कार्यक्रम को केवल कुछ महीनों के लिए पीछे धकेला जा सका है.
ट्रम्प ने नाटो शिखर सम्मेलन में कहा, "इंटेलिजेंस बहुत अनिश्चित है. जानकारी कहती है कि हमें नहीं पता. यह बेहद गंभीर हो सकता है. यही इंटेलिजेंस का सुझाव है." हालांकि ट्रम्प ने फिर यह दावा दोहराया कि “यह बहुत गंभीर था. सब कुछ नष्ट हो गया.” बाद में उन्होंने कहा कि “जमाकी खुफिया सूचनाओं” के अनुसार ईरान का परमाणु कार्यक्रम "दशकों" पीछे चला गया है. ट्रम्प ने अमेरिकी बंकर-भेदी बमों से फोर्दो और नतांज़ यूरेनियम संवर्धन स्थलों पर हुए हमलों की तुलना द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से की. उन्होंने इसे "संघर्ष समाप्त कराने वाले" हथियारों जैसा बताया.
दिन चढ़ते-चढ़ते ट्रम्प के दावे और भी बढ़-चढ़कर हो गए. उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की उस रिपोर्ट को भी नकार दिया, जिसमें कहा गया था कि ईरान के 60% संवर्धित यूरेनियम का 400 किलोग्राम का भंडार अब ट्रैक में नहीं है और शायद स्थानांतरित कर दिया गया है. अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस पहले ही यह स्वीकार कर चुके हैं कि अमेरिका को इस यूरेनियम का ठिकाना नहीं पता है. ट्रम्प ने कहा कि अमेरिका और ईरान के बीच अगले सप्ताह वार्ता होगी और शायद कोई नया समझौता हो सकता है. “हम अगले हफ्ते ईरान से बात करेंगे. हम समझौता कर सकते हैं, नहीं भी कर सकते हैं…मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.”
संघर्षविराम पर भी ट्रम्प के सुर बदले : ट्रम्प ने पहले इसे "अनंतकालीन" और "हमेशा के लिए चलने वाला" कहा था, लेकिन अब उन्होंने संकेत दिया कि यह जल्द ही खत्म भी हो सकता है. “दोनों पक्ष थके हुए हैं…लेकिन क्या यह फिर से शुरू हो सकता है? हां, शायद. जल्दी भी.”
रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ का बयान भी बदला : जहां उन्होंने पहले कहा था कि ईरान की परमाणु क्षमता “समाप्त” कर दी गई है, अब उन्होंने कहा कि नुकसान “मध्यम से गंभीर” स्तर का है. उन्होंने यह भी कहा कि पेंटागन से हुई जानकारी की लीक की एफबीआई जांच कराएगी, पर साथ ही दावा किया कि लीक की गई जानकारी “गलत” है. इज़राइल ने भी दावा किया - हमले ने ईरान को "वर्षों पीछे धकेला" इज़राइली सेना ने कहा कि वे अभी भी क्षति का मूल्यांकन कर रहे हैं, लेकिन एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा. “हमने उन्हें वर्षों पीछे धकेल दिया.”
इज़राइली परमाणु ऊर्जा आयोग (IAEC) ने कहा कि हमलों से फोर्दो की "मूलभूत संरचना नष्ट हो गई है" और यह सुविधा अब "अप्रचालित" हो चुकी है. लीक हुए अमेरिकी रक्षा खुफिया एजेंसी (DIA) के मूल्यांकन की बात करें तो सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार, फोर्दो और नतांज़ की भूमिगत सुविधाएं पूरी तरह नष्ट नहीं हुईं हैं और वहां के सेंट्रीफ्यूज कुछ महीनों में दोबारा चालू हो सकते हैं. यह रिपोर्ट “कम आत्मविश्वास” वाली श्रेणी में रखी गई है और आगे के विश्लेषण में यह भी हो सकता है कि क्षति और कम हो. IAEA प्रमुख राफेल ग्रॉसी ने कहा- “तकनीकी ज्ञान और औद्योगिक क्षमता ईरान के पास है. इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता. इसलिए हमें उनके साथ काम करना होगा.” उन्होंने कहा कि परमाणु स्थलों पर IAEA निरीक्षकों की वापसी ही क्षति के सटीक मूल्यांकन का एकमात्र तरीका है.
एक्सप्लेनर | इजराइल-ईरान युद्ध
5 सवालों में समझें कि जंग का हासिल क्या है?
ईरान का यूरेनियम भंडार का क्या होता है? अमेरिका ने इज़राइल से क्या वादे किए, और क़तरियों ने ईरान से? क्या हूती इस समझौते का हिस्सा हैं? और गाजा में युद्ध पर इसका क्या असर होगा? ट्रम्प की आश्चर्यजनक घोषणा ने "12 दिवसीय युद्ध" को समाप्त कर दिया, लेकिन इस युद्धविराम के बारे में कुछ भी सुलझा हुआ महसूस नहीं होता, खासकर इसकी शर्तें. इजराइल से निकलने वाले प्रमुख अख़बार हारेट्ज़ के लिए आमिर टिबन ने ये विश्लेषण किया है. उसके खास अंश.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दुनिया को – और कथित तौर पर, अपने कुछ वरिष्ठ सहयोगियों को भी – उस समय आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने रातों-रात सोशल मीडिया पर घोषणा की कि इज़राइल और ईरान एक युद्धविराम के लिए सहमत हो गए हैं, ताकि उस संघर्ष को समाप्त किया जा सके जिसे उन्होंने "12 दिवसीय युद्ध" का नाम दिया है. उनकी इस आत्म-प्रशंसा वाली पोस्ट के कई घंटों बाद इज़राइली सरकार ने प्रतिक्रिया दी, जबकि ईरानी मिसाइलें बेэр शेवा में गिरती रहीं और निर्दोष नागरिकों को मारती रहीं. प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सुबह के मध्य में युद्धविराम की स्वीकृति की पुष्टि की. इसके तुरंत बाद, ईरान से दागी गई दो बैलिस्टिक मिसाइलों ने उत्तरी इज़राइल के निवासियों को फिर से बम शेल्टरों (बंकरों) में जाने के लिए मजबूर कर दिया. जवाब में, इज़राइली रक्षा मंत्री इज़राइल काट्ज़ ने कहा कि आईडीएफ युद्धविराम के ईरान द्वारा उल्लंघन का "जोरदार" जवाब देगी और "तेहरान के केंद्र में शासन के ठिकानों के खिलाफ शक्तिशाली हमले" करने का वादा किया. इस प्रकार, युद्धविराम को लेकर अभी भी बहुत अनिश्चितता है और यह कि इज़राइल, ईरान और अन्य क्षेत्रीय ताकतों के लिए आगे इसका क्या मतलब होगा. यहाँ पाँच प्रमुख प्रश्न हैं जो निकट भविष्य को परिभाषित करेंगे – यह मानते हुए कि युद्धविराम अपने पहले दिन टिका रहता है.
युद्धविराम समझौते की सटीक शर्तें क्या हैं?
एक समय था जब अंतर्राष्ट्रीय वार्ताएं अनुभवी वकीलों और राजनयिकों द्वारा तैयार किए गए कानूनी दस्तावेजों का क्षेत्र थीं. वे दिन अब लद गए. पाकिस्तान और भारत के बीच कई दिनों के तनावपूर्ण संघर्ष को समाप्त करने वाले हालिया सौदे की तरह, इस युद्धविराम की घोषणा भी ट्रम्प के सोशल मीडिया अकाउंट पर की गई. सार्वजनिक रूप से उपलब्ध एकमात्र जानकारी वही है जो अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ साझा करने के लिए चुनी. ट्रम्प द्वारा युद्धविराम का विवरण सरल है: दोनों पक्ष गोलीबारी बंद कर दें, और युद्ध समाप्त हो जाए. लेकिन हम जानते हैं कि ट्रम्प के 'सेंड' बटन दबाने और अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि का जश्न शुरू करने से कुछ घंटे पहले, वाशिंगटन और यरूशलेम के बीच गहन चर्चा हुई थी. उसी समय, ईरानी शासन और कतर सरकार के बीच उन्मत्त फोन कॉल चल रहे थे, जिसने तेहरान और व्हाइट हाउस के बीच प्रभावी रूप से एक मध्यस्थ के रूप में काम किया. उन वार्ताओं का सार महत्वपूर्ण है – लेकिन, अभी के लिए, जनता से छिपा हुआ है. अमेरिकियों ने इज़राइल से और कतर ने ईरान से क्या वादे किए हैं. क्या किसी भी पक्ष ने अपने आचरण पर भविष्य में किसी सीमा के लिए सहमति व्यक्त की है. क्या युद्धविराम के उल्लंघन की स्थिति में जवाबी कार्रवाई के लिए स्थापित सीमाएं हैं. क्या ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम, या जो कुछ भी उससे बचा है, के संबंध में कोई रियायत दी है. क्या इज़राइल को उस मुद्दे पर ट्रम्प से कोई गारंटी मिली है. फिलहाल, हम इन प्रमुख मुद्दों के बारे में अंधेरे में हैं, और वे इस युद्धविराम के स्थायित्व और इसकी दीर्घकालिक व्यवहार्यता के लिए मुख्य खतरों, दोनों को निर्धारित कर सकते हैं. ट्रम्प ने घोषणा के कुछ घंटों बाद घोषणा की कि युद्धविराम "हमेशा के लिए" चलेगा, और इज़राइल और ईरान फिर कभी एक-दूसरे से नहीं लड़ेंगे. लेकिन जब तक हम यह नहीं जानते कि क्या सहमति हुई है, इस भव्य और व्यापक बयान पर अत्यधिक संदेह करने का अच्छा कारण है.
ईरान के परमाणु स्थलों को कितना नुकसान हुआ है?
इज़राइल ने यह युद्ध 13 दिन पहले एक मुख्य मिशन के साथ शुरू किया था: ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने से रोकना. इसी लक्ष्य ने ईरानी हवाई सुरक्षा पर शुरुआती औचक हमले को प्रेरित किया, जिसके बाद उसके परमाणु स्थलों पर सटीक हमले हुए, और अंत में ट्रम्प ने फोर्डो, नतान्ज़ और इस्फ़हान में यूरेनियम संवर्धन स्थलों पर बमबारी करने का आदेश दिया. लेकिन अब, जैसे ही धूल बैठना शुरू होती है, हम अभी भी नहीं जानते कि इन प्रतिष्ठानों को कितना नुकसान हुआ है, या ईरान को उन्हें सुधारने में कितना समय लग सकता है, अगर वह ऐसा करना चाहता है. ईरानियों ने दावा किया है कि फोर्डो में भूमिगत स्थल को केवल सतही क्षति हुई है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए – न ही ट्रम्प प्रशासन का यह आग्रह कि राष्ट्रपति की कार्रवाइयों के कारण ईरान का परमाणु कार्यक्रम "नेस्तनाबूद" हो गया है. दोनों पक्षों के अपने स्पष्ट राजनीतिक हित हैं कि वे इस कहानी को कैसे गढ़ते हैं, और उनके बयानों को बहुत संदेह की नज़र से देखा जाना चाहिए. विशेषज्ञ जो लंबे समय से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को ट्रैक कर रहे हैं, वे अपने अनुमानों में अधिक सतर्क हैं. कई इस बात से सहमत हैं कि परमाणु स्थलों को महत्वपूर्ण क्षति हुई है, लेकिन यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि क्या वे पूरी तरह से नष्ट हो गए थे या कुछ तत्व बमबारी से बच गए थे. यह युद्ध की सफलता को मापने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, लेकिन युद्धविराम की स्थिरता का आकलन करने के लिए भी. यदि इन स्थलों के कुछ हिस्से अभी भी मौजूद हैं, और ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए जो कुछ बचा है उसका उपयोग करने की कोशिश करता है, तो शांति और स्थिरता की जिस अवधि का हमें वादा किया गया है, वह काफी छोटी हो सकती है.
ईरान के 60% संवर्धित यूरेनियम के ज़खीरे का क्या हुआ?
यह प्रश्न पिछले प्रश्न की सीधी अगली कड़ी है, और युद्धविराम की दीर्घकालिक संभावनाओं के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है. ट्रम्प प्रशासन, इज़राइली सरकार और ईरानी शासन, सभी ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि इज़राइल और अमेरिका द्वारा हमला किए गए स्थलों से कुछ संवर्धित यूरेनियम बम गिराए जाने से पहले हटा दिया गया था. लेकिन इसमें से कितना बचाया गया था, और ईरान इसे वर्तमान में कहाँ संग्रहीत कर रहा है – यह हम नहीं जानते, और इसका जवाब मिलने में लंबा समय लग सकता है. ईरानी युद्ध के मैदान में अपनी शर्मनाक हार के बावजूद, अपने पास मौजूद अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम के संरक्षण को जीत के सबूत के रूप में पेश करने की कोशिश करेंगे. नेतन्याहू और ट्रम्प के लिए, यह एक दुविधा पैदा करता है. यह स्वीकार करना कि संवर्धित यूरेनियम नष्ट नहीं हुआ था, उनकी जीत की घोषणाओं पर सवाल उठाएगा और पूरे युद्ध के प्रयास पर संदेह पैदा करेगा. लेकिन दूसरी ओर – कम से कम नेतन्याहू के लिए – यह ईरानी खतरे को जीवित रखेगा और उन्हें इस पर प्रचार जारी रखने की अनुमति देगा, यदि जल्द ही इज़राइल में चुनाव होते हैं, तो वह काम खत्म करने का वादा कर सकते हैं. इज़राइल स्पष्ट रूप से ज़खीरे पर अधिक जानकारी इकट्ठा करने – और शायद इसे जब्त करने या नष्ट करने के लिए ईरान में अपनी खुफिया पैठ का उपयोग करने की कोशिश करेगा. ऐसी कार्रवाइयां एक ईरानी प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती हैं, और लड़ाई लगभग वहीं से फिर से शुरू हो सकती है जहां से यह रुकी थी.
क्या युद्धविराम समझौते में यमन में हूती भी शामिल हैं?
इज़राइल-ईरान के 12 दिनों के सीधे युद्ध के दौरान, हूतियों ने अधिकतर अपने हथियार शांत रखे. उनकी बैलिस्टिक मिसाइलों और ड्रोनों को इज़राइलियों की नींद में खलल डालने और बेन-गुरियन हवाई अड्डे को धमकी देने की कोई आवश्यकता नहीं थी: ईरानी ही इज़राइलियों की नींद हराम कर रहे थे, और देश के लिए सभी हवाई यातायात को वैसे भी रोक दिया गया था. तो हूती, जो ईरान के साथ निकटता से जुड़े हुए हैं, इस बार बाहर बैठे. लेकिन अब जब ईरान के साथ युद्ध स्पष्ट रूप से समाप्त हो गया है, जबकि गाजा में इज़राइल का 627-दिवसीय युद्ध जारी है, सवाल यह है कि क्या यमन से मिसाइलों का नियमित प्रक्षेपण देश की ओर जारी रहेगा. हूती, इज़राइल के सबसे कमजोर दुश्मन होने के बावजूद, पिछले 20 महीनों में इज़राइल पर आर्थिक बोझ डालने में शानदार ढंग से सफल रहे हैं. उन्होंने इलात बंदरगाह को बंद कर दिया और कई विदेशी एयरलाइनों को बेन-गुरियन से दूर रहने के लिए मना लिया, जब उनकी एक मिसाइल हवाई अड्डे के मैदान पर गिरी थी. तो क्या वे इज़राइल-ईरान युद्धविराम का हिस्सा हैं या नहीं, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है – विशेष रूप से रक्षात्मक इंटरसेप्टर की संभावित इज़राइली कमी के प्रकाश में.
गाजा में युद्ध पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात, गाजा का प्रश्न है. ईरान का मोर्चा कम से कम अस्थायी रूप से बंद होने के साथ, इज़राइल अब अपना ध्यान पूरी तरह से गाजा पर केंद्रित करेगा, जहां हमास अभी भी 50 बंधकों को बनाए हुए है, जिनमें से कम से कम 20 के जीवित माने जाने की आशंका है. क्या ट्रम्प ने ईरानी परमाणु स्थलों पर हमला करने के अपने फैसले के बदले में नेतन्याहू से वहां युद्ध समाप्त करने की प्रतिबद्धता ली थी. क्या इज़राइल आखिरकार अपने इतिहास के सबसे लंबे युद्ध को खत्म करने के लिए सहमत होगा. या वहां पीड़ा और व्यर्थ मृत्यु जारी रहेगी, जबकि ट्रम्प ईरान में जीत की घोषणा के बाद मध्य पूर्व में अपनी रुचि खो देंगे. हाल के दिनों में इज़राइली अधिकारियों द्वारा उल्लिखित एक सिद्धांत यह रहा है कि ईरान की कमजोरी हमास को नेतन्याहू की शर्तों पर एक समझौते के लिए सहमत होने और समझौता करने के लिए प्रेरित करेगी. लेकिन बंधकों के परिवार इस बात से चिंतित हैं कि इसका उल्टा होगा: कि हमास, ईरान के खिलाफ संयुक्त अमेरिकी-इज़राइली धोखे की कार्रवाई देखने के बाद, बातचीत को लेकर और भी अधिक संदेह से भर जाएगा.
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अट्टाबाद झील: तबाही से उपजे सौंदर्य की पाकिस्तानी गाथा
पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में स्थित अट्टाबाद झील आज विश्व के सबसे लुभावने प्राकृतिक स्थलों में गिनी जाती है, लेकिन इसके बनने की कहानी त्रासदी से भरी है. 4 जनवरी 2010 को एक भीषण भूस्खलन ने हुंजा नदी का रास्ता रोक दिया, जिससे धीरे-धीरे एक विशाल झील का जन्म हुआ. इस प्राकृतिक आपदा में 20 लोगों की जान गई, 6,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए और कराकोरम हाईवे का 25 किमी हिस्सा पूरी तरह नष्ट हो गया.
शुरुआती महीनों में जब झील का जलस्तर तेजी से बढ़ा, तब इस प्राकृतिक घटनाक्रम को भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी चमत्कारिक बताया. मात्र कुछ महीनों में बना यह 21 किमी लंबा और 100 मीटर गहरा जलाशय शिश्केट गांव को निगल गया और गुलमित को डुबोने लगा.
आज यह झील पाकिस्तान के पर्यटन मानचित्र का चमकता सितारा बन चुकी है. इसके गहरे नीले जल, ऊंचे-नीचे पर्वत और शांत वातावरण दुनियाभर से सैलानियों को आकर्षित करते हैं. लक्ज़री रिसॉर्ट से लेकर स्थानीय गेस्टहाउस तक, यहां हर बजट के यात्री के लिए ठहरने की व्यवस्था है.
भले ही झील का उद्गम आपदा से हुआ हो, लेकिन इसने स्थानीय समुदायों को नया जीवन दिया है. प्रभावित परिवारों ने खाद्य स्टॉल, बोटिंग सेवाओं, हस्तशिल्प दुकानों और टूर गाइड के रूप में आजीविका खड़ी की है. महिला सशक्तिकरण के तहत आपदा प्रबंधन और उद्यमिता में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है.
हालांकि, अट्टाबाद झील का भविष्य अभी भी अनिश्चित है. भूवैज्ञानिक मानते हैं कि यदि कोई बड़ा भूकंप आता है और मलबे की दीवार टूटती है, तो झील का जल पूरे गिलगित क्षेत्र में तबाही मचा सकता है. इसके अलावा धीरे-धीरे सिल्ट जमाव के कारण इसका आकार भी घट रहा है. फिर भी, अट्टाबाद झील केवल प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि मानव साहस, पुनर्निर्माण और सामुदायिक पुनर्जीवन की जीवंत मिसाल है. ‘बीबीसी’ में पढ़िए आपदा से बनी इस झील की दिलचस्प कहानी...
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