26/10/2025 : ममदानी पर आकार पटेल | बिहार पर 5 विश्लेषण | आदिवासी कविताओं पर अशोक वाजपेयी | सुधा मूर्ति की जात | अकादमिक आपदा पर अपूर्वानंद | मकबूल से जलते दक्षिणपंथी | घपलेबाज के साथ मोदी सरकार के तार
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
न्यू यॉर्क को नई राह दिखा रहा यह गुजराती पंजाबी लड़का
कुर्सी कुमार की सबसे मुश्किल परीक्षा अब शुरू हुई है
यादवों से किनारा कर कहीं फंस न जाए एनडीए
बिहार में बिना लहर चुनाव जीतने का यह नया मॉडल
सुशांत की बहन नहीं अपनी पहचान लिए मैदान में है यह प्रत्याशी
तेजस्वी के माई समीकरण में अब बाप की एंट्री
मोदी के नए नारों से गायब क्यों हैं नीतीश कुमार
जिसे खिलौना समझा वो तो हाथ में केमिकल बम निकला
अपनों को निकाल बाहरियों को बुलाने का यह हसीन सपना
सुधा मूर्ति की वह दलील जो गिनती से डरती है
सरकार के बड़े इवेंट का पार्टनर निकला धोखाधड़ी का आरोपी
हुसैन की पेंटिंग के दाम और विवाद दोनों आसमान पर
एक किताब जिसमें एक सौ इकतालीस भाषाएं बोलती हैं
आकार पटेल : ममदानी कैसे जीत रहे हैं पूंजीवादी न्यू यॉर्क का दिल और वोट?
अगर सब कुछ ठीक रहा, और आपका ये स्तंभकार सचमुच उम्मीद कर रहा है कि सब ठीक ही हो, तो दुनिया का सबसे मशहूर शहर जल्द ही एक ऐसे आदमी द्वारा जीता और चलाया जाएगा जिसके पिता गुजराती और माँ पंजाबी हैं. ज़ोहरान ममदानी ने जून में डेमोक्रेटिक पार्टी का नॉमिनेशन जीता और 4 नवंबर को वे न्यूयॉर्क के मेयर बनने के लिए आम चुनाव भी जीत सकते हैं. मैं जिस बात पर फ़ोकस करना चाहता था, वो था उनका कैंपेन और ये कि वे कैसे सबसे ऊपर आए. इसी साल जनवरी में, पोल में उन्हें सिर्फ़ 1% वोट मिल रहे थे, लेकिन जून तक उन्होंने प्राइमरी (वो चुनाव जो ये तय करता है कि आम चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रतिनिधि कौन होगा) में 43% वोट हासिल कर लिए थे और अब पूरे शहर के वोटरों के बीच हुए पोल में उन्हें 50% वोट मिलते दिख रहे हैं. ये सब कैसे हुआ? अमेरिकी इस तरह के विश्लेषण को ‘पंडिताई’ कहते हैं और चलिए हम भी थोड़ी इसमें शामिल होते हैं.
सबसे पहले, शहर की डेमोग्राफ़िक्स यानी आबादी के आंकड़ों पर एक नज़र डालते हैं. न्यूयॉर्क में 3,50,000 करोड़पति और 123 अरबपति हैं, जैसा कि उस जगह से उम्मीद की जा सकती है जहाँ वॉल स्ट्रीट है. लेकिन शहर की एक चौथाई आबादी ग़रीबी में रहती है, जैसा कि उस शहर में ग़रीबी को परिभाषित किया गया है. परिभाषा ये है कि चार लोगों का परिवार जो साल में 47,000 डॉलर या उससे कम पर गुज़ारा कर रहा है. यानी कुल मिलाकर 20 लाख से ज़्यादा न्यू यॉर्क के लोग.
ममदानी ने अपने कैंपेन की शुरुआत रहन-सहन के ख़र्च से जुड़ी इस समस्या पर फ़ोकस करने से की. यह आम धारणा और पोलिंग के ख़िलाफ़ था, जिसमें दिखाया गया था कि वोटरों के लिए अपराध और सुरक्षा सबसे बड़ी प्राथमिकताएँ थीं. ममदानी के विरोधियों ने उन्हीं मुद्दों पर ध्यान दिया, लेकिन उन्होंने रहन-सहन के ख़र्च के मुद्दे को उठाया और इसे अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया. फिर उन्होंने तीन मुख्य समाधान पेश किए: किराया-स्थिर अपार्टमेंट (जिनमें 20 लाख किरायेदार रहते हैं) पर चार साल का रेंट फ़्रीज़; पाँच साल तक के बच्चों के लिए मुफ़्त देखभाल (जिस पर एक परिवार का लगभग 22,000 डॉलर सालाना ख़र्च होता है अगर माता-पिता दोनों काम कर रहे हों); और मुफ़्त बसें.
वह एक साल पहले अपने कैंपेन की शुरुआत से लेकर अब तक बिना किसी बदलाव के इसी संदेश पर टिके रहे. उनकी सफलता का दूसरा तत्व स्वयंसेवकों की वो फ़ौज है जिसने उनके मक़सद को अपना लिया. जून में इनकी संख्या 50,000 थी, जिनमें से 30,000 ने घर-घर जाकर, सड़कों पर प्रचार करके या उनके लिए पैसे जुटाने या नए स्वयंसेवकों को जोड़ने के लिए फ़ोन कॉल करने में हिस्सा लिया था. अक्टूबर के अंत तक, यह संख्या लगभग दोगुनी होने की संभावना है.
यह एक चौंका देने वाली संख्या है और इसे दो चीज़ों से समझा जा सकता है. इसका आधार ममदानी के राजनीतिक घर, ‘डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट्स ऑफ़ अमेरिका’ की न्यूयॉर्क शाखा से आता है. यह एक ऐसा समूह है जिसने केवल एक दशक पहले चुनावों में भाग लेना शुरू किया था, लेकिन इसे सफलता मिली है क्योंकि यह कामकाजी वर्ग के लोगों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर पूरी तरह से केंद्रित है. ममदानी के कैंपेन ने उन स्वयंसेवकों की संख्या को बहुत बढ़ा दिया जिन्हें डीएसए ने पिछले चुनावों में तैनात किया था. उनकी नौजवानों की कैंपेन टीम (वह 34 साल के हैं और उनकी टीम के कई लोग उनसे भी छोटे हैं), जिनमें से ज़्यादातर को इतने बड़े स्तर की किसी चीज़ को संभालने का कोई ख़ास अनुभव नहीं था, वे आम सलाहकारों और रणनीतिकारों की तुलना में अधिक सक्षम और प्रभावी साबित हुए हैं.
तीसरा तत्व उम्मीदवार ख़ुद थे. ममदानी मुसलमान हैं और खुले तौर पर अपनी पहचान बताते हैं, वह भी एक ऐसे शहर में जहाँ इस्लामोफ़ोबिया एक मुद्दा रहा है, ख़ासकर 9/11 के बाद. लेकिन न्यूयॉर्क एक ऐसा शहर भी है जहाँ 40% आबादी अमेरिका के बाहर पैदा हुई थी और जहाँ मुसलमानों और दक्षिण एशियाई लोगों की एक बड़ी आबादी है, जो उनके मक़सद के लिए एकजुट हुई है.
इतना ही महत्वपूर्ण है उनका अपने आकर्षण और प्रतिभा के कारण युवा यहूदी न्यू यॉर्कर्स सहित सभी तरह के लोगों को अपनी ओर खींचने की क्षमता. उनका शानदार सोशल मीडिया आउटपुट सालों तक एक मॉडल के रूप में स्टडी किया जाएगा और कई महीने पहले से ही, पूरे अमेरिका के राजनेता इसकी नक़ल कर रहे थे, जिनमें से ज़्यादातर बुरी तरह से नक़ल कर रहे थे क्योंकि उनमें ममदानी की तरह हर चीज़ को सहज और मज़ेदार दिखाने की क्षमता नहीं है. एक ख़ुशमिज़ाज योद्धा, जैसा कि अमेरिकी पंडितों ने उन्हें कहा.
मेरे ख़याल में ये तीन चीज़ें 4 नवंबर को उनकी (उम्मीद है कि) जीत की नींव हैं. मैंने अपने पिछले कॉलम में इस पर बात की है, लेकिन अगर और जब वह जीतते हैं, तो वह उस बदलाव का प्रतीक होंगे जिस तरह से कई अमेरिकी इज़राइल को देखते हैं. पोल लगातार दिखाते हैं कि अब ज़्यादातर अमेरिकी इज़राइल के रंगभेद और नरसंहार की प्रथाओं के कारण फ़िलिस्तीनियों के साथ सहानुभूति रखते हैं. लेकिन राजनीति में इस बदलाव को नहीं अपनाया गया है क्योंकि इज़राइल लॉबी शक्तिशाली और क्रूर है और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों का करियर तबाह कर सकती है. ममदानी ने उनके सबसे तीखे हमलों का सामना किया है, उन्हें उम्मीद के मुताबिक, जिहादी, कट्टरपंथी और यहूदी-विरोधी वगैरह कहा गया. हम यह इसलिए जानते हैं क्योंकि यह प्राइमरी में उनके प्रतिद्वंद्वी के हमले का एक ज़रूरी हिस्सा था.
यह अब भी जारी है, लेकिन यह उतना असरदार नहीं रहा जितना शायद कुछ साल पहले तक हो सकता था. इसकी वजह उनका साहस और साथ ही इज़राइली सरकार का भयावह व्यवहार भी है.
आशावादी सोचते हैं कि अगर वह न्यूयॉर्क को सक्षम रूप से चलाने में कामयाब होते हैं, तो उनका कैंपेन और उनका प्लेटफ़ॉर्म अमेरिका में पूरी डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए एक मॉडल पेश कर सकता है. हम देखेंगे कि ऐसा होता है या नहीं, लेकिन यह सच है कि पार्टी के अंदर के लोगों ने ऐसा कोई दूसरा विकल्प पेश नहीं किया है जो ममदानी के विकल्प जितना मौलिक और (फिर से उम्मीद है कि) उतना ही सफल हो.
यह कितनी बड़ी उपलब्धि होगी अगर एक युवा गुजराती-पंजाबी लड़का दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को एक नई दिशा देने में कामयाब हो जाए.
बिहार चुनाव पर पांच विश्लेषण / लेख
नीतीश-नीति: बिहार के सीएम और उनकी पार्टी के लिए इस पल का क्या मतलब है?
दो दशकों से ज़्यादा समय में, नीतीश कुमार ने चार लोकसभा चुनावों और इतने ही राज्य चुनावों में जद(यू) का नेतृत्व किया है. नतीजे चाहे जो भी रहे हों, एक बात हमेशा स्थिर रही है: नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बने रहना. इंडियन एक्सप्रेस के संतोष कुमार ने नीतीश कुमार का लंबा प्रोफाइल किया है.
यह एक असामान्य घोषणा थी, यह देखते हुए कि नीतीश कुमार, जो राज्य के नेतृत्व वाली कल्याणकारी योजनाओं के प्रस्तावक हैं, ने अतीत में सार्वजनिक रूप से मुफ़्त की चीज़ों और सीधे लाभ देने की भाषा का विरोध किया है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि वह सब्सिडी मॉडल को प्राथमिकता देते हैं. सरकार के आलोचकों ने इस घोषणा में एक तरह की हताशा का संकेत देखा — कि लगभग दो दशकों तक सत्ता में रहने के बाद मुख्यमंत्री अब अपने मन के मालिक नहीं रहे. आख़िरकार, उनका स्वास्थ्य चर्चा का विषय रहा है, सत्ता-विरोधी लहर एक वास्तविक डर था, और उनकी सहयोगी पार्टी, भाजपा, वर्षों तक उनके पीछे रहने के बाद, अब बराबरी करती दिख रही थी.
फिर भी, उनके क़रीबी लोग मुफ़्त बिजली की घोषणा का हवाला देते हुए कहते हैं कि नीतीश कुमार पूरी तरह से नियंत्रण में हैं. मुख्यमंत्री आवास के एक क़रीबी सूत्र बताते हैं, “यह योजना वास्तव में भाजपा का विचार था, जिसका उनके नौकरशाहों ने भी समर्थन किया. मुख्यमंत्री सहमत हो गए, लेकिन उन्होंने योजना में अपना मूल्य-वर्धन किया — कि उपभोक्ता अपनी छतों पर सौर पैनल भी लगवा सकते हैं. अत्यंत ग़रीब परिवारों के लिए, सरकार पूरी लागत वहन करेगी, और बाक़ियों के लिए, सरकार उचित सहायता प्रदान करेगी. उन्होंने सौर पैनल के विचार पर ज़ोर दिया ताकि समय के साथ सरकारी खजाने पर मुफ़्त योजना का बोझ कम हो सके”.
पिछले दो दशकों में, नीतीश ने चार लोकसभा चुनावों और इतने ही राज्य चुनावों में जद(यू) का नेतृत्व किया है. नतीजे चाहे जो भी रहे हों, एक बात हमेशा स्थिर रही है: नीतीश मुख्यमंत्री के रूप में. वह गठबंधनों के बीच एक ऐसे व्यक्ति की सहजता से चले हैं जो एक परिचित रास्ते को पार कर रहा हो, हर बार अपने सहयोगियों और प्रतिद्वंद्वियों को अपना मूल्य रेखांकित करते हुए.
लेकिन इस बार अलग हो सकता है. 74 साल की उम्र में, नीतीश स्पष्ट रूप से धीमे हो रहे हैं. वह व्यक्ति, जो सतर्क और सावधान रहने और तथ्यों और आँकड़ों पर गहरी पकड़ के लिए जाना जाता है, अक्सर बीच वाक्य में भटक जाते हैं. विधानसभा सत्रों के दौरान विधान सभा कार्यालय में पत्रकारों के साथ उनकी बातचीत, जो एक नियमित विशेषता थी, 2019 से कम हो गई है, और उन्होंने मीडिया साक्षात्कारों से परहेज़ किया है.
दो दशक किसी भी पैमाने पर एक लंबा समय है, लेकिन राजनीति के लिए तो निश्चित रूप से. जैसे ही नीतीश कुमार एक और अभियान के लिए मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं, उनके आसपास बहुत कुछ बदल गया है.
एक पीढ़ीगत बदलाव : जब नीतीश ने 2005 में अपना पहला बड़ा कार्यकाल शुरू किया, तो वह लालू प्रसाद और उनकी विशिष्ट पारिवारिक राजनीति के ख़िलाफ़ थे जो बिहार की पहचान बन गई थी. क़ानून-व्यवस्था और शासन में संरक्षण सबसे बड़े चर्चा के विषय थे. इसलिए नीतीश, जिन्होंने ख़ुद को एक काट के रूप में स्थापित किया था, ने अपना सिर नीचे झुका लिया और बुनियादी बातों को सही करने पर काम किया: सड़कें, स्कूल और अस्पताल, और क़ानून-व्यवस्था. राज्य का बजट राजद शासन के तहत 25,000 करोड़ रुपये से बढ़कर कुछ ही वर्षों में 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया और अब 3.17 लाख करोड़ रुपये है. राज्य में सड़क नेटवर्क 2005 में 14,468 किमी से बढ़कर 2025 में 26,000 किमी हो गया.
लेकिन अब, जब बिहार 6 और 11 नवंबर को मतदान करेगा, तो उन्हें युवा मतदाताओं की एक पूरी पीढ़ी को, जिन्होंने लालू-राबड़ी शासन को कभी नहीं देखा या जिनकी कोई याद नहीं होगी, को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह अभी भी उनके लिए सबसे अच्छा विकल्प हैं. उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी तेजस्वी यादव के रोज़गार के वादों से इस वर्ग में पैदा हुई उम्मीद को कम करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी, उन्हें यह समझाना होगा कि कैसे उन्होंने एक बार राज्य की राजनीति को फिर से परिभाषित किया, कैसे वह राजद की पहचान और लालटेन (राजद का चुनाव चिह्न) के इर्द-गिर्द घूमने वाली राजनीति से हटकर एक मज़बूत कल्याणकारी मॉडल की ओर बढ़े, जिसमें लड़कियों की शिक्षा, महिला सशक्तीकरण और ज़मीनी स्तर पर शासन पर ध्यान केंद्रित किया गया.
20-29 आयु वर्ग के युवा मतदाताओं की यह पीढ़ी 2006 में जनसंख्या का 15.5% से बढ़कर 2026 में 18.9% हो गई है (जनगणना प्रक्षेपण आँकड़ों के आधार पर). इस बीच, नीतीश के प्रतिद्वंद्वी खेमे में भी एक पीढ़ीगत बदलाव आया है, उनके पुराने दुश्मन के बेटे तेजस्वी यादव ने ख़ुद को और राजद के नेतृत्व वाले विपक्षी गुट को एक युवा-नेतृत्व वाले विकल्प के रूप में पेश किया है. नेता प्रतिपक्ष ने वादा किया है कि अगर महागठबंधन सत्ता में आया, तो वह राज्य के हर परिवार के एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी सुनिश्चित करेगा.
जद(यू) के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार का कहना है कि पार्टी भी युवाओं तक पहुँच रही है. “हमने सभी 38 ज़िलों में एक-एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोला. हमने युवाओं की समस्याओं की पहचान करने और उन्हें हल करने के उपाय सुझाने के लिए एक युवा आयोग की स्थापना की. हम 18 से 25 वर्ष के बीच के लोगों को दो साल के लिए 1,000 रुपये का मासिक भत्ता भी दे रहे हैं, इसके अलावा पेशेवर पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए क्रेडिट कार्ड योजना चला रहे हैं, जिसमें उन्हें 4% ब्याज दर पर 4 लाख रुपये तक का ऋण दिया जाता है”.
पुरानी जातिगत गोलबंदी का धुँधलाना : जब नीतीश आए, तो वह बिना किसी जातिगत गुट के नेता थे, जबकि लालू की राजनीति उनके अपराजेय मुस्लिम-यादव सामाजिक आधार के इर्द-गिर्द घूमती थी. नीतीश ने एक अवसर महसूस किया. कुछ कुशल गणनाओं के साथ, उन्होंने जाति पहेली के मौजूदा टुकड़ों को फिर से व्यवस्थित किया ताकि अपने लिए एक नया आधार बनाया जा सके — ग़ैर-यादव ओबीसी के उपसमूह के रूप में अत्यंत पिछड़ा वर्ग, महादलित और महिलाएँ.
राजनीतिक संदेश और लक्षित कल्याणकारी योजनाओं जैसे पंचायतों में 50% आरक्षण, मुफ़्त साइकिल योजना और शराबबंदी के मिश्रण के माध्यम से, नीतीश ने परिश्रमपूर्वक महिला वोट को विकसित किया — एक प्रयास जो सफल रहा क्योंकि महिलाएँ बड़ी संख्या में वोट देने के लिए बाहर आईं. 2010 के बाद से, तब तक के मतदान के रुझानों के उलट, बिहार में महिला मतदाता मतदान लगातार पुरुष मतदान से आगे निकल गया है. चुनाव आयोग के आँकड़ों के अनुसार, 2015 में, उदाहरण के लिए, 60.5% महिलाओं ने मतदान किया जबकि 53.6% पुरुषों ने.
जद(यू) के एक नेता बताते हैं: “2010 के विधानसभा चुनावों तक, जद(यू) ईबीसी वोटों का मुख्य हितधारक था. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से नरेंद्र मोदी के उदय के साथ, भाजपा को भी ईबीसी वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है. नीतीश के मुख्य निर्वाचन क्षेत्र ओबीसी लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) में भी 2024 के लोकसभा चुनावों में दरारें देखी गईं, जब महागठबंधन ने सामाजिक समूह से सात उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर कोइरी वोटों को काटा”.
अपरिहार्य नीतीश कुमार : नीतीश कुमार की जद(यू) 2010 में नंबर एक पार्टी (115 सीटें) थी, 2015 में नंबर दो (71 सीटें, जब वह महागठबंधन का हिस्सा थे) और 2020 में नंबर तीन पार्टी थी. इस स्पष्ट गिरावट के बावजूद, नीतीश हर बार मुख्यमंत्री बने. उनकी संख्या मायने नहीं रखती थी, मायने यह रखता था कि उन्होंने कौन सा पक्ष चुना.
भाजपा ने इस “नीतीश फ़ैक्टर” को समझने की पूरी कोशिश की, लेकिन असफल रही. 2015 में, नीतीश के एनडीए से बाहर होने के साथ, बिहार में भाजपा ने मोदी लहर पर सवार होने की उम्मीद की थी जिसने उसे 2014 के आम चुनावों में सत्ता में लाया था. लेकिन पीएम मोदी द्वारा एक ज़ोरदार अभियान के बावजूद, महागठबंधन, जिसका नीतीश तब हिस्सा थे, ने 243 में से 178 सीटें जीतीं और सत्ता में आई. नीतीश ने साबित कर दिया था कि सत्ता की चाबी उनके पास है.
आगे नीतीश के लिए क्या है? : अगर जद(यू) को लगभग 60 सीटें मिलती हैं, जो एनडीए को बहुमत दिलाने के लिए महत्वपूर्ण है, तो नीतीश गठबंधन के लिए अपरिहार्य बने रहेंगे. वह तब तक मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं जब तक उनका स्वास्थ्य अनुमति देता है. साथ ही, वह 12 सांसदों के साथ केंद्र में एक प्रमुख सहयोगी हैं.
उनके क़रीबी लोग लंबे समय से जद(यू) के लिए एक प्लान बी पर काम कर रहे हैं, जिसमें नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार को एक संभावित उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया गया है. अगर नीतीश पीछे हट रहे हैं, तो यह केवल इसलिए है क्योंकि वह वंशवाद की राजनीति के ख़िलाफ़ अपने रुख के प्रति बहुत सचेत हैं. कई गणनाओं में से एक यह है: कि अगर नीतीश को स्वास्थ्य कारणों से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ता है, तो भाजपा का अपना मुख्यमंत्री हो सकता है और जद(यू) के दो उपमुख्यमंत्री हो सकते हैं, जिसमें निशांत भी शामिल हैं. पार्टी के सूत्रों का कहना है कि अगर जद(यू) 75 से अधिक सीटें हासिल कर भाजपा से आगे निकल जाती है तो निशांत के मुख्यमंत्री बनने की भी एक बाहरी संभावना है. वे कहते हैं कि जब तक वह इस तरह के किसी अचानक पदोन्नति का इंतज़ार कर रहे हैं, निशांत समाजवादी साहित्य पढ़ने के लिए समय का उपयोग कर रहे हैं. “वह हमारी वाइल्डकार्ड एंट्री हैं”, जद(यू) के एक सूत्र का कहना है.
लेकिन अगर नीतीश और उनकी पार्टी यह चुनाव हार जाती है, तो यह एक महान पारी के अंत का रास्ता हो सकता है. कम से कम उनके मतदाताओं में, कुछ ही लोग इसे एक संभावना के रूप में देखते हैं. चुनाव आयोग के विशेष गहन संशोधन अभ्यास के बीच, सीमांचल के एक गाँव के एक दुकानदार ने नीतीश कुमार होने के महत्व को संक्षेप में बताया. “महाभारत में, भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का आशीर्वाद मिला था; बिहार में, नीतीश को इच्छा शासन (जब तक वह चाहें बिहार पर शासन करने) का आशीर्वाद है”. क्या 2025 का चुनाव इसकी पुष्टि करेगा?
यादवों को कम टिकट देकर कहीं एनडीए ने कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली है!
राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन द्वारा तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के साथ ही, बिहार में राजनीतिक ध्यान एक बार फिर राज्य के सबसे बड़े सामाजिक समूह—यादव समुदाय—के चुनावी महत्व पर केंद्रित हो गया है. यह घटनाक्रम भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है, जो लंबे समय से राजद के पारंपरिक यादव वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. लेकिन, आश्चर्यजनक यह है कि भाजपा और उसके सहयोगी जद (यू) ने एनडीए गठबंधन के भीतर कई प्रमुख यादव उम्मीदवारों के टिकट काटकर विवाद को जन्म दे दिया है. लगभग आधा दर्जन प्रभावशाली यादव नेताओं को टिकट न देकर, भाजपा यादव समुदाय को एक सकारात्मक संदेश देने में विफल रही है. यह कदम अंततः राजद के लिए फायदेमंद और भाजपा के चुनावी हितों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.
राजेश कुमार ठाकुर की रिपोर्ट कहती है कि, भाजपा वर्षों से राजद के पारंपरिक यादव मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है, लेकिन कोई ठोस संदेश नहीं दे पाई है. यह कमजोरी मौजूदा चुनाव चक्र में स्पष्ट हो गई है, क्योंकि भाजपा नेतृत्व ने कई सुशिक्षित और प्रभावशाली यादव नेताओं को टिकट देने से मना कर दिया है. इनमें पटना साहिब का प्रतिनिधित्व करने वाले विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. निखिल आनंद शामिल हैं, जिन्हें सीट-साझाकरण के तहत मनेर सीट लोजपा को जाने के बाद टिकट नहीं मिला.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बिहार की राजनीति में जाति एक निर्णायक कारक बनी हुई है. 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में राजद ने प्रभुत्व बनाए रखा, और राज्य की आबादी का लगभग 14 प्रतिशत यादव समुदाय काफी हद तक राजद के प्रति वफादार रहा है. आंकड़े बताते हैं कि 2000 में यादव विधायकों की संख्या 64 थी, जो 2020 में 52 रही. भाजपा को पहले भी 10 से 20 प्रतिशत तक यादव वोट मिलते रहे हैं, लेकिन एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, “इस बार कई मजबूत यादव चेहरों को टिकट नहीं देकर, भाजपा ने इस समुदाय के प्रति विश्वास की कमी प्रदर्शित की है.”
2025 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने मौजूदा और पूर्व उम्मीदवारों सहित कई यादव नेताओं को टिकट देने से मना कर दिया है. 2020 में 15 यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारने वाली भाजपा ने 2025 के लिए यह संख्या घटाकर केवल छह कर दी है. जद(यू) ने केवल आठ और लोजपा (रामविलास) ने पांच यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया है. यह प्रवृत्ति इस प्रभावशाली ओबीसी जाति पर गठबंधन की घटती चुनावी निर्भरता को दर्शाती है. जद(यू) ने भी पूर्व केंद्रीय मंत्री राम लखन सिंह यादव के पोते जयवर्धन यादव और पूर्व मुख्यमंत्री बी.पी. मंडल के पोते निखिल मंडल जैसे प्रमुख यादवों को टिकट नहीं दिया है. ये दोनों ही युवा और लोकप्रिय नेता हैं.
वरिष्ठ भाजपा नेताओं का मानना है कि यादवों के बीच तेजस्वी के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एनडीए को अधिक युवा यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर एक जवाबी आख्यान बनाने की ज़रूरत थी. राजद ने भी कुछ यादव नेताओं (जैसे समाजवादी नेता शरद यादव के बेटे शांतनु शरद यादव) को टिकट नहीं दिया है, लेकिन यह अभी भी 52 उम्मीदवारों के साथ सबसे अधिक यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारने वाली अकेली पार्टी बनी हुई है. सवाल यह है कि क्या भाजपा और उसके सहयोगी राज्य के सबसे बड़े ओबीसी ब्लॉक को नाराज करने का जोखिम उठा सकते हैं, या फिर क्या राजद एक बार फिर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में अपने पारंपरिक आधार को मजबूत कर पाएगा?
विश्लेषण | आसिम अली
बिहार की राजनीति एक प्रबंधित लोकतंत्र जैसी
अगर ओपिनियन सर्वे पर विश्वास किया जाए, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता और सरकार के प्रदर्शन से स्पष्ट असंतोष के बावजूद, बिहार में मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) एक और जीत के लिए तैयार दिख रहा है. टेलीग्राफ में लिखे आसिम अली के विश्लेषण के मुताबिक यदि ऐसा होता है, तो यह पिछले साल महाराष्ट्र और हरियाणा और 2023 में मध्य प्रदेश में देखे गए पैटर्न को दोहराएगा. इसका क्या मतलब है जब सरकारें, विशेष रूप से एनडीए की, लगभग डिफ़ॉल्ट रूप से, बिना किसी स्पष्ट जनादेश के फिर से चुनी जाती हैं? क्या यह एक मूक कल्याणकारी या सांप्रदायिक बहुमत की संतुष्टि को दर्शाता है, या एक अराजनीतिक आबादी द्वारा यथास्थिति की निष्क्रिय स्वीकृति को? अधिक गहराई से देखें तो, क्या यह घटना एक ‘स्थिर लोकतंत्र’ का प्रतिबिंब है या ‘प्रबंधित लोकतंत्र’ का?
अधिकांश लोगों का मानना है कि नीतीश कुमार अपने 2015 के ‘सात निश्चय’ के वादे को पूरा करने में विफल रहे हैं. असल में, जनता दल (यूनाइटेड) के 2020 अभियान का नारा काफ़ी मामूली था: “क्यों करें विचार... ठीक ही तो हैं नीतीश कुमार”. उनके नवीनतम कार्यकाल में ‘सात निश्चय 2’ का शुभारंभ हुआ, जिसे एक बॉलीवुड फ़्रैंचाइज़ी की तरह बेचा गया, जिसमें वादों की एक संशोधित सूची थी. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुख्यमंत्री ने इस अवधि में तीन बार पाला बदला, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही की पूरी धारणा ही कमज़ोर हो गई.
एक प्रबंधित लोकतंत्र की विशेषताएं दो प्रमुख आयामों में स्पष्ट होती हैं: चुनावी अभियान का व्यावसायीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र का अराजनीतिकरण. जद(यू) और भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक संवाद में ‘ब्रांड मोदी’ और ‘ब्रांड नीतीश कुमार’ के सामान्य ‘विश्वास’ कारक पर भरोसा करने के अलावा कुछ भी नया या ठोस नहीं है. इस बीच, कांग्रेस का अभियान, रणनीति से लेकर टिकट तक, कृष्णा अल्लावुरु देख रहे हैं, जो एक पूर्व प्रबंधन सलाहकार हैं. इसके अलावा, इन तीनों दलों के लिए एक समय के अभियान रणनीतिकार प्रशांत किशोर अब ख़तरा बन गए हैं, जो अपनी ब्रांड-बनाने की क्षमताओं का जादू अब ख़ुद पर चला रहे हैं.
फिर भी, चुनावी मुक़ाबलों का यह प्रबंधकीय मॉडल एक गहरी घटना का केवल एक व्युत्पन्न लक्षण है: सार्वजनिक क्षेत्र का अराजनीतिकरण. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अराजनीतिकरण एक क्रूर सत्ताधारी दल की तुलना में विपक्ष की वैचारिक शून्यता से अधिक प्रेरित है. बिहार में विपक्ष के लिए भुनाने के लिए संभावित मुद्दों की कोई कमी नहीं है, भूमिहीनता और अनुबंध श्रम, बेरोज़गारी और पलायन से लेकर पुलिस हिंसा और नौकरशाही की उदासीनता तक. इन सामाजिक तथ्यों को मिलाकर एक प्रभावी प्रगतिशील गठबंधन बनाया जा सकता है.
तो फिर बिहार में विपक्षी दल (मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस) पिछले दशक में एनडीए के साथ प्रतिस्पर्धा करने में क्यों विफल रहे हैं? उनके पास प्रगतिशील निर्वाचन क्षेत्रों को संगठित करने के लिए कोई संगठनात्मक विचारधारा नहीं है. संगठनात्मक विचारधारा का मतलब है समाज को बदलने के उद्देश्य से विचारों का एक सुसंगत सेट, जो एक संगठन के भीतर समाहित हो. राज्य में केवल दो दल हैं जिनकी एक संगठनात्मक विचारधारा है: भाजपा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन. राजद और कांग्रेस के मामले में, विचारधारा के नाम पर केवल लाउडस्पीकर से दिए जाने वाले राजनीतिक भाषण हैं.
उदाहरण के लिए, राहुल गांधी खुद को जाति-आधारित समानता के संरक्षक के रूप में पेश करते हैं, और “जिसकी जितनी संख्या भारी, उनकी उतनी हिस्सेदारी” के सिद्धांत का समर्थन करते हैं. फिर भी पार्टी के टिकट वितरण में, यह सिद्धांत उलटा हो जाता है. सवर्ण, जो आबादी का केवल 10% हैं, लगभग 34% पार्टी टिकटों पर दावा करते हैं. वहीं, अत्यंत पिछड़ी जातियां, जो आबादी का 36% हैं, को केवल 10% टिकट मिलते हैं. राजद भी सामाजिक वास्तविकता से इसी तरह का अलगाव प्रदर्शित करता है. यादव, जो बिहार की आबादी का 14% हैं, को 36% टिकट मिले हैं. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पार्टी एक वास्तविक प्रगतिशील एजेंडा तैयार करने के लिए संघर्ष करती है, जिसमें दलितों और ईबीसी के संघर्ष शामिल हो सकें. एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स के आंकड़े बताते हैं कि 2005 और 2020 के बीच, राजद के विधायकों/सांसदों की औसत घोषित संपत्ति 2.14 करोड़ रुपये थी, जो जद(यू), भाजपा या कांग्रेस के बराबर है, जो अभिजात्य वर्ग की पकड़ को उजागर करता है.
महिला की पहचान अक्सर उसके पुरुष रिश्तेदार से जुड़ी होती है : दिव्या गौतम
बिहार की राजधानी पटना की एक पुरानी इमारत में, सीपीआई(माले) के कार्यकर्ताओं का एक समूह दीघा से चुनाव लड़ रहीं अपनी उम्मीदवार दिव्या गौतम के लिए अभियान की रणनीति पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुआ. दीघा, पटना की एक शहरी सीट है और बिहार का सबसे बड़ा निर्वाचन क्षेत्र है. बाहर, छठ पूजा की खरीदारी के लिए बाज़ारों में भीड़ उमड़ रही है. अभियान के बीच त्योहार आने से यह चिंता बढ़ रही है कि पूरे दीघा को कवर करने के लिए मुश्किल से 10 दिन ही बचे हैं. हिंदू ने दिव्या गौतम का प्रोफाइल लिखा है.
34 वर्षीय दिव्या का छोटा कद ज़्यादातर अधेड़ उम्र के पुरुषों और महिलाओं के बीच खो जाता है. वह ध्यान से सुन रही हैं, क्योंकि उनके पार्टी के साथी चुनौतियों को बता रहे हैं - जिनमें सबसे बड़ी चुनौती राजद के नेतृत्व वाले विपक्षी गुट, महागठबंधन के अन्य सहयोगियों के साथ समन्वय करना है. सुर्खियों ने उन्हें बिहार से दिवंगत हिंदी फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की चचेरी बहन के रूप में परिचित कराया. जून 2020 में राजपूत मुंबई में अपने आवास पर मृत पाए गए थे. मुंबई पुलिस की जांच में पता चला कि उन्होंने आत्महत्या की थी. भाजपा ने 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान “सुशांत के लिए न्याय” अभियान चलाया था, जिसमें गड़बड़ी का दावा किया गया था.
दिव्या कहती हैं, “हम जिस पितृसत्तात्मक दुनिया में रहते हैं, उसमें अक्सर एक महिला की पहचान एक पुरुष रिश्तेदार - पति, पिता या भाई से जुड़ी होती है. मीडिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है.” वह इस परिचय से हिचकिचाती नहीं हैं. अब यह उनके लिए परिचित हो गया है. वह इसे अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाने में बाधा के रूप में नहीं देखती हैं. दिव्या ने कहा, “अपने छोटे से जीवन में, सुशांत ने अपने दम पर एक पहचान बनाई और उन्हें बहुत से लोग प्यार करते हैं. यह स्वाभाविक है कि लोग उनके बारे में बात करना चाहेंगे.”
जो बात उन्हें कहीं ज़्यादा चिंतित करती है, वह है राजनीति में महिलाओं का लगातार कम प्रतिनिधित्व. 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए एनडीए ने 35 महिला उम्मीदवारों (14.40%) को मैदान में उतारा है, जबकि इंडिया ब्लॉक ने 32 (13.16%) को मैदान में उतारा है. दोनों गठबंधन महिला आरक्षण विधेयक में प्रस्तावित 33% कोटे से बहुत पीछे हैं. वह सीपीआई (माले) की 20 उम्मीदवारों की सूची में एकमात्र महिला उम्मीदवार हैं. वह पूछती हैं, “महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने का इंतज़ार क्यों करें? राजनीतिक दलों को कानून द्वारा महिलाओं को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होने के बजाय, इसे अभी करना चाहिए था.”
मैक्सिम गोर्की की ‘मदर’ पढ़कर और चार्ली चैपलिन की ‘मॉडर्न टाइम्स’ देखकर बड़ी हुईं गौतम एक थिएटर कलाकार हैं, जिनके नाम कई डिग्रियां हैं, जिनमें टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से महिला अध्ययन में मास्टर डिग्री भी शामिल है. वह वर्तमान में बिट्स पिलानी से जेंडर एंड कम्युनिकेशन में पीएचडी कर रही हैं. वह 2011 से सीपीआई (माले) के छात्र विंग, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन से जुड़ी हुई हैं. 2021 में, सुश्री गौतम ने बिहार लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा पास की, लेकिन उन्होंने इसमें शामिल न होने का फ़ैसला किया ताकि वह अपनी राजनीतिक यात्रा पर ध्यान केंद्रित कर सकें. उन्होंने कहा, “जब मैं इस दुनिया को छोड़ूं, तो मुझे यह अफ़सोस नहीं होना चाहिए कि जब मुझे बोलना चाहिए था, तब मैं नहीं बोली.”
राजद की नई सामाजिक रणनीति: ‘एमवाई’ से ‘एमवाई-बाप’ तक, सहनी को डिप्टी सीएम उम्मीदवार बनाने का गणित
‘इंडिया’ गठबंधन के उप-मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रमुख मुकेश सहनी को स्वीकार करके, लालू यादव की राजद (आरजेडी) ने अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एमवाई) वोट बैंक के दायरे का विस्तार करने की मांग की है. पार्टी बहुजन (दलित), आदिवासी (जनजाति), और पिछड़ा (विशेषकर अत्यंत पिछड़ा वर्ग) जैसे अन्य वंचित समूहों तक पहुंचकर एक बड़ा “एमवाई-बाप” गठबंधन बनाने की जुगत में है.
सुमित पांडे की रिपोर्ट के मुताबिक, राजद द्वारा तेजस्वी यादव के डिप्टी के रूप में सहनी को पेश करने के पीछे का अंकगणित 2022 में हुए बिहार जाति सर्वेक्षण से जोड़ा जा सकता है, जब राजद और जद(यू) गठबंधन में थे. डेटा से पता चला कि राज्य की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का है, जो 63% हैं. हालांकि, मुख्य बात ओबीसी वर्ग के उप-वर्गीकरण के विवरण में छिपी है. सर्वेक्षण ने इस सामाजिक वर्ग को दो अलग-अलग हिस्सों में बांटा. पिछड़ा वर्ग (बीसी): इसमें यादव, कुर्मी, बनिया और कोरी/कुशवाहा जैसी 30 जातियां शामिल हैं, जिन्हें माना जाता है कि मंडल सशक्तिकरण से अधिक लाभ मिला है. अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी): इसमें 112 अत्यंत पिछड़ी जातियां शामिल हैं, जो बिहार की आबादी का लगभग 36% हैं.
जाति सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त बीसी और ईबीसी दोनों आंकड़ों में ओबीसी सूची में मुस्लिम समुदाय शामिल हैं. राज्य की 17.7% मुस्लिम आबादी में से लगभग 4.5% उच्च जाति के हैं. शेष 13% मुस्लिम आबादी बीसी और ईबीसी सूचियों में बंटी हुई है.
राजद और एनडीए का चुनावी समीकरण
राजद का आधार: 17.7% मुस्लिम आबादी, 14.26% यादवों के साथ मिलकर राजद का मुख्य समर्थन आधार है. सीपीआई (एमएल) लिबरेशन, जिसने दक्षिण बिहार के भूमिहीन समुदायों के बीच काम किया है, के समर्थन से यह संख्या 35 प्रतिशत अंकों को पार कर जाती है. गैर-यादव बीसी : इस समूह में गैर-यादव जातियां (कुर्मी, बनिया और कोरी/कुशवाहा) 13% हैं, जो जद(यू) के साथ रही हैं. अगर इसे भाजपा के 10.5% हिंदू उच्च जाति के वोट में भी जोड़ा जाए, तो यह संख्या अभी भी राजद के एमवाई संयोजन से 10 प्रतिशत अंक कम है.
एनडीए की जवाबी रणनीति: राजद के साथ बराबरी करने के लिए, एनडीए चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले 5.3% दुसाध (सबसे बड़ा अनुसूचित जाति वोट) और जीतन राम मांझी की “हम” द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले सबसे गरीब दलितों (महादलितों) के एक हिस्से को अपने पाले में लाती है. ईबीसी का महत्व: यदि यह मान लिया जाए कि मुस्लिम पिछड़े वर्गों का एक बड़ा हिस्सा राजद के साथ है, तो लगभग 25% हिंदू अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के वोट अभी भी निर्णायक हैं. 2005 में सत्ता में आने के बाद, नीतीश कुमार ने विधान और कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से ईबीसी के एक बड़े हिस्से को जीतकर एक मजबूत यादव-विरोधी पिछड़ा वर्ग ब्लॉक पर शासन किया था.
सहनी को आगे करने का संदेश : ईबीसी जाति, निषाद समुदाय से आने वाले मुकेश सहनी को अपना उप-मुख्यमंत्री चेहरा बनाकर, राजद और इंडिया गठबंधन ने एनडीए के दो दशक पुराने विजयी संयोजन को अस्त-व्यस्त करने की कोशिश की है. व्यापक संदेश यह है कि बिहार में प्रमुख पिछड़ी जाति, यादव, अत्यंत पिछड़ी जातियों के साथ नेतृत्व के पद साझा करने को तैयार हैं.
बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम से पता चलेगा कि राजद ईबीसी जातियों को राजनीतिक शक्ति साझा करने के अपने इरादे के बारे में समझाने में कितनी हद तक सफल रहा. ईबीसी जातियां संख्यात्मक रूप से छोटी, लेकिन सामूहिक रूप से महत्वपूर्ण मंडल जातियां हैं.
संजय के झा: नीतीश कुमार, भाजपा की आत्म-पराजय की राजनीति
चतुर दिखने की कोशिशें अक्सर मूर्खतापूर्ण लगती हैं. इस बात को एक स्वाभाविक रूप से चतुर राजनेता से बेहतर कोई नहीं समझता. और स्वाभाविक रूप से चतुर होने के खांचे में नीतीश कुमार से बेहतर कौन फिट बैठता है? राजनीतिक क्षेत्र में दुर्लभ प्रजातियों में से, वह एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें सत्ताधारी और विपक्षी दोनों गठबंधन मुख्यमंत्री बना सकते हैं. और वह दशकों से इतने चतुर रहे हैं. मीडिया और पार्टी में चापलूसों द्वारा कृत्रिम रूप से बनाए गए नकली चाणक्यों को इस युद्ध के मैदान में जो कुछ भी कहना है, उसे सावधानी से चुनना चाहिए. ऐसा संजय के झा ने द वायर में अपने कॉलम में लिखा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह नारा दिया तो उन्होंने नीतीश कुमार का नाम अगले मुख्यमंत्री के रूप में घोषित करने से इनकार कर दिया: “नई रफ़्तार से चलेगा बिहार/फिर आएगी एनडीए सरकार”. यह “बिहार में बहार है/नीतीशे कुमार है” से एक बड़ा बदलाव है. भाजपा, जिसने संसदीय चुनाव में मोदी-केंद्रित अभियान को प्राथमिकता दी थी, स्पष्ट रूप से नीतीश के नेतृत्व को पेश करने के खिलाफ़ है. वे मानते हैं कि धूर्त मुख्यमंत्री को जनता दल (यूनाइटेड) में भाजपा एजेंटों की मदद से पूरी तरह से नियंत्रण में लाया गया था; और थका हुआ योद्धा अब जवाबी हमला करने की स्थिति में नहीं था. लेकिन राजनीतिक गलियारों की ख़बरें इस धारणा का खंडन करती हैं, और जोर देती हैं कि नीतीश कुमार शारीरिक कमज़ोरियों के बावजूद अपने ताज की रक्षा करने में सक्षम हैं. वह लालू यादव के साथ अपनी घनिष्ठता का लाभ उठाकर नया मुख्यमंत्री स्थापित करने की सभी साज़िशों को ध्वस्त कर देंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 अक्टूबर की दोपहर समस्तीपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए गर्व से कहा, “तेज़ गति वाली वंदे भारत ट्रेनें अब बिहार में चलती हैं.” प्रधानमंत्री ने आगे कहा: “वह दिन दूर नहीं जब बिहार के हर जिले में उसके युवाओं के स्वामित्व वाली स्टार्टअप कंपनियां होंगी.” मैंने उम्मीद की थी कि तीन कार्यकालों के बहादुर प्रधानमंत्री, जो जवाहरलाल नेहरू का ट्रैक रिकॉर्ड तोड़ने के लिए उत्सुक हैं, बिहार ने पिछले दो दशकों में जो विकास देखा है, उसे समझाने में सफल रहे. अगर कोई संदेह था, तो मोदी ने और भी आकर्षक विवरण परोसे. “चाय-विक्रेता ने यह सुनिश्चित किया है कि 1 जीबी डेटा की कीमत एक कप चाय से ज़्यादा न हो! बिहार में बन रही रीलों की भरमार युवाओं की रचनात्मकता को दर्शाती है.”
अद्भुत! मोदी ने लोगों से अपने मोबाइल फोन की टॉर्च चालू करने के लिए कहा. उन्होंने घोषणा की: “जब इतनी लाइट है तो लालटेन चाहिए क्या?” पंचलाइन स्टाइल में दी गई. लालटेन, मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजद का प्रतीक, को त्याग देना चाहिए अगर फोन में इनबिल्ट टॉर्च है. आपको और क्या राजनीतिक दूरदर्शिता और दृष्टि चाहिए? इस बार, कोई भैंस, कोई मंगलसूत्र, कोई मुजरा नहीं.
लेकिन प्रधानमंत्री शांत मूड में थे. उन्होंने अपने विरोधियों द्वारा अभियान में इस्तेमाल किए जा रहे कटु रूपकों पर भी दुख व्यक्त किया, और कहा कि उन्होंने छर्रों, पिस्तौलों, दोनाली बंदूकों और अपहरण की बात करना शुरू कर दिया है. बहुत बुरा. भाजपा नेताओं की शालीनता से सीखें. भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने कहा: “आर का मतलब रंगदारी. जे का मतलब जंगल राज. डी का मतलब दादागिरी. राजद का मतलब अपराध, विनाश और कुशासन है.” यह सत्ता-विरोधी लहर के खिलाफ़ भाजपा की ढाल है. मोदी ने जोर देकर कहा है कि “जंगल-राज” को 100 साल तक नहीं भुलाया जाएगा.
कार्बाइड गन को ‘रासायनिक बम’ का टैग: देश भर में 1200 लोगों को आंखों की चोट, तत्काल प्रतिबंध की मांग
नेत्र चिकित्सकों के एक राष्ट्रव्यापी निकाय ने शुक्रवार को कार्बाइड गन और अन्य तात्कालिक (इम्प्रोवाइज्ड) विस्फोटक पटाखों पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की मांग की है. यह मांग उन रिपोर्टों के बाद आई है, जिनमें कहा गया है कि इस सप्ताह दीपावली के दौरान कई राज्यों में 1,200 से अधिक लोग आंख और चेहरे की चोटों से पीड़ित हुए हैं.
ऑल इंडिया ऑफ्थेल्मोलॉजिकल सोसाइटी (एआईओएस) ने कहा कि कार्बाइड गन को “रासायनिक बम” के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि “पारंपरिक पटाखों” के रूप में. इस बयान में अधिकारियों से कैल्शियम कार्बाइड और संबंधित सामग्रियों की आपूर्ति श्रृंखला को बाधित करने का आग्रह किया गया.
जीएस मुदुर की रिपोर्ट के अनुसार, 28,000 सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले एआईओएस के अधिकारियों ने कहा कि राज्य शाखाओं से प्रारंभिक रिपोर्टों में यह संकेत मिलने के बाद कि इस साल पिछले वर्षों की तुलना में चोटों में दस गुना से अधिक की वृद्धि हुई है, उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों से एक “तत्काल राष्ट्रीय अपील” जारी करने का फैसला किया है.
हैदराबाद के सेंटर फॉर साइट में नेत्र सर्जन और एआईओएस सचिव संतोष होनावर ने बताया कि डेटा संकलित किया जा रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि बच्चों सहित कम से कम 1,200 लोग घायल हुए हैं और कुछ की आंखें चली गई हैं.” इस साल तेजी से घटनाएं बढ़ी हैं.
चोटों का कारण और खतरा : कार्बाइड गन, जिनका उपयोग अक्सर ग्रामीण अपनी फसलों पर हमला करने वाले पक्षियों या बंदरों को डराने के लिए करते हैं, एसिटिलीन गैस उत्पन्न करने के लिए कैल्शियम कार्बाइड और पानी के मिश्रण पर निर्भर करती हैं, जो विस्फोट को प्रेरित करती है.
होनावर ने कहा, “मानक पटाखों में नियंत्रित विस्फोट होता है और उनमें बत्तियां होती हैं, जो लोगों को सुरक्षित दूरी पर जाने के लिए कुछ सेकंड का समय देती हैं. लेकिन कैल्शियम कार्बाइड उपकरण अनियंत्रित विस्फोट करते हैं, जो अक्सर चेहरे के करीब होते हैं. “
उन्होंने कहा कि विस्फोट से जलने के अलावा, आंखों में तेज गति से कार्बाइड पाउडर का छिड़काव कॉर्निया को गंभीर चोट पहुंचा सकता है, जिससे स्थायी अंधापन हो सकता है. स्वास्थ्य शोधकर्ताओं का कहना है कि कार्बाइड गन की कम लागत और आसान उपलब्धता के कारण कई लोग उन्हें पारंपरिक पटाखों के विकल्प के रूप में उपयोग करने लगे हैं. भोपाल में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायर्नमेंटल हेल्थ रिसर्च की चिकित्सक तनवी तृष्णा और उनके सहयोगियों ने 2023 में मध्यप्रदेश में कार्बाइड गन से आंख में चोट के पांच मरीजों का दस्तावेजीकरण किया था.
होनावर ने कहा, “हमारा मानना है कि सोशल मीडिया संदेश जो कार्बाइड गन को पारंपरिक पटाखों के विकल्प के रूप में बढ़ावा देते हैं, उन्होंने इस साल चोटों में वृद्धि में योगदान दिया है.”
अपूर्वानंद | अपनों को भगाकर विद्वानों को लुभाने के हसीन सपने
द वायर में अपूर्वानंद ने यह लेख उन विलक्षण विसंगतियों के बारे में लिखा है, जहां भारत में दूसरों की आफतों की फायदा उठाने की चतुर सुजान प्रवृत्ति वाली लालची निगाहों से तो देख रहा है, पर उन आपदाओं को लेकर अंधा है, जो खुद अपने मुल्क में अकादमिकों और ज्ञान, विज्ञान, सवालों के लिए पैदा की गई हैं.
संयुक्त राज्य अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप द्वारा उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमले के बाद, भारत के कुछ लोगों में एक अजीब सा उत्साह देखा जा सकता है. जो लोग इस कहावत पर जीते हैं कि दूसरे की मुसीबत ही अपना मौक़ा है, उन्होंने यह कल्पना करना शुरू कर दिया है कि डोनाल्ड ट्रंप के ‘अमेरिकीकरण’ अभियान की वजह से अमेरिकी विश्वविद्यालयों से इस्तीफ़ा दे रहे या निकाले जा रहे नामी-गिरामी शिक्षकों और शोधकर्ताओं को अब भारत में लुभाया जा सकता है, ख़ासकर उन्हें जो भारतीय मूल के हैं.
ख़बर आई है कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने कई विषयों में पीएचडी दाख़िलों में भारी कटौती की है. हार्वर्ड का दावा है कि उसके पास फंड की कमी है और इसलिए वह अपने रिसर्च प्रोग्रामों में कटौती करने पर मजबूर है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि संकट फंड का नहीं बल्कि विज़न का है. अब यह साफ़ है कि ट्रंप की संकीर्ण और राष्ट्रवादी नीतियों के कारण, स्वतंत्र शोध करना लगातार असंभव होता गया है.
तथाकथित वित्तीय बाधा केवल उस नीति का परिणाम है जिसके तहत सरकारी सहायता अब केवल उन्हीं संस्थानों को मिलेगी जो ‘उदारवादी’ और ‘वामपंथी’ नज़रियों को छोड़ने के लिए तैयार होंगे. कुछ विश्वविद्यालयों ने पहले ही सरकार के साथ समझौता कर लिया है. और यह समझौता केवल सामाजिक विज्ञान या मानविकी में पढ़ाने और शोध तक ही सीमित नहीं है; यह विज्ञान के क्षेत्र में भी घुसपैठ कर रहा है.
इसका नतीजा यह है कि अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो एमआईटी छोड़कर ज़्यूरिख़ विश्वविद्यालय जा रहे हैं. एमआईटी ने ट्रंप की कई शर्तों को मानने से इनकार कर दिया है और इसलिए उसे वित्तीय नुक़सान उठाना पड़ेगा. दूसरे विद्वान भी अमेरिकी संस्थानों से मुँह मोड़ रहे हैं और दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं.
ट्रंप द्वारा वीज़ा नीतियों को सख़्त करने से भी ग़ैर-अमेरिकी विद्वानों के लिए नई बाधाएँ खड़ी हो गई हैं. विविधता की वह भावना जो कभी दाख़िलों और नियुक्तियों को प्रेरित करती थी, अब हमले की ज़द में है. इन नई लागू की गई नीतियों से शोध और शिक्षण की स्वायत्तता ख़त्म हो रही है. यह वही आज़ादी थी जिसने दुनिया भर के विद्वानों को अमेरिकी विश्वविद्यालयों की ओर खींचा था. अब जब वह आज़ादी सिकुड़ रही है, तो सिर्फ़ नौकरी के बने रहने के अलावा कोई और आकर्षण नहीं बचा है.
यह देखकर, भारत में कुछ लोग - ख़ासकर नीति-निर्धारक और टिप्पणीकारों के बीच - यह सपना देखने लगे हैं कि ट्रंप की नीतियों से परेशान विद्वान और शोधकर्ता भारत में अपना घर पा सकते हैं. लेख लिखे जा रहे हैं कि भारत को ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था बनने के लिए क्या करना चाहिए. तर्क यह दिया जा रहा है कि कम से कम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तो भारत ऐसी प्रतिभा को निश्चित रूप से आकर्षित कर सकता है.
नीति आयोग ने इस संबंध में पहले ही एक विस्तृत दस्तावेज़ तैयार कर लिया है. चीन के इसी तरह के कार्यक्रम को एक मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है - जिसके ज़रिए वह चीनी मूल के कई विद्वानों को वापस लाने में सफल रहा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में खगोल भौतिकी के प्रोफ़ेसर शोभित महाजन ने उन कई कठिनाइयों की ओर इशारा किया है जिनका सामना भारत में ऐसी योजना को करना पड़ेगा. वेतन, आवास, और रिसर्च प्रोजेक्ट्स की मंज़ूरी के मुद्दे ही अपने आप में बहुत बड़ी बाधाएँ होंगी. भारतीय और अमेरिकी संस्थानों के वेतनमान में ज़मीन-आसमान का अंतर है. भारत में काम करने के हालात ख़राब हैं और अक्सर अपमानजनक होते हैं. देश अपने बजट का न के बराबर हिस्सा शोध पर ख़र्च करता है. पिछले ग्यारह सालों में, उच्च शिक्षा के लिए आवंटन में लगातार गिरावट आई है. विज्ञान के नाम पर, आज के नीति-निर्माता सिर्फ़ दो अक्षर जानते हैं - ए आई. ऐसे देश में आविष्कार के बारे में सोचना भी ख़तरनाक है जहाँ प्रधानमंत्री गर्व से घोषणा करते हैं कि उन्होंने नौजवानों के लिए ‘रील्स’ बनाना आसान कर दिया है.
लेकिन इन भौतिक बाधाओं के अलावा एक और, ज़्यादा निर्णायक बाधा है. अमेरिकी विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर उन जगहों को क्यों छोड़ना चाहेंगे जो कभी उनका सपना थीं - वही संस्थान जिनके लिए उन्होंने अपने देश छोड़े थे? इसका जवाब ट्रंप के संकीर्ण और बौद्धिकता-विरोधी राष्ट्रवाद में छिपा है. उनके आने के बाद से, कैंपसों में निगरानी बढ़ा दी गई है. शिक्षकों को ‘अमेरिका-विरोधी’, ‘वामपंथी’, नस्लीय समानता के पैरोकार, या फ़िलिस्तीन के समर्थक के रूप में चिह्नित किया जा रहा है - और उन्हें बाहर निकालने के लिए एक सुनियोजित अभियान शुरू किया गया है.
यह सब हमें भारत में जाना-पहचाना लगता है. जब ट्रंप ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों को धमकी दी कि वे या तो उनकी सरकार की नीतियों को स्वीकार करें या सरकारी सहायता छोड़ दें, तो कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने तुरंत घुटने टेक दिए. मैंने तब वहाँ के एक विद्वान को लिखा था, कि अमेरिका को उसी रास्ते पर धकेला जा रहा है जिस पर भारत एक दशक से ज़्यादा समय से चल रहा है. उन्होंने आधे मज़ाक में जवाब दिया, कि वे बस यही उम्मीद करते हैं कि उस रास्ते पर बहुत दूर न जाएँ.
जो काम ट्रंप की सरकार दो साल से कर रही है, वह भारत सरकार 12 साल से ज़्यादा समय से कर रही है. हमने बार-बार सुना है - ख़ुद प्रधानमंत्री से, मंत्रियों और नौकरशाहों से - कि विश्वविद्यालय वामपंथियों के अड्डे हैं, कि शिक्षक और शोधकर्ता टैक्सपेयर्स का पैसा बर्बाद करते हैं, कि आधुनिक शिक्षा भारतीय मूल्यों के ख़िलाफ़ है, और हमें तथाकथित भारतीय ज्ञान परंपरा को फिर से जीवित करना चाहिए. इस लिहाज़ से, ट्रंप प्रशासन महज़ हमारे ही चेले जैसा लगता है.
अमेरिका में, कम से कम कुछ विश्वविद्यालय अदालत गए और उन्होंने सरकार का विरोध किया. भारत में, ऐसी अवहेलना सोची भी नहीं जा सकती. यहाँ, लगभग हर कुलपति सरकारी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता के तौर पर काम करता है. हाल ही में, दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए, शिक्षकों और छात्रों से आग्रह किया कि वे प्रोफ़ेसरों के भेष में छिपे ‘अर्बन नक्सलियों’ को पहचानें और उन्हें ख़त्म कर दें.
ट्रंप के अमेरिका से भागने वाला कोई भी व्यक्ति नरेंद्र मोदी के भारत में क्यों आना चाहेगा? आरएसएस का राष्ट्रवाद ट्रंप के राष्ट्रवाद से बेहतर कैसे है? क्या यह विडंबना नहीं है कि हम ‘फ़ाइव-स्टार वैज्ञानिकों और विद्वानों’ को लुभाने के सपने देख रहे हैं, जबकि हमारे अपने ‘फ़ाइव-स्टार’ भारतीयों को बाहर निकाला जा रहा है, और दूसरे देश उनके लिए अपने दरवाज़े खोल रहे हैं? हम उनमें से कुछ को अच्छी तरह जानते हैं.
अशोका यूनिवर्सिटी ने राजनीति विज्ञानी प्रताप भानु मेहता से कहा कि उनकी स्वतंत्र सोच संस्थान के लिए हानिकारक थी. वह अब संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ाते हैं. अशोका में एक और भारतीय विद्वान, अरविंद सुब्रमण्यम ने भारत के दमघोंटू अकादमिक माहौल के कारण अमेरिका लौटना चुना. रसायन विज्ञान में भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकी रामकृष्णन ने 2016 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में भाग लेने के बाद, दोबारा कभी इसमें शामिल न होने की क़सम खाई. उन्होंने सरकार द्वारा छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने की आलोचना की. भारत के एक और रत्न, अमर्त्य सेन को इस सरकार ने बार-बार अपमानित किया है. सालों से, इतिहासकार रोमिला थापर के ख़िलाफ़ सरकार-प्रायोजित नफ़रती अभियान चलाया गया है. और यह सूची लंबी है.
अब यह सब जानते हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में काबिल विद्वानों ने दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), या जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे संस्थानों में नियुक्त होने की सारी उम्मीदें छोड़ दी हैं. वहाँ भर्ती का मुख्य मानदंड क्या है, यह एक खुला रहस्य बन चुका है. अब हम अपने सबसे अच्छे छात्रों को निजी विश्वविद्यालयों में आवेदन करने की सलाह देते हैं, यह जानते हुए कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में उनके लिए कोई जगह नहीं है. वे हमें बताते हैं कि नौकरी के इंटरव्यू में, उन्हें विशेषज्ञों द्वारा अपमानित किया जाता है. उनमें से कई को व्यर्थ कोशिश करने के बाद अकादमिक जीवन छोड़ना पड़ता है. ऐसे माहौल में, कोई भी अच्छा विद्वान इन विश्वविद्यालयों में शामिल होने की कल्पना भी कैसे कर सकता है, जहाँ उत्कृष्टता की न तो इच्छा है और न ही सम्मान?
संयुक्त राज्य अमेरिका में अकादमिक स्वतंत्रता का विनाश अभी अपने शुरुआती चरण में है. भारत में, पिछले ग्यारह सालों में कैंपसों को पहले ही बुद्धि और उत्कृष्टता के बूचड़खानों में बदल दिया गया है. प्रतिभा की इस हत्या से शायद सड़कों पर ख़ून न बहता हो, लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि अमेरिकी इससे अनजान हों? तो फिर वे यहाँ क्यों आएँगे - सिवाय एक बौद्धिक आत्महत्या करने के?
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.
शुभम गौतम : सुधा मूर्ति की जात
ब्राह्मण क्यों नहीं चाहते कि उनकी गिनती हो?
जब देश में सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों को बेहतर बनाने के लिए जाति जनगणना को एक उपकरण के रूप में प्रस्तावित किया जाता है, तो इसकी वकालत करने का भार निचली जातियों पर आ जाता है. हाल ही में सुधा मूर्ति ने उन जातियों की गिनती की आवश्यकता पर सवाल उठाया जो “पिछड़ी” नहीं हैं. उनका तर्क यह था कि यदि जाति की गिनती की जानी है, तो यह केवल हाशिए पर मौजूद जातियों के कल्याण के लिए होनी चाहिए. शायद अनजाने में, वह जातिगत पहचान, जाति समुदायों की गणना और सकारात्मक कार्रवाई के बीच एक संबंध स्थापित कर देती हैं. यह तर्क कि केवल हाशिए पर मौजूद जातियों की ही गिनती की जानी चाहिए, एक औसत भारतीय नागरिक की मानक तस्वीर को मज़बूत करता है, जो मुख्य रूप से “सामान्य” है, जबकि एससी, एसटी और ओबीसी इसके अपवाद हैं. इस दृष्टिकोण के अनुसार, जो पूरे भारत में सकारात्मक कार्रवाई के ख़िलाफ़ तर्कों की ही प्रतिध्वनि है, “जाति” का मतलब आमतौर पर निचली जातियां यानी एससी, एसटी और ओबीसी होता है. जब जाति जनगणना को एक उपकरण के तौर पर देखा जाता है, तो इसकी वकालत करने का बोझ निचली जातियों का काम बन जाता है. जाति प्रभावी रूप से केवल हाशिए पर मौजूद जातियों की समस्या बन जाती है, जिसे उन्हें ही हल करना है, जबकि “सामान्य” श्रेणी जाति-निरपेक्ष होने का दिखावा कर सकती है.
शुभम गौतम पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक शोध विद्वान हैं. उनके अनुसार, सतीश देशपांडे अपने लेख “द पॉलिटिक्स ऑफ नॉट काउंटिंग कास्ट” में भारत की कुलीन जातियों की आत्म-प्रवर्तित “जातिविहीनता” पर चर्चा करते हैं. चूँकि जाति एक संबंधपरक पदानुक्रम और विशेषाधिकारों और अवसरों का एक असमान वितरक है, इसलिए जाति-आधारित वंचना किसी अन्य जाति के उसी व्यवस्था से विशेषाधिकार प्राप्त किए बिना मौजूद नहीं हो सकती. वे तर्क देते हैं कि जहाँ जाति के शिकार (उत्पीड़ित जातियां) जाति-चिह्नित अपवाद के रूप में दावे करने के लिए मजबूर हैं, वहीं जाति के लाभार्थी (कुलीन/प्रमुख जातियां) जातिविहीन योग्यता के आधार पर अपनी पहचान बताए बिना सार्वजनिक संसाधनों पर दावा करते हैं और अपना लाभ बनाए रखते हैं. इस प्रकार, हाशिए पर मौजूद लोग जाति के प्रचारक बन जाते हैं, जबकि कुलीन जातियां बड़ी आसानी से सर्वदेशीय पहचान, सांस्कृतिक विरासत या मध्यम वर्ग का दर्ज़ा पा लेती हैं.
सुधा मूर्ति द्वारा गिनती में भाग लेने से इनकार उनके गृह राज्य कर्नाटक में एक अनूठा मामला प्रस्तुत करता है. भले ही राज्य के लगभग सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण सामाजिक और भौतिक पदानुक्रम में सबसे ऊपर हैं, “आर्थिक रूप से पिछड़े” ब्राह्मणों को राज्य से कल्याणकारी लाभ मिलते रहे हैं. कर्नाटक सरकार ने 2018 में 25 करोड़ रुपये के अंतरिम बजट के साथ “राज्य में ब्राह्मण समुदाय के उत्थान में मदद करने के लिए” एक ब्राह्मण विकास बोर्ड का गठन किया. इसके लाभों में आर्थिक रूप से पिछड़े ब्राह्मण पुजारियों से शादी करने वाली दुल्हनों को आर्थिक सहायता प्रदान करना और अंतर्जातीय विवाह को सुविधाजनक बनाने के लिए पोर्टल खोलना जैसी योजनाएं शामिल हैं. एक तरफ मूर्ति का यह मज़बूत रुख है कि ब्राह्मणों को सर्वेक्षण में नहीं गिना जाना चाहिए क्योंकि वे पिछड़े नहीं हैं; दूसरी ओर, ब्राह्मणों का एक बड़ा हिस्सा पहले से ही राज्य से “मुफ्त” का लाभ उठा रहा है. यह जाति और कल्याणकारी उपायों को लेकर ब्राह्मणों के बीच दुविधा को दिखाता है. जातिगत जनगणना को लेकर ब्राह्मण जाति संघों ने भी इसकी अनिवार्यता को अनिच्छा से स्वीकार तो कर लिया है, लेकिन वे राज्य भर में ब्राह्मण आबादी की गलत रिपोर्टिंग का विरोध कर रहे हैं. यह समझने की ज़रूरत है कि जाति केवल कुछ जातियों को हाशिए पर धकेलने का ज़रिया नहीं है, बल्कि यह कुलीन और प्रमुख जातियों को पदानुक्रम के भीतर अपनी श्रेष्ठता बनाने और उसे बनाए रखने में भी सक्षम बनाती है. इसलिए जाति की गिनती के किसी भी अभ्यास में इसकी संपूर्णता को पकड़ने के लिए सभी वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए.
लेखक पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक शोध विद्वान हैं. पूरा लेख इंडियन एक्सप्रेस में यहां पढ़ा जा सकता है.
खोजी रिपोर्ट
धोखाधड़ी के आरोपी प्रेम चंद गर्ग के साथ मिलकर मोदी सरकार कर रही अंतरराष्ट्रीय चावल सम्मेलन
प्रेम चंद गर्ग कभी चावल के व्यापारी के रूप में जाने जाते थे. फिर उन्हें चावल के व्यापार के अलावा अन्य चीजों के लिए भी जाना जाने लगा. द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की एक रिपोर्ट के अनुसार, चार साल पहले, भारत की शीर्ष जांच एजेंसियों में से एक, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने 979 करोड़ रुपये की कथित बैंक धोखाधड़ी के सिलसिले में जालसाजी, धोखाधड़ी और साजिश का आरोप लगाते हुए एक FIR में उनका नाम दर्ज किया था. प्रवर्तन एजेंसियों ने अलग से उन पर सीमा शुल्क का भुगतान किए बिना अवैध रूप से सोना आयात करने का आरोप लगाया. कर्नाटक में अवैध लौह अयस्क खनन के लिए एक निचली अदालत ने उन्हें 7 साल की जेल की सजा सुनाई थी. नाइजीरियाई सरकार ने उन पर करोड़ों डॉलर की बैंक धोखाधड़ी का आरोप लगाया. अब, केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय, जिसके प्रमुख कैबिनेट मंत्री पीयूष गोयल हैं, ने गर्ग और उनके परिवार तथा सहयोगियों द्वारा स्थापित एक नई गैर-लाभकारी कंपनी के साथ मिलकर 30-31 अक्टूबर को दिल्ली में मोदी सरकार के अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन, ‘भारत अंतरराष्ट्रीय चावल सम्मेलन’ का आयोजन करने की साझेदारी की है.
गर्ग को सरकार के शक्तिशाली गैर-बासमती चावल विकास कोष के बोर्ड में तीन निजी व्यापार प्रतिनिधियों में से एक के रूप में भी नियुक्त किया गया है. मंत्रालय ने नियमों में संशोधन किया है, जिससे सभी निजी व्यापारियों के लिए हजारों करोड़ रुपये के गैर-बासमती चावल के अपने वार्षिक निर्यात को इस कोष के साथ पंजीकृत करना और माल भेजने से पहले प्रति टन शुल्क का भुगतान करना अनिवार्य हो गया है. वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का दावा है कि भारत अंतरराष्ट्रीय चावल सम्मेलन अगले पांच वर्षों के लिए चावल व्यापार की दिशा तय करेगा. गर्ग की नई संस्था को सह-मेजबान के रूप में शामिल करते हुए, गोयल के मंत्रालय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया है. सरकार सम्मेलन के लिए भारत आने वाले विदेशी चावल व्यापारियों को एक हजार डॉलर तक और आवास की पेशकश कर रही है.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के लिए किये गये इस एक्सपोजे में आयुषी कर, नितिन सेठी, मयंक अग्रवाल और हर्षिता मनवानी ने पाया कि यह नई गैर-लाभकारी कंपनी अगस्त 2023 में गर्ग ने छह अन्य कंपनियों के साथ मिलकर पंजीकृत की थी, जिनके बोर्ड में उनके रिश्तेदार (उनके बेटे सहित) और पुराने सहयोगी शामिल हैं. गर्ग की जिस संस्था, इंडियन राइस एक्सपोर्टर्स फेडरेशन (IREF) के साथ वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने साझेदारी की है, उसे मंत्रालय इवेंट वेबसाइट पर “बासमती और गैर-बासमती चावल निर्यातकों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक राष्ट्रीय स्तर का शीर्ष निकाय” बताता है.
प्रेम चंद गर्ग का अतीत विवादों से भरा रहा है. 2021 में, CBI ने प्रेम गर्ग और उनकी पत्नी पर भारतीय स्टेट बैंक सहित पांच बैंकों के एक संघ से 979.15 करोड़ रुपये की कथित धोखाधड़ी का आरोप लगाया था. यह मामला अभी भी चल रहा है. गर्ग को 2010 के लौह अयस्क निर्यात घोटाले में भी दोषी ठहराया गया था. राजस्व खुफिया निदेशालय (DRI) और पुलिस ने 2016 और 2017 में प्रेम चंद गर्ग और उनके बेटे देवाशीष गर्ग को कथित तौर पर शुल्क-मुक्त सोने की तस्करी के लिए गिरफ्तार किया था. नाइजीरियाई अधिकारियों ने भी उन पर लगभग 4.2 मिलियन डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप लगाया है. इन मामलों पर हमारे सवालों के जवाब में, प्रेम चंद गर्ग ने कहा, “ये मामले माननीय अदालतों के समक्ष विचाराधीन हैं, और मैं उनमें से अधिकांश में पहले ही बरी हो चुका हूं.” उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कुछ “राष्ट्र-विरोधी तत्व” उनकी और फेडरेशन की प्रतिष्ठा को धूमिल करने की कोशिश कर रहे हैं.
IREF को अगस्त 2023 में एक गैर-लाभकारी कंपनी के रूप में बनाया गया था. कॉर्पोरेट फाइलिंग से पता चलता है कि प्रेम चंद गर्ग के पास इस गैर-लाभकारी कंपनी में 1 लाख शेयरों में से सिर्फ एक शेयर है. बाकी शेयर छह अन्य कंपनियों के पास बराबर हिस्सों में हैं. ये छह कंपनियां या तो गर्ग के परिवार से जुड़ी हैं या उन पूर्व भागीदारों या निदेशकों द्वारा चलाई जाती हैं जहां गर्ग और उनके परिवार की सीधी हिस्सेदारी थी. गर्ग को कंपनी के शेयरधारकों द्वारा “कंपनी की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति का स्थायी अध्यक्ष” नियुक्त किया गया था. इसी दौरान, गर्ग के बेटे, आदित्य गर्ग की कंपनी वीआई एक्सपोर्ट्स (Vi Exports) भी फली-फूली. आदित्य की वीआई एक्सपोर्ट्स, IREF में समान हिस्सेदार है. वीआई एक्सपोर्ट्स सिंगापुर में पंजीकृत एक अन्य कंपनी, जेनेवा ग्लोबल पीटीई लिमिटेड के सभी शेयरों का भी मालिक है, जो भारत से चावल के निर्यात के लिए चार्टर्ड शिपिंग सेवाएं प्रदान करती है. रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा संपर्क किए जाने पर, आदित्य गर्ग ने कहा कि उनके पिता का उनकी फर्मों से कोई संबंध नहीं है और अगर रिपोर्ट में उनकी कंपनी का नाम लिया गया तो वे “पीछे पड़ेंगे”.
नीलामी के रिकॉर्ड तोड़ते मकबूल और भड़कता हुआ हिंदू दक्षिणपंथ
20वीं सदी के भारत के सबसे महत्वपूर्ण कलाकारों में से एक, एम.एफ़. हुसैन की जटिल विरासत के लिए, यह साल दो नीलामियों की कहानी रहा है. मार्च में, दिवंगत चित्रकार की ग्रामीण जीवन को दर्शाती एक विशाल पेंटिंग, 14-फुट लंबी “अनटाइटल्ड (ग्राम यात्रा)”, अब तक की सबसे महंगी आधुनिक भारतीय कलाकृति बन गई. 13.75 मिलियन डॉलर की कीमत ने पिछले रिकॉर्ड को लगभग दोगुना कर दिया, और न्यूयॉर्क में क्रिस्टीज़ में मौजूद दर्शकों ने अनायास ही तालियाँ बजाईं.
तीन महीने बाद, मुंबई में हुसैन की 25 खोई हुई पेंटिंगों की नीलामी बहुत कम जश्न वाली थी. एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी समूह द्वारा बिक्री रद्द करने की मांगों को अनदेखा किए जाने पर “मज़बूत सार्वजनिक आंदोलन” की चेतावनी के बाद पुलिस ने नीलामी घर के दफ़्तर पर गश्त की और बैरिकेड लगा दिए. समूह का कहना था कि हुसैन ने पवित्र विभूतियों का “अश्लील और अभद्र” चित्रण किया है. नीलामी बिना किसी घटना के आगे बढ़ी. लेकिन इन दो अलग-अलग मिजाज़ों ने भारतीय कला के सबसे प्रसिद्ध लेकिन विवादास्पद नामों में से एक के रूप में चित्रकार की स्थिति को उजागर किया. सीएनएन के लिए ऑस्कर हालैंड ने इस पर लंबा लेख लिखा है.
लोक और पॉप संस्कृति के साहसिक, रंगीन चित्रण के लिए जाने जाने वाले हुसैन को भारतीय आधुनिकतावाद के प्रणेता के रूप में सराहा गया और अक्सर उन्हें “भारत का पिकासो” कहा जाता था. उनकी पेंटिंग्स ने मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी से लेकर बॉलीवुड सितारों और साहित्यिक महाकाव्यों के पौराणिक पात्रों तक, हर रूप में प्रतीकों के साथ खेला. हालांकि, हिंदू देवताओं के उनके नग्न चित्रण पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप है - एक ऐसी प्रतिक्रिया जिसके बारे में उनके समर्थकों का मानना है कि यह उनकी मुस्लिम विरासत के कारण और बढ़ गई. नतीजतन, उनका बाद का जीवन विरोध, कानूनी कार्रवाई, जान से मारने की धमकियों और एक गिरफ़्तारी वारंट से घिरा रहा. बाद में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी किए जाने के बावजूद, 2011 में लंदन में उनका स्व-निर्वासन में निधन हो गया.
ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के रस्किन स्कूल ऑफ़ आर्ट में कला इतिहास की फ़ेलो डॉ. दिवा गुजराल के अनुसार, हुसैन के काम पर प्रतिक्रियाएं हिंदू राष्ट्रवाद का एक बैरोमीटर भी हैं. जबकि उनके कई सबसे विवादास्पद काम 1970 के दशक में बने थे, यह कोई संयोग नहीं है कि विरोध केवल 1990 के दशक में भड़का, एक ऐसा दशक जब हिंदुत्व की विचारधारा फली-फूली, सांप्रदायिक तनाव गहराया और, गुजराल ने कहा, भारत में मुसलमान “एक निशाना” बन गए.
हुसैन का जन्म 1915 में पश्चिमी भारत के एक तीर्थ शहर पंढरपुर में हुआ था. एक युवा के रूप में, वह मुंबई चले गए और हिंदी फ़िल्म उद्योग के लिए बिलबोर्ड पेंट किए. 1947 में, भारत की आज़ादी के बाद, उन्होंने एफ़.एन. सूज़ा और एस.एच. रज़ा जैसे प्रमुख लोगों के साथ मिलकर बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप (PAG) की सह-स्थापना की. इस समूह ने भारत के लिए एक नई दृश्य भाषा बनाने की कोशिश की. हुसैन ने क्यूबिस्ट-प्रेरित शैली अपनाई जो भारतीय अनुभव में गहराई से निहित थी. क्रिस्टीज़ के निशाद अवारी ने कहा, “वह एक नए भारत देश में एक भारतीय कलाकार होने और भारतीय आधुनिक कला का वास्तव में क्या मतलब है, यह परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.”
हुसैन ने ज़ोर देकर कहा कि उनका इरादा कभी भी इन देवताओं को नीचा दिखाने का नहीं था. उनके विषय स्वयं देवी-देवता नहीं थे, बल्कि उनकी प्रतिमा विज्ञान थी - वे मंदिर की कला, मूर्तियों और नक्काशियों में कैसे दिखाई देते हैं. उनकी नग्नता भारतीय कला के इतिहास से ली गई थी, न कि उनकी कल्पना से. लेकिन 1996 में सब कुछ बदल गया जब एक हिंदू मासिक पत्रिका, ‘विचार मीमांसा’ ने देवी सरस्वती के नग्न चित्रण को “एम.एफ़. हुसैन: एक चित्रकार या कसाई” शीर्षक वाले लेख के साथ प्रकाशित किया. इस घटना के कारण हुसैन के ख़िलाफ़ कई आपराधिक शिकायतें हुईं. 1998 में, हिंदू कट्टरपंथियों ने हुसैन के मुंबई स्थित घर और उनके काम को प्रदर्शित करने वाली दीर्घाओं पर हमला किया. 2006 में, हुसैन अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित होकर और सैकड़ों कानूनी मामलों का सामना करते हुए भारत छोड़ गए. बाद में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, फिर भी हुसैन को कभी भी देश लौटना सुरक्षित नहीं लगा. एक कलाकार और शोमैन के रूप में हुसैन बेहद विपुल थे. अनुमान है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 30,000 से 40,000 कलाकृतियाँ बनाईं. उनके दोस्त और कलेक्टर अभिषेक पोद्दार ने कहा, “उनका प्यार भारत था, और वह हमेशा भारत को याद करते थे.”
पेरिस के लूव्र संग्रहालय में गहनों की चोरी के आरोप में दो गिरफ़्तार
फ्रांसीसी मीडिया के अनुसार, पेरिस के लूव्र संग्रहालय से कीमती ताज के गहनों की चोरी के आरोप में दो संदिग्धों को गिरफ़्तार किया गया है. पेरिस के अभियोजक के कार्यालय ने कहा कि एक व्यक्ति को तब हिरासत में लिया गया जब वह चार्ल्स डी गॉल हवाई अड्डे से उड़ान भरने की तैयारी कर रहा था.
पिछले रविवार को दुनिया के सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले संग्रहालय से 88 मिलियन यूरो (76 मिलियन पाउंड; 102 मिलियन डॉलर) की कीमत की वस्तुएं चुरा ली गई थीं, जब चार चोर बिजली के उपकरणों के साथ दिनदहाड़े इमारत में घुस गए थे. फ्रांस के न्याय मंत्री ने स्वीकार किया है कि सुरक्षा प्रोटोकॉल “विफल” हो गए, जिससे देश की “भयानक छवि” बनी है.
बीबीसी के मुताबिक पेरिस अभियोजक के कार्यालय ने एक बयान में कहा कि गिरफ़्तारियां शनिवार शाम को की गईं, हालांकि यह नहीं बताया गया कि कितने लोगों को हिरासत में लिया गया है. पुलिस सूत्रों ने फ्रांसीसी मीडिया को बताया है कि संदिग्धों में से एक अल्जीरिया जाने की तैयारी कर रहा था, जबकि दूसरा माली जा रहा था. विशेषज्ञ पुलिस उनसे 96 घंटे तक पूछताछ कर सकती है.
चोर कथित तौर पर सुबह 9:30 बजे (06:30 GMT) पर पहुंचे, संग्रहालय के आगंतुकों के लिए खुलने के तुरंत बाद. संदिग्ध सीन नदी के पास एक बालकनी के माध्यम से गैलरी डी’अपोलोन तक पहुंचने के लिए एक वाहन पर लगी हुई मैकेनिकल लिफ्ट के साथ आए थे. दो चोर बिजली के उपकरणों से खिड़की काटकर अंदर घुसे. फिर उन्होंने गार्डों को धमकाया, जिन्होंने परिसर खाली कर दिया, और गहनों वाले दो डिस्प्ले केस के शीशे काट दिए.
एक प्रारंभिक रिपोर्ट से पता चला है कि जिस क्षेत्र में छापा मारा गया था, वहां हर तीन में से एक कमरे में कोई सीसीटीवी कैमरा नहीं था. फ्रांसीसी पुलिस का कहना है कि चोर चार मिनट तक अंदर रहे और सुबह 9:38 बजे बाहर इंतज़ार कर रहे दो स्कूटरों पर भाग गए. संग्रहालय की निदेशक ने इस सप्ताह फ्रांसीसी सीनेटरों को बताया कि लूव्र की बाहरी दीवार की निगरानी करने वाला एकमात्र कैमरा उस पहली मंजिल की बालकनी से दूर की ओर था जो गैलरी डी’अपोलोन की ओर जाती थी.
विशेषज्ञों ने यह भी चिंता व्यक्त की है कि गहनों को पहले ही सैकड़ों टुकड़ों में तोड़ा जा चुका होगा. डच कला जासूस आर्थर ब्रांड ने बीबीसी को बताया कि सोना और चांदी पिघलाया जा सकता है और रत्नों को छोटे पत्थरों में काटा जा सकता है, जिन्हें चोरी से जोड़ना लगभग असंभव होगा. इस घटना के बाद फ्रांस के सांस्कृतिक संस्थानों के आसपास सुरक्षा उपाय कड़े कर दिए गए हैं. लूव्र ने अपने कुछ सबसे कीमती गहनों को बैंक ऑफ़ फ्रांस में स्थानांतरित कर दिया है.
किताब
अशोक वाजपेयी | अनुत्तरित लोग: आदिवासी स्वर में गूंजती पृथ्वी की कविता
कवि और वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने द वायर हिंदी में अपने कॉलम कभी कभार में आदिवासी कविताओं के संग्रह के बारे में लिखा है. उसके अंश.
1997 में जब आज़ादी के पचास साल पूरे हुए तो उस अवसर पर मैंने एक लेख टाइम्स ऑफ़ इंडिया में लिखा था जिसकी एक स्थापना यह भी थी कि उन पचास वर्षों में साहित्य संसार के बारे में अधिक और पृथ्वी के बारे में कम हो गया. पृथ्वी प्राकृतिक परिघटना है और संसार मनुष्य ने रचा है. पृथ्वी पृथ्वी ही बनी रहती, जैसे कि वह सभी अन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों के लिए आज भी है, अगर उसे मनुष्य ने भाषा से संसार में न बदला होता. उसी भाषा में धीरे-धीरे पृथ्वी की उपस्थिति, उससे सरोकार कम हो गए.
गुजराती कवि कानजी पटेल ने इधर एक अद्भुत काम किया है. उनके संपादन में हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद में भारतीय समकालीन आदिवासी कविता का संचयन ‘अनुत्तरित लोग’ शीर्षक से सेतु प्रकाशन से आया है. रज़ा फ़ाउंडेशन ने वित्तीय सहायता दी है. इस अद्वितीय संचयन में 141 भाषाओं के 382 कवियों की 700 कविताएं अपने मूल में हिंदी अनुवाद के साथ शामिल की गई हैं.
भारत की आदिवासी कविता का इतना बड़ा संकलन इससे पहले कभी नहीं हुआ. एक स्तर पर यह संकलन संसार की नहीं, पृथ्वी की कविता का संग्रह है. आदिवासी आज भी पृथ्वी के नज़दीक, उससे निरंतर संवाद में रहते हैं हालांकि संसार उन्हें वहां से बेदख़ल करने की हर चंद कोशिश करता रहता है. इस कोशिश का जो आदिवासी प्रतिरोध है वह भी इस कविता का एक ज़रूरी पक्ष है. इस कविता में पृथ्वी की सुषमा, विपुलता, वैभव, लालित्य, उसकी प्रकृति की अदम्यता और अक्षय सौंदर्य का, आदिवासी जिजीविषा के साथ, अन्याय और भेदभाव के प्रतिरोधक स्वर भी मुखर हैं.
संसार भले पृथ्वी को भूलता जा रहा है, पृथ्वी संसार का ध्यान रखती है. दिलचस्प यह है कि भारत का प्रायः कोई अंचल नहीं है जिसमें कोई न कोई आदिवासी समुदाय न रहता हो. प्रायः हर समुदाय नाचने-गाने के अलावा कविता भी लिखता है. शायद यह कहना अधिक सही होगा कि लिखता कम, कविता को नाचता-गाता अधिक है. उनके यहां कविता इस गहरे अर्थ में भी कला है कि वह अनिवार्यतः नृत्य-संगीत से जुड़ी है.
इस संचयन में ऐसी बहुत सारी भाषाएं हैं जिनके, कम से कम मैंने, पहले कभी नाम नहीं सुना था. कुछ उदाहरण भर: अंत्रुजी, बेडा, भान्तु, भिलौरी, चोलानायका, दिमासा, देहवाली, गोजरी, हक्की पिक्की, हुनफुल-तांगखुल, खोरठा, कोकबोरोक, कोड़ा, मालवेत्तुआ, पुरगी, थाडो, टिवा, तोतो, येराकुला. इतनी सारी बोलियों से हिंदी में अनुवाद करना-कराना एक अभियान से कम न रहा होगा.
कुछ कविताओं के उद्धरण चुने हैं हालांकि वे संचयन की विपुलता से न्याय नहीं करते. जौनसारी के नारायण सिंह चौहान स्वानुवाद में कहते हैं:
“किसी गीत की धुन आयी थी पहाड़ी के उस पार से,
न जाने कहां खो गई,
लड़की बारात लेकर जा रही थी इस पार से,
न जाने कहां खो गई.”
मिसिंग भाषा के कवि त्रिरंजन टेड का यह कवितांश:
“जब जंगल था
तब सुबह की चोंच पर
पृथ्वी की मुस्कान खुशी से गिरती थी
जब जंगल था
तब सुबह के कण्ठ पर
ज़िन्दगी का मुस्कराता चेहरा टपकता था.”
रेखा खराड़ी ‘आसमान बरसे और टापरी रोये’ की शुरूआत यों करती हैं:
“आसमान जब बरसता है
तो टापरा रोता है
टापरे में एक चारपाई है
जब टापरा टपकता है तो
हम चारपाई यहां-वहां खिसकाते हैं.”
आगे उनकी एक पंक्ति है कि ‘सिर्फ़ यही बता सकती हूं फ़िलहाल/अभी अंधेरा है’. यह कहा जा सकता है कि हमारे आदिवासी कविबंधु फ़िलहाल जो बता रहे हैं वह उन्हें ध्यान के उजाले में लाने और हमारे अंतःकरण का आयतन बढ़ाने के लिए काफ़ी है.
अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.















