27 दिसंबर 2024: ब्रह्मपुत्र पर बनेगा चीनी बांध, बासमती पाकिस्तानी या भारतीय, आरएसएस के मुखपत्र और मुखिया में मनभेद या मतभेद, कांग्रेस बापू-बाबा की शरण में, कंगारूओं के पिच पर पंगे, डॉ सिंह का जाना..
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
ब्रह्मपुत्र नदी जहाँ से भारत में प्रवेश करती है, वहाँ से पचास किलोमीटर ऊपर चीन पूर्वी तिब्बत के यारलुंग जैंग्बो के निचले इलाकों में एक विशाल बांध बनाने जा रहा है. बताया गया है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा पनबिजली प्रोजेक्ट होगा. यह बांध थ्री जोर्जस बांध से भी बड़ा है और इससे बहुत सारी ‘हरित’ ऊर्जा बनाई जाएगी. एक चीनी ऊर्जा अधिकारी का कहना है, ‘ पचास किलोमीटर की लम्बाई में इस बाँध से 2000 मीटर ऊंचाई का सीधा ड्रॉप है. इससे करीब 700 लाख किलो वाट की बिजली बनाई जा सकेगी, जबकि थ्री जोर्जस बांध की तो 225 लाख किलोवाट की ही स्थापित क्षमता है.’
पर भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा? भारत में भी ब्रह्मपुत्र से बिजली बनाने की योजना है. चीन में भारत के राजदूत रहे अशोक कंठ का कहना है, ‘यह एक खतरनाक और गैर जिम्मेदाराना कदम है, जिसका भारत पर बड़ा प्रभाव होने वाला है.’ सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बांग्लादेश के लिए भी, जो नदी के निचले इलाके में पड़ता है.
कांग्रेस को अब बापू और बाबासाहेब का सहारा
कांग्रेस को लग रहा है कि ‘जय बापू और जय भीम’ का नारा ही उसकी संजीवनी बन सकता है. लिहाजा भाजपा और संघ परिवार से मिल रही राजनीतिक चुनौतियों को शिकस्त देने के लिए उसने महात्मा गांधी और अंबेडकर की विरासत का सहारा लेने का निश्चय किया है. कर्नाटक के बेलगावी में वृहस्पतिवार को प्रारंभ हुई कार्यसमिति की बैठक में तय किया गया कि कांग्रेस 26 जनवरी 2025 से ‘संविधान बचाओ राष्ट्रीय पदयात्रा’ शुरू करेगी. इसके अलावा दिसंबर 2024 से जनवरी 2026 तक वह ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ राजनीतिक अभियान शुरू करेगी. ये दोनों कार्यक्रम एक साल तक चलेंगे. दरअसल, पार्टी का मानना है कि ‘भारत जोड़ो’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के बाद उसकी सेहत में काफी सुधार हुआ है. लेकिन, सबसे पुरानी पार्टी के रणनीतिकारों को शायद मालूम है कि संगठन को मजबूत बनाए बिना वांछित परिणाम नहीं हासिल किए जा सकते, सो संगठन में व्यापक सुधार करने की जरूरत किसी और ने नहीं खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बताई. उनका कहना था वर्ष 2025 को हमने संगठन को मजबूत करने के लिए चुना है. उदयपुर घोषणापत्र को पूरी तरह क्रियान्वित करने के अलावा तमाम चीजें की जाएंगी. मसलन, सभी खाली पद भरे जाएंगे और चुनाव जीतने के लिए एआईसीसी से लेकर बूथ स्तर तक पार्टी की मशीनरी को कौशलयुक्त बनाया जाएगा. लेकिन उदयपुर घोषणापत्र के शत प्रतिशत क्रियान्वयन का अर्थ है कि जो पांच साल से पद पर हैं, उन्हें मुक्त किया जाएगा. इस सूची में 6 साल से राष्ट्रीय संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल का नाम भी है, जो पार्टी के भीतर और बाहर राहुल गांधी से अच्छे तालमेल के लिए जाने जाते हैं. महासचिव के पद पर प्रियंका गांधी वाड्रा को भी पांच साल हो गए हैं और राज्यसभा सदस्य मुकुल वासनिक को तो 10 वर्ष का लंबा समय हो गया है. उदयपुर घोषणापत्र के मुताबिक यदि ‘एक व्यक्ति एक पद’ का सिद्धांत भी लागू किया गया तो स्वयं खड़गे को एक पद छोड़ना होगा. वह पार्टी का अध्यक्ष होने के साथ-साथ राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी हैं.
बासमती भारतीय है या पाकिस्तानी?
आप सोचेंगे ये भी क्या सोचना. पर पाकिस्तान ने यूरोपीय संघ ईयू में दावा ठोंक दिया है कि बासमती का सरंक्षित ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) उसे दिया जाए. भारत ने इस पर ऐतराज जताया है. भारत चाहता है उसे पाकिस्तानी दावे का कागज़ उपलब्ध करवाए, जो ईयू मना कर रहा है. भारत अब यूरोपीय न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने की सोच रहा है.
आरएसएस का मुखिया एक बात बोल रहा है मुखपत्र कुछ और..
ऑर्गनाइजर का संपादकीय मोहन भागवत के विचार से अलग है
देश में मंदिर-मस्जिद विवादों के फिर से उभरने पर मोहन भागवत की नाराजगी के कुछ दिनों बाद आरएसएस से जुड़ी साप्ताहिक पत्रिका ऑर्गेनाइजर के ताजा अंक में कहा गया है कि सोमनाथ से लेकर सम्भल और उसके आगे- यह ऐतिहासिक सच्चाई जानने और ‘सभ्यतागत न्याय’ की लड़ाई है.
बीआर अंबेडकर का अपमान किसने किया, इस पर मचे शोर के बीच, हालांकि ऐतिहासिक रिकॉर्ड ‘स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि कांग्रेस ने संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष के साथ कैसा व्यवहार किया.
आगे लिखा है- ‘उत्तर प्रदेश के संभल में हाल ही में हुए घटनाक्रम ने ‘जनता के दिलों को छू लिया है. श्री हरिहर मंदिर, जो अब उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक शहर में जामा मस्जिद के रूप में बना हुआ है, का सर्वेक्षण करने की याचिका से शुरू हुआ विवाद व्यक्तियों और समुदायों को दिए गए विभिन्न संवैधानिक अधिकारों के बारे में एक नई बहस को जन्म दे रहा है’.
‘ऑर्गनाइजर’ के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी चश्मे से हिंदू-मुस्लिम प्रश्न तक बहस को सीमित करने के बजाय हमें समाज के सभी वर्गों को शामिल करते हुए सत्य इतिहास पर आधारित सभ्यतागत न्याय की खोज पर एक विवेकपूर्ण और समावेशी बहस की आवश्यकता है’.
केतकर ने लिखा है- ‘छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी चश्मे से हिंदू-मुस्लिम प्रश्न तक बहस को सीमित करने के बजाय, हमें समाज के सभी वर्गों को शामिल करते हुए सत्य इतिहास पर आधारित सभ्यतागत न्याय की खोज पर एक विवेकपूर्ण और समावेशी बहस की आवश्यकता है’.
इसमें कहा गया है- ‘सोमनाथ से लेकर संभल और उससे आगे, ऐतिहासिक सत्य जानने की यह लड़ाई धार्मिक वर्चस्व के बारे में नहीं है. यह हिंदू लोकाचार के विरुद्ध है. यह हमारी राष्ट्रीय पहचान की पुष्टि करने और सभ्यतागत न्याय की तलाश करने के बारे में है’.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख भागवत ने पिछले सप्ताह देश में कई मंदिर-मस्जिद विवादों के फिर से उठने पर चिंता व्यक्त की और कहा कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ व्यक्तियों को लगता है कि वे ऐसे मुद्दों को उठाकर ‘हिंदुओं के नेता’ बन सकते हैं. यह स्वीकार्य नहीं है’.
उन्होंने कहा कि राम मंदिर का निर्माण इसलिए किया गया, क्योंकि यह सभी हिंदुओं की आस्था का मामला है.
पुणे में गुरुवार को सहजीवन व्याख्यानमाला में ‘भारत : विश्वगुरु’ विषय पर व्याख्यान देते हुए भागवत ने उक्त विचार प्रकट करते हुए समावेशी समाज की वकालत की और कहा कि दुनिया को यह दिखाने की जरूरत है कि भारत सद्भावना से रह सकता है.
भागवत ने किसी विशेष स्थान का उल्लेख किए बिना कहा, ‘हर दिन एक नया मामला (विवाद) उठाया जा रहा है. इसकी अनुमति कैसे दी जा सकती है? यह जारी नहीं रह सकता. भारत को यह दिखाने की जरूरत है कि हम एक साथ रह सकते हैं’.
‘ऑर्गनाइजर’ के संपादकीय में कहा गया है, ‘भारत में धार्मिक पहचान की कहानी जाति के सवाल से बहुत अलग नहीं है. कांग्रेस ने जाति के सवाल को टालने की कोशिश की. सामाजिक न्याय के क्रियान्वयन में देरी की और चुनावी लाभ के लिए जातिगत पहचान का शोषण किया. धार्मिक पहचान की कहानी भी इससे बहुत अलग नहीं है’.
साप्ताहिक पत्रिका के संपादकीय में आगे कहा गया है, ‘इस्लामिक आधार पर मातृभूमि के दर्दनाक विभाजन के बाद, इतिहास के बारे में सच्चाई बताकर और सामंजस्यपूर्ण भविष्य के लिए वर्तमान को फिर से स्थापित करके सभ्यतागत न्याय के लिए प्रयास करने के बजाय, कांग्रेस और कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने आक्रमणकारियों के पापों को छिपाने का विकल्प चुना’.
संपादकीय में लिखा है, ‘अंबेडकर जाति-आधारित भेदभाव के ‘मूल कारण’ तक गए और उन्होंने इसके लिए संवैधानिक उपाय प्रदान किए.
आगे लिखा है- ‘सभ्यतागत न्याय की इस खोज को संबोधित करने का समय आ गया है. हमें धार्मिक कटुता और असामंजस्य को समाप्त करने के लिए इसी तरह के दृष्टिकोण की आवश्यकता है’.
केतकर लिखते हैं- ‘इतिहास के बारे में सच्चाई को स्वीकार करने, ‘भारतीय मुसलमानों’ को ‘मूर्तिभंजन और धार्मिक वर्चस्व’ के अपराधियों से अलग करने और सभ्यतागत न्याय की खोज को संबोधित करने पर आधारित यह दृष्टिकोण शांति और सद्भाव की आशा प्रदान करता है’.
संपादकीय में कहा गया है, ‘न्याय तक इस तरह की पहुंच और सच्चाई जानने के अधिकार से वंचित करना, सिर्फ इसलिए कि कुछ उपनिवेशवादी अभिजात्य वर्ग और छद्म बुद्धिजीवी घटिया धर्मनिरपेक्षता के अनुप्रयोग को जारी रखना चाहते हैं, कट्टरपंथ और शत्रुता को बढ़ावा देगा’.
पत्रिका के नवीनतम अंक में संभल विवाद पर कवर स्टोरी प्रकाशित की गई है. इसमें आरोप लगाया गया है कि कांग्रेस के ‘षड्यंत्र’ ने मुगल सम्राट बाबर और औरंगजेब जैसे कट्टर शासकों की बड़ी-से-बड़ी छवि पेश करके ‘भारतीय मुसलमानों’ को यह गलत धारणा दी कि वे अंग्रेजों से पहले यहां के शासक थे.
इसमें कहा गया है, ‘भारत के मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि वे उत्तराधिकारी हैं, लेकिन बर्बर इस्लामी आक्रमणों के शिकार भी हैं. उनके पूर्वज हिंदुओं के विभिन्न संप्रदायों से हैं और इसलिए उन्हें मूर्तिभंजन की विचारधारा को अस्वीकार करना चाहिए’.
विश्लेषण
श्रवण गर्ग: भागवत का कहा मान लिया तो सत्ता और धार्मिक रोज़गार का क्या होगा ?
लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक हैं और उनके लेखों को उनके ब्लाग सवाल यह है कि यहाँ पढ़ा जा सकता है.
मोहन भागवत जो कह रहे हैं वे अगर उसे हक़ीक़त में बदल कर दिखा दें तो दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘नोबेल पीस प्राइज’ उन्हें मिल जाएगा और संघ के नेतृत्व में एक अहम मसले पर विश्व में शांति स्थापित हो जाएगी. जो काम महात्मा गांधी अपनी शहादत के बावजूद पूरा नहीं कर सके बापू के धुर विरोधी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शिखर पुरुष अपनी आँखों के सामने होता हुआ देख लेंगे.
मोदी और भागवत जब कभी कुछ बोलते हैं आत्माएं झकझोर देते हैं. उनके कहे के अनेक भाष्य होने लगते हैं. इसलिए दोनों से ही लोग उनके न चाहते हुए भी डर-डर कर रहते हैं. मोदी के कारण उनके राजनीतिक विरोधी और भागवत के कारण संघ की नज़रों के कथित ‘विधर्मी’.
राजनीतिक विरोधी मोदी का मुँह इसलिए ताकते रहते हैं कि प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों की जादूगरी करके ‘सबका विकास’ का कौन सा नया जुमला जनता को सौंपने वाले हैं और, दूसरी ओर, संघ प्रमुख अल्पसंख्यकों के भारत में भविष्य को लेकर कार्यकर्ताओं को क्या नया मार्गदर्शन देने वाले हैं !
देश की मुस्लिम आबादी फतवों के लिए अब देवबंद की तरफ़ कम और नागपुर की तरफ़ ज़्यादा देखती है. अल्पसंख्यकों को यह भी लगता होगा कि उन्हें लेकर भाजपा और संघ के बीच शायद कोई कंपीटिशन चल रही है. भारत में उनके भविष्य पर दोनों आपस में साथ बैठकर कोई एक स्ट्रेटेजी नहीं तय कर पा रहे हैं.
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव संघ के नेतृत्व में ‘कटेंगे तो बटेंगे’ की थीम पर लड़ा गया था. योगी के नारे के पीछे संघ की सहमति थी. इसी बीच संभल भी हो गया. नागपुर में फडनवीस सरकार के गठन और मुंबई में विभागों के बंटवारे से फ्री होते ही संघ प्रमुख ने एक नया मंत्र हवा में उछाल कर न सिर्फ़ साधु-संत समाज और संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए संकट उपस्थित कर दिया, मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी नए सिरे से चिंतित कर दिया.
दो साल पहले उत्पन्न हुए ‘ज्ञानव्यापी’ विवाद के बाद भागवत ने कहा था हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों तलाशना चाहिए ? राममंदिर का काम पूरा हो गया है. हमें अब कोई आंदोलन नहीं करना चाहिए. क्या भागवत के कहे का कोई असर हुआ ? या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये सत्ता की राजनीति करने वाले महत्वाकांक्षियों ने संघ को ही हाशिये पर डाल दिया ?
ऐसा नहीं हुआ होता तो भागवत को हाल में दोहराना नहीं पड़ता कि राममंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग सोचने लगे हैं कि अगर ऐसे ही विवाद नए स्थानों को लेकर उठाते रहेंगे तो वे हिंदुओं के नेता बन जाएँगे ! ‘यह मंज़ूर नहीं’. भागवत का इशारा जिन भी ‘लोगों’ की तरफ़ रहा हो वे विपक्षी दलों के तो हरगिज़ ही नहीं हो सकते . तो फिर कौन हैं ? नाम लेकर साफ़-साफ़ बोलने से भागवत क्यों कतरा रहे हैं ? दाएँ-बाएँ की राजनीति कब तक करते रहेंगे ?
भागवत इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होंगे कि सांप्रदायिक वैमनस्य के जिस ‘जिन्न’ को सत्ता-प्राप्ति के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के प्रति नागपुर का इतने सालों से मौन समर्थन रहा है वह वापस बोतल में वापस जाने को तैयार नहीं हैं. वह ‘जिन्न’ 2002 के गुजरात दंगों के बाद से मनचाही मुरादें पूरी करता रहा है. हक़ीक़त यह है कि वह ‘जिन्न’ अब अपनी जगह संघ को बोतल में बंद देखना चाहता है.
भागवत के कहे पर साधु-संत समाज की जो प्रतिक्रिया सामने आई है वह उदाहरण है और उसे लेकर संघ प्रमुख को चिंतित होना चाहिए. साधु-संत समाज की प्रतिक्रिया में संघ की भूमिका को लेकर वही कहा गया है जो लोकसभा चुनावों के दौरान जे पी नड्ढा ने कहा था और जिसके बाद संघ-भाजपा के बीच तनाव बढ़ गया था. यानी संघ को लेकर भाजपा और साधु-संतों की धारणा अब एक-सी है.
संतों के संगठन ‘अखिल भारतीय संत समिति’ ने भागवत के हाल के वक्तव्यों की आलोचना करते हुए कहा है कि धार्मिक मामलों में फ़ैसले धर्माचार्य ही लेंगे, संघ नहीं जो कि एक सांस्कृतिक संगठन है.
समिति के महासचिव स्वामी जितेंद्रानन्द सरस्वती ने कहा है कि धर्माचार्य जो भी तय करेंगे उसे संघ और विश्व हिंदू परिषद स्वीकार करेंगे.
समिति के हवाले से यह भी दावा किया गया है कि भागवत द्वारा अतीत में दिये गए इसी तरह के वक्तव्यों के बाद 56 नए स्थानों पर मंदिरों के अवशेषों की पहचान की गई है. समिति के कहे का सार यही समझा जा सकता है कि भागवत के कहे का कोई असर नहीं पड़ने वाला है और जो चल रहा है वही चलता रहेगा.
पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष संगठनों के झंडों तले हज़ारों-लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं, प्रवचनकारों, साधु-संतों और अखाड़ों के पेड-अनपेड या सेल्फ-हेल्प समूह खड़े हो गए हैं. इन समूहों के लिए मंदिर-निर्माण और मंदिरों के अवशेषों आदि की तलाश करना अपने आपको लाभप्रद तरीक़ों से व्यस्त रखने का बड़ा संसाधन या उद्योग बन गया है.
भागवत का कहा अगर मान लिया गया तो देश में धार्मिक बेरोज़गारी की अराजकता मच जाएगी. कथित विधर्मियों के मर्मस्थलों पर प्रहार करके सत्ता-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले सेनानियों का अकाल पड़ जाएगा. हिन्दुत्ववादी सरकारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.
भागवत के कहे को अगर प्रधानमंत्री का समर्थन नहीं प्राप्त होता है तो संघ-प्रमुख इतना भर तो कर ही सकते हैं कि वे अपने आप को सत्ता के सुरक्षा कवच से और कार्यकर्ताओं को चुनावी राजनीति से पूरी तरह अलग कर लें ! भाजपा को उसके अपने हाल पर छोड़ दें. प्रयोग के लिए दिल्ली और बिहार के चुनाव सामने खड़े हैं. भागवत क्या ऐसा कर पाएँगे ?
हाँ, इतिहास दयालु रहेगा मनमोहन सिंह के प्रति
भारत में खुले बाजार और आर्थिक उदारवाद के प्रमुख सूत्रधार और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 92 साल की उम्र में एम्स में आखिरी सांस ली. 26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में जन्में डॉ.सिंह ने पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की शिक्षा प्राप्त की और बाद में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक एवं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी.फिल. की उपाधि हासिल की. कुछ वर्षों तक उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाया भी. साल 1991 में वित्त मंत्री के रूप में डॉ. सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक सुधार किए, जिससे देश में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई. प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने आईटी और टेलीकॉम क्षेत्रों में सुधार किए, जिससे भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का व्यापक विकास हुआ और दूरसंचार सेवाएं देशभर में पहुंचीं. उनके कार्यकाल में ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की शुरुआत हुई, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े और गरीबी उन्मूलन में सहायता मिली. प्रधानमंत्री पद के आखिरी दिनों में पत्रकारों के साथ खुली बातचीत में उन्होंने यकीन जताया था कि इतिहास उन्हें ज्यादा दयालु नज़रों से देखेगा. पत्रकारों के साथ खुली बातचीत न करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए डॉ सिंह ने नोटबंदी के फैसले को ऐतिहासिक कुप्रबंधन करार दिया था और यह भी कहा था कि नोटबंदी हमारी अर्थव्यवस्था के साथ की गई एक संगठित लूट और वैधानिक झपट्टा (ऑर्गनाइज्ड लूट एंड लीगलाइज्ड प्लंडर) है.
भाजपा को 2,600 करोड़ रुपये से अधिक का चंदा, कांग्रेस को 281..
'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट है कि चुनाव आयोग (EC) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2023-24 में भाजपा को 2,600 करोड़ रुपये से अधिक का चंदा प्राप्त हुआ, जो इसे सबसे बड़ी राशि प्राप्त करने वाली राजनीतिक पार्टी बनाता है. जबकि कांग्रेस पार्टी को 281 करोड़ रुपये का योगदान मिला. कांग्रेस से ज्यादा चंदा ₹542 करोड़ रुपए टीएमसी और ₹503 करोड़ रुपए का चंदा डीएमके को मिला है. सीपीआई-एम को कुल ₹7.64 करोड़ का ही चंदा मिला है. रिपोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से प्राप्त चंदा शामिल नहीं है. भाजपा को चंदा देने वालों में ₹723 करोड़ के साथ प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट पहले नंबर पर बना हुआ है, जबकि ट्रायम्फ इलेक्टोरल ट्रस्ट ने ₹127 करोड़ और फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड से ₹3 करोड़ का चंदा दिया है. भाजपा को विभिन्न कॉर्पोरेट समूहों जैसे वेदांता, भारती एयरटेल, मुथूट, बजाज ऑटो, जिंदल ग्रुप और टीवीएस मोटर्स के माध्यम से इलेक्टोरल बॉन्ड से भी बड़ी राशि प्राप्त हुई.
64.58
प्रतिशत पद आकाशवाणी और दूरदर्शन में फिलवक़्त खाली पड़े हैं. 2022-23 में 3186 पद और खाली हुए. 45,791 पदों में से 16,219 ही भरे हुए हैं. सूचना प्रसारण मंत्रालय ने यह रहस्योद्घाटन संसदीय समिति के सामने किया.
गाजा में 5 पत्रकारों को मारा
गाजा में हुए इजरायली हमले में अल-कुद्स टुडे के पांच पत्रकारों की मौत हो गई. ‘अलजजीरा’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये पत्रकार अल-अवदा अस्पताल के पास घटनाओं को कवर कर रहे थे, जब उनकी स्पष्ट रूप से "प्रेस" के रूप में चिन्हित वैन पर हमला हुआ. गाजा में जारी हिंसा के बीच, मीडिया कर्मियों पर हो रहे हमलों ने प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर दुनियाभर का ध्यान खींचा है.

पिच पर सिर्फ क्रिकेट नहीं खेल रही होती टीम ऑस्ट्रेलिया, बिना पंगे के बात नहीं बनती…
ऑस्ट्रेलियई क्रिकेट टीम और विवाद इन दोनों के बीच गहरा संबंध है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि ऑस्ट्रेलियन सिर्फ जीतना चाहते हैं. किसी भी तरह. इसलिए वह हमेशा से विपक्षी टीम को खेल के इतर भी निशाना बनाते हैं. टीम इंडिया के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से अब भारतीय टीम से भी उनके विवाद बढ़ गए हैं. टेस्ट डेब्यू करने वाले 19 वर्षीय सैम कोंटास और विराट कोहली के बीच तो 26 दिसंबर को बॉक्सिंग डे टेस्ट पर हुआ विवाद, तो कोई विवाद ही नहीं है. विराट कोहली ने सजा स्वीकार कर ली है और कोंटास ने बयान दिया है कि अनजाने में दोनों टकरा गए थे. लेकिन इस सीरीज में काफी गर्मागर्मी तब देखने को मिली, जब रविंद्र जडेजा ने भारतीय मीडिया को हिंदी में जवाब दिया था. तब ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने आरोप लगाया कि जडेजा स्थानीय मीडिया को जानबूझकर नजरअंदाज करने के लिए हिंदी में जवाब दे रहे थे. इसके बाद से वे भारतीय टीम को विलेन बनाने में लगे हैं. जबकि सच यह है कि जडेजा से किसी ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने सवाल ही नहीं पूछा था. खैर, इसी बहाने भारत और ऑस्ट्रेलिया से जुड़े कुछ बड़े विवाद पर नजर डालते हैं.
कप्तान को टेस्ट का बॉयकॉट का निर्णय करना पड़ा : 1981 में मेलबर्न टेस्ट में डेनिस लिली की गेंद पर अंपायर ने कप्तान सुनील गावस्कर को गलत एलबीडब्लू करार दिया. गावस्कर पहले से ही इस फ़ैसले से नाराज थे, तभी लिली ने पैवेलियन जाते गावस्कर को अपशब्द कह दिया. बस गावस्कर ने अपने ओपनिंग पार्टनर चेतन चौहान को निर्देश दिया कि मैदान छोड़ दो. किसी तरह टीम मैनेजर ने मामला संभाला. भारत यह मैच 59 रन से जीत गया.
सचिन को शोल्डर बिफोर विकेट : 1999 की टेस्ट सीरीज में ग्लेन मैकग्राथ के बाउंसर पर सचिन तेंदुलकर झुके और गेंद उनके कंधे पर लगी. ऑस्ट्रेलियाई टीम ने अपील की और अंपायर ने उन्हें एलबीडब्ल्यू करार दिया. जबकि गेंद विकेट से ऊपर से जा रही थी.
माइकल स्लेटर अंपायर और द्रविड़ पर चिल्लाए : 2001 में स्लेटर ने द्रविड़ को आउट करने के लिए डाइविंग कैच लिया. अंपायर ने रीप्ले देखकर कहा- कैच क्लीन नहीं है. इसके बाद पहले वह अंपायर पर चिल्लाए और फिर द्रविड़ पर भी.
द्रविड़ को निशाना बनाकर ली ने बाउंसर फेंकी, कान से खून निकला : 2004 में सिडनी में दूसरी पारी में भी ब्रेट ली की एक बाउंसर राहुल द्रविड़ को निशाना बनाकर फेंका. उनके कान से खून बहने लगा. ली उन्हें देखने भागकर गए, मगर कप्तान सौरव गांगुली को यक़ीन नहीं था. इसलिए उन्होंने अनजाने में ऐसा हुआ है. उन्होंने वहीं पर पारी समाप्ति की घोषणा कर दी.
मंकीगेट प्रकरण : 2008 में सिडनी में खेले गए टेस्ट के दौरान एंड्रयू साइमंड्स ने हरभजन सिंह पर नस्लीय दुर्व्यवहार का आरोप लगाया था. उनका दावा था कि हरभजन ने उन्हें मंकी कहा है.
खराब अंपायरिंग विवाद : 2008 में सिडनी टेस्ट में पक्षपातपूर्ण अंपायरिंग का आरोप तत्कालीन भारतीय कप्तान अनिल कुंबले ने लगाया था.
गंभीर बनाम वॉटसन : 2008 की घरेलू सीरीज के दौरान फिरोजशाह कोटला टेस्ट के दौरान वर्तमान कोच व तत्कालीन सलामी बल्लेबाज गौतम गंभीर के रन लेने के दौरान शोन वॉटसन ने धक्का दे दिया. इसके बाद वॉटसन से गंभीर लड़ पड़े.
पिच पर बीयर पार्टी : 2012 में पर्थ के WACA पिच पर ऑस्ट्रेलियन ग्राउंड स्टाफ को बीयर पार्टी करते हुए देखा गया था. भारतीय टीम प्रबंधन ने इस पर नाखुशी जताई थी.
स्टीव स्मिथ ने डीआरएस लेने में बाहर से मदद मांगी : 2017 में बेंगलुरु में स्टीव स्मिथ ने एलबीडब्लू आउट होने के बाद डीआरएस लेने से पहले ड्रेसिंग रूम की मदद ली. इससे भारतीय खिलाड़ी भड़क गए और उन्हें पैवेलियन जाना पड़ा.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ टीम इंडिया से ही ऑस्ट्रेलियन टीम ऐसा व्यवहार करती है. वह जीतने के लिए करीब-करीब हर टीम के साथ ऐसे हथकंडे अपनाती रही है. देखिए ऑस्ट्रेलियन टीम के साथ जुड़े कुछ बड़े विवाद.
ट्रेवर चैपल की अंडर ऑर्म गेंदबाजी : 1981 में मेलबर्न क्रिकेट स्टेडियम में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच एकदिवसीय मैच के दौरान ऑस्ट्रेलियाई कप्तान ग्रेग चैपल ने अपने छोटे भाई और आलराउंडर ट्रेवर चैपल को दूसरी पारी की आखिरी गेंद पर जब न्यूजीलैंड को जीत के लिए 7 रन चाहिए था, तब अंडर ऑर्म गेंदबाजी करने को कहा. ताकि बल्लेबाज को ताक़त न मिले और गेंद को सिक्स न मार पाए. उस वक्त तक अंडर ऑर्म गेंदबाजी पर प्रतिबंध नहीं लगा था, लेकिन नैतिक रूप से गलत माना जाता था. इसी के बाद आईसीसी ने अंडर ऑर्म गेंदबाजी पर प्रतिबंध लगा दिया.
जब लिली ने मियांदाद को मारी लात : बात 1981 की है. मियांदाद लिली की गेंद पर रन लेने के लिए दौड़े तो लिली उनसे जानबूझकर टकरा गए. मियांदाद को क्रीज के भीतर जाने के लिए लिली को धक्का देना पड़ा. मामला यहीं खत्म नहीं हुआ. लिली ने वापस आते समय मियांदाद को लात मारी. इसके बाद मियांदाद ने लिली को मारने के लिए बल्ला उठा लिया. वो तो अंपायर टोनी क्राफ्टर बीच में आ गए.
शेन वॉर्न पर ड्रग्स लेने के लिए प्रतिबंध : दक्षिण अफ्रीका में आयोजित वनडे विश्व कप 2003 के दौरान शेन वॉर्न प्रतिबंधित ड्रग्स लेने के दोषी पाए गए. इसके बाद उन पर एक साल का बैन लगा.
मार्च 2018 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ़ टेस्ट सीरीज़ के दौरान ऑस्ट्रेलियाई कप्तान स्टीव स्मिथ, उप-कप्तान डेविड वार्नर और कैमरन बैनक्रॉफ्ट ने मिलकर बॉल-टैम्परिंग की. इसके बाद तीनों खिलाड़ियों पर प्रतिबंध लग गया और स्टीव स्मिथ की कप्तानी चली गई.
2013 चैंपियंस ट्रॉफी में इंग्लैंड से हारने के कुछ घंटों बाद, डेविड वार्नर पब में बैठे थे. वहां बिग लगाकर इंग्लैंड के जो रूट उनके सामने पहुंच गए. बस क्या था वार्नर ने उन्हें मुक्का जड़ दिया.
वाराणसी के महमूरगंज चर्च में इस साल क्रिसमस का जश्न भोजपुरी कैरोल्स के साथ मनाया गया. चर्च में यह परंपरा 1986 में शुरू हुई थी. यहां यीशु मसीह के जन्म का उत्सव स्थानीय भाषा भोजपुरी में कैरोल गाकर मनाया गया, ताकि चर्च की सेवाएं स्थानीय समुदाय के लिए अधिक सुलभ और भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई हो सकें. लोग बड़ी संख्या में इस विशेष आयोजन में शामिल हुए.
चलते चलते: पेरूमल की कविता, टीएम कृष्णा की आवाज़ और अपना दिल- दरवाज़े खोलता कर्नाटक संगीत
चेन्नई में कर्नाटक संगीत में मद्रास म्यूजिक अकादमी का आयोजन चल रहा है.. एक तरह से निर्णायक क्योंकि कर्नाटक संगीत से जुड़े लोग वहाँ रिकार्ड संख्या में उमड़े और इसलिए भी कि संगीत कलानिधि होने वाले गायक टीएम कृष्णा का गायन इसके मुख्य आकर्षण थे. कृष्णा इसलिए मशहूर भी हैं और विवादास्पद भी कि वे कर्नाटक संगीत का वर्ग और वर्ण भेद तोड़ने की कोशिश लगातार करते रहे हैं. उन्होंने कर्नाटक संगीत को उसकी अभिजात परम्परा से बाहर निकाल बसों, समुद्रतटों, जुलाहों के पास जाकर, संगीत को जिया और उन लोगों को शामिल किया, जो अकसर इन अनुष्ठानों में खुद को अवांछित और बाहरी महसूस करते थे.
कृष्णा को संगीत कलानिधि सुब्बलक्ष्मी पुरस्कार मिला, पर एमएस सुब्बलक्ष्मी के पोते के विरोध में सुप्रीम कोर्ट जाने से अभी उस पर रोक है. हालांकि उनके परिवार में भी इस बात को लेकर फूट है. आयोजन के अंत में उन्होंने दलित कवि पेरूमल मुरूगन की रचना आज़ादी - ‘सुतंतिरम वेंदम’ को गाया, जिसके खत्म होने पर पांच मिनट तक श्रोताओं की तालियाँ बजती रहीं. ‘द हिंदू’ के संपादक, एन राम ने वहाँ के एक दर्शक की बात को ट्ववीट करते हुए कहा है, सभागार के अंदर हर एक सीट भरी हुई थी, मंच पर बैठे 150 लोगों की तो बात ही छोड़ दीजिए, लगभग 300 लोग लॉबी में ऑडियो लिंक के माध्यम से सुन रहे थे और फिर वीडियो लिंक पर कॉन्सर्ट का आनंद ले रहे थे. एक अविश्वसनीय कॉन्सर्ट और अविश्वसनीय रूप से आनंदमय दृश्य, शुरुआत में एक तालियों की गड़गड़ाहट और अंत में एक स्टैंडिंग ओवेशन के साथ - और हर कोई इतने उत्साह के साथ बाहर आ रहा था. यदि कोई संगीतकार कर्नाटिक संगीत के दायरे से बाहर और युवाओं को आकर्षित कर सकता है, तो वह केवल कृष्णा ही हैं." कार्यक्रम के आधिकारिक वीडियो तो अभी जाहिर नहीं हुए हैं, पर ये क्लिप है जो सोशल मीडिया पर तैर रही है.. झलक भर..
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