27/11/2025: गंभीर संकट! | कर्नाटक कांग्रेस में खलबली | वेनेजुएला में वंतारा को लेकर शोर | रुपया गर्त में | पाकिस्तान पर मोदी चुप? | यूक्रेन पर ट्रंप और रूस की साठगांठ | मरते बीएलओ | इमरान खान की जान
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
गंभीर की कोचिंग और फैसलों पर सवाल या भारतीय क्रिकेट में गहराता संकट
कर्नाटक में कुर्सी के लिए डीके का दावा और कांग्रेस आलाकमान की मुसीबत
आलंद में वर्चुअल सिम से वोट चोरी और अमेरिकी वेबसाइट का कनेक्शन
शहीद अग्निवीर के लिए नियमित सैनिक जैसा हक मांगती मां की याचिका
पाबंदियां हटने के बाद भी सबसे प्रदूषित दिल्ली और डब्ल्यूएचओ के मानक फेल
एशिया में सबसे फिसड्डी साबित हुआ रुपया और डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक गिरावट
हेट स्पीच के हर मामले की निगरानी से सुप्रीम कोर्ट का इनकार
वैष्णो देवी यूनिवर्सिटी की फंडिंग पर भाजपा का दावा दस्तावेजों में गलत साबित
बिहार में मंत्री का बुलडोजर तैयार और राबड़ी देवी का बंगला छोड़ने से इनकार
विदेशी समझकर भेजे गए लोगों को वापस लाने का सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
हिरासत में मौतों पर सुप्रीम कोर्ट सख्त और केंद्र के रवैये पर सवाल
इमरान खान की सुरक्षा पर बहन की चेतावनी और जेल में सख्ती के आरोप
वेनेजुएला से अंबानी के चिड़ियाघर के लिए जानवरों की विशेष खेप और सवाल
प्रदूषण पर सरकारी सलाह और सिस्टम की बजाय जनता पर सारी जिम्मेदारी
हांगकांग की आग और ऊंची इमारतों की बनावट में छिपे खतरे
काम के बोझ से बीएलओ की मौतें और मानवाधिकार आयोग में शिकायत
दिल्ली ब्लास्ट के बाद पाकिस्तान पर मोदी की चुप्पी और ट्रंप फैक्टर
व्हाइट हाउस की गुप्त बैठक में यूक्रेन शांति वार्ता का खाका तैयार
ट्रंप के करीबी का रूस प्रेम और यूक्रेन शांति वार्ता में अड़ंगा
गंभीर मामला: गलतियां, प्रयोग और भारतीय टेस्ट क्रिकेट का गहराता संकट
गौतम गंभीर का भारतीय टीम के मुख्य कोच के रूप में कार्यकाल भारतीय क्रिकेट के लिए एक बेहद कठिन और चिंताजनक दौर में बदल गया है. टेलीग्राफ में अनिकेत झा की विस्तृत रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण अफ्रीका के हाथों घरेलू मैदान पर 0-2 की करारी हार और पिछले 13 महीनों में सात घरेलू टेस्ट मैचों में से पांच में मिली पराजय ने भारतीय टीम के आत्मविश्वास को पूरी तरह खोखला कर दिया है. यह भारतीय क्रिकेट इतिहास में एक अभूतपूर्व गिरावट है, जिसने गंभीर द्वारा तय की गई दिशा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
फैसले किसी सोची-समझी रणनीति के बजाय आवेगपूर्ण और जल्दबाजी में लिए गए नजर आते हैं, जिसके चलते फैंस अब उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं और क्रिकेट विशेषज्ञ उनके फैसलों की आलोचना कर रहे हैं. सबसे बड़ी खामी ऑलराउंडरों के प्रति उनका अत्यधिक लगाव है. दोनों टेस्ट मैचों में भारत ने तीन-तीन ऑलराउंडरों को मैदान में उतारा, लेकिन यह रणनीति बुरी तरह विफल रही. कोलकाता टेस्ट में वाशिंगटन सुंदर को नंबर तीन पर बल्लेबाजी के लिए भेजा गया, लेकिन वे कम स्कोर वाले मैच में संघर्ष करते दिखे. गुवाहाटी में, नितीश रेड्डी को मौका दिया गया, जबकि इंग्लैंड में गेंद और बल्ले दोनों से शानदार प्रदर्शन करने वाले आकाश दीप (जिन्होंने वहां तीन टेस्ट में 13 विकेट लिए थे और ओवल में महत्वपूर्ण 66 रन बनाए थे) को बाहर बैठा दिया गया. रेड्डी का प्रदर्शन शून्य रहा और यह चयन औंधे मुंह गिरा. पूर्व कप्तान अनिल कुंबले ने भी टीम में लगातार बदलाव, बल्लेबाजी क्रम में छेड़छाड़ और हर दूसरे मैच में नए खिलाड़ियों को लाने की नीति की कड़ी आलोचना की है.
टीम चयन में निरंतरता का अभाव एक और बड़ी समस्या बन गया है. सरफराज खान ने न्यूजीलैंड के खिलाफ शतक लगाया, लेकिन अगले दो मैचों में विफल रहने पर उन्हें एकादश से बाहर कर दिया गया. करुण नायर और रुतुराज गायकवाड़ जैसे खिलाड़ियों के घरेलू प्रदर्शन की लगातार अनदेखी की जा रही है. गायकवाड़ ने हाल ही में दक्षिण अफ्रीका ए के खिलाफ शतक और रणजी व दलीप ट्रॉफी में बड़े स्कोर बनाए हैं, फिर भी चयनकर्ता और कोच उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं. गंभीर के कार्यकाल में बल्लेबाजी क्रम के साथ लगातार प्रयोग किए जा रहे हैं (जैसे सुंदर और साई सुदर्शन को नंबर 3 पर भेजना), जिससे टीम की स्थिरता खत्म हो गई है. नंबर तीन (जो कभी द्रविड़ और पुजारा का गढ़ था) और नंबर पांच (लक्ष्मण और रहाणे की जगह) जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर कोई स्थायी बल्लेबाज नहीं है.
स्पिन विभाग में भी भारत कमजोर नजर आ रहा है, जो कभी उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. 2013 से 2023 तक एशिया में भारत के दबदबे का कारण रही अश्विन और जडेजा की जोड़ी अब टूटती दिख रही है. अश्विन को ऑस्ट्रेलिया दौरे पर और उसके बाद नजरअंदाज किया गया, जिससे जडेजा अकेले पड़ गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू क्रिकेट में साई किशोर और सौरभ कुमार जैसे विशेषज्ञ स्पिनर मौजूद हैं, लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया जा रहा. गंभीर का जोर सुंदर और अक्षर पटेल जैसे स्पिन ऑलराउंडरों पर है, जो विकेट लेने वाले गेंदबाज नहीं बन पा रहे. रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि गंभीर का दौर अभी नया है, लेकिन पैटर्न पुराने और चिंताजनक हैं—चयन में भ्रम, रणनीतिक जुआ और बल्लेबाजी में अस्थिरता. परिणाम यह है कि टीम लय से बाहर है, फैंस का धैर्य जवाब दे रहा है और कोच के पास आसान जवाब नहीं हैं.
गंभीर के खिलाफ ‘हटाओ’ अभियान और आलोचनाओं की बाढ़
जुलाई 2024 में भारतीय क्रिकेट टीम के मुख्य कोच का पद संभालने वाले गौतम गंभीर के लिए 2025 का अंत बेहद मुश्किल साबित हो रहा है. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ घरेलू मैदान पर मिली शर्मनाक हार (0-2) और पिछले कुछ महीनों में टेस्ट क्रिकेट में टीम के खराब प्रदर्शन ने सोशल मीडिया पर फैंस के गुस्से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर), रेडिट और विभिन्न ऑनलाइन मंचों पर गंभीर की रणनीतियों, टीम चयन और कोचिंग शैली की तीखी आलोचना हो रही है.
आलोचना का मुख्य केंद्र भारत का हालिया प्रदर्शन है. आलोचक याद दिला रहे हैं कि गंभीर के कार्यकाल में भारत को न्यूजीलैंड के खिलाफ घर में 0-3 से हार (”व्हाइटवॉश”), बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी में 1-4 से शिकस्त और अब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 25 साल में पहली बार घरेलू सीरीज में व्हाइटवॉश का सामना करना पड़ा है.
सोशल मीडिया पर फैंस और विश्लेषकों की प्रतिक्रियाएं बेहद तीखी हैं:
रणनीतिक भूलें: ‘एक्स’ यूजर @AMP86793444 (क्रिकेटोलॉजिस्ट) ने लिखा कि गंभीर का “ऑलराउंडरों के प्रति जुनून” और अजीबोगरीब रणनीतियां टीम को भारी पड़ रही हैं. उनका कहना है कि किसी भी भारतीय कोच के पास बिना जवाबदेही के इतनी ताकत नहीं थी.
हटाने की मांग: एक लोकप्रिय पोस्ट में यूजर @rohann__45 ने गंभीर को “अब तक का सबसे खराब कोच” बताते हुए उन्हें तुरंत पद से हटाने की मांग की. उन्होंने श्रीलंका और न्यूजीलैंड के खिलाफ हार का हवाला देते हुए एक मीम साझा किया जो काफी वायरल हुआ.
विरासत को नुकसान: यूजर @Khandelw13Sagar ने लिखा कि गंभीर ने रवि शास्त्री और राहुल द्रविड़ द्वारा बनाई गई विरासत को खत्म कर दिया है. उन्होंने बीसीसीआई से जनता के गुस्से को नजरअंदाज न करने की अपील की.
गलत चयन: यूजर @Shreyasian96 ने एक इन्फोग्राफिक के जरिए बताया कि कैसे रवींद्र जडेजा और ऋतुराज गायकवाड़ जैसे इन-फॉर्म खिलाड़ियों को बाहर रखने के फैसले टीम के लिए घातक साबित हुए.
एनडीटीवी स्पोर्ट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, यहां तक कि ‘आइसलैंड क्रिकेट’ के सोशल मीडिया हैंडल ने भी भारतीय कोच की रणनीतिक चूकों पर तंज कसा है. क्रिकेट वन और रेडिट पर चल रही चर्चाओं में यह बात बार-बार उभर कर आ रही है कि गंभीर के पास रेड-बॉल (टेस्ट) क्रिकेट की कोचिंग का अनुभव नहीं है और वे आईपीएल की मानसिकता से टेस्ट टीम चला रहे हैं.
हालांकि, टाइम्स ऑफ इंडिया और फर्स्टपोस्ट की रिपोर्ट्स के अनुसार, पूर्व दिग्गज सुनील गावस्कर ने गंभीर का बचाव किया है. गावस्कर का तर्क है कि टीम एक बदलाव के दौर (transition) से गुजर रही है और सारी गलती कोच पर नहीं मढ़ी जा सकती. लेकिन न्यूज़18 की रिपोर्ट बताती है कि लगातार तीसरी टेस्ट सीरीज हारने के बावजूद, फिलहाल बीसीसीआई ने गंभीर का समर्थन किया है, जिससे फैंस की नाराजगी और बढ़ गई है.
कुल मिलाकर, सोशल मीडिया पर धारणा यही बन रही है कि गंभीर का कार्यकाल “निराशाजनक” रहा है और उनकी “नो-एक्सक्यूज” (बहाने नहीं) वाली छवि अब खुद बहानों की आड़ लेती नजर आ रही है.
कर्नाटक नेतृत्व संकट: डीके शिवकुमार की महत्वाकांक्षा और कांग्रेस हाईकमान की चुनौती
कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के भीतर नेतृत्व को लेकर रस्साकशी अब चरम पर पहुंच गई है, जिससे दिल्ली में बैठे पार्टी हाईकमान के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं. टेलीग्राफ में अर्णब गांगुली की रिपोर्ट बताती है कि उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार (डीकेएस) अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा कर रहे हैं. उनका मानना है कि विधानसभा चुनाव के बाद हुए एक “डील” के तहत, जिसमें कार्यकाल को आधा-आधा बांटने की बात थी, अब उनका नंबर है. उनके पास ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के उदाहरण मौजूद हैं कि अपना अगला कदम कैसे तय करना है.
पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस संकट में हस्तक्षेप करते हुए कहा है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी के साथ मिलकर इस मुद्दे को सुलझाया जाएगा. डीकेएस का दावा है कि सत्ता साझा करने को लेकर छह-सात लोगों की मौजूदगी में एक “डील” हुई थी, जबकि सिद्धारमैया का खेमा ऐसी किसी भी डील से साफ इनकार करता है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि पार्टी प्रबंधकों (जैसे रणदीप सुरजेवाला और के.सी. वेणुगोपाल) के पास सिद्धारमैया को हटाने या डीकेएस को मनाने का कोई ठोस आधार या “लीवरेज” नहीं है, क्योंकि विधायकों का बहुमत अभी भी सिद्धारमैया के साथ है. आज तक विधायकों की गिनती भी नहीं कराई गई है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि यह मामला कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए भी पेचीदा है. राहुल गांधी, जो देश भर में जाति जनगणना और ओबीसी/दलित राजनीति की वकालत करते रहे हैं, उनके लिए एक ओबीसी मुख्यमंत्री (सिद्धारमैया) को हटाना राजनीतिक रूप से विनाशकारी हो सकता है. वर्तमान में कांग्रेस के पास केवल तीन राज्य हैं—हिमाचल और तेलंगाना में मुख्यमंत्री सवर्ण (रेड्डी और राजपूत) हैं, केवल कर्नाटक में ओबीसी सीएम है. वहीं, डीकेएस को प्रियंका गांधी और सोनिया गांधी का करीबी माना जाता है और वे नकदी की कमी से जूझ रही पार्टी के लिए ‘फंड मैनेजर’ की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
कांग्रेस को अतीत की एक बड़ी गलती का भी डर है. 35 साल पहले, राजीव गांधी ने हवाई अड्डे पर ही तत्कालीन सीएम वीरेंद्र पाटिल (लिंगायत समुदाय के नेता) को हटाने की घोषणा कर दी थी. इस अपमानजनक विदाई ने लिंगायत समुदाय को कांग्रेस से दूर कर दिया और राज्य में भाजपा के उदय का रास्ता खोल दिया. राहुल गांधी उस इतिहास को दोहराना नहीं चाहेंगे. रिपोर्ट के मुताबिक, सिद्धारमैया बिना लड़ाई के नहीं जाएंगे और अगर उन्हें हटाया गया तो वे अपने किसी करीबी को सीएम बनाने की कोशिश करेंगे. वहीं, डीकेएस के पास यह तय करने का विकल्प है कि वे सिंधिया की तरह बगावत करें या पायलट की तरह इंतजार करें.
“द हिंदू” में खबर है कि कर्नाटक में कांग्रेस के भीतर सत्ता हस्तांतरण को लेकर चल रहा संघर्ष अब शायद किसी नतीजे की ओर आगे बढ़त नज़र आ रहा है. संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले, कांग्रेस आलाकमान से कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उनके डिप्टी डी.के. शिवकुमार (जो पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष भी हैं) के बीच ‘सत्ता संघर्ष’ पर फैसला आने की उम्मीद है. ख़बर के मुताबिक, डीके शिवकुमार, राहुल गांधी (जो अपनी मां के साथ सत्तारूढ़ जोड़ी से मिलने की उम्मीद कर रहे हैं) को 2023 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की जीत के समय हुए एक अनौपचारिक ‘सत्ता-साझाकरण समझौते’ से अवगत कराने के लिए भी उत्सुक हैं. वे इसमें कितना कामयाब होते हैं, यह सामने आने की संभावनाएं जताई जा रही हैं.
आलंद ‘वोट चोरी’: अमेरिकी वेबसाइट, ‘वर्चुअल सिम’ के जरिए चुनाव आयोग सुरक्षा में सेंध
कर्नाटक के आलंद में मतदाता सूची से अवैध रूप से नाम हटाने की कोशिश के मामले में चौंकाने वाले तकनीकी और राजनीतिक खुलासे हुए हैं. इंडियन एक्सप्रेस की विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, विशेष जांच दल (एसआईटी) ने पाया है कि चुनाव आयोग की सेवाओं के लिए जरूरी ओटीपी (OTP) सुरक्षा को बायपास करने के लिए अमेरिका स्थित एक वेबसाइट ‘एसएमएस अलर्ट’ (SMSAlert) का इस्तेमाल किया गया था.
एसआईटी की जांच में सामने आया है कि डेलावेयर (अमेरिका) में रजिस्टर्ड इस वेबसाइट ने “वर्चुअल सिम” तकनीक का उपयोग किया. इसके लिए भारत के 72 असली लेकिन रैंडम फोन नंबरों का इस्तेमाल किया गया. यानी असली सिम किसी और के पास थी, लेकिन उसका वर्चुअल क्लोन बनाकर उस पर आने वाले ओटीपी को ‘हार्वेस्ट’ (इकट्ठा) किया गया. मामले में पश्चिम बंगाल के नदिया जिले से गिरफ्तार आरोपी बापी आद्या, ‘ओटीपी बाज़ार डॉट कॉम’ नामक वेबसाइट चलाता था. उसने एक ‘एपीआई’ (API) के जरिए अमेरिकी वेबसाइट से जुड़कर ये ओटीपी कलबुर्गी स्थित डेटा सेंटर को रियल टाइम में बेचे.
रिपोर्ट के मुताबिक, कलबुर्गी डेटा सेंटर के ऑपरेटरों के खाते से प्रति ओटीपी 700 रुपये काटे गए. बापी आद्या ने यह पैसा क्रिप्टोकरेंसी में बदलकर अपना कमीशन रखने के बाद अमेरिकी वेबसाइट को भेजा. इस डेटा सेंटर का इस्तेमाल करके हजारों मतदाताओं (विशेषकर अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में) के नाम हटाने की कोशिश की गई. जांच में पता चला है कि भाजपा नेताओं और उनके सहयोगियों ने कलबुर्गी डेटा सेंटर की सेवाएं ली थीं और उन्हें प्रति वोटर नाम हटाने के अनुरोध के लिए 80 रुपये दिए थे.
इस “वोट चोरी” के मुद्दे को राहुल गांधी ने सितंबर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाया था, जिसके बाद यह मामला सुर्खियों में आया. जांच में यह भी साफ हुआ है कि यह चुनाव आयोग की वेबसाइट की ‘हैकिंग’ नहीं थी, बल्कि दूरसंचार प्रणाली के साथ छेड़छाड़ थी. जिन 72 लोगों के नंबरों का इस्तेमाल वर्चुअल सिम के लिए हुआ, उन्हें पता भी नहीं था कि उनके नंबर पर चुनाव आयोग के ओटीपी क्यों आ रहे हैं. एसआईटी अब अमेरिकी अधिकारियों से पारस्परिक कानूनी सहायता संधि (एमएलएटी) के तहत ‘एसएमएस अलर्ट’ वेबसाइट के बारे में जानकारी मांगेगी.
शहीद अग्निवीर की मां ने समान लाभ के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया
अग्निपथ योजना के तहत भर्ती हुए एक शहीद अग्निवीर की मां ने नियमित सैनिकों के परिवारों को मिलने वाले लाभों में समानता (parity) की मांग करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट में एक महत्वपूर्ण याचिका दायर की है. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ता ज्योतिबाई श्रीराम नाइक के बेटे, अग्निवीर एम. मुरली नाइक, मई 2024 में जम्मू-कश्मीर के पुंछ में 851 लाइट रेजिमेंट के साथ सेवा करते हुए भारी गोलीबारी में शहीद हो गए थे. याचिका में कहा गया है कि यह अग्निपथ योजना के तहत “युद्धक्षेत्र में पहली शहादत” का मामला हो सकता है.
याचिका में तर्क दिया गया है कि अग्निवीर भी वही वर्दी पहनते हैं, वही शपथ लेते हैं, वही कर्तव्य निभाते हैं और नियमित सैनिकों की तरह ही खतरों का सामना करते हैं. लेकिन शहादत के बाद, उनके परिवारों के साथ भेदभाव होता है. नियमित सैनिकों के परिवारों को आजीवन पारिवारिक पेंशन, ग्रेच्युटी, पूर्व सैनिक का दर्जा, स्वास्थ्य सुविधाएं (ECHS) और आधिकारिक स्मारकों में सम्मान मिलता है, जबकि अग्निवीर के परिजनों को इन दीर्घकालिक सुरक्षा लाभों से वंचित रखा जाता है और उन्हें केवल लगभग 1 करोड़ रुपये का एकमुश्त मुआवजा (बीमा और अनुग्रह राशि सहित) दिया जाता है.
याचिकाकर्ता, जो मुंबई की रहने वाली हैं और जिनके पति बेरोजगार हैं, ने कहा है कि उनके बेटे की आय ही परिवार का एकमात्र सहारा थी. उन्होंने इस भेदभाव को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन बताया है. याचिका में रक्षा मामलों की संसदीय स्थायी समिति की दिसंबर 2024 की रिपोर्ट का भी हवाला दिया गया है, जिसने सिफारिश की थी कि “शहीदों के दो वर्ग” नहीं होने चाहिए और अग्निवीरों के परिवारों को भी नियमित सैनिकों के समान लाभ मिलने चाहिए. याचिका में मांग की गई है कि इस भेदभाव को समाप्त किया जाए और ‘वैध अपेक्षा’ (legitimate expectation) के सिद्धांत के तहत उन्हें समान सम्मान और सुरक्षा मिले.
दिल्ली अभी भी प्रदूषित राज्यों की सूची में शीर्ष पर, डबल्यूएचओ के दिशानिर्देशों का पालन नहीं
“टीओआई न्यूज़ डेस्क” के मुताबिक, वायु गुणवत्ता में मामूली सुधार के बाद, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम ) ने बुधवार (26 नवंबर) को दिल्ली-एनसीआर में ग्रैप-3 (जीआरएपी) के तहत निर्माण और अन्य प्रदूषणकारी गतिविधियों पर लगे सभी प्रतिबंध हटा दिए हैं. लेकिन एक नए उपग्रह-आधारित अध्ययन से पता चला है कि 101 µg/m³ की वार्षिक औसत PM2.5 सांद्रता के साथ, राष्ट्रीय राजधानी अभी भी देश में सबसे प्रदूषित राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सूची में शीर्ष पर है, जो राष्ट्रीय सीमा से 2.5 गुना अधिक है.
कुशाग्र दीक्षित के मुताबिक, फ़िनलैंड स्थित एक स्वतंत्र थिंक टैंक, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) के शोधकर्ताओं के नेतृत्व वाले विश्लेषण के अनुसार, देश के शीर्ष 50 सबसे प्रदूषित जिले दिल्ली, असम, हरियाणा और बिहार सहित कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केंद्रित हैं, जो “क्लस्टर्ड हॉटस्पॉट” की ओर इशारा करते हैं जो “लक्षित हस्तक्षेपों” के लिए उपयुक्त हैं. रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि भारत के 60% जिले वार्षिक PM2.5 मानक का उल्लंघन करते हैं, जिनमें से कोई भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों को पूरा नहीं करता है.
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 4.3% की तीव्र गिरावट, रुपये का एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन
“द हिंदू” में लालतेंदु मिश्रा की रिपोर्ट है कि भारतीय रुपये ने अब एक ऐसा गौरव हासिल कर लिया है, जो शायद कोई भी अर्थशास्त्री प्रदान नहीं करना चाहेगा: “एशिया की सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा.” जबकि चीनी युआन और इंडोनेशियाई रुपया अपनी स्थिति बनाए हुए हैं, लेकिन रुपया लगातार नीचे की ओर अपनी एकतरफा तीर्थयात्रा जारी रखे हुए है, और विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि यह जल्द ही 90 रुपये प्रति डॉलर के निशान को तोड़ सकता है.
विदेशी मुद्रा विश्लेषकों ने कहा कि इस कैलेंडर वर्ष (जनवरी-दिसंबर 2025) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 4.3% की तीव्र गिरावट के साथ, भारतीय रुपया (एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा बन गया है. उन्होंने चेतावनी दी कि यदि निकट भविष्य में अमेरिका के साथ व्यापार समझौता नहीं होता है, तो यह प्रति अमेरिकी डॉलर 90 तक और फिसल सकता है. चॉइस वेल्थ के एवीपी अक्षत गर्ग ने कहा कि भारतीय रुपये का प्रदर्शन चीनी युआन और इंडोनेशियाई रुपिया जैसी मुद्राओं की तुलना में कमजोर रहा, हालांकि उन्होंने कहा, “यह अभी भी जापानी येन और कोरियाई वॉन जैसी संरचनात्मक रूप से कमजोर मुद्राओं की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है, जो घरेलू नीतिगत चुनौतियों से जूझ रही हैं.”
हम ‘हेट स्पीच’ के हर मामले की निगरानी या कानून बनाने के इच्छुक नहीं : सुप्रीम कोर्ट
“द हिंदू” की रिपोर्ट है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह देश में घृणास्पद भाषण (हेट स्पीच) के हर मामले की निगरानी या इसके खिलाफ कानून बनाने के लिए इच्छुक नहीं है और पीड़ित व्यक्ति अपने निकटतम पुलिस स्टेशनों और उच्च न्यायालयों से संपर्क कर सकते हैं. ये मौखिक टिप्पणियां न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने पत्रकार कुर्बान अली और अन्य द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कीं.
याचिकाकर्ताओं ने विभिन्न राज्यों में मुस्लिम समुदाय के व्यवस्थित बहिष्कार के उदाहरणों का हवाला दिया. दिलचस्प बात यह है कि 2018 में, शीर्ष अदालत ने घृणा बढ़ाने वाले अपराधों की निंदा की थी और घोषणा की थी कि नागरिकों की गरिमा और जीवन को घृणा अपराधों से बचाना राज्य का “पवित्र कर्तव्य” है. लेकिन मंगलवार को इसने अपनी पिछली टिप्पणियों का खंडन किया. कोर्ट ने कहा, “हम इस याचिका की आड़ में कानून नहीं बना रहे हैं. आश्वस्त रहें, हम इस देश के एक्स, वाई, ज़ेड कोने में होने वाली हर छोटी घटना की निगरानी या कानून बनाने के लिए इच्छुक नहीं हैं.”
भाजपा और हिंदू दक्षिणपंथी का दावा गलत, श्री माता वैष्णो देवी विवि को सरकार से फंडिंग हो रही थी
भले ही भाजपा और हिंदू दक्षिणपंथी समूह यह दावा करते रहें कि श्री माता वैष्णो देवी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एक्सीलेंस देश की एकमात्र मुस्लिम-बहुसंख्यक सरकार से किसी भी फंडिंग के बिना काम कर रहा था, दस्तावेज़ दिखाते हैं कि संस्थान चलाने वाले श्री माता वैष्णो देवी विश्वविद्यालय को तब भी आधिकारिक वित्तीय सहायता मिलती रही जब पूर्ववर्ती राज्य को विभाजित करके दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया गया था.
विश्वविद्यालय को 2017-18 में जम्मू-कश्मीर सरकार से 10 लाख रुपये ‘सहायता अनुदान’ मिला. 2018-19 में अनुदान 50 लाख रुपये से बढ़कर 2019-20 में 5 करोड़ रुपये हो गया, जब भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया था. 2019 के बाद की अवधि में, जम्मू-कश्मीर के बजट को संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था जब तक कि पिछले साल उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार ने शपथ नहीं ली थी. “द वायर” में जहांगीर अली दावों और प्रतिदावों की पड़ताल करते हैं, जिससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कागजी कार्रवाई शुष्क हो सकती है, लेकिन इसमें पहले बारीक अक्षरों की जांच किए बिना जोर से शपथ लेने वाले किसी भी व्यक्ति को शर्मिंदा करने की एक बुरी प्रतिभा होती है.
इस बीच, विपक्ष के नेता सुनील शर्मा के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर भाजपा नेताओं ने बाद में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को एक ज्ञापन सौंपकर संस्थान में केवल हिंदू छात्रों के लिए सीटों के आरक्षण की मांग की, इस कदम की केंद्र शासित प्रदेश के अन्य सभी राजनीतिक दलों ने निंदा की है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि शर्मा को भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित करने के लिए दबाव डालना चाहिए. उन्होंने कहा, “लेकिन अपनी भूमिका को ध्यान में रखें जब आप मुसलमानों पर उंगली उठाते हैं और आरोप लगाते हैं कि वे सांप्रदायिक, अलगाववादी हो गए हैं और दूसरों को बर्दाश्त नहीं करते हैं.”
सुप्रीम कोर्ट चाहे जो कहे, पर बिहार में सम्राट चौधरी का बुलडोज़र तैयार है, राबड़ी बंगला खाली नहीं करेंगी
अपराधों के लिए सजा के तौर पर आरोपी व्यक्तियों या दोषियों के घरों को ध्वस्त करने पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बावजूद, बिहार के उप मुख्यमंत्री और नए गृह मंत्री, भाजपा के सम्राट चौधरी ने अपने मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद घोषणा की कि “बुलडोजर तैयार है.” “द ट्रिब्यून” में दीपक मिश्रा ने उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया कि “हमने 400 माफिया सदस्यों की एक सूची बनाई है और कार्रवाई की जाएगी.”
इस बीच, बिहार सरकार ने राबड़ी देवी को पटना में उनके 10, सर्कुलर रोड बंगले को खाली करने का आदेश दिया है, जिसमें वह अपने पति और राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साथ रहती हैं और जो उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान आवंटित किया गया था. “द हिंदू” के अनुसार, बिहार के भवन निर्माण विभाग ने अब उन्हें 39, हार्डिंग रोड पर एक बंगला आवंटित किया है. बीसीडी अधिकारियों ने अमित भेलारी को बताया कि यह निर्णय पटना हाईकोर्ट के उस आदेश के आलोक में लिया गया था, जो “सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के रूप में पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए आजीवन बंगला आवंटन” पर रोक लगाता है. हालांकि, संतोष सिंह की रिपोर्ट है कि आरजेडी ने बंगला खाली करने से इनकार कर दिया है. पार्टी का कहना है कि राबड़ी देवी इस घर को खाली नहीं करेंगी, क्योंकि इसमें लालू प्रसाद यादव के लिए लिफ्ट लगी है, जो स्वास्थ्य को देखते हुए उनके लिए बहुत जरूरी है. इसके अलावा सुरक्षा कारण भी हैं.
उन्हें वापस लाएं, जिन्हें विदेशी समझ बांग्लादेश निर्वासित किया : सुप्रीम कोर्ट
“लाइव लॉ” की रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से टिप्पणी की है कि केंद्र सरकार को अंतरिम उपाय के रूप में, पश्चिम बंगाल के उन निवासियों को वापस लाना चाहिए, जिन्हें विदेशी होने के संदेह में बांग्लादेश निर्वासित किया गया है. मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) सूर्य कांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि जिन व्यक्तियों का कहना है कि वे भारतीय नागरिक हैं, उन्हें दस्तावेजों के साथ अधिकारियों के समक्ष अपना पक्ष रखने का अधिकार है. अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार को उन्हें अस्थायी रूप से वापस लाना चाहिए, ताकि निर्वासितों को सुना जा सके और एजेंसियां उनके दस्तावेजों की प्रामाणिकता की पुष्टि कर सकें.
हिरासत में यातना और मौत; सुप्रीम कोर्ट ने पूछा- क्या केंद्र सरकार शीर्ष अदालत को बहुत हल्के में ले रही है?
हिरासत में हिंसा और हिरासत में होने वाली मौतों को व्यवस्था पर “धब्बा” बताते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश इसे बर्दाश्त नहीं करेगा. न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने पूरे भारत में पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी कैमरों की कमी पर स्वत: संज्ञान मामले की सुनवाई करते हुए कहा, “आप हिरासत में मौतें नहीं होने दे सकते.” इस मामले में अपने 4 सितंबर के आदेश का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि राजस्थान में आठ महीनों में पुलिस हिरासत में 11 मौतें दर्ज की गईं और आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या केंद्र सरकार इस मुद्दे को हल्के में ले रही है.
कृष्णदास राजगोपाल के अनुसार, हिरासत में यातना को रोकने के लिए सीबीआई, ईडी और एनआईए जैसी एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के न्यायिक निर्देश पर केंद्र की ओर से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या केंद्र सरकार शीर्ष अदालत को “बहुत हल्के में” ले रही है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पांच साल हो चुके हैं, जिसमें पुलिस और केंद्रीय जांच एजेंसियों के लिए पुलिस थानों और “पूछताछ” की शक्ति वाली केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे लगाना और बनाए रखना अनिवार्य कर दिया गया था.
वेनेजुएला के वन्यजीव: मुकेश अंबानी के ‘वंतारा’ ज़ू के लिए एक विशेष खेप
भारत के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी द्वारा जामनगर में स्थापित विशाल चिड़ियाघर और पशु बचाव केंद्र ‘वंतारा’ (Vantara) के लिए वेनेजुएला से हजारों वन्यजीव भेजे जा रहे हैं. खोजी पत्रकारिता वेबसाइट आर्मंडो डॉट इन्फो (Armando.info) और जर्मन अखबार सुडदॉयचे ज़ाइटंग (Süddeutsche Zeitung) की एक संयुक्त रिपोर्ट में इस बड़े पैमाने पर हो रहे पशु व्यापार का खुलासा किया गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक, मई 2024 में ‘स्काईटैक्सी’ (SkyTaxi) एयरलाइन के एक बोइंग 767 मालवाहक विमान ने कराकास से भारत के लिए उड़ान भरी, जिसमें 1,825 जानवर सवार थे. इसे एक “देसी नूह की कश्ती” कहा गया है. इस खेप में ओरिनोको मगरमच्छ, विशाल ऊदबिलाव (Otters), ओसलोट्स, मकाउ (Macaws), चींटीखोर (Anteaters) और कई अन्य दुर्लभ व लुप्तप्राय प्रजातियां शामिल थीं. आंकड़े बताते हैं कि 2024 में वेनेजुएला, संयुक्त अरब अमीरात के बाद वंतारा के लिए वन्यजीवों का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया है, जिसने 5,000 से अधिक जानवर भेजे हैं.
रिलायंस इंडस्ट्रीज, जो वंतारा को प्रायोजित करती है, वेनेजुएला की सरकारी तेल कंपनी पीडीवीएसए (PDVSA) की एक बड़ी ग्राहक भी है. रिपोर्ट बताती है कि यह निर्यात एक द्विपक्षीय संरक्षण समझौते की आड़ में किया गया, जिसमें वेनेजुएला के ‘सैन एंटोनियो अबाध’ जैसे निजी ज़ू-ब्रीडर्स शामिल हैं, जिन्हें वहां के मंत्रालय का समर्थन प्राप्त है. आलोचक और पर्यावरणविद् इस बात को लेकर चिंतित हैं कि क्या ये जानवर वास्तव में संरक्षण के लिए हैं या केवल एक अरबपति के निजी संग्रह की शोभा बढ़ाने के लिए. साथ ही, स्काईटैक्सी एयरलाइन का अतीत (प्रयोगशालाओं के लिए बंदरों की तस्करी के आरोप) भी सवालों के घेरे में है. वंतारा ने अपने बचाव में कहा है कि वे जानवरों की खरीद-फरोख्त नहीं करते, बल्कि केवल राहत और पुनर्वास कार्यों में शामिल हैं और सभी प्रक्रियाएं कानूनी हैं.
सर्दियों में बढ़ते प्रदूषण पर सरकार की एडवाइज़री, जिम्मेदारी जनता पर
उत्तर भारत में सर्दियाँ आते ही गले में जलन, खांसी और साँस की तकलीफ बढ़ने लगती है. इसी दौरान केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए वायु प्रदूषण पर एक विस्तृत एडवाइज़री जारी की है. एडवाइज़री बताती है कि किन लोगों को सबसे अधिक जोखिम है, अस्पतालों को कैसे तैयार रहना चाहिए और आम जनता को किन सावधानियों का पालन करना चाहिए. देखने में यह एक सामान्य सरकारी निर्देश जैसा लगता है, लेकिन गहराई से पढ़ने पर यह दिखाता है कि भारतीय राज्य स्वास्थ्य और जोखिम को किस तरह समझता है. लेकिन स्क्रॉल की रिपोर्ट में ऋषब कचरू, जो विज्ञान की सार्वजनिक समझ और उससे जुड़ी ज्ञान-राजनीति पर काम करते हैं, ने बताया है कि इस एडवाइज़री में कई अहम पहलु को नज़रअंदाज़ किया गया है.
एडवाइज़री में मुख्य प्रदूषक, संवेदनशील समूह, और भारत का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) समझाया गया है. इसमें SAMEER ऐप और अन्य शुरुआती चेतावनी प्रणालियों को देखने की सलाह दी गई है. राज्यों से कहा गया है कि वे एक्यूआई के अनुसार अस्पतालों को तैयार रखें, जबकि जनता से कहा गया है कि वह अपनी दिनचर्या में बदलाव करे, जैसे प्रदूषण ज़्यादा होने पर मास्क पहनना, घर के भीतर रहना या मेहनत वाले काम न करना. एडवाइज़री यह भी मानती है कि गरीब परिवारों, सड़क साफ करने वाले कर्मचारियों, निर्माण स्थलों के मज़दूरों और ख़राब हवादार घरों में रहने वालों पर प्रदूषण का असर सबसे अधिक है, लेकिन समाधान के स्तर पर ज़िम्मेदारी फिर से लोगों पर डाल दी गई है.
मंत्रालय इस बात को स्वीकार करता है कि एक मज़दूर दिनभर धूल में काम करता है, लेकिन सुझाव सिर्फ मास्क पहनने और हेल्थ चेकअप तक सीमित हैं. यह समस्या को श्रम कानूनों, कार्यस्थल सुरक्षा और सस्ती स्वच्छ ऊर्जा की नीतियों से सीधे जोड़ने से बचता है. यानी कमज़ोर तबकों की मजबूरी को माना जा रहा है, लेकिन इन लोगो की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी को दामन से धुल झाड़ने की तरह झिड़कने जैसा है.
एडवाइज़री राज्यों को कहती है कि वे स्वास्थ्य योजनाओं में प्रदूषण के जोखिम शामिल करें, अस्पतालों में विशेष निगरानी केंद्र बनाएं और सांस से जुड़ी बिमारियों के लिए बेहतर इलाज मुहैय्या कराया जाये. लेकिन यह पूरी ढाँचा स्वास्थ्य प्रणाली को सिर्फ “प्रतिक्रिया देने वाली व्यवस्था” बना देता है, जो मरीज़ों का इलाज तो करती है, लेकिन प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों, कमज़ोर कानूनों या असमान शहरी योजनाओं पर सवाल नहीं उठाती. इस तरह के फैसले सिर्फ और सिर्फ कुछ मंत्रालयों और विशेषज्ञों तक सीमित रहते हैं, जबकि जनता से उम्मीद रहती है कि वह बस एडवाइज़री पर अमल करके अपने जीवन को समायोजित कर ले.
लेखक ऋषभ कछरू, जो खुद क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से पीड़ित हैं, बताते हैं कि एक ओर वे सार्वजनिक स्वास्थ्य पर लिख रहे हैं और दूसरी ओर सरकार की एडवाइज़री में “सांख्यिकी” बनकर रह जाते हैं। “बाहर मत जाएँ”, “मेहनत वाले काम से बचें”, ऐसे सुझाव उन लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ खोखले शब्द साबित होते हैं जिन्हें सांस लेने में पहले से दिक़्क़त का सामना है. इस तरह कि एडवाइज़री जीने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह कमज़ोर फेफड़ों वाले व्यक्तियों पर डाल दी गई है.
लेख के अंत में वे कहते हैं कि असली बदलाव तब होगा जब राज्य सबसे ज़्यादा प्रभावित समुदायों, मज़दूरों, गरीब परिवारों, और प्रदूषण झेलने वाले लोगों, को नीतियाँ बनाने में शामिल करे. एडवाइज़री तभी प्रभावी होगी जब यह केवल चेतावनी देने के बजाय मज़दूर सुरक्षा, साफ ऊर्जा, सख्त पर्यावरण नियमों और न्यायपूर्ण शहरी योजना को मजबूती से लागू करने की माँग भी करे. उनकी उम्मीद है कि लोगों की साँस की तकलीफ सिर्फ सहने की चीज़ न बने, बल्कि ऐसे बदलाव की शुरुआत करे जो हवा में ज़हर घुलने से पहले ही उसे रोक सके.
6 राज्यों में 15 बीएलओ की मौत, एनएचआरसी में शिकायत दर्ज
नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन में मंगलवार को दायर एक विस्तृत शिकायत में आरोप लगाया गया है कि कई राज्यों में जारी मतदाता सूची के स्पेशल इंटेंसिव रिविजन के कारण बूथ-लेवल अधिकारियों (बीएलओ) और अन्य चुनावी कर्मचारियों पर अमानवीय काम का बोझ और जबरन दबाव डाला जा रहा है. शिकायत में कहा गया है कि अलग-अलग राज्यों से हार्ट अटैक, बेहोशी और कई मौतों की खबरें लगातार आ रही हैं. मकतूब मीडिया के मुताबिक़ यह शिकायत मुंबई के वकील हितेंद्र डी. गांधी ने दर्ज करवाई है, जिन्होंने इसे संविधान के लिए “गंभीर ख़तरे का संकेत” बताया. उनके मुताबिक़, एक ओर लाखों मतदाताओं के नाम ग़लत तरीक़े से सूची से हटाए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कर्मचारियों पर असहनीय शारीरिक और मानसिक बोझ डाला जा रहा है.
शिकायत में मीडिया रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए बताया गया है कि गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल और अन्य राज्यों में बीएलओ, जिनमें अधिकतर स्कूल शिक्षक, क्लर्क और निम्न श्रेणी के कर्मचारी शामिल हैं, डोर-टू-डोर सत्यापन के दौरान गिर रहे हैं, हार्ट अटैक का शिकार हो रहे हैं और कुछ मामलों में आत्महत्या भी कर रहे हैं. इसी बीच लाखों मतदाता यह भी पा रहे हैं कि उनके नाम मतदाता सूची से ग़ायब हो गए हैं. शिकायत में जिन प्रमुख मामलों का ज़िक्र किया गया है उनमें गुजरात के अरविंद वढेर, मध्य प्रदेश के रमाकांत पांडे, पश्चिम बंगाल की रिंकू तरफ़दार और केरल के अनीश जॉर्ज शामिल हैं. रिपोर्ट्स के अनुसार, 19 दिनों के भीतर छह राज्यों में कम से कम 15 बीएलओ की मौत हुई है, और इनकी मौत का कारण दिल का दौरा, आत्महत्या और ड्यूटी के दौरान हुई दुर्घटनाएँ बताई गई हैं.
शिकायत में नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन से मांग की गई है कि वह मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 12 के तहत इस मामले का स्वतः संज्ञान ले. साथ ही आयोग से यह भी आग्रह किया गया है कि वह चुनाव आयोग और संबंधित राज्य सरकारों से तुरंत रिपोर्ट मांगे, जिसमें बीेएलओ की मौतों, स्वास्थ्य आपात स्थितियों, उनके ड्यूटी असाइनमेंट और मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नाम हटाने से जुड़े सभी विवरण शामिल हों. शिकायत में यह भी दावा किया गया है कि SIR के चलते कर्मचारियों पर इतना दबाव डाला जा रहा है कि उन्हें नौकरी से निकलने की धमकियों का सामना करना पड़ रहा है.
याचिका में कई तत्काल कदम सुझाए गए हैं, जैसे बीएलओ के काम के घंटों पर मानवीय सीमा लागू करना, उच्च जोखिम वाले कर्मचारियों को कठिन फील्ड ड्यूटी से छूट देना, मेडिकल और मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध करवाना, और उन कर्मचारियों के परिवारों को मुआवज़ा देना जिनकी मौत हुई या जो गंभीर रूप से बीमार पड़े है. साथ ही SIR की समय सीमा में संशोधन, मतदाता नाम हटाने की स्वतंत्र ऑडिट और SIR प्रक्रिया के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आधारित दिशानिर्देश तैयार करने की भी मांग की गई है.
शिकायत में यह भी कहा गया है कि मौजूदा SIR प्रक्रिया का ढांचा और उसका लागू किया जाना मानवाधिकारों की सुरक्षा में गंभीर चूक दिखाता है. जबरन प्रशासनिक दबाव और बड़े पैमाने पर वोटरों के नाम काटे जाना, संविधान द्वारा दिए गए जीवन, सम्मान और लोकतांत्रिक भागीदारी जैसे मूल अधिकारों का उल्लंघन है.
इमरान खान की सुरक्षा पर बहन की चेतावनी: ‘उन्हें छूने की हिम्मत भी न करें’
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की जेल में सुरक्षा को लेकर फैल रही अफवाहों के बीच उनकी बहन अलीमा खान ने अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दी है. टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर यह अफवाह आग की तरह फैल गई थी कि इमरान खान की हिरासत में मौत हो गई है या उन्हें मार दिया गया है. इसके जवाब में अलीमा खान ने कहा कि यदि उनके भाई को कोई नुकसान पहुंचाया गया, तो इसके परिणाम “असहनीय” होंगे.
उन्होंने सीएनएन से बातचीत में कहा कि जनता के गुस्से को देखते हुए अधिकारी “उनके सिर के एक बाल को भी छूने की हिम्मत नहीं करेंगे”. अलीमा ने खान के स्वास्थ्य को लेकर चल रही अफवाहों को खारिज करते हुए कहा कि वे पूरी तरह ठीक हैं, हालांकि उन्हें छह सप्ताह से एकांतवास (isolation) में रखा गया है. उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान में न्याय प्रणाली “ध्वस्त” हो चुकी है और 26वें व 27वें संशोधनों के जरिए जजों की स्वायत्तता छीन ली गई है.
दूसरी तरफ, इमरान खान के करीबी सहयोगी डॉ. सलमान अहमद ने सीधे तौर पर सेना प्रमुख आसिफ मुनीर पर आरोप लगाया कि वे जानबूझकर खान के परिवार और पार्टी नेताओं को उनसे मिलने से रोक रहे हैं. उन्होंने मुनीर पर “कठोर राज्य” (hard state) चलाने का आरोप लगाया जहां लोकतांत्रिक स्तंभों को कुचला जा रहा है. पीटीआई (PTI) ने एक बयान जारी कर मांग की है कि खान की सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर सरकार आधिकारिक स्पष्टीकरण दे और अफवाह फैलाने वालों की जांच हो. इस बीच, जेल प्रशासन ने दावा किया है कि इमरान खान “पूरी तरह फिट” हैं.
विश्लेषण
सुशांत सिंह: दिल्ली ब्लास्ट के बाद पाकिस्तान पर मोदी की चुप्पी क्यों है?
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और येल यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे लेखक की यह टिप्पणी कैरवन में प्रकाशित हुई. उसके मुख्य अंश.
28 नवंबर 2008 को, नरेंद्र मोदी, जो उस वक़्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे, मुंबई के ओबेरॉय ट्राइडेंट होटल के बाहर खड़े थे, एक साफ़ संदेश देने के लिए तैयार. आतंकी हमले कुछ दिन पहले ही हुए थे. मोदी ने पाकिस्तान को दोषी ठहराया, बिल्कुल तब जब कोई सबूत उपलब्ध नहीं था. उन्होंने तर्क दिया कि “देश को ऐसी सरकार की ज़रूरत है जो निर्णायक कार्रवाई करे, न कि ऐसी जो देखती रहे जबकि आतंकवादी मनमानी से हमला करते रहें.” उन्होंने खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जो साज़िशें देख सकता है जो दूसरों को नज़र नहीं आतीं. अपने पूरे करियर में, यह मोदी की राजनीतिक पहचान का एक मुख्य स्तंभ रहा: पाकिस्तान को निशाना बनाने और सज़ा देने का वादा. प्रधानमंत्री के रूप में, उन्होंने 2016 में उरी के बाद, 2019 में पुलवामा के बाद और अप्रैल 2025 में पहलगाम के बाद ऐसा किया.
लेकिन इस नवंबर, जब दिल्ली के ऐतिहासिक लाल क़िले के पास एक कार विस्फोट में कम से कम पंद्रह लोग मारे गए, तो मोदी की स्क्रिप्ट में कुछ अलग था. प्रधानमंत्री ने साज़िशकर्ताओं की बात की. उन्होंने न्याय की बात की. उन्होंने वादा किया कि ज़िम्मेदार लोगों को बख़्शा नहीं जाएगा. लेकिन उनकी टिप्पणियों में पाकिस्तान का कोई ज़िक्र नहीं था, जो साफ़ तौर पर ग़ायब था.
यह चूक कोई दुर्घटना नहीं है, या रणनीतिक पुनर्गठन या संयम का क्षण नहीं है. कुछ सुराग़ ऐसे मिले हैं जो पाकिस्तानी संलिप्तता की संभावना को उठाते हैं. एक वीडियो में, जो अब सोशल मीडिया पर वायरल है, अनवारुल हक़, पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर के पूर्व “प्रधानमंत्री”, यह कहते हुए सुने गए कि पाकिस्तान से जुड़े आतंकी समूहों ने “लाल क़िले से लेकर कश्मीर के जंगलों तक” हमले किए. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट ने यह भी नोट किया है कि दिल्ली ब्लास्ट के हैंडलरों में से एक पाकिस्तान भाग गया. जहां मोदी सरकार ने पहले बहुत कम सबूतों पर पाकिस्तान पर हमला बोला है, वहीं इन नए घटनाक्रमों के बावजूद अब तक संयम बरता है.
एक तरह से, यह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि ऑपरेशन सिंदूर—मई 2025 का सैन्य अभियान जो पहलगाम हमले के बाद हुआ था, जब पाकिस्तान के भीतर आतंकवादी मुख्यालयों को नष्ट करने के विजयी दावे किए गए थे—भारत में आतंकवाद के ख़तरे को ख़त्म करने में विफल रहा है. दिल्ली ब्लास्ट के अपराधियों को स्व-कट्टरपंथी बताकर बजाय पाकिस्तान-समर्थित के, सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया है कि मोदी के हिंदुत्व शासन के ग्यारह वर्षों ने ऐसी वैचारिक और सामाजिक स्थितियां पैदा की हैं जो लोगों को उग्रवादी हिंसा को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती हैं, बिना किसी बाहरी समर्थन की ज़रूरत के. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी का रुख़ भू-राजनीतिक बाधाओं के एक अभिसरण सेट को दर्शाता है. यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पाकिस्तान की ओर लेन-देन आधारित झुकाव, आसिम मुनीर के पाकिस्तान पर अभूतपूर्व नियंत्रण के सुदृढ़ीकरण, पाकिस्तान की सऊदी अरब के साथ नई रक्षा संधि, और भारत की अपनी कमज़ोरियों का हिसाब है.
दिल्ली ब्लास्ट के बाद का अंतर स्पष्ट रहा है, मोदी का फ़ॉर्मूलेशन पूरी तरह से बदल गया है, कश्मीर के डॉक्टरों को फंसाया गया है जिन्होंने ऑनलाइन चरमपंथी प्रचार का सेवन किया और कथित तौर पर एन्क्रिप्टेड मैसेजिंग प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से हमले की योजना बनाई. आरोपितों को स्व-कट्टरपंथी बताया गया है. पहलगाम के बाद, भाषा स्पष्ट थी. मोदी ने घोषणा की थी कि भारत “हर आतंकवादी, उनके हैंडलरों और उनके समर्थकों की पहचान करेगा, ट्रैक करेगा और सज़ा देगा.” उन्होंने यह नहीं कहा कि स्थानीय उग्रवादियों ने स्व-कट्टरपंथ किया है या यह सुझाव दिया कि कश्मीर ने घरेलू चरमपंथी पैदा किए हैं जो स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे थे. उन्होंने सीधे पाकिस्तान की ओर इशारा किया, राज्य प्रायोजन, सीमा पार आतंक बुनियादी ढांचे और उसके क्षेत्र से बेख़ौफ़ काम कर रहे उग्रवादी शिविरों का उल्लेख करते हुए.
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कहा है कि वह कार विस्फोट को “आतंकवादी घटना” के रूप में मान रहा है और अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने का संकल्प लिया है. पाकिस्तान बड़े पैमाने पर सरकार समर्थक भारतीय समाचार मीडिया की रिपोर्टिंग से भी ग़ायब है. जांच उनकी वैचारिक मान्यताओं, जिहादी सामग्री के प्रति उनके संपर्क और उनके स्वतंत्र निर्णय लेने पर केंद्रित है. यह तब है जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने आरोप लगाया है कि कार को “विस्फोट को ट्रिगर करने के लिए वाहन-आधारित इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस” के रूप में इस्तेमाल किया गया था.
मोदी सरकार एक साथ यह दावा नहीं कर सकती कि उसने भारत को सुरक्षित बना दिया है जबकि यह स्वीकार करती है कि भारतीय मुसलमान बाहरी मदद के बिना कट्टरपंथी हो रहे हैं. यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलिजियस फ़्रीडम ने अपनी 2025 में जारी रिपोर्ट में आरोप लगाया कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थितियां काफ़ी बिगड़ी हैं, जो मुख्य रूप से सत्तारूढ़ दल के नेताओं, जिसमें ख़ुद मोदी भी शामिल हैं, की बहिष्करणवादी हिंदू राष्ट्रवादी बयानबाज़ी से प्रेरित है. आयोग ने धार्मिक स्वतंत्रता के घोर उल्लंघन के लिए भारत को “विशेष चिंता का देश” नामित करने की सिफ़ारिश की. एक अपडेट नोट करता है कि “आरएसएस [राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ] और बीजेपी [भारतीय जनता पार्टी] के बीच आपस में जुड़ा रिश्ता कई भेदभावपूर्ण कानूनों के निर्माण और प्रवर्तन की अनुमति देता है, जिसमें नागरिकता, धर्मांतरण विरोधी और गोवध कानून शामिल हैं.”
अन्य अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों ने सतर्कता हिंसा, मनमानी गिरफ़्तारियों, संपत्तियों और पूजा स्थलों के विध्वंस, और मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए धर्मांतरण विरोधी और गो संरक्षण कानूनों के व्यवस्थित उपयोग का दस्तावेज़ीकरण किया है. आर्म्ड कॉन्फ़्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट की 2021 की एक रिपोर्ट ने नोट किया कि आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी समूहों को “अल्पसंख्यक समूहों पर हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है.”
2024 के आम चुनाव के दौरान मोदी की चुनावी बयानबाज़ी की उसकी भड़काऊ भाषा के लिए आलोचना हुई थी, जिसमें मुसलमानों को “घुसपैठिये” बताया गया और उनकी कथित उच्च जन्म दर का संदर्भ दिया गया. उन्होंने विभिन्न राज्य विधानसभाओं के बाद के चुनाव अभियानों में भी इसी तरह जारी रखा है. नवंबर में बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने बिहार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद, असम के पूर्वी राज्य में एक मंत्री ने, जहां लगभग एक तिहाई आबादी मुस्लिम है, सोशल मीडिया पर एक तस्वीर अपलोड की जो मुसलमानों की हत्या का आह्वान करती है.
अगर मोदी की नीतियों ने वास्तव में मुस्लिम हाशिएकरण, भेदभाव और सामाजिक अलगाव में योगदान दिया है, तो स्व-कट्टरपंथी कथा एक स्वीकारोक्ति बन जाती है. 2014 से, हिंदुत्व शासन द्वारा धर्मनिरपेक्ष संस्थानों की व्यवस्थित कमज़ोरी ने ऐसी स्थितियां पैदा की हैं जिनके तहत धार्मिक उग्रवाद जड़ें जमाता है. यह स्वीकारोक्ति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मोदी के तहत पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की सैन्य कार्रवाइयों के पूरे रणनीतिक औचित्य का खंडन करती है.
ऑपरेशन सिंदूर के प्रति पाकिस्तान की प्रतिक्रिया, भारतीय अधिकारियों द्वारा एक असफल प्रतिक्रिया के रूप में पेश किए जाने के बावजूद, पर्याप्त थी. भारत के रक्षा प्रमुख के अनुसार, पाकिस्तान ने भारतीय लड़ाकू जेट गिराए—जिसमें उन्नत राफ़ेल लड़ाकू विमान भी शामिल थे, जैसा कि फ़्रांसीसी वायु सेना प्रमुख जेरोम बेलांगर के अनुसार—ऑपरेशन की पहली रात को, जो मोदी के लिए एक महत्वपूर्ण राजनीतिक-सैन्य उलटफेर था. इस प्रारंभिक सफलता के बावजूद, पाकिस्तान ने वृद्धि करना चुना, पहली रात के ऑपरेशन के बाद छोड़ने के भारतीय प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. सैन्य टकराव, जिसे मोदी ने भारत की गौरवशाली विजय के रूप में प्रस्तुत किया, ने भारत की क्षमता और पाकिस्तानी हठ की सीमाओं को उजागर किया, जो नई दिल्ली में अप्रत्याशित थीं. भारत ने मान लिया था कि उसका बड़ा आर्थिक आकार, बेहतर वैश्विक स्थिति और उसकी तथाकथित राजनीतिक इच्छाशक्ति एक भारी रणनीतिक लाभ में तब्दील होगी. इसके बजाय, मई के संघर्ष ने दिखाया कि पाकिस्तान, आर्थिक कमज़ोरी के बावजूद, एक सैन्य प्रतिष्ठान बनाए रखता है जो नई दिल्ली द्वारा दो परमाणु शक्तियों के बीच तर्कसंगत निर्णय लेने की सीमा मानी जाने वाली सीमा से परे बढ़ने को तैयार है.
अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मई के टकराव के आसपास का भू-राजनीतिक संदर्भ नाटकीय रूप से बदल गया है जिसकी मोदी की सरकार ने स्पष्ट रूप से आशा नहीं की थी. ट्रंप ने अक्टूबर में दक्षिण कोरिया में एक भाषण के दौरान दावा किया—कई बार—कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों को बहुत अधिक शुल्क की धमकी देकर युद्ध को रोका था. यह ट्रंप को एक मास्टर नेगोशिएटर के रूप में पेश करने की अनुमति देता है जो दुनिया के सबसे जटिल संघर्षों को हल कर सकता है. लेकिन यह मोदी को वैश्विक मंच पर भी अपमानित करता है, भारत के सैन्य अभियानों को एक संकट में कम करता है जिसे हल करने के लिए अमेरिकी हस्तक्षेप की आवश्यकता थी.
जबकि मोदी की सरकार ने ट्रंप की विशेषता से इनकार किया है, व्यापक पैटर्न निर्विवाद है. ट्रंप पाकिस्तान के क़रीब आ गए हैं, जून 2025 में इसके सेना प्रमुख, आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में दो घंटे के लंच के लिए आमंत्रित करते हुए बिना किसी निर्वाचित पाकिस्तानी अधिकारी के साथ. ट्रंप ने बाद में मुनीर की अपने “पसंदीदा फ़ील्ड मार्शल” के रूप में प्रशंसा की. अपने पहले कार्यकाल के दौरान, ट्रंप को भारत की सुरक्षा चिंताओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण माना जाता था और उन्होंने मोदी के साथ व्यक्तिगत तालमेल विकसित किया, ह्यूस्टन और अहमदाबाद में रैलियों से लेकर पारस्परिक यात्राओं तक. वह रिश्ता अब खंडहर में पड़ा है.
ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रंप को पाकिस्तान ने चापलूसी, क्रिप्टोकरेंसी साझेदारी जैसे वाणिज्यिक लाभ के प्रस्तावों, दुर्लभ मिट्टी और खनिजों तक पहुंच के वादों और नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन के संयोजन के माध्यम से जीत लिया है. अमेरिकी अधिकारी आतंकवाद विरोध को पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों की आधारशिला के रूप में संदर्भित करते हैं. जो भी मामला हो, मुनीर का ट्रंप का आलिंगन केवल मोदी को कूटनीतिक रूप से शर्मिंदा नहीं करता है—यह पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सैन्य रूप से बढ़ने की उनकी क्षमता को काट देता है. दिल्ली ब्लास्ट के बाद पाकिस्तान पर मोदी की चुप्पी इस प्रकार केवल बयानबाज़ी नहीं है बल्कि दक्षिण एशिया के प्रति ट्रंप के नए दृष्टिकोण से प्रेरित एक रणनीतिक पक्षाघात है.
और अगर ट्रंप की भू-राजनीतिक बदलाव काफ़ी हानिकारक नहीं थी, तो मुनीर की शक्ति का सुदृढ़ीकरण और भी गंभीर ख़तरे का प्रतिनिधित्व करता है. हाल के संवैधानिक संशोधनों के बाद, उनका नियंत्रण जल्द ही तीनों सैन्य सेवाओं और रणनीतिक संपत्तियों तक विस्तारित होगा. मुनीर, जो विश्लेषकों द्वारा वर्णित पंजाबी सैन्य लोकाचार में डूबे हुए हैं जो परमाणु ब्रिंकमैनशिप को राजनीति के उपकरण के रूप में मानता है, अब पाकिस्तान की सबसे ख़तरनाक क्षमताओं पर अनियंत्रित अधिकार रखता है. गणना की ग़लती का जोखिम ऐसे संदर्भ में काफ़ी बढ़ गया है जहां एक एकल सैन्य कमांडर का निर्णय, वैचारिक विश्वासों और एक मार्शल संस्कृति से आकार लेता है जो आक्रामकता को महत्व देती है, यह निर्धारित करता है कि उपमहाद्वीप युद्ध की ओर बढ़ता है या विघटन की ओर.
सितंबर 2025 में, पाकिस्तान ने सऊदी अरब के साथ एक रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए, एक व्यवस्था जो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन के अनुच्छेद 5 की प्रतिध्वनि करती है, दोनों देशों को एक के ख़िलाफ़ किसी भी आक्रामकता को दोनों के ख़िलाफ़ आक्रामकता के रूप में मानने के लिए प्रतिबद्ध करती है. यह समझौता मई संकट के तुरंत बाद आया, स्पष्ट रूप से क्षेत्र में पाकिस्तान की निवारक स्थिति को मज़बूत करने के लिए डिज़ाइन किया गया. यह मध्य पूर्व में पाकिस्तान की रणनीतिक स्थिति की एक महत्वपूर्ण ऊंचाई का प्रतिनिधित्व करता है और सऊदी निवेश, कूटनीतिक समर्थन और रक्षा प्रौद्योगिकी सहयोग के माध्यम से इस्लामाबाद को आर्थिक राहत प्रदान करता है. यह चीन के साथ पाकिस्तान के घनिष्ठ सैन्य संबंधों के अतिरिक्त है, जो इसका “लोहे जैसा मज़बूत भाई” है.
मोदी की सरकार के लिए, यह अभिसरण गहराई से परेशान करने वाला है. ट्रंप की नीतियां ऐसे समय में पाकिस्तान की ओर झुक गई हैं जब भारत को उसके उच्च शुल्क से गंभीर आर्थिक दबावों का सामना करना पड़ रहा है. यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपने युद्ध में रूस की प्रतिबद्धताओं ने भारत को रक्षा आपूर्ति में देरी की है, जिसने शायद नई दिल्ली को अपने कुछ भंडारों को फिर से बनाने की अनुमति नहीं दी है जो मई के टकराव के दौरान समाप्त हो गए थे. भारत के रक्षा प्रमुख अनिल चौहान ने हाल ही में निजी रक्षा निर्माताओं को अधिक वादा करने, डिलीवरी में देरी, स्वदेशी सामग्री के बारे में सच्चाई और लागत प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के बारे में तत्काल चेतावनियां जारी कीं. ये भारत की सैन्य तैयारी के बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं.
दिल्ली ब्लास्ट इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह एक सुरक्षा विफलता का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि इसलिए कि यह मोदी के रणनीतिक दृष्टिकोण की गहरी विफलता को उजागर करता है. उन्होंने पाकिस्तान को दोष देने और उसके साथ संघर्ष को बढ़ाने में भारी राजनीतिक और सैन्य पूंजी का निवेश किया है, और अब भारत खुद को एक प्रतिकूल रणनीतिक स्थिति में पाता है, ट्रंप, मुनीर और सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौते के लिए धन्यवाद. मोदी दिल्ली ब्लास्ट के लिए पाकिस्तान को दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि उनके कार्यों ने ऐसे परिणाम उत्पन्न किए हैं जिन्हें वे बल या बयानबाज़ी के माध्यम से नियंत्रित नहीं कर सकते.
ये अभिसारी दबाव—घरेलू, कूटनीतिक और रणनीतिक—ने मोदी को कोई अच्छा विकल्प नहीं छोड़ा है. चुप्पी शायद एकमात्र पत्ता है जो उन्होंने खेलने के लिए छोड़ा है.
व्हाइट हाउस की गुप्त बैठक: ट्रम्प, वेंस और रुबियो ने तैयार की यूक्रेन शांति वार्ता की जमीन
यूक्रेन में शांति वार्ता को फिर से शुरू करने के पीछे नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की एक गुप्त और ठोस रणनीति थी. एक्सियोस में मार्क कैपूटो की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट के अनुसार, 18 नवंबर को व्हाइट हाउस में एक अहम बैठक हुई थी, जिसके बारे में पहले खबर नहीं थी. इस बैठक में राष्ट्रपति ट्रम्प, उपराष्ट्रपति जेडी वेंस और विदेश मंत्री मार्को रुबियो शामिल थे. इसी बैठक ने जिनेवा में हाल ही में हुई वार्ता की नींव रखी, जिससे प्रशासन को युद्ध रोकने की उम्मीद जगी है.
बैठक में ट्रम्प के आंतरिक घेरे द्वारा तैयार की गई 28-सूत्रीय शांति योजना पर चर्चा की गई. बाद में यूक्रेनी और अमेरिकी अधिकारियों ने इसे छोटा करके 20 बिंदुओं तक सीमित कर दिया, जिनमें से 18 पर सैद्धांतिक सहमति बन गई है. रिपोर्ट के मुताबिक, दो मुद्दे अभी भी “नाजुक” माने जा रहे हैं और उन पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की गई है—ये संभवतः यूक्रेन द्वारा रूस को दी जाने वाली क्षेत्रीय रियायतें और यूक्रेन के लिए सुरक्षा गारंटी से जुड़े मुद्दे हैं.
ट्रम्प ने इस प्रस्ताव को यूक्रेन ले जाने के लिए वेंस के दोस्त और अमेरिकी सेना सचिव डैन ड्रिस्कॉल को चुना, ताकि वे यूक्रेन की लड़ने की इच्छाशक्ति का भी आकलन कर सकें. रिपोर्ट यह भी स्पष्ट करती है कि मीडिया में चल रही वेंस और रुबियो के बीच मतभेद की खबरें गलत हैं; दोनों यूक्रेन मुद्दे पर एक टीम की तरह काम कर रहे हैं. ट्रम्प प्रशासन का मुख्य उद्देश्य शांति समझौता कराना और हत्याओं को रोकना है, भले ही इसके लिए रूस को कुछ रियायतें देनी पड़ें, जिसका कई यूक्रेनी राजनेता और यूरोपीय अधिकारी विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि पुतिन ने इन रियायतों को अर्जित नहीं किया है.
एन एपलबॉम : ट्रंप का ‘डीलमेकर’ स्टीव विटकॉफ़ बार-बार रूस का पक्ष क्यों लेता है?
एन एपलबॉम प्रमुख अमेरिकी-पोलिश इतिहासकार और पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार हैं. उन्हें विशेष रूप से साम्यवाद, मध्य और पूर्वी यूरोप के इतिहास और अधिनायकवाद पर उनके गहन शोध और लेखन के लिए जाना जाता है. यह लेख अटलांटिक पत्रिका की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ. उसके मुख्य अंश.
तारीख़ों पर ध्यान दीजिए, क्योंकि समय का मामला महत्वपूर्ण है. स्टीव विटकॉफ़ ने 14 अक्टूबर को रूसी अधिकारी यूरी उशाकोव से बात की. यूक्रेनी राष्ट्रपति व्लादिमीर ज़ेलेंस्की ने 17 अक्टूबर को वॉशिंगटन डी.सी. में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मुलाक़ात की. ट्रंप इशारा कर रहे थे कि वे यूक्रेनी सेना को टोमाहॉक्स, लंबी दूरी की क्रूज़ मिसाइलें बेचने की पेशकश करेंगे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
क्यों नहीं? शायद इसलिए क्योंकि उशाकोव ने विटकॉफ़ की सलाह सुनी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को 16 अक्टूबर को ट्रंप को फ़ोन करने के लिए मना लिया. दूसरे शब्दों में, विटकॉफ़ ने शायद उस बिक्री को रोकने में मदद की. और इससे विटकॉफ़ युद्ध को लंबा खींचने के लिए ज़िम्मेदार हो जाएंगे.
मुझे पीछे जाकर समझाने दीजिए.
विटकॉफ़, एक पूर्व रियल एस्टेट डेवलपर हैं, उन्हें रूस और यूक्रेन के बीच शांति समझौते पर बातचीत करनी चाहिए. वे सिद्धांत रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से काम कर रहे हैं, लेकिन लाखों लोगों की ओर से भी जो यूक्रेन में शांति और यूरोप में सुरक्षा चाहते हैं. उशाकोव, संयुक्त राज्य अमेरिका में एक पूर्व रूसी राजदूत, के अलग हित हैं: अपने बॉस की तरह, वे चाहते हैं कि रूस युद्ध जीते.
14 अक्टूबर की बातचीत की एक टेप ब्लूमबर्ग को लीक हो गई है. इसी तरह हम जानते हैं कि विटकॉफ़ ने उशाकोव को सुझाव दिया कि पुतिन ट्रंप को फ़ोन करें. उन्होंने इस बारे में भी सलाह दी कि पुतिन को क्या कहना चाहिए. रूसी नेता को ट्रंप की ख़ुशामद करनी चाहिए, बेशक, जो अमेरिकी राष्ट्रपति से बात करने के लिए मानक सलाह है: “ग़ज़ा में उनकी बड़ी सफलता पर उनकी तारीफ़ करें, इस उपलब्धि पर राष्ट्रपति को बधाई दें.” इसके बाद, विटकॉफ़ ने कहा, “यह वास्तव में एक अच्छी कॉल होने वाली है.”
फिर, विटकॉफ़ ने सलाह दी, पुतिन को ट्रंप पर यह विचार छोड़ना चाहिए: “रूसी संघ हमेशा शांति समझौता चाहता रहा है. यह मेरा विश्वास है. मैंने राष्ट्रपति से कहा कि मुझे इस पर विश्वास है.” साथ में, वे दोनों एक शांति योजना बनाएंगे, बिल्कुल ट्रंप की हालिया ग़ज़ा शांति योजना की तरह.
उशाकोव ने पुतिन को यह सलाह दी. पुतिन ने इसका पालन किया. हम कैसे जानते हैं? क्योंकि पुतिन ने वास्तव में 16 अक्टूबर को ट्रंप को फ़ोन किया. कॉल दो घंटे से ज़्यादा चली. ट्रंप ने कहा कि कॉल उत्पादक थी, और दोनों नेता जल्द ही मिलेंगे, संभावित रूप से बुडापेस्ट में (जो कभी नहीं हुआ). अगले दिन ज़ेलेंस्की के साथ अपनी बैठक के दौरान, उन्होंने यूक्रेन को टोमाहॉक मिसाइलों की पेशकश नहीं की. इसके बजाय, वे भावुक और ग़ुस्सैल हो गए.
लंबे समय से चली आ रही रूसी मांग के अनुसार, ट्रंप ने यूक्रेनियों को दोनेत्स्क प्रांत में यूक्रेनी ज़मीन छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश की, जो वर्तमान में उनके नियंत्रण में है—वह ज़मीन जिसे रूसी एक दशक से ज़्यादा की लड़ाई के बाद भी जीत नहीं पाए हैं. यही पुतिन चाहता है: बिना लड़े यूक्रेनी क्षेत्र हासिल करना, यूक्रेन को कमज़ोर करना, और किसी भी अस्थायी युद्धविराम का उपयोग अगले हमले की योजना बनाने के अवसर के रूप में करना.
“एक फ़ोन कॉल से,” एक अंदरूनी सूत्र ने पिछले महीने पोलिटिको को बताया, “पुतिन ने राष्ट्रपति ट्रंप का यूक्रेन पर एक बार फिर मन बदल दिया.” यह विटकॉफ़ की उपलब्धि थी. एक और क्रेमलिन इनसाइडर, किरिल दिमित्रीव के साथ काम करते हुए, उन्होंने पिछले सप्ताह 28-सूत्री शांति योजना का प्रस्ताव रखा जो, यदि लागू की गई, तो अस्थायी रूप से लड़ाई रोक सकती है लेकिन रूस को बाद में कमज़ोर यूक्रेन पर हमला करने की स्थिति में रख सकती है.
मैंने यह पहले लिखा है, लेकिन इसे बार-बार दोहराया जाना ज़रूरी है: यह युद्ध तभी ख़त्म होगा जब रूस लड़ाई बंद करेगा. रूसियों को आक्रमण रोकने, यूक्रेन की संप्रभुता को मान्यता देने, और अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ने की ज़रूरत है. तब यूक्रेन सीमाओं, क़ैदियों और हज़ारों अपहृत यूक्रेनी बच्चों के भाग्य पर चर्चा कर सकता है.
लेकिन रूस को लड़ाई रोकने के लिए मनाने का एकमात्र तरीक़ा रूस पर दबाव डालना है. यूक्रेन पर नहीं, रूस पर. यूक्रेनियों ने पहले ही कहा है कि वे अभी लड़ाई बंद कर देंगे और संघर्ष की वर्तमान लाइनों पर युद्धविराम पर सहमत होंगे. फिर भी विटकॉफ़ ट्रंप को रूस पर दबाव न डालने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं, और हम वास्तव में नहीं जानते क्यों.
विटकॉफ़ के पास पहले कोई राजनयिक अनुभव नहीं है, तो शायद वे भोले हैं. उन्होंने न्यूयॉर्क रियल एस्टेट में कई साल बिताए, उस समय जब रूसी संपत्ति पर भारी रक़म ख़र्च कर रहे थे, तो शायद वे कृतज्ञता महसूस करते हैं. शायद वे रूस को जीतने में मदद कर रहे हैं क्योंकि उन्हें “राष्ट्रपति पुतिन के लिए गहरा सम्मान है,” जैसा उन्होंने उशाकोव को बताया, और उनकी क्रूरता की प्रशंसा करते हैं. शायद उनके, या व्हाइट हाउस के अन्य लोगों के, रूस से जुड़े व्यावसायिक हित हैं—या उम्मीद है. “शांति” पर चर्चा के अलावा, विटकॉफ़ पिछले सप्ताह सार्वजनिक किए गए दस्तावेज़ के अनुसार, रूसियों के साथ अमेरिकी निवेश के बारे में भी बात कर रहे हैं “ऊर्जा, प्राकृतिक संसाधनों, बुनियादी ढांचे, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डेटा सेंटर, आर्कटिक में दुर्लभ पृथ्वी धातु निष्कर्षण परियोजनाओं के क्षेत्रों में.”
कारण कुछ भी हो, विटकॉफ़ संघर्ष को लंबा खींच रहे हैं. वे शांति को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं. उशाकोव को उनकी कॉल, जैसा कि ट्रंप ने कल रात कहा, एक सामान्य बातचीत की रणनीति नहीं थी. हर बार जब वे पुतिन के पक्ष की वकालत करते हुए हस्तक्षेप करते हैं, तो वे रूसियों को यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि वे ट्रंप को अपनी तरफ़ कर सकते हैं, अमेरिका को यूरोप से दूर कर सकते हैं, नाटो को तोड़ सकते हैं, और युद्ध जीत सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हर बार जब वे रूसियों की ओर से हस्तक्षेप करते हैं, तो वे यूक्रेनियों की मौतों, बुनियादी ढांचे पर हमलों, लाखों लोगों को प्रभावित करने वाली चल रही त्रासदी में योगदान करते हैं.
अगर यह एक सामान्य अमेरिकी प्रशासन होता, तो उन्हें तुरंत निकाल दिया जाता. लेकिन इस बातचीत, या इस प्रशासन के बारे में कुछ भी सामान्य नहीं है.
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.









