27/12/2025: भाजपा नेता, संघ के गुंडे, हिंदुत्ववादियों का एक ही एजेंडा, नफ़रत और हिंसा | सबसे ज्यादा डिपोर्टेशन सऊदी से | प्रदूषण भारत में कोविड जैसा हो सकता है | डेल्ही क्राइम 3 का फोक़स | नेपाम गर्ल
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
शुभेंदु का ‘गाज़ा’ मॉडल, टीएमसी का ‘हिटलर’ वाला जवाब: बंगाल में जुबानी जंग.
गुरुग्राम में चर्च पर ‘महापंचायत’ का पहरा: धर्मांतरण के डर से टीकली गाँव में तनाव.
बेटे की लिंचिंग, नफरत का डर: खान परिवार ने 150 साल बाद भारी मन से छोड़ा अपना गाँव.
केरल की ‘भीड़’ ने प्रवासी को दी मौत: भाषा बनी दुश्मन, ‘चोर’ बताकर ली जान.
हिमाचल से हरियाणा तक: कश्मीरी शॉल वालों पर नफरती हमले, ‘वंदे मातरम’ का दबाव.
डिपोर्टेशन डायरी: सऊदी सबसे आगे, अमेरिका और म्यांमार भी रेस में.
‘कोविड’ के बाद अब ‘हवा’ की बारी: ब्रिटेन के डॉक्टरों का भारत को रेड अलर्ट.
प्यूरीफायर पर टैक्स छूट? सरकार बोली- यह ‘भानुमती का पिटारा’ है.
एआई की होड़: डॉलर तो आ रहे, पर भारत के पानी-बिजली का क्या?
सरकारी प्लेन में बाबा, वर्दी का ‘साष्टांग’ प्रणाम: धीरेंद्र शास्त्री के वीडियो पर बवाल.
शराब घोटाला: सुप्रीम कोर्ट से राहत, लेकिन ईडी की चार्जशीट में आफत.
अरावली का खनन और मनरेगा का दमन: टीएम कृष्णा बोले- दोनों एक ही सिक्के के पहलू.
अनु सिंह चौधरी: पत्रकारिता की कलम से ‘दिल्ली क्राइम’ की स्क्रिप्ट तक का सफर.
ट्रम्प के ‘शांति प्लान’ पर ज़ेलेंस्की की शर्त: पहले 60 दिन गोलीबारी बंद हो.
ट्रम्प का ‘क्रिसमस गिफ्ट’: मिसाइल का मलबा और नाइजीरियाई गाँव का डर.
मीरा से अक्का महादेवी तक: पितृसत्ता को चुनौती देती ईश्वर से प्रेम की ‘रेडिकल’ कहानी.
‘नेपाम गर्ल’ की तस्वीर: असली फोटोग्राफर कौन? इतिहास पर नेटफ्लिक्स का सवाल.
शुभेंदु अधिकारी के ‘गाज़ा’ वाले बयान पर टीएमसी का पलटवार: ‘हेट स्पीच’, ‘जातीय सफाए’ का आरोप
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक बयानबाजी एक बार फिर तीखे मोड़ पर है. द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस ने शनिवार (27 दिसंबर) को आरोप लगाया कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा विधायक शुभेंदु अधिकारी ने “नग्न हेट स्पीच” दी है और “सामूहिक हत्या” व “जातीय सफाए” का आह्वान किया है. यह विवाद शुक्रवार (26 दिसंबर, 2025) को कोलकाता में बांग्लादेश उप-उच्चायोग के बाहर शुभेंदु अधिकारी द्वारा की गई एक टिप्पणी के बाद खड़ा हुआ.
द हिंदू की खबर के मुताबिक, बांग्लादेश में दीपू चंद्र दास की हत्या के विरोध में प्रदर्शन के दौरान भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी को यह कहते हुए सुना गया, “जिस तरह इज़राइल ने गाज़ा में सबक सिखाया, उसी तरह 100 करोड़ हिंदुओं के हित में चलने वाली इस देश की सरकार को भी [बांग्लादेश को] ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की तरह सबक सिखाना चाहिए.” इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी टीएमसी ने सोशल मीडिया पर कहा, “@BJP4India ने नफरत और असहिष्णुता को एक कला का रूप दे दिया है. उनके जहरीले बड़बोले नेता, @SuvenduWB ने अपने फासीवादी दांत फिर दिखाए हैं और यह ऐलान करते हुए कि भारत को मुसलमानों को वैसे ही सबक सिखाना चाहिए जैसे इज़राइल ने गाज़ा को सिखाया, नरसंहार वाली बातें उगली हैं.”
टीएमसी की राज्यसभा सांसद और उप-नेता सागरिका घोष ने भी इन टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया दी. उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, “@BJP4India का बंगाल ‘चेहरा’ बांग्लादेश के खिलाफ गाज़ा जैसे ऑपरेशन की मांग कर रहा है... ‘फूट डालो और राज करो’ की गंदी राजनीति बंगाल में नहीं चलेगी.” उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर से सवाल किया कि क्या वे शुभेंदु अधिकारी की इन बातों से सहमत हैं. टीएमसी ने सवाल उठाया कि इस “बनते हुए हिटलर” (Hitler-in-the-making) के खिलाफ कोई एफआईआर, गिरफ्तारी या यूएपीए (UAPA) की कार्रवाई क्यों नहीं की गई. गौरतलब है कि 22 दिसंबर से बांग्लादेश उप-उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन चल रहे हैं. शुभेंदु अधिकारी ने शुक्रवार को अधिकारियों से मुलाकात की थी, जिन्होंने हत्या के मामले में कार्रवाई का आश्वासन दिया था.
गुरुग्राम में चर्च के खिलाफ महापंचायत, विहिप और बजरंग दल के नेता शामिल
गुरुग्राम के कई गाँवों के लोगों ने शुक्रवार को दो एकड़ के कृषि भूखंड पर चर्च के चल रहे निर्माण के विरोध में ‘महापंचायत’ आयोजित की. इस बैठक में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल सहित कई हिंदू संगठनों के नेताओं ने हिस्सा लिया.
“पीटीआई” के मुताबिक, टीकली और आसपास के गाँवों के निवासियों ने आशंका जताई कि यह चर्च धार्मिक धर्मांतरण गतिविधियों का केंद्र हो सकता है. उन्होंने दावा किया कि स्थानीय ईसाई आबादी कुल हिंदू परिवारों का 1 प्रतिशत से भी कम है.
टीकली गाँव के प्रधान संदीप कुमार ने बताया कि जमीन खरीदने वालों ने पहले लैंड यूज बदलने का आवेदन किया था जो खारिज हो गया था. ग्रामीणों का आरोप है कि उन्हें आश्वासन दिया गया था कि यहां चर्च नहीं बनेगा, लेकिन बाद में किसी तरह अनुमति लेकर निर्माण शुरू कर दिया गया.
महापंचायत में एक 52-सदस्यीय समिति का गठन किया गया है. यह समिति सोमवार को डिप्टी कमिश्नर से मिलेगी और मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन सौंपेगी.
नफरत: बेटे की लिंचिंग के बावजूद खान परिवार ने नहीं छोड़ा पुश्तैनी गाँव, लेकिन 3 माह बाद…
इसी वर्ष अगस्त में, 20 वर्षीय सुलेमान खान पठान की एक भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या (लिंचिंग) कर दी थी. इस भीड़ में उसके महाराष्ट्र के हिंदू-बहुल गाँव के करीबी दोस्त भी शामिल थे, जहां उसके परिवार की पाँच पीढ़ियां रही थीं. उस समय भी, सुलेमान के पिता रहीम—जो यह मानते थे कि बाहर बढ़ती नफरत से उनका गाँव अछूता है—वहां से नहीं गए. लेकिन जैसे-जैसे खतरा और दहशत बढ़ी, पिछले महीने यह परिवार 150 साल पुराने अपने घर को छोड़कर चला गया.
“आर्टिकल-14” के लिए अपनी रिपोर्ट में कुणाल पुरोहित लिखते हैं कि दरअसल, 50 वर्षीय सोयाबीन किसान रहीम खान को अपने गाँव ‘बेटावद खुर्द’ पर अटूट विश्वास था. उत्तरी महाराष्ट्र के इस हिंदू-बहुल गाँव के बाहर जब सांप्रदायिक तनाव बढ़ता, तो रहीम उसे यह कहकर अनसुना कर देते कि उनके गाँव को नफरत कभी नहीं छुएगी. लेकिन, अगस्त में हिंसक भीड़ ने उनके इस विश्वास और उनके बेटे सुलेमान खान पठान, दोनों की हत्या कर दी.
11 अगस्त को, पुलिस में भर्ती होने का सपना देखने वाले सुलेमान को एक हिंदू लड़की के साथ दोस्ती के कारण दक्षिणपंथी समूह ‘शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्थान’ के सदस्यों ने अगवा कर लिया. पांच घंटों तक उसे बेरहमी से पीटा गया और फिर गाँव के बस स्टैंड पर लाकर लहूलुहान कर दिया गया.
दुखद पहलू यह था कि हमलावरों में सुलेमान के अपने बचपन के दोस्त शामिल थे. रहीम खान बताते हैं, “जब भीड़ मेरे बेटे और परिवार को पीट रही थी, तो 50 ग्रामीण मूकदर्शक बने खड़े थे. किसी ने बीच-बचाव नहीं किया.” जिस गाँव को रहीम अपना परिवार मानते थे, वहां की चुप्पी ने उनके भीतर का कुछ तोड़ दिया.
हत्या के बाद रहीम को लगा कि ग्रामीण डरे हुए हैं, इसलिए मदद नहीं कर पाए. लेकिन असली आघात तब लगा जब आरोपी ग्रामीणों को स्थानीय अदालत से जमानत मिल गई. पुलिस की लापरवाही के कारण 90 दिनों में चार्जशीट दाखिल नहीं हो सकी. परिवार का आरोप है कि जांच अधिकारी खुद उन रैलियों में शामिल थे, जहां नफरती नारे लगाए जा रहे थे.
जमानत के बाद आरोपियों का खुलेआम घूमना और ग्रामीणों की यह फुसफुसाहट कि “हमने इसके बेटे को मारा और यह कुछ नहीं कर पाया,” रहीम के लिए असहनीय हो गया. जब उनकी पत्नी को पैनिक अटैक आने लगे, तो रहीम ने भारी मन से गांव छोड़ने का फैसला किया. घर के बाहर की वही जगह, जहां उनके बेटे को नग्न कर पीटा गया था, अब उन्हें हर पल उस खौफनाक मंजर की याद दिलाती थी.
पुरोहित लिखते हैं कि खान परिवार का गाँव छोड़ना एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है, जो नफरत के अपराधों वाले क्षेत्रों में देखा जाता है—साझा सह-अस्तित्व का टूटना और ‘घेटोयसेशन’ (किसी खास समुदाय या जाति को समाज के बाकी हिस्से से अलग करने की प्रक्रिया). जहां मुस्लिम परिवार सुरक्षा की तलाश में अपनी ही बिरादरी की भीड़-भाड़ वाली बस्तियों में सिमटने को मजबूर हो जाते हैं.
मई 2017: यूपी के सोई गाँव में गुलाम मोहम्मद की लिंचिंग के बाद उनका परिवार गाँव छोड़ गया.
सितंबर 2015: दादरी के बिसाड़ा में मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद कई मुस्लिम परिवार विस्थापित हुए.
लंदन विश्वविद्यालय की शोधकर्ता निदा कैसर कहती हैं, सांप्रदायिक हिंसा का सीधा प्रभाव अलगाव के रूप में सामने आता है. जब मिश्रित आबादी वाले गाँव में ऐसा अपराध होता है, तो अक्सर अन्य धार्मिक समूह पीड़ितों के खिलाफ हो जाते हैं.”
जब रहीम खान अपना सामान ट्रक में लादकर गाँव से निकल रहे थे, तब भी कई ग्रामीण तमाशबीन बनकर खड़े थे. रहीम ने रुंधे गले से कहा, “न किसी ने हमारी मदद की, और न ही किसी ने हमें रोका.” 150 साल का पुश्तैनी रिश्ता कुछ ही घंटों की नफरत में हमेशा के लिए दफन हो गया.
रामनारायण बघेल की लिंचिंग से केरल में ‘भीड़’ के कई चेहरे उजागर
प्राइवेट बस के स्पीकर से ‘दपंकुथु’ गाना ज़ोर-शोर से बज रहा है, यह वह कच्चा और ऊर्जा से भरपूर संगीत है, जो तमिलनाडु-केरल सीमा के आर-पार आसानी से पहुंच जाता है. नेशनल हाईवे-544 की दोनों ओर, हाल ही में संपन्न हुए केरल स्थानीय निकाय चुनावों के चुनावी पोस्टर अभी भी लगे हुए हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि तमिलनाडु की सीमा से सटे केरल के पालक्कड़ जिले के वालयार कस्बे में मानव-पशु संघर्ष एक ज्वलंत राजनीतिक मुद्दा है.
सड़कों पर घूमते आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी निवासियों के लिए एक बड़ी नागरिक चिंता का विषय है, और जंगली जानवरों के खतरे के साथ-साथ यह समस्या कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा कोयंबटूर मार्ग पर पालक्कड़ शहर से लगभग 18 किमी दूर अट्टापल्लम में बस से उतरते ही हो जाता है.
रामनारायण बघेल ने शायद इस इलाके में बिताए अपने कम समय के दौरान इस खतरे को महसूस किया होगा. शायद यही वजह थी कि 17 दिसंबर, बुधवार को जब वह उन सुनसान सड़कों से गुज़र रहा था, तो उसके हाथों में एक लाठी और एक पत्थर था. लेकिन, कुत्तों ने उस पर हमला नहीं किया. इंसानों ने किया.
“द इंडियन एक्सप्रेस” में नारायणन एस. और अरुण जनार्दन ने अपनी रिपोर्ट में ‘भीड़’ के कई चेहरों को उजागर किया है. वह भीड़ जो कानून को अपने हाथ में लेती है, वह भीड़ जो सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलाती है, और वह भीड़ जो किसी की पहचान (भाषा या पहनावा) के आधार पर उसे दुश्मन मान लेती है.
यह रिपोर्ट एक प्रवासी के उन सपनों के बारे में है, जो केरल की गलियों में दम तोड़ गए—एक ऐसा प्रवासी जो केवल ₹500 की दिहाड़ी के लिए अपना घर छोड़ आया था, लेकिन उसे मिली तो सिर्फ मौत और ‘चोर’ होने का ठप्पा.
रामनारायण बघेल, जो छत्तीसगढ़ के सक्ती जिले के एक गरीब दलित परिवार से था. बेहतर आजीविका और अपने बच्चों के भविष्य के सपने लेकर केरल आया था, लेकिन महज चार दिनों के भीतर ही ‘भीड़’ की नफरत और संदेह का शिकार हो गया. सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में दिख रहा है कि खून से लथपथ रामनारायण से भीड़ पूछताछ कर रही है. उससे पूछा गया— “हिंदी? कौन सी भाषा?” उसे ‘बांग्लादेशी’ बताकर उस पर बर्बर हमला किया गया. रिपोर्ट के अनुसार, यह घटना उस केरल में हुई है, जिसकी अर्थव्यवस्था प्रवासी मजदूरों के दम पर चलती है. रिपोर्ट बताती है कि कैसे एक ‘प्रगतिशील समाज’ के भीतर भी बाहरी लोगों के प्रति गहरा संदेह और नस्लीय नफरत छिपी हो सकती है.
हिंदुत्ववादियों ने हिमाचल, हरियाणा में कश्मीरी शॉल विक्रेताओं को पीटा, बढ़ते हमलों से चिंता
देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा कश्मीरी विक्रेताओं पर हमलों में वृद्धि हुई है, जिससे काम के सिलसिले में यात्रा करने वाले इस समुदाय के सदस्यों की सुरक्षा और भलाई को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं. निकिता जैन की रिपोर्ट है कि हाल ही में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा शॉल बेचने वालों को परेशान किया गया और उनके साथ मारपीट की गई. ये घटनाएं उत्तराखंड में बजरंग दल के सदस्यों द्वारा एक कश्मीरी शॉल विक्रेता के साथ किए गए उत्पीड़न और हमले के कुछ ही दिनों बाद हुई हैं.
हिमाचल प्रदेश की घटना पहली घटना कांगड़ा जिले के देहरा में हुई. ‘जम्मू और कश्मीर छात्र संघ’ के अनुसार, जहांगीर अहमद नामक व्यक्ति को “देहरा में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा बेरहमी से पीटा गया.” अहमद को फ्रैक्चर और कई गंभीर चोटें आई हैं और फिलहाल हिमाचल प्रदेश के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है.
छात्र संघ ने बताया, “हिमाचल प्रदेश में कश्मीरी शॉल विक्रेताओं को निशाना बनाने का यह इस साल का 16वां मामला है.” पीड़ित को धमकाया गया, राज्य छोड़ने के लिए कहा गया और शॉल बेचने से रोक दिया गया. जबकि, अहमद पिछले 15 वर्षों से उस इलाके में शॉल बेच रहे हैं. उन्हें चेतावनी भी दी गई कि कश्मीरियों को वहां काम करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.
छात्र संघ ने बताया कि शनिवार को हरियाणा के कैथल में एक और कश्मीरी शॉल विक्रेता को परेशान किया गया. सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक वीडियो में, एक कश्मीरी विक्रेता को एक व्यक्ति द्वारा परेशान करते हुए, जबरन ‘वंदे मातरम’ का नारा लगवाने और उसे ‘बांग्लादेशी’ कहते हुए देखा जा सकता है.
2025 में सऊदी अरब ने सर्वाधिक भारतीयों को डिपोर्ट किया
राज्यसभा में विदेश मंत्रालय द्वारा पेश किए गए नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, साल 2025 में 81 देशों से 24,600 से अधिक भारतीयों को डिपोर्ट (निर्वासित) किया गया. अमीषा राजानी की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका नहीं बल्कि सऊदी अरब ने 12 महीनों में 11,000 से अधिक के साथ सबसे अधिक निर्वासन दर्ज किए.
इसकी तुलना में, 2025 में ट्रम्प प्रशासन द्वारा अमेरिका से केवल 3,800 भारतीयों—जिनमें ज्यादातर निजी कर्मचारी थे—को निकाला गया। हालांकि, रिपोर्ट कहती है कि पिछले पांच वर्षों में अमेरिका से दर्ज की गई यह सबसे बड़ी संख्या है. विशेषज्ञ इसे दस्तावेजों की हालिया सख्ती, वीजा स्थिति, कार्य प्राधिकरण और ओवरस्टे (वीजा अवधि से अधिक रुकना) की बढ़ी हुई जांच का परिणाम मानते हैं.
अमेरिका से अधिकांश निर्वासन वाशिंगटन डीसी (3,414) और ह्यूस्टन (234) से किए गए थे. 2025 में जिन देशों ने सबसे अधिक भारतीयों को वापस भेजा, उनमें सऊदी अरब 11,000, अमेरिका 3,800, म्यांमार 1,591, मलेशिया 1,485 और यूएई 1,469 शामिल हैं. म्यांमार से होने वाले निर्वासन ‘साइबर-गुलामी’ से जुड़े हैं. जबकि, खाड़ी देशों में वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी रुकना और बिना परमिट के काम करना बाहर निकाले जाने के मुख्य कारण रहे.
ब्रिटेन स्थित डॉक्टरों की चेतावनी: वायु प्रदूषण ‘कोविड’ के बाद भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट
ब्रिटेन स्थित भारतीय मूल के एक पल्मोनोलॉजिस्ट (फेफड़ा रोग विशेषज्ञ) ने चेतावनी दी है कि भारत में वायु प्रदूषण कोविड-19 महामारी के बाद सबसे गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों में से एक बनकर उभर रहा है. उन्होंने आगाह किया कि यदि जल्द ही सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो यह स्थिति हर साल और खराब होगी. उन्होंने चेतावनी दी कि वायुमार्ग की बीमारियों की एक बढ़ती लहर काफी हद तक बिना पहचान और बिना इलाज के रह गई है.
“पीटीआई” के साथ बातचीत में, ब्रिटेन में कार्यरत कई वरिष्ठ डॉक्टरों ने कहा कि “सतह के नीचे” अनियंत्रित और अदृश्य रूप से वायुमार्ग की बीमारियों का बोझ बढ़ रहा है, जिसका प्रभाव आने वाले समय में भारत के नागरिकों और स्वास्थ्य प्रणाली दोनों पर निरंतर दबाव डालेगा. उन्होंने पिछले दशक में वैश्विक स्तर पर हृदय रोगों में हुई वृद्धि को केवल मोटापे से न जोड़कर, इसे शहरी परिवहन (वाहनों और विमानों) से होने वाले जहरीले उत्सर्जन के बढ़ते जोखिम से जोड़ा है, विशेष रूप से भारत और ब्रिटेन जैसे देशों के प्रमुख शहरों में.
लिवरपूल में सलाहकार पल्मोनोलॉजिस्ट और भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की पूर्व कोविड-19 सलाहकार समिति के सदस्य मनीष गौतम ने ‘पीटीआई’ को बताया, “वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने पर भारत सरकार का ध्यान देना आवश्यक है, लेकिन अब एक कड़वी सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उत्तर भारत में रहने वाले लाखों लोगों के लिए नुकसान पहले ही हो चुका है. वर्तमान में जो प्रबंधित किया जा रहा है, वह केवल ‘हिमशैल का सिरा’ है. सतह के नीचे वायुमार्ग की बीमारियों का एक विशाल और छिपा हुआ बोझ बन रहा है.” उन्होंने एक त्वरित ‘लंग हेल्थ टास्क ग्रुप’ बनाने का सुझाव दिया.
डॉक्टरों ने बताया कि केवल दिल्ली के अस्पतालों में ही दिसंबर में श्वसन रोगियों में 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जिनमें कई पहली बार बीमार होने वाले मामले और युवा वयस्क शामिल थे.
लंदन के सेंट जॉर्ज यूनिवर्सिटी अस्पताल के मानद हृदय रोग विशेषज्ञ अजय नारायण के अनुसार, वायु प्रदूषण को हृदय, श्वसन, न्यूरोलॉजिकल और दैहिक रोगों से जोड़ने वाले “अत्यधिक वैज्ञानिक प्रमाण” मौजूद हैं. उन्होंने कहा कि सिरदर्द, थकान, हल्की खांसी और आंखों के सूखेपन जैसे शुरुआती लक्षणों को अक्सर मामूली मानकर नजरअंदाज कर दिया जाता है, लेकिन ये गंभीर पुरानी बीमारियों के शुरुआती संकेत हो सकते हैं.
बर्मिंघम के मिडलैंड मेट्रोपॉलिटन यूनिवर्सिटी अस्पताल के सलाहकार हृदय रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर डेरेक कोनोली ने कहा कि प्रदूषित शहरों में रहने वाले लोग उन दिनों में भी अदृश्य हृदय संबंधी खतरों का सामना करते हैं, जब हवा की गुणवत्ता ठीक लगती है. उन्होंने इसे एक ‘साइलेंट किलर’ बताया.
‘द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज’ की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में भारत में PM2.5 प्रदूषण के कारण 17 लाख से अधिक मौतें हुईं, जिनमें सड़क परिवहन में पेट्रोल के उपयोग से 2.69 लाख मौतें शामिल थीं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दोहराया है कि इस स्वास्थ्य आपातकाल से निपटने के लिए अब बड़े पैमाने पर और तत्काल निवेश की आवश्यकता है, जैसा कि भारत ने तपेदिक (टीबी) के उन्मूलन के लिए किया है.
एयर प्यूरीफायर से जुड़ी याचिका का विरोध
इस बीच दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में मांग की गई है कि राजधानी की प्रदूषित हवा के कारण एयर प्यूरीफायर की “अनिवार्यता” को देखते हुए, इन्हें चिकित्सा उपकरणों की श्रेणी में रखकर इन पर लगने वाले जीएसटी को 18% से घटाकर 5% किया जाए. लेकिन, केंद्र सरकार ने अदालत में इस याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि इसे स्वीकार करना “भानुमती का पिटारा खोलने” जैसा होगा. सरकार ने पूछा, “हम संवैधानिक दृष्टिकोण से डरे हुए हैं, यह शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत है... इसमें एक प्रक्रिया शामिल होती है. इस प्रक्रिया को अदालती कार्यवाही के माध्यम से कैसे बाधित किया जा सकता है?”
भारत में ‘एआई’ निवेश की होड़: उत्साह के साथ-साथ बढ़ीं चिंताएं
अमेज़न, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल ने पिछले तीन महीनों में भारत में कुल 67.5 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है, जिसका एक बड़ा हिस्सा बड़े डेटा सेंटर बनाने में उपयोग किया जाना प्रस्तावित है, जो चैटबॉट्स चलाने में मदद करेंगे. सिलिकॉन वैली भारत को एक “मस्ट-विन मार्केट” (हर हाल में जीतने वाला बाजार) के रूप में देख रही है—क्योंकि भारत की विशाल आबादी पहले से ही चैट जीपीटी (ChatGPT) और इसके प्रतिद्वंद्वी क्लाउड (Claude) का दूसरा सबसे बड़ा उपयोगकर्ता आधार है.
हालांकि, ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रांशु वर्मा का कहना है कि इस तरह का विस्तार पर्यावरणीय और श्रम संबंधी चिंताओं से भरा होगा. उदाहरण के लिए, ये डेटा सेंटर “भारी मात्रा में बिजली और पानी” की खपत करते हैं, जिससे “उन भारतीय समुदायों में संसाधन की कमी हो सकती है जो पहले से ही संकट का सामना कर रहे हैं.” इसके अलावा, वर्मा लिखते हैं कि ‘एआई’ उन शुरुआती स्तर के कॉल सेंटर और सॉफ्टवेयर कार्यों की जगह ले सकता है, जिन्हें कई भारतीय स्नातक होने के बाद अपनाते हैं.
भारत में गहराता जल संकट, दिग्गज पेय कंपनियों के लिए बढ़ा जोखिम
तकनीकी क्षेत्र उन उद्योगों में से एक है, जो भारत में जल आपूर्ति का उपयोग करते हैं या करने का प्रस्ताव रखते हैं, जहां दुनिया की 17% आबादी रहती है लेकिन मीठे पानी का केवल 4% हिस्सा ही उपलब्ध है. एक अन्य क्षेत्र ‘अल्कोहलिक बेवरेज’ (शराब और पेय पदार्थ) का है. ‘रॉयटर्स’ की एक रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान के अलवर में—जहां भूजल का दोहन उसकी पुनर्भरण क्षमता से लगभग दोगुना है—हाइनेकेन, कार्ल्सबर्ग और डियाजियो जैसी दिग्गज कंपनियां घटती जल आपूर्ति को सुरक्षित करने और प्रबंधित करने की चुनौती का सामना कर रही हैं. साथ ही, उन्हें सख्त सरकारी नियमों और उन स्थानीय लोगों की शिकायतों का भी सामना करना पड़ रहा है, जिन्हें हफ्ते में केवल एक बार पाइप से पानी मिलता है.
सरकारी विमान से पहुंचे धीरेंद्र शास्त्री, पुलिस अधिकारी ने छुए पैर; उठे सवाल
बागेश्वर धाम के प्रमुख और आध्यात्मिक प्रवचनकर्ता धीरेंद्र शास्त्री का एक वीडियो सामने आने के बाद विवाद खड़ा हो गया है. इस वीडियो में वे छत्तीसगढ़ में एक सरकारी विमान से उतरते दिख रहे हैं और ड्यूटी पर तैनात एक पुलिस अधिकारी उनके पैर छू रहा है. कांग्रेस ने इसे “जनता के पैसे का दुरुपयोग” बताया है, जबकि भाजपा ने पुलिसकर्मी के कृत्य को “व्यक्तिगत आस्था” बताते हुए विपक्ष पर सनातन धर्म विरोधी होने का आरोप लगाया है.
शास्त्री, राज्य मंत्री गुरु खुशवंत साहेब के साथ गुरुवार को दुर्ग जिले के भिलाई शहर में एक धार्मिक प्रवचन के लिए रायपुर पहुंचे थे. “पीटीआई” के मुताबिक, सोशल मीडिया पर वायरल क्लिप में दिखाया गया है कि शास्त्री और मंत्री विमान से नीचे उतर रहे हैं. वर्दी में तैनात पुलिस अधिकारी पहले मंत्री को सैल्यूट करता है और फिर अपनी टोपी और जूते उतारकर आगे बढ़ता है और शास्त्री के पैर छूता है.
वीडियो वायरल होने के बाद, वर्दीधारी अधिकारी के आचरण और एक धार्मिक उपदेशक के लिए सरकारी विमान के उपयोग पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कई सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि करदाताओं के पैसे पर एक धार्मिक व्यक्ति के लिए सरकारी विमान का उपयोग किया गया और अधिकारी के व्यवहार को “वर्दी की नैतिकता का मजाक” बताया.
छत्तीसगढ़ शराब घोटाला: सुप्रीम कोर्ट से जमानत पाने वाले 28 अधिकारी ईडी के रडार पर
छत्तीसगढ़ के कथित 3000 करोड़ रुपये के शराब घोटाले में जांच का दायरा और पेचीदा होता जा रहा है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर एजाज कैसर लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राज्य आबकारी विभाग के जिन 28 अधिकारियों को जमानत दी है, वे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा जांचे जा रहे मनी लॉन्ड्रिंग मामले के 81 आरोपियों में भी शामिल हैं. इन अधिकारियों को छत्तीसगढ़ आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो की चार्जशीट के मामले में जमानत मिली थी, लेकिन अब ईडी का शिकंजा उन पर बना हुआ है.
रिपोर्ट के अनुसार, ईडी ने रायपुर की विशेष पीएमएलए अदालत में शराब घोटाले में 29,800 पन्नों का ‘रिलाइड अपॉन डॉक्युमेंट्स’ या ‘अंतिम चालान’ पेश किया है. केंद्रीय जांच एजेंसी का दावा है कि आबकारी विभाग ने 2023 के विधानसभा चुनावों के दौरान छत्तीसगढ़ में एक राजनीतिक दल के लिए धन जुटाने में बड़ी भूमिका निभाई थी.
ईडी की इस जांच में कई हाई-प्रोफाइल गिरफ्तारियां शामिल हैं, जिनमें पूर्व आईएएस अधिकारी अनिल टुटेजा, छह बार के कांग्रेस विधायक कवासी लखमा, मुख्यमंत्री कार्यालय की पूर्व उप-सचिव सौम्या चौरसिया, सेवानिवृत्त आईएएस निरंजन दास, आबकारी विभाग के विशेष सचिव अरुण पति त्रिपाठी और व्यवसायी अनवर ढेबर के नाम प्रमुख हैं. हालांकि, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि ईडी की चार्जशीट में पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस विधायक भूपेश बघेल का कोई जिक्र नहीं है.
एजाज कैसर की रिपोर्ट के मुताबिक, जांच एजेंसी ने बताया कि धन इकट्ठा करने की जिम्मेदारी आबकारी अधिकारियों दिनकर वासनिक, नवीन सिंह तोमर, विकास गोस्वामी, नीतू नोटानी और इकबाल खान को सौंपी गई थी. यह कथित शराब घोटाला राज्य के 15 जिलों में चलाया गया था और चुनावों के दौरान उम्मीदवारों के बीच वितरण के लिए शराब की आपूर्ति की व्यवस्था की गई थी.
टीएम कृष्णा : अरावली पर खतरा और मनरेगा को खत्म करना आपस में जुड़े हैं
टेलीग्राफ में प्रकाशित अपने लेख में टी.एम. कृष्णा लिखते हैं कि हाल ही में केंद्र सरकार ने दो ऐसे कदम उठाए हैं जिन्होंने नागरिकों को चिंतित कर दिया है. पहला, अरावली पहाड़ियों की परिभाषा को कमजोर करना, जिससे इस प्राचीन पर्वत श्रृंखला का एक बड़ा हिस्सा रियल एस्टेट और खनन कंपनियों के शोषण के लिए खुल जाएगा. दूसरा, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को एक नई केंद्रीकृत योजना ‘विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार और आजीविका मिशन’ से बदल देना, जिसने मनरेगा के आधार को ही ध्वस्त कर दिया है.
लेखक का तर्क है कि ये दोनों मुद्दे अलग नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. हम गरीबों की आजीविका को प्राथमिकता दिए बिना प्रकृति की रक्षा नहीं कर सकते. अरावली की पहाड़ियां ‘कॉमन्स’ (साझा संसाधन) हैं और मनरेगा का अधिकांश काम भी इन्हीं ‘कॉमन्स’ में होता है. ‘कॉमन्स’ यानी हमारी पहाड़ियां, नदियां, जंगल और वो हवा जिसमें हम सांस लेते हैं. ये सब हम लोगों के हैं, लेकिन सरकारों और कॉरपोरेट्स ने धीरे-धीरे इन पर से हमारा हक छीन लिया है.
कृष्णा बताते हैं कि तमिल में ‘कॉमन्स’ के लिए ‘पोरोम्बोकू’ शब्द है, जिसे अब गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने माना कि जिस जमीन से राजस्व नहीं मिलता, वह बेकार है. इसी सोच ने प्रकृति के विनाश और हाशिए पर रहने वाले लोगों के प्रति उपेक्षा को जन्म दिया. शहरी मध्यम वर्ग अक्सर पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता पानी की बोतल और कपड़े का थैला साथ रखने तक सीमित रखता है, लेकिन उन मछुआरों और वनवासियों को भूल जाता है जो पर्यावरण विनाश से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. अरावली को सपाट करने का सीधा असर लोगों की गरीबी पर पड़ेगा. लेखक अंत में कहते हैं कि ‘जीवन के अधिकार’ और ‘समानता के अधिकार’ के बीच के अटूट संबंध को पहचानना अनिवार्य है.
बातचीत | अनु सिंह चौधरी
जर्नलिज्म काम आया डेल्ही क्राइम 3 का फोकस औरतों की ट्रैफिकिंग पर रखने में
‘हरकारा डीप डाइव’ के ताज़ा एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार निधीश त्यागी ने जानी-मानी लेखिका और स्क्रीनराइटर अनु सिंह चौधरी से बेहद आत्मीय और विस्तृत बातचीत की. यह संवाद सिर्फ एक इंटरव्यू नहीं रहा, बल्कि पत्रकारिता के बदलते दौर, फिक्शन की ताकत और ‘दिल्ली क्राइम’ जैसी संजीदा वेब सीरीज़ के पीछे की मेहनत का एक दस्तावेज बन गया. अनु ने पत्रकारिता, साहित्य और पब्लिशिंग से होते हुए 40 की उम्र में स्क्रीन राइटिंग की दुनिया में कदम रखने के अपने जोखिम भरे लेकिन सफल सफर को साझा किया.
बातचीत का एक बड़ा हिस्सा नेटफ्लिक्स की चर्चित सीरीज़ ‘दिल्ली क्राइम सीज़न 3’ पर केंद्रित रहा. अनु ने खुलासा किया कि इस सीज़न की कहानी 2011-12 के दिल दहला देने वाले ‘बेबी फलक केस’ से प्रेरित थी. उन्होंने बताया कि कैसे राइटर्स रूम में रिसर्च के दौरान उन्हें और उनकी टीम को अहसास हुआ कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग सिर्फ एक शहर या देश का मामला नहीं है, बल्कि यह एक गहरा ‘इंटरनेशनल कार्टल’ है. अनु ने राइटर्स रूम की प्रक्रिया को समझाते हुए एक दिलचस्प रूपक दिया—”राइटर्स रूम एक बर्तन की तरह है जिसमें अलग-अलग मिज़ाज के लेखकों को उबलने, झगड़ने और फिर ठंडा होकर एक साथ पकने के लिए छोड़ दिया जाता है.”
अनु ने इस दौरान लेखकों पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव पर भी बात की. उन्होंने कहा कि चाइल्ड ट्रैफिकिंग और हिंसा जैसे विषयों पर रोज़ाना रिसर्च करना बहुत डिस्टर्बिंग होता है. अक्सर ‘सर्वाइवर गिल्ट’ महसूस होता है और यह सवाल कचोटता है कि “हम लिखकर क्या बदल लेंगे?” लेकिन अनु मानती हैं कि फिक्शन हमें वो ‘यूटोपियन रेज़ोल्यूशन’ (आदर्श समाधान) देने की आज़ादी देता है जो असल ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों में अक्सर मुमकिन नहीं हो पाता. कम से कम स्क्रीन पर ही सही, कुछ लड़कियों को बचा लेने का सुकून मिलता है.
निधीश त्यागी से बात करते हुए अनु ने अपने जीवन के उस निर्णायक मोड़ को भी साझा किया जब उन्होंने पत्रकारिता को अलविदा कहा. 2015 में नेपाल भूकंप की रिपोर्टिंग करते वक्त मलबे में दबे लोगों और रेस्क्यू टीम को देखते हुए उन्हें लगा कि एक पत्रकार के तौर पर वो सिर्फ एक ‘म्यूट स्पेक्टेटर’ (मूक दर्शक) हैं. उसी पल की बेबसी ने उन्हें फिक्शन की ओर मोड़ा, जहां सच को ज्यादा ईमानदारी और बेबाकी से कहा जा सकता है. उन्होंने कहा कि आज के दौर में जब मीडिया इंडस्ट्री अपनी मजबूरियों में फंसी है, तब फिक्शन एक ऐसा माध्यम है जहां आप “आम को आम और चाकू को चाकू” कह सकते हैं.
भाषा और संवादों पर बात करते हुए अनु ने अपने बिहार के सिवान से होने का ज़िक्र किया. उन्होंने बताया कि कैसे एक ही इलाक़े में दो तरह की बोलियां हो सकती हैं—एक मधुर और दूसरी गालियों से भरी. एक लेखक के तौर पर यह चुनाव करना पड़ता है कि किरदार की सच्चाई क्या है. उन्होंने साफ़ कहा कि वो ऐसे प्रोजेक्ट्स से जुड़ना पसंद नहीं करतीं जो उनकी राजनीतिक समझ और मूल्यों के खिलाफ हों, चाहे वो कितना भी बड़ा प्रोजेक्ट क्यों न हो.
यह पूरी बातचीत उन सभी के लिए एक सबक है जो मानते हैं कि उम्र और हालात सपनों के आड़े आते हैं. अनु का सफर बताता है कि अगर आप खुद को नए सिरे से गढ़ने को तैयार हैं, तो अपनी जगह बना ही लेंगे.
ट्रम्प के प्लान पर जनमत संग्रह को तैयार ज़ेलेंस्की, लेकिन युद्धविराम की शर्त रखी
यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने अमेरिकी नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ अपनी आगामी मुलाकात से पहले एक बड़ा कूटनीतिक संकेत दिया है. समाचार आउटलेट एक्सियोस को दिए एक विशेष साक्षात्कार में ज़ेलेंस्की ने कहा कि वह युद्ध समाप्त करने के लिए ट्रम्प की योजना पर एक ‘जनमत संग्रह’ कराने को तैयार हैं, लेकिन इसके लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है—रूस को कम से कम 60 दिनों के युद्धविराम पर सहमत होना होगा.
एक्सियोस की रिपोर्ट के अनुसार, ज़ेलेंस्की ने यह बात शुक्रवार को फोन पर हुई बातचीत में कही. वह रविवार को फ्लोरिडा के मार-ए-लागो में ट्रम्प से मिलने वाले हैं. ज़ेलेंस्की ने स्वीकार किया कि ट्रम्प की योजना में यूक्रेन को पूर्वी हिस्से में दर्दनाक क्षेत्रीय रियायतें देनी पड़ सकती हैं. उन्होंने कहा कि अगर क्षेत्रीय मुद्दों पर कोई “मजबूत” स्थिति नहीं बन पाती है, तो उन्हें इस समझौते के लिए यूक्रेनी जनता की मंजूरी लेनी होगी.
ज़ेलेंस्की ने एक्सियोस को बताया कि युद्ध के बीच जनमत संग्रह कराना राजनीतिक और सुरक्षा की दृष्टि से बेहद जटिल है. उन्होंने ब्रेक्जिट का उदाहरण देते हुए कहा कि यह एक बहुत ही जटिल मुद्दे पर मतदान होगा, लेकिन इसे युद्धग्रस्त देश में बहुत कम समय में करना होगा. ज़ेलेंस्की ने जोर देकर कहा, “मतदान आयोजित करने और व्यवस्था बनाने के लिए 60 दिन का युद्धविराम न्यूनतम आवश्यकता है. बिना सुरक्षा के जनमत संग्रह कराने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर लोग डर के कारण वोट देने नहीं आ पाए तो परिणाम अवैध माना जाएगा.”
रिपोर्ट में सुरक्षा गारंटी के मुद्दे का भी जिक्र है. अमेरिका ने 15 साल के समझौते का प्रस्ताव रखा है जिसे रिन्यू किया जा सकता है, लेकिन ज़ेलेंस्की इससे लंबी अवधि चाहते हैं. उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि हमें 15 साल से ज्यादा की जरूरत है,” और अगर ट्रम्प इस पर सहमत होते हैं तो यह एक बड़ी सफलता होगी. ज़ेलेंस्की ने यह भी चिंता जताई कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि रूस ट्रम्प की योजना को मानने के लिए तैयार है या नहीं, हालांकि उनके पास कुछ खुफिया जानकारी है. रविवार की बैठक का लक्ष्य युद्ध को समाप्त करने के लिए एक रूपरेखा तय करना है.
अमेरिकी हमले की चपेट में आए नाइजीरियाई गांव में डर और भ्रम, स्थानीय लोगों का दावा- यहां आईसिस का कोई इतिहास नहीं
सीएनएन के लिए निमी प्रिंसविल की रिपोर्ट के मुताबिक, नाइजीरिया के उत्तर-पश्चिमी गांव जाबो में अमेरिका द्वारा दागी गई मिसाइल का मलबा गिरने के एक दिन बाद, वहां के लोग सदमे और भ्रम में हैं. यह मलबा गांव की एकमात्र चिकित्सा सुविधा से कुछ ही मीटर की दूरी पर गिरा. 26 दिसंबर को हुई इस घटना के बाद, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे आतंकवादियों के लिए “क्रिसमस का तोहफा” करार दिया था.
ट्रंप ने दावा किया कि अमेरिका ने क्षेत्र में आईएसआईएस के आतंकवादियों के खिलाफ एक “शक्तिशाली और घातक हमला” किया है, जो मुख्य रूप से ईसाइयों को निशाना बना रहे थे. हालांकि, रिपोर्टर प्रिंसविल बताते हैं कि जाबो के ग्रामीणों का कहना है कि उनके गांव में ऐसा कोई तनाव नहीं है. सुलेमान कगारा नामक एक निवासी ने सीएनएन को बताया, “जाबो में, हम ईसाइयों को अपना भाई मानते हैं. हमारे यहां कोई धार्मिक संघर्ष नहीं है, इसलिए हमें इसकी उम्मीद नहीं थी.”
स्थानीय सांसद बशर इसा जाबो ने भी पुष्टि की कि गांव का आईएसआईएस या किसी अन्य आतंकवादी समूह से कोई ज्ञात इतिहास नहीं है. नाइजीरियाई सरकार ने बाद में कहा कि यह ऑपरेशन अमेरिका के सहयोग से किया गया था और “अभियान के दौरान, खर्च किए गए गोला-बारूद का मलबा जाबो में गिरा.” हालांकि सरकार ने जोर देकर कहा कि इसमें कोई नागरिक हताहत नहीं हुआ है. विश्लेषकों का कहना है कि नाइजीरिया में संघर्ष के कई कारण हैं, जिनमें सिर्फ धर्म ही नहीं बल्कि संसाधनों को लेकर तनाव भी शामिल है.
रेडिकल आत्मीयता: मीराबाई, अक्का महादेवी और अन्य पूर्व-आधुनिक महिला रहस्यवादियों का ज्ञान
स्क्रोल के लिए लेखिका एलेक्जेंड्रा वेरिनी लिखती हैं कि हम अक्सर अतीत को पिछड़ा मानते हैं, लेकिन 8वीं शताब्दी ईस्वी से शुरू होकर, दुनिया भर की महिलाओं ने लेखन और मौखिक रचनाओं के साहसी नए रूपों में शामिल होना शुरू किया. दक्षिण एशिया की भक्ति और सूफी संतों से लेकर यूरोप की ईसाई रहस्यवादियों तक, इन महिलाओं ने ईश्वर के साथ अपने विशेष संबंधों को व्यक्त किया. वेरिनी बताती हैं कि मीराबाई और मार्जरी केम्प (एक ईसाई रहस्यवादी) जैसी महिलाओं में आश्चर्यजनक समानताएं थीं—दोनों ने ईश्वर के लिए सांसारिक जीवन छोड़ा, सफेद वस्त्र पहने और तीव्र भक्ति में लीन रहीं.
लगभग 800 से 1600 ईस्वी के बीच, महिलाओं को संगठित धर्म में अधिकार से वंचित रखा जाता था. ऐसे में, ईश्वर के लिए तीव्र प्रेम व्यक्त करके, इन महिलाओं ने अपनी बात कहने का अधिकार हासिल किया. अक्का महादेवी और मेचथिल्ड ऑफ मैगडेबर्ग जैसी महिलाओं ने ईश्वर के प्रति प्रेम को शारीरिक और कामुक रूप में भी देखा, जो आध्यात्मिक भी था. लेखिका का तर्क है कि यह प्रेम सिर्फ निजी नहीं था, बल्कि इसने मित्रता और परिवार की परिभाषाओं को भी बदल दिया.
ये महिलाएं दोस्ती के पारंपरिक पुरुष-प्रधान ढांचे को तोड़ते हुए ‘सखी’ या ईश्वर के साथ मित्रता की बात करती हैं. जनाबाई ने विठ्ठल को अपनी सहेली माना, तो जूलियन ऑफ नॉर्विच ने ईश्वर को एक मां के रूप में देखा. उनका लेखन हमें याद दिलाता है कि पितृसत्तात्मक प्रतिबंधों के बावजूद, महिलाओं ने अपनी खुद की एक ‘रेडिकल आत्मीयता’ और समुदाय का निर्माण किया.
क्या ‘नेपाम गर्ल’ की ऐतिहासिक तस्वीर निक उट ने नहीं खींची थी? नेटफ्लिक्स की डॉक्युमेंट्री ने उठाए सवाल
वियतनाम युद्ध की सबसे प्रतिष्ठित तस्वीरों में से एक, “द टेरर ऑफ वॉर” (जिसे “नेपाम गर्ल” के नाम से जाना जाता है), के असली फोटोग्राफर को लेकर इतिहास पर सवाल खड़े हो गए हैं. द कन्वर्सेशन पर प्रकाशित केट कैंट्रेल के लेख के अनुसार, 8 जून, 1972 को ली गई इस तस्वीर का श्रेय अब तक एसोसिएटेड प्रेस (AP) के फोटोग्राफर निक उट को दिया जाता रहा है. इस तस्वीर के लिए उन्हें पुलित्जर पुरस्कार भी मिला था. लेकिन नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई नई डॉक्युमेंट्री ‘द स्ट्रिंगर’ ने दावा किया है कि यह तस्वीर एक स्थानीय फ्रीलांस फोटोग्राफर (स्ट्रिंगर) ‘गुयेन थान न्घे’ ने खींची थी.
केट कैंट्रेल लिखती हैं कि बाओ गुयेन द्वारा निर्देशित इस डॉक्युमेंट्री में दावा किया गया है कि एपी के तत्कालीन ब्यूरो चीफ होर्स्ट फास ने आदेश दिया था कि तस्वीर का क्रेडिट निक उट को दिया जाए ताकि इमेज एपी की संपत्ति बनी रहे. डॉक्युमेंट्री में फोरेंसिक जांच कंपनी ‘इंडेक्स’ द्वारा तैयार की गई एक 3D विजुअल टाइमलाइन दिखाई गई है. इसके मुताबिक, जिस वक्त फोटो खींची गई, निक उट घटनास्थल से 250 फीट दूर थे और उनके लिए वह शॉट लेना “अत्यधिक असंभव” था.
द कन्वर्सेशन की रिपोर्ट के अनुसार, इस खुलासे के बाद ‘वर्ल्ड प्रेस फोटो’ ने निक उट को दिए गए लेखक के श्रेय को निलंबित कर दिया है और अब इसे “अनिश्चित/अज्ञात” के रूप में सूचीबद्ध किया है. हालांकि, एपी ने अपनी 97 पन्नों की जांच रिपोर्ट के बाद निक उट का श्रेय बरकरार रखा है, लेकिन यह स्वीकार किया है कि जांच में कुछ “अनुत्तरित प्रश्न” सामने आए हैं और वे इस संभावना के लिए खुले हैं कि शायद निक उट ने यह फोटो नहीं ली. लेखिका केट कैंट्रेल का विश्लेषण है कि यह विवाद न केवल युद्ध की क्रूरता को दिखाता है, बल्कि पश्चिमी मीडिया संगठनों द्वारा स्थानीय पत्रकारों के व्यवस्थित शोषण की ओर भी इशारा करता है, जहां अक्सर स्थानीय ‘स्ट्रिंगर्स’ के काम का श्रेय बड़े संगठनों के नाम हो जाता है.
अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.










