28 दिसंबर 2024: रुपया रिकॉर्ड गड्ढे में, कैसे कोसते थे मोदी मनमोहन को, डॉ सिंह के 5 बड़े आर्थिक सुधार, सादगी और संघर्ष के किस्से, गाँधी भजन गाने की माफ़ी मंगवाई, मुर्शिदाबाद में बैठकर यूट्यूब पर राज
हिंदी भाषियों का क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज्यादा
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज का न्यूजलेटर डॉ मनमोहन सिंह के बारे में इसलिए है, क्योंकि उनके नेतृत्व में जो भारत बना, जिस तरह से देश की अर्थ व्यवस्था हमेशा के लिए और बेहतर के लिए बदली, अब वैसा नहीं दिख रहा. यह बोलना इसलिए जरूरी है, क्योंकि वह शख्स खुद चुप रहा और अपने काम को बोलने दिया, जो कि अब देखने को नहीं मिलता. आज हम इकट्ठा कर रहे हैं कि कैसे मनमोहन सिंह ने भारत और भारतवासियों की जिंदगी को बदला, दुनिया के महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री कैसे देख रहे हैं उनके योगदान को और विश्व के राजनेता भी. कैसे जब वे थे, तो उन्हें पानी पी -पी कर कोसा जा रहा था और कैसे वह आदमी अपनी सादगी, सहजता और कर्मठता में इस देश को इतना कुछ दे कर चला गया.
आइये याद करें, कैसे कोसते थे मोदी मनमोहन को
रुपये के गिरने पर जितना रोना गाना गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मचाया था, इतिहास में किसी ने नही. तब जो प्रधानमंत्री थे, उन मनमोहन सिंह को अब उनकी मृत्यु पर वे बहुत सेंटी होकर याद कर रहे हैं. बहरहाल गुरूवार 27 दिसंबर को खबर आई कि भारतीय मुद्रा ‘रुपया’ अपने जीवनकाल के निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है और डॉलर के मुकाबले 85.50 रुपए पर बंद होकर उसने ‘गिरने’ का रिकॉर्ड बनाया है. तो टेलीग्राफ ने रुपए की गिरावट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखारविंद से 2014 के पहले प्रकट हुईं पांच बातें आर्काइव से निकालकर पेश कर दीं. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बरक्स देखें तो इस अंदाज़ में, मानो, प्रतीकों के जरिए प्रकृति ‘पाखंड और असत्य’ का पर्दाफाश कर रही हो. याद दिलाया है कि मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले कब क्या कहा था और क्या-क्या नहीं कहा था.
28 फरवरी 2014, हुबली चुनावी रैली :
हमारे देश का ‘रुपया’ कंपकंपा रहा है. रुपए की कीमत लगातार गिर रही है. अटल जी की सरकार में रुपया 40-45 (प्रति डॉलर) था और इस सरकार में गिरता ही रहा 62, 65, 70...आयात बढ़ता गया और निर्यात घटता गया. समझदार सरकार का काम निर्यात बढ़ाना और आयात को कम करना होता है.
वर्ष 2013 में किसी कार्यक्रम में :
रुपया अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है. “यदि हम चुनकर आते हैं तो 100 दिन में महंगाई कम कर देंगे, उन्होंने (यूपीए) यही कहा था, सही है? हुआ क्या? पेट्रोल का क्या हुआ? मित्रों, चाहे वो गैस, पेट्रोल, डीजल हो, दाम बढ़ रहे हैं कि नहीं? पिछले तीन माह से भारत सरकार हमसे कह रही है कि रुपया फिर सुधर जाएगा, मजबूत हो जाएगा, लेकिन क्या ऐसा हुआ? ये लोग ऐसा कर पाने में अक्षम हैं, न ही फैसले लेने में सक्षम हैं. इन लोगों ने देश पर नियंत्रण खो दिया है.
20 अगस्त 2013, जब रुपया रिकॉर्ड नीचे स्तर पर पहुंचा तो पत्रकारों से :
संकट आते हैं, लेकिन संकट के समय नेतृत्व दिशाहीन और नाउम्मीद हो जाए तो संकट विकराल रूप ले लेता है. यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि दिल्ली में जो शासक हैं, वे न तो देश की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं और न ही रुपए की कीमत की गिरावट से. यदि वे चिंतित हैं तो सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए. एक बार जब रुपया गिरता ही रहता है तो दुनिया की ताकतें इसका फायदा उठाती हैं. सरकार इसको रोकने में पूरी तरह विफल रही है.
30 जुलाई 2013 एक कार्यक्रम में :
“आज, जिस गति से रुपए की कीमत गिर रही है, कई बार लगता है कि जैसे दिल्ली में बैठी सरकार और रुपए के बीच मुकाबला चल रहा हो कि किसकी कीमत तेज गति से गिरती है.
14 जुलाई 2014, मोदी ने ट्वीटर (अब X) पर पोस्ट किया :
“रुपया अपना आकार कम होने की वजह से कमजोर नहीं हो रहा है. बल्कि इसलिए हो रहा है, क्योंकि जो दिल्ली में बैठे हैं, वे भ्रष्टाचार में व्यस्त हैं.”
रेनकोट पहन के नहाना डॉक्टर साहब जानते हैं : ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के अनुसार फरवरी 2017 में जब पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने “नोटबंदी” को “संगठित लूट” और “वैधानिक डाका” बताया तो बतौर प्रधानमंत्री मोदी का राज्यसभा में जवाब था -
“पिछले 30-35 सालों से मनमोहन सिंह जी वित्तीय फैसलों से सीधे जुड़े रहे हैं. उनके आसपास इतने घोटाले होते रहे, लेकिन उनकी खुद की छवि बेदाग रही. बाथरूम में रेनकोट पहन के नहाना सिर्फ डॉक्टर साहब जानते हैं.”
बहरहाल, ये तमाम बातें दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की स्मृतियों से जुड़ी हुई हैं, जिनकी पार्थिव देह का पंच तत्व में विलीन होना शेष है. आज अनेक लोगों ने उनकी पार्थिव देह के दर्शन किए और श्रद्धांजलि अर्पित की. कल शनिवार 28 दिसंबर को दिल्ली के निगमबोध घाट पर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा.
कैसे बदला था मनमोहन सिंह ने आपकी ज़िंदगी और हमारे देश को..
भारत में लोग गुरुवार शाम को पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निधन के बाद से देश के लिए उनके योगदान पर बात कर रहे हैं. 2004 से 2014 के बीच लगातार दो बार शीर्ष पद पर रहे सिंह को भारत के आर्थिक उदारीकरण के वास्तुकार के रूप में देखा जाता है, जिसने देश के विकास की दिशा बदल दी. जवाहरलाल नेहरू के बाद सत्ता में लौटने वाले पहले प्रधानमंत्री सिंह शीर्ष पद संभालने वाले पहले सिख भी थे. मृदुभाषी टेक्नोक्रेट के रूप में पहजाने जाने वाले सिंह प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत के केंद्रीय बैंक के प्रमुख रह चुके थे. इसके अलावा वित्त सचिव और वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया और संसद के ऊपरी सदन में विपक्ष का नेतृत्व किया.
बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के पांच मील के पत्थर की शिनाख्त बीबीसी ने की है, जिसने उनके करियर को आकार दिया और एक अरब से अधिक भारतीयों पर स्थायी प्रभाव डाला.
आर्थिक उदारीकरण
सिंह को 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार ने वित्त मंत्री नियुक्त किया था. उस समय भारत की अर्थव्यवस्था गंभीर वित्तीय संकट से गुजर रही थी. देश के विदेशी भंडार खतरनाक रूप से निम्न स्तर पर थे. इतने कम कि उससे महज दो सप्ताह के आयात का भुगतान किया जा सकता था.
अपनी सरकार और पार्टी के सदस्यों के कड़े विरोध के बावजूद सिंह ने अर्थव्यवस्था के पतन से बचने के लिए इसे विनियमन मुक्त करने की पहल की और जीत हासिल की.
उन्होंने साहसिक कदम उठाए, जिनमें मुद्रा का अवमूल्यन, आयात शुल्क में कमी और राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों का निजीकरण शामिल था.
1991 में अपने पहले बजट भाषण के दौरान संसद में उन्होंने कहा था, ‘पृथ्वी पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है’.
बाद में प्रधान मंत्री के रूप में सिंह ने अपने आर्थिक सुधार उपायों पर काम करना जारी रखा. लाखों भारतीयों को गरीबी से बाहर निकाला और भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरने में अहम योगदान दिया.
अनिच्छुक प्रधानमंत्री
कांग्रेस पार्टी ने 2004 के चुनावों में वापसी की. इसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार को आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा.
कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से व्यापक रूप से सरकार के नेतृत्व की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन निवर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी के कई सदस्यों ने इस तथ्य पर सवाल उठाए कि उनका जन्म इटली में हुआ था. इस बीच उन्होंने पद लेने से इनकार कर दिया और मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया. उन्हें गैर-विवादास्पद, महान व्यक्तिगत ईमानदारी वाले सर्वसम्मति वाले उम्मीदवार के रूप में देखा गया था.
अगले संसदीय चुनाव में, उन्होंने अपनी पार्टी को एक बड़ा जनादेश जिताने में मदद की, लेकिन आलोचकों ने अक्सर उन्हें गांधी परिवार द्वारा संचालित ‘रिमोट-कंट्रोल’ प्रधानमंत्री कहा गया.
सिंह ने अक्सर ऐसे आरोपों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया और अपना ध्यान अपने काम पर केंद्रित रखा.
उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल कुछ अनिच्छा के साथ शुरू किया हो सकता है, लेकिन उन्होंने जल्द ही शीर्ष पद पर अपना अधिकार जमा लिया.
सिंह के कार्यकाल में, विशेष रूप से 2004 और 2009 के बीच, देश की जीडीपी लगभग 8% की स्वस्थ औसत गति से बढ़ी, जो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में दूसरी सबसे तेज थी.
सुधारों पर उन्होंने साहसिक निर्णय लिए और देश में अधिक विदेशी निवेश लेकर आए. विशेषज्ञ उन्हें 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से भारत को बचाने का श्रेय देते हैं.
अलग-अलग दलों के साथ गठबंधन में उनके दूसरे कार्यकाल में, उनके कुछ कैबिनेट मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे, हालांकि उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर कभी सवाल नहीं उठाया गया.
इन आरोपों के जवाब में, उन्होंने 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में अपने अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों से कहा कि उन्हें उम्मीद है कि इतिहास उन्हें अलग तरह से आंकेगा.
सिंह ने कहा, ‘मैं ईमानदारी से मानता हूं कि इतिहास समकालीन मीडिया या संसद में विपक्षी दलों की तुलना में मेरे प्रति अधिक उदार होगा. मुझे लगता है कि गठबंधन राजनीति की परिस्थितियों और मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए परिस्थितियों के अनुसार जितना अच्छा कर सकता था, मैंने किया है’.
शिक्षा, सूचना और पहचान का अधिकार
प्रधानमंत्री के रूप में सिंह ने कई दूरगामी निर्णय लिए, जो आज भी भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं.
उन्होंने नए कानून पेश किए, जिन्होंने सरकार से सूचना मांगने के अधिकार को मजबूत और गारंटीकृत बनाया. इससे अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की नागरिकों को असाधारण शक्ति मिली.
सिहं ने एक ग्रामीण रोजगार योजना भी शुरू की, जिसमें न्यूनतम 100 दिनों के लिए आजीविका की गारंटी दी गई, अर्थशास्त्रियों ने कहा कि इस उपाय का ग्रामीण आय और गरीबी में कमी पर गहरा प्रभाव पड़ा.
सिंह एक ऐसा कानून लाए, जिसने 6-14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार की गारंटी दी. इससे स्कूल छोड़ने वालों की दर में उल्लेखनीय कमी आई.
उनकी सरकार ने वित्तीय समावेशन और गरीबों को कल्याणकारी लाभ पहुंचाने के लिए आधार नामक एक विशिष्ट पहचान परियोजना भी शुरू की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से संचालित वर्तमान संघीय सरकार ने अपनी कई नीतियों के लिए आधार को आधारशिला के रूप में बनाए रखा है.
सिख विरोधी दंगों के लिए माफ़ी
1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों ने अमृतसर में सिख धर्म के सबसे पवित्र मंदिर में छिपे अलगाववादियों के खिलाफ़ सैन्य कार्रवाई का बदला लेने के लिए हत्या कर दी थी. उनकी मौत ने बड़े पैमाने पर हिंसा को जन्म दिया. इसके परिणामस्वरूप 3,000 से ज़्यादा सिख मारे गए और उनकी संपत्ति को व्यापक पैमाने पर नुकसान पहुँचा.
सिंह ने 2005 में संसद में औपचारिक रूप से देश से माफ़ी माँगी और कहा, ‘हिंसा हमारे संविधान में निहित राष्ट्रवाद की अवधारणा का खंडन था’.
सिंह ने कहा, ‘मुझे सिख समुदाय से माफ़ी माँगने में कोई हिचकिचाहट नहीं है. मैं न केवल सिख समुदाय से, बल्कि पूरे भारत से माफ़ी माँगता हूँ’.
कांग्रेस पार्टी का कोई भी अन्य प्रधानमंत्री दंगों के लिए संसद में माफ़ी माँगने के लिए इतना आगे तक नहीं गया था.
अमेरिका के साथ समझौता
सिंह ने 1998 में हथियार प्रणाली के परीक्षण के बाद भारत के परमाणु अलगाव को समाप्त करने के लिए 2008 में अमेरिका के साथ एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए.
उनकी सरकार ने तर्क दिया कि यह सौदा भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने और इसकी स्वस्थ विकास दर को बनाए रखने में मदद करेगा.
इस सौदे को भारत-अमेरिका संबंधों में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया. इसमें भारत को अमेरिका और बाकी दुनिया के साथ असैन्य परमाणु व्यापार शुरू करने की छूट देने का वादा किया गया था.
इस समझौते का भारी विरोध हुआ था. आलोचकों ने आरोप लगाया कि यह विदेश नीति में भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता से समझौता होगा. विरोध में, वाम मोर्चे ने सत्तारूढ़ गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि सिंह अपनी सरकार और सौदा दोनों को बचाने में कामयाब रहे.
मनमोहन सिंह के 5 बड़े आर्थिक सुधार, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को गति दी
मनमोहन सिंह ने 10 साल तक देश का सबसे शक्तिशाली पद संभाला. मगर उनकी सबसे स्थायी विरासत 1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की पटकथा लिखने को माना जाएगा. उदारीकरण न सिर्फ अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाया, बल्कि इसने विश्व के साथ संबंधों को लेकर भी भारतीयों की सोच को बदल दिया. मिंट अख़बार ने यहाँ मनमोहन सिंह के पाँच प्रमुख आर्थिक सुधार का जिक्र किया है, जो उनके कार्यकाल के विरासत को परिभाषित करता है.
1. लाइसेंस राज खत्म करना
मनमोहन सिंह के सबसे महत्वपूर्ण सुधारों में से एक था लाइसेंस राज को खत्म करना. यह परमिट और विनियमन की जटिल प्रणाली थी. इस कारण निजी उद्यम और आर्थिक विकास बाधित हो रही थी. यह सुधार 1991 के आर्थिक संकट के दौरान बेहद अहम था. तब भारत भुगतान संतुलन के गंभीर संकट का सामना कर रहा था.
इन प्रतिबंधों को समाप्त करने के मनमोहन सिंह के फैसले ने व्यवसाय संचालन में अधिक स्वतंत्रता की अनुमति दी और उद्यमशीलता को प्रोत्साहित किया, साथ में विदेशी निवेश को आकर्षित किया. जैसा उन्होंने कहा भी था, ‘हम निर्यात की तुलना में आयात काफी अधिक कर रहे थे और हमारा विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम था’.
2. व्यापार उदारीकरण और आयात शुल्क में कमी
मनमोहन सिंह की नीतियों में आयात शुल्क में पर्याप्त कटौती शामिल थी, जिससे व्यापार सुगम हुआ और भारतीय उपभोक्ताओं के लिए विदेशी वस्तुएं अधिक सुलभ हो गईं. टैरिफ को 300% से घटाकर लगभग 50% कर दिया. मनमोहन सिंह ने भारतीय बाजार को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोल दिया.
इस कदम से न केवल उपभोक्ताओं को कम कीमत पर प्रतिस्पर्धी वस्तुओं का लाभ मिला, बल्कि घरेलू उद्योगों को अपने उत्पादों में नवाचार और सुधार करने के लिए भी प्रेरित किया. इन उपायों के लागू होने से अधिक खुली अर्थव्यवस्था की ओर एक महत्वपूर्ण बदलाव आया.
3. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को प्रोत्साहन
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई. उनकी सरकार ने दूरसंचार, बीमा और खुदरा समेत विभिन्न क्षेत्रों में एफडीआई पर प्रतिबंधों में ढील दी गई.
विदेशी पूंजी के इस प्रवाह ने न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया, बल्कि रोजगार के अवसर भी पैदा किए और बुनियादी ढांचे में सुधार किया. एफडीआई के प्रति मनमोहन सिंह का दृष्टिकोण भारत को अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के लिए एक आकर्षक गंतव्य के रूप में स्थापित करने में सहायक रहा.
4. कर सुधार
डॉ. मनमोहन सिंह ने कर आधार को व्यापक बनाने और कर ढांचे को सरल बनाने के उद्देश्य से व्यापक कर सुधार पेश किए. उन्होंने आयकर छूट सीमा को बढ़ाया और कर स्लैब की संख्या को चार से घटाकर तीन कर दिया. इससे करदाताओं के लिए अनुपालन आसान हो गया. इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत आयकर की अधिकतम सीमांत दर को 56% से घटाकर 40% कर दिया.
इन सुधारों ने सरकार के लिए राजस्व सृजन में सुधार किया, साथ ही आर्थिक गतिविधि के लिए अधिक अनुकूल वातावरण को बढ़ावा दिया.
5. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम
प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) सहित सामाजिक कल्याण पहलों का समर्थन किया. इस ऐतिहासिक कानून का उद्देश्य भारत की लगभग दो-तिहाई आबादी को सब्सिडी वाले खाद्यान्न उपलब्ध कराना था, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि खाद्य सुरक्षा नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाए.
मनमोहन सिंह होने का मतलब : अर्थशास्त्रियों की ज़ुबान में
भारतीय राजनीति में अब ढंग के बयान हाल के सालों में आने लगभग बंद हो गये हैं. डॉ मनमोहन सिंह के योगदान को देखने का एक तरीका यह भी है कि पढ़े लिखे लोग, जो अर्थशास्त्र को जानते समझते हैं, वे क्या कहते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की प्रबंध निदेशक, क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने कहा- 'डॉ. सिंह के नेतृत्व में भारत ने आर्थिक सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की भूमिका मजबूत हुई. उनका योगदान हमेशा याद रखा जाएगा.'
कौशिक बसु, भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, ने अपने शोक संदेश में कहा- 'यह भारत के लिए बड़ा नुक़सान है और मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है. डॉ. मनमोहन सिंह पर दो सटीक टिप्पणियाँ - ओबामा ने उन्हें 'असाधारण रूप से सभ्य व्यक्ति' बताया और ली कुआन यू के मुताबिक़ भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मनमोहन सिंह से मिली.'
अमेरिकी अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता, पॉल क्रुगमैन ने डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में लिखा- 'डॉ. सिंह ने दिखाया कि कैसे दूरदर्शी नीतियों के माध्यम से एक विकासशील देश वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकता है. उनकी नीतियों से न केवल भारत, बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था को भी लाभ हुआ. डॉ. सिंह का नेतृत्व और उनकी नीतियां आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगी. यह केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक बड़ी क्षति है.'
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री, गॉर्डन ब्राउन ने एक बयान में कहा- 'डॉ. मनमोहन सिंह एक महान नेता और अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने भारत को आर्थिक प्रगति की राह पर अग्रसर किया. उनके साथ काम करना सम्मान की बात थी.'
संयुक्त राष्ट्र महासचिव, एंटोनियो गुटेरेस ने अपने शोक संदेश में कहा- 'डॉ. सिंह की नेतृत्व क्षमता और आर्थिक सुधारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने लाखों लोगों के जीवन में सुधार किया. उनका योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा.'
अर्थशास्त्री डॉ. रथिन रॉय, जो तेरहवें वित्त आयोग के आर्थिक सलाहकार रहे हैं, ने कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह की जिन उपलब्धियों को आज भी व्यापक रूप से सराहा जाता है, उनके अलावा दो और महत्वपूर्ण बातें हैं जिन पर कम चर्चा होती है. उन्होंने कहा कि सिंह को अपनी विश्लेषणात्मक क्षमताओं पर गहरा विश्वास था और उनके पास इतना बड़ा मन था कि वह दूसरों के कार्यों का श्रेय देने में हिचकिचाते नहीं थे. सिंह ने अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों, वरिष्ठों और जूनियर अर्थशास्त्रियों के साथ बहुत अच्छे से काम किया.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के पूर्व गवर्नर, रघुराम राजन ने एक साक्षात्कार में कहा- 'डॉ. सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की दिशा में ले जाकर एक नई दिशा दी. उनके नेतृत्व में किए गए सुधार आज भी प्रासंगिक हैं.'
पूर्व वित्त मंत्री, पी. चिदंबरम ने कहा- 'कभी-कभी मुझे लगता है कि डॉ. मनमोहन सिंह के कई जीवन थे. उनके प्रारंभिक जीवन और शिक्षा के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. हम बस यह जानते हैं कि उनका जीवन कठिन था, जो रिश्तेदारों और छात्रवृत्तियों पर निर्भर था, कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड में उनका जीवन साधारण था, और बाद में दिल्ली में एक सरकारी परिवार की तरह था. वे एक कुशल छात्र थे, लेकिन उनके प्रारंभिक वर्षों में कुछ विशेष नहीं था। धीरे-धीरे उन्होंने कई सरकारी पदों पर कार्य किया, लेकिन उस समय के आर्थिक नीतियों के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं किया. डॉ. मनमोहन सिंह का निधन देश के लिए एक बड़ी क्षति है. उन्होंने अपने जीवन को राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया और उनकी नीतियों ने भारत को आर्थिक मजबूती प्रदान की.'
अर्थशास्त्री और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष, अरविंद पनगढ़िया ने कहा- 'डॉ. सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनकी दूरदर्शिता और नेतृत्व हमेशा प्रेरणा स्रोत रहेंगे.'
अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों के विशेषज्ञ, जेफ्री सैक्स ने कहा- 'डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत को आर्थिक सुधारों के माध्यम से गरीबी उन्मूलन और विकास की दिशा में अग्रसर किया. उनका योगदान वैश्विक विकास के लिए महत्वपूर्ण है.'
विश्व व्यापार संगठन (WTO) के पूर्व महानिदेशक, पास्कल लैमी ने कहा- 'डॉ. सिंह ने भारत को वैश्विक व्यापार में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाने में अहम भूमिका निभाई. उनके नेतृत्व में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपनी स्थिति मजबूत की.'
नोबेल लॉरेट अमर्त्य सेन, जिन्होंने डॉ. सिंह के साथ विभिन्न मंचों पर कार्य किया, उन्होंने कहा- 'डॉ. मनमोहन सिंह का निधन एक युग का अंत है. उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी और वैश्विक मंच पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई.' अमर्त्य सेन ने तो अपनी सफाई में एक बार कहा भी था- 'मैं कभी उदारीकरण के खिलाफ नहीं था. मनमोहन से पूछिए.'
संघर्ष और सादगी के दो किस्से
कैम्ब्रिज में पैसों की तंगी थी तो मनमोहन सिंह ने खाना छोड़ सस्ती चॉकलेट से चलाया था काम
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1950 के दशक के मध्य में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया. 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने उनकी बेटी दमन सिंह की पुस्तक 'स्ट्रिक्टली पर्सनल: मनमोहन एंड गुरशरण' के हवाले से लिखा है- 'कई बार, पैसे की कमी के चलते, उन्हें भोजन छोड़ना पड़ता था या केवल छह पेंस की कैडबरी चॉकलेट खाकर गुजारा करना पड़ता था.' दमन सिंह ने लिखा है कि उनके पिता बहुत ही मितव्ययी थे और कभी भी पैसे उधार नहीं लेते थे. उन्होंने अपने जीवन में कभी भी उधार नहीं लिया और यदि कभी आवश्यकता पड़ती, तो वे अपने करीबी मित्र मदन लाल सूदन से सहायता मांगते.
मनमोहन सिंह और उनकी मारुति 800
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और प्रधान मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान विशेष सुरक्षा समूह (एसपीजी) के पूर्व प्रमुख असीम अरुण ने डॉ सिंह के अपनी मारुति 800 के प्रति गहरे लगाव को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के जरिए याद किया है. असीम ने लिखा- 'मैं 2004 से लगभग तीन साल उनका बॉडी गार्ड रहा. एसपीजी में पीएम की सुरक्षा का सबसे अंदरुनी घेरा होता है - क्लोज़ प्रोटेक्शन टीम जिसका नेतृत्व करने का अवसर मुझे मिला था. एआईजी सीपीटी वो व्यक्ति है जो पीएम से कभी भी दूर नहीं रह सकता. यदि एक ही बॉडी गार्ड रह सकता है तो साथ यह बंदा होगा. ऐसे में उनके साथ उनकी परछाई की तरह साथ रहने की जिम्मेदारी थी मेरी. डॉ साहब की अपनी एक ही कार थी - मारुति 800, जो पीएम हाउस में चमचमाती काली बीएमडब्ल्यू के पीछे खड़ी रहती थी. मनमोहन सिंह जी बार-बार मुझे कहते- असीम, मुझे इस कार में चलना पसंद नहीं, मेरी गड्डी तो यह है (मारुति). मैं समझाता कि सर यह गाड़ी आपके ऐश्वर्य के लिए नहीं है, इसके सिक्योरिटी फीचर्स ऐसे हैं, जिसके लिए एसपीजी ने इसे लिया है. लेकिन जब कारकेड मारुति के सामने से निकलता तो वे हमेशा मन भर उसे देखते. जैसे संकल्प दोहरा रहे हो कि मैं मिडिल क्लास व्यक्ति हूं और आम आदमी की चिंता करना मेरा काम है. करोड़ों की गाड़ी पीएम की है, मेरी तो यह मारुति है.
...और नहीं रहे मारुति वाले ओसामु सुजुकी
जापानी ऑटोमोबाइल उद्योग के प्रमुख हस्ती ओसामु सुजुकी का 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया है. उन्होंने सुजुकी मोटर कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष और सीईओ के रूप में चार दशकों से अधिक समय तक सेवा की, जिससे कंपनी को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाया. सुजुकी ने 1982 में भारत सरकार के साथ साझेदारी करके मारुति उद्योग लिमिटेड की स्थापना की, जिससे भारत में ऑटोमोबाइल उद्योग में क्रांति आई. उनकी दूरदर्शिता के कारण, मारुति सुजुकी भारत में अग्रणी कार निर्माता बन गई, जो 2023 में भारत के बाज़ार में 40% से अधिक हिस्सेदारी रखती है.
राकेश कायस्थ : बोरिंग प्रधानमंत्री, मनोरंजक मीडिया और न्यू इंडिया
(लेखक डॉ मनमोहन सिंह की बदौलत उदारीकरण के बाद भारत मे आई मीडिया क्रांति के लाभार्थी भी हैं, और चश्मदीद गवाह भी. और अब स्वतंत्र टीकाकार हैं, जो फेसबुक पर यहाँ लिखते रहते हैं. और रामभक्त रंगबाज नाम का उपन्यास भी उन्होंने लिखा है.)
जुलाई 2014 का महीना था. टीवी पर कॉमेडी शो लाफ्टर चैलेंज चल रहा था. व्हील चेयर पर आये कॉमेडियन बच्चे जय चिनियारा ने चुटकुला सुनाया- देश अब एसएमएस के सहारे चल रहा है.
'एसएमएस बोले तो सरदार मनमोहन सिंह'
जज बने नवजोत सिंह सिद्धू उछले- 'वाह गुरु छा गये.. ठोको ताली.'
लेकिन मनमोहन पर बनने वाले किसी भी चुटकुले पर तालियां उस तरह नहीं बजीं जैसी अटल बिहारी वाजपेयी पर बजती थीं. ना वीर रस, ना हास्य, ना श्रृंगार. मनमोहन में कोई रस नहीं था, जबकि उनके पहले के पीएम रसरंग से भरे थे. कुछ चैनलों ने अपने कॉमेडी शोज़ में मनमोहन सिंह को कैरेक्टर बनाकर सरदारों वाले चुटकुले फिट करने की कोशिश की लेकिन ये आइडिया भी पिट गया.
अटल युग में ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग के चैंपियन अरुण जेटली भी थे, जो अपनी ही पार्टी के नेताओं के बारे में स्कैंडल से भरी खबरें देकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रोजी-रोटी चलाते आये थे. लेकिन अब कुर्सी पर इतिहास का सबसे `बोरिंग’ प्रधानमंत्री बैठा था. वह फिस्कल डेफिसिट, इकॉनमिक इनक्लूजन और रुरल एंपावरमेंट जैसे भारी-भरकम जुमले इस्तेमाल करता था, जो चैनलों के दफ्तरों में ज्यादातर लोगों की समझ में नहीं आता था. समझ में आ भी जाये तो उनके किसी काम का नहीं था.
राजनीतिक खबरों को अचानक लकवा मार गया और बड़े-बड़े संपादक संज्ञा शून्य हो गये. ऐसे में न्यूज़ रूम में एक बड़ी क्रांति ने आकार लेना शुरू किया जिससे आगे चलकर भारत का भाग्य लिखा जानेवाला था. इस क्रांति की शुरुआत `इंडिया आइडल’ और `फेम गुरुकुल’ जैसे टीवी शोज के प्राइम टाइम हेडलाइन बनने से हुई और फिर `बिना ड्राइवर की कार’ 'किले का रहस्य’ `गड्डे में प्रिंस’ और `चुड़ैल का बदला’ तक पहुंची.
न्यूज चैनलों के यशस्वी मालिक और सुधी संपादकों ने सरकार को कड़ा संदेश दिया कि अगर राजनीति मनोरंजन पैदा नहीं करेगी तो हम अपना मनोरंजन खुद मैन्युफैक्चर कर लेंगे. सूचना जगत का वो `मेक इन इंडिया मोमेंट’ था. क्लीवेज दिखाती और द्विअर्थीय संवादों के साथ क्राइम शो पेश करती एंकर की एंट्री हुई और ग्लैमरस हीरोइनों के इंटरव्यू चलाते वक्त न्यूज टिकर हटाये जाने लगे ताकि सबकुछ साफ-साफ दिखाई दे सके.
उधर बोरिंग प्रधानमंत्री चुपचाप अपना काम कर रहे थे. इकॉनमी आठ प्रतिशत की वास्तविक दर से आगे बढ़ रही थी. मिडिल क्लास मारुति-800 से वैगन आर और सेंट्रों की तरफ अग्रसर था, तो गाँव-कस्बों के ब्लैक एंड व्हाइट टीवी सेट रंगीन टीवी से रिप्लेस हो रहे थे. किराये के घर में रहने वाले सारे पत्रकारों ने बैकिंग बूम से पैदा हुई लोन क्रांति का फायदा उठाकर नोएडा, गाजियाबाद और फरीदाबाद में अपने घर खरीद लिये थे.
एक विशाल उपभोक्ता वर्ग तैयार हो रहा था और इसका सीधा फायदा न्यूज चैनलों को मिल रहा था. तीस मिनट के प्राइम टाइम स्लॉट में इतने एड थे कि पत्रकारों को सिर्फ 12-14 मिनट का कंटेट बनाना पड़ता था, बाकी सारा विज्ञापन. संपादक इस चमत्कार को अपना कौशल मान रहे थे और पत्रकारों के लिए सबसे अच्छा संपादक वही था, जो सबसे ज्यादा इंक्रीमेंट दिलवा दे.
किसी को पता नहीं था कि न्यूज चैनल चुपचाप `नये भारत’ की गाथा लिखने में जुटे हैं. सोशल मीडिया नहीं था. ऐसे में सूचना और मनोरंजन दोनों का बड़ा जरिया न्यूज चैनल ही थे और चैनल खुरच-खुरचकर जनता की राजनीतिक स्मृतियां मिटाने में जुटे थे.
सोचता हूं तो लगता है कि मनमोहन सिंह नई आर्थिक क्रांति की पटकथा लिखते वक्त इस पर ज्यादा विचार नहीं कर पाये कि अचानक मध्यवर्ग के हाथ में बहुत सारा पैसा आएगा, तो वह किस तरह रियेक्ट करेगा? क्या आर्थिक समृद्धि जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसी अनुपात में शिक्षा और चेतना का स्तर भी बढ़ रहा है?
अल्पमत की सरकार के प्रधानमंत्री पर सारा दोष मढ़ना बेकार है. मुझे याद है कि प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने सामाजिक बदलावों पर कई बार चिंता जताई थी. एक बार मनमोहन ने ये कहा था कि इस देश में तनख्वाह समान रफ्तार से नहीं बढ़ रही है और इससे आगे चलकर समाज में असमानता पैदा हो सकती है. इस बयान को ज्यादातर न्यूज चैनलों के संपादकों ने बहुत पर्सनली लिया था.
उस दिन के प्राइम शो में ज्यादातर चैनलों ने तबियत से सरकार की पुंगी बजाई और उसे बताया कि हमारे पैसे मेहनत के हैं, हम नेताओं और अफसरों की तरह कमाई नहीं करते हैं. अगर सैलरी बढ़ रही है तो प्रधानमंत्री की छाती पर सांप क्यों लोट रहा है. ऐसी ही एक खबर आई थी जब अमेरिका राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा था कि तीसरी दुनिया में मध्यमवर्ग के उदय से जो उपभोग बढ़ा है, उससे अमेरिका में अनाज महंगे हो रहे हैं. इस पर भी संपादकगण टूट बड़े थे और शो बने थे ‘अमेरिका ने हमें भुक्खड़ कहा!‘ और `बदतमीज़ी बंद करो बुश!’ आदि-इत्यादि.
कहने का मतलब यह कि संपादकीय विवेक का परिष्कार यूपीए वन के दौर में हो चुका था. सारे न्यूज चैनल एक प्रॉफिट मेकिंग वेंचर थे. उनपर होम मैन्युफैक्चर्ड एंटरटेनमेंट चलता था और `बोरिंग प्रधानमंत्री’ का चेहरा कोई नहीं दिखाता था. सरकार ने कहा- `न्यूज चैनल का लाइसेंस लेकर रात-दिन भूत-प्रेत दिखाना और अंधविश्वास फैलाना गलत है. इस पर लगाम लगाने के लिए हमें कुछ करना होगा.'
न्यू इंडिया की तामीर करने में जुटे मालिक-संपादकों को ये बात पसंद नहीं आई. उन्होंने कहा- इस तरह तो आप हम पर सेंसरशिप लगा दें. हम अपनी संस्था बनाएंगे और सेल्फ सेंसरशिप लागू करेंगे. मनमोहन सरकार ने कहा ठीक यही कर लीजिये. उसके बाद क्या हुआ वो दास्तान थोड़ा रुककर फिलहाल आगे की कहानी.
पांच साल में हुई जबरदस्त आर्थिक तरक्की और मनरेगा जैसी योजनाओं के बूते ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कायाकल्प ने यूपीए को 2009 चुनाव आसानी से जिता दिया. लेकिन चुनावी जीत से बोरिंग प्रधानमंत्री एंटरटेनिंग तो नहीं सकता था. ऐसे में न्यूज चैनलों पर स्व-निर्मित एंटरटेनमेंट कंटेट बढ़ता गया और पिछली राजनीतिक स्मृतियां जनता के दिमाग से छह-सात साल में पूरी तरह मिट गईं.
इसी बीच सोशल मीडिया आया. दुनिया में कई हुकूमतें फेसबुक के बूते उखाड़ी गईं. अरब स्प्रिंग हुआ तो अन्ना ने दिल्ली में गन्ना बोया. रणनीति अजित डोभाल ने बनाई, बाबा रामदेव शामिल हुए, पूरा संघ परिवार जुटा और न्यूज चैनलों पर बरसों बाद राजनीतिक खबरों की हरियाली लौट आई.
बाँझ गाय गाभिन हो गई और फिर भी दूध देने लगी. चैनलों पर अन्ना गाँधी बना दिये गये केजरीवाल कारागर में पैदा हुए कृष्ण. दुनिया को पहली बार लगा कि कुर्सी पर बैठा ये आदमी तो सचमुच `मौन मोहन’ है, इतने साल से कुछ बोला ही नहीं. अगर बोलता तो टीवी वाले नहीं दिखाते क्या?
भारत में नये आये फेसबुक और व्हाट्स अप ने देश की जनता को ये बताना शुरू किया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने राज्य को सिंगापुर बना दिया है और मौका दिया गया तो पूरे भारत को बना देंगे. मुझे एक व्हाट्स एप फारवर्ड अब भी याद है जिसमें ये दावा किया गया था कि हर शनिवार और रविवार मुख्यमंत्री मोदी वक्त निकालकर आईआईटी की तैयारी कर रहे बच्चों को अपने घर में गणित बढ़ाते हैं.
फिर क्या था, पूरे देश ने मोदी के गणित से बढ़ने का संकल्प ले लिया. `मौन मोहन’ मौन की चादर ओढ़कर चले गये. दस साल से राजनीतिक खबरों से महरूम लोगों की आँखें न्यूज चैनलों ने खोल दी. बोधित्व प्राप्त करने वालों में ज्यादातर नौजवान थे और सबने ध्वनि मत से मान लिया कि भारत सचमुच 2014 में बना है.
`सेंसरशिप मेरी लाश पर आएगा’ टाइप भंगिमा अख्तियार करने वाले कुछ संपादक रिटायर हो गये, कुछ निकाल दिये गये, कुछ ने सेल्फ सेंसरशिप के लिए बनाई गई अपनी ही संस्था की गाइड लाइन मानने से इनकार कर दिया. कुछ जेल से निकलकर प्राइम टाइम की कुर्सी पर आ बैठे और जो बाकी बचे वो खुशी-खुशी अमित मालवीय की डाँट को चरणामृत मानकर ग्रहण करने लगे.
कुल मिलाकर कहानी की हैप्पी एंडिंग ये है कि मौन मोहन के जाते ही इस देश में सब कुछ ठीक हो गया.
आज की दूसरी सुर्खियां
माफी ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम गाने’ की
जलसा अटल बिहारी वाजपेयी की सौंवी वर्षगांठ का था और जगह थी पटना का बापू सभागार. जलसे में आमंत्रित भोजपुरी लोक गायिका देवी ने गांधी भजन, रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम जब गाया, तो न सिर्फ उन्हें बीच में ही रोक दिया गया, बल्कि वहाँ उपस्थित भीड़ से माफी मांगने के लिए मजबूर भी किया गया. देवी से जिन लोगों नें माइक छीना उनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे शामिल थे. समारोह भारतीय जनता पार्टी नेताओं ने ही आयोजित किया था. और बाद में नाराज भीड़ को शांत करने के लिए 'जय श्री राम' के नारे लगाए.
भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले में चंडीगढ़ सीबीआई की टीम ने शिमला के ईडी कार्यालय में छापा मारा. रिश्वत के मामले में ईडी का डिप्टी डायरेक्टर अपने एक बिचौलिए सहित फरार हो गया है. जांच टीमें उसकी तलाश में जुटी हैं. उधर, ईडी के कार्यालय में मंगलवार से जारी रेड 36 घंटे बीतने के बाद भी चल रही थी. सीबीआई ने डिप्टी डायरेक्टर के कार्यालय से कई महत्वपूर्ण फाइलें व अन्य दस्तावेजों को कब्जे में लिया है. सूत्रों के अनुसार अधिकारी के घर पर भी टीम रेड करने गई थी.
2025 से दिल्ली विश्वविद्यालय हिंदू स्टडीज में पीएचडी शुरू करने वाला है. जैसा कि उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने गुरूवार को रहस्योद्घाटित किया, ‘उड़ने का आविष्कार राइट बंधुओं ने नहीं किया था, बल्कि महर्षि भारद्वाज ने किया था.’
सन 1882 के महाकुंभ का बजट 20 हजार रूपये था. इस महाकुम्भ का बजट 7500 करोड़ है. 40 करोड़ लोगों के आने की उम्मीद है.
'द मूकनायक' की खबर है कि कर्नाटक राज्य दलित संघर्ष समिति और कर्नाटक राज्य दलित विद्यार्थी ओक्कुटा का कलाबुरगी यूनिट 1 जनवरी को एक सम्मेलन का आयोजन करेगा, जिसमें 1818 में भीमा कोरेगांव में पेशवाओं के खिलाफ ब्रिटिश फौज में शामिल दलित महार समुदाय के सैनिकों की वीरता को सम्मानित किया जाएगा. 26 दिसंबर को कलाबुरगी में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में डीएसएस के डी. जी. सागर ने यह बताया है.
इजराइलियों ने पहले अस्पताल फूंका, फिर डॉक्टर और मरीजों की निकाली परेड
गाजा के कमाल अदवान अस्पताल में इजरायली सैनिकों ने आग लगाकर, मरीजों और डॉक्टर को बाहर निकाल दिया. ये गाजा का बड़ा अस्पताल था. इजरायली सेना ने जब 350 लोगों को अस्पताल से बाहर निकाला, उसके बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि वे अब अस्पताल के कर्मचारियों से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं. अस्पताल के निदेशक डॉ. हुसाम अबू सफ़िया ने बताया कि इजरायली सेना ने अस्पताल की सुविधाओं को नष्ट कर दिया है, जिससे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली ध्वस्त हो गई है.
रूसियों को पता ही नहीं कि उनकी देश की ओर से उत्तर कोरिया के भाड़े के सिपाही लड़ रहे हैं!
'द गार्डियन' की खबर है कि उत्तर कोरियाई सैनिक रूस की ओर से युद्ध लड़ रहे हैं, लेकिन रूसियों को लगता रहा कि यह फर्जी खबर है. रूस के कर्स्क क्षेत्र में उत्तर कोरियाई सैनिकों की उपस्थिति और उनकी युद्धभूमि पर तैनाती से जुड़ी खबरें धीरे-धीरे सामने आ रही हैं. स्थानीय निवासियों का कहना है कि इस विषय पर गहन गोपनीयता रखी गई है और उन्होंने शायद ही इन सैनिकों को देखा या उनकी मौजूदगी का अनुभव किया हो. कई निवासियों ने पहली बार जब इन खबरों को सुना, तो इसे "फर्जी खबर" मान लिया. उत्तर कोरियाई सैनिकों की तैनाती को लेकर जानकारी इतनी सीमित थी कि स्थानीय लोग आश्वस्त नहीं हो पाए. हालांकि, युद्धक्षेत्र से हताहतों की खबरें आने लगी हैं, जिससे यह स्पष्ट हो रहा है कि उत्तर कोरियाई सैनिक मोर्चे पर सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.
चलते चलते: मुर्शिदाबाद में बैठकर यूट्यूब पर राज..
पिछले पांच सालों से स्पॉटीफाई पर सबसे ज्यादा सुने जाने वाले गायक अरिजीत सिंह पर टेलीग्राफ ने एक धांसू स्टोरी की है. वह मुंबई या बंगाल की राजधानी कोलकाता में नहीं रहते, बल्कि मुर्शिदाबाद के जियागंज नामक कस्बे में रहते हैं. उनके दादा बंटवारे के बाद लाहौर से यहाँ आकर बसे. उन्हें यहां रहना पसंद है. अगर टूर पर नहीं हैं तो वह यहीं दो पहिया वाहन से घूमते मिल जाएंगे. इस फीचर में जियागंज कस्बे, अरिजीत के परिवार, संगीत शिक्षक, स्कूल वालों और मुहल्ले के लोगों से बात की है और मुम्बई में महेश भट्ट और दूसरी हस्तियों से भी.
अरिजीत सिंह ने अगस्त 2023 से कम से कम दो बार स्पॉटीफाई पर दुनिया की सबसे लोकप्रिय गायिका टेलर स्विफ्ट को नंबर एक स्थान से हटाया है, भले ही सिर्फ़ एक दिन के लिए ही क्यों न हो.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्लेटफॉर्म के जरिये एल्गोरिदम के माध्यम से उनकी नकल किए जाने पर उन्होंने अपने नाम, आवाज, हस्ताक्षर, फोटोग्राफ और अन्य व्यक्तित्व लक्षणों के लिए सुरक्षा की मांग करते हुए अदालत का रुख किया. बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया. इसके बावजूद, उनकी आवाज़ की नकल करने के लिए ‘सॉन्ग जेनरेटर’ सेवाएं देने वाली वेबसाइटें अभी भी उपलब्ध हैं. इस महीने की शुरुआत में लगातार तीन वर्षों से शीर्ष 100 डीजे में से एक डच डीजे और रिकॉर्ड प्रोड्यूसर मार्टिन गैरिक्स अरिजीत सिंह के जियागंज स्थित आवास पर थे. इससे आप उनके पद, नाम, शोहरत, प्रशंसा का अंदाजा लगा सकते हैं.