28/10/2025: राहुल बिहार वापस | इंडिया का मैनिफेस्टो | चुनाव आयोग को आरएसएस सदस्य बताया | दोस्ताना लड़ाइयों की कीमत | वर्ली के फर्जी वोटर | बिल गेट्स और क्लाइमेट चेंज | नगा लीडर की वापसी
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
राहुल गांधी की वापसी: चुनाव सिर पर, राहुल ‘लापता’: दो महीने बाद अब बिहार की याद आई?
इंडिया ब्लॉक का घोषणापत्र: हर घर सरकारी नौकरी, बिजली फ्री: क्या तेजस्वी के ‘25 प्रण’ दिलाएंगे जीत?
एनडीए से पहले अपनों से जंग: 11 सीटों पर महागठबंधन की ‘दोस्ताना लड़ाई’ कहीं महंगी न पड़ जाए.
बिहार में अब खत्म हो रहा है लालू-नीतीश का 50 साल पुराना दौर?
हर तीसरा उम्मीदवार दागी, कोई हत्या तो कोई बलात्कार का आरोपी.
एक पीके, दो वोटर कार्ड: चुनावी रणनीतिकार को चुनाव आयोग का नोटिस.
विपक्ष का चुनाव आयोग पर बड़ा हमला: क्या मतदाता सूची में हेरफेर की तैयारी है?
आदित्य ठाकरे का दावा: वर्ली में हज़ारों ‘फ़र्ज़ी’ वोटर?
गुजरात में मिलावट: अपनी ही सरकार को आतंकवाद परस्त बताया
योगी और नाम: योगी का ‘नाम-बाण’:
मोदी नहा सकें इसलिए यमुना साफ़? छठ पर सियासत और एक ‘साफ़’ पानी का टुकड़ा.
भारत का निर्यात: भारत का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट- पेट्रोल या मसाले नहीं, हमारे युवा श्रमिक.
EWS कोटा तो आया, पर यूनिवर्सिटी में न टीचर बढ़े, न पैसा.
सोनम वांगचुक: ‘मेरे शब्दों का गलत अनुवाद हुआ’:
जम्मू-कश्मीर: J&K में ‘वोट चोरी’? BJP की एक और जीत पर विधानसभा में हंगामा.
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धर्मांतरण पर विहिप: ईसाई बन रहे, पर आरक्षण के लिए रिकॉर्ड में ‘हिंदू’ बने रहते हैं लोग.
सोयाबीन किसान: देश को खिलाने वाला एमपी का सोयाबीन किसान खुद क्यों है परेशान?
भारतीय वंश: 4400 साल पुराना राज़ खुला: भारतीयों के खून में मिला ईरान से जुड़ा छठा वंश.
‘चुप रहो, नहीं तो...’: पंजाब यूनिवर्सिटी का ‘चुप्पी का हलफ़नामा’, छात्र बोले- ये तानाशाही है.
नागा विद्रोही की वापसी: 60 साल बाद घर लौटा दुनिया का सबसे पुराना विद्रोही, पर क्या हाथ खाली हैं?
बिल गेट्स का यू-टर्न: दुनिया को जलवायु परिवर्तन से नहीं, भूख और बीमारी से बचाओ.
कला और हथियार: कलाकार का कमाल: 3.5 करोड़ मोतियों से लड़ाकू विमान को शांति का प्रतीक बना दिया.
बिहार विधानसभा चुनाव
दो महीने गायब रहने के बाद राहुल बुधवार को वापस दीखेंगे बिहार में
जब राहुल गांधी ने अपनी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के लिए बिहार के असहनीय अगस्त की धूप में कदम रखा था, तो यह एक परीक्षा थी कि क्या वह अभी भी उस भूमि में समर्थक ढूंढ सकते हैं, जहां कांग्रेस अधिकतर एक धुंधली परछाई के रूप में ही जीवित है. 16 दिनों तक, उनके अभियान ने धूल भरी सड़कों और भीड़ भरी कॉलोनियों से होकर एक शोरगुल भरा रास्ता तय किया.
हालांकि, आज, जैसे-जैसे बिहार की चुनावी गर्मी बढ़ रही है और राज्य दो चरणों के विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हो रहा है, चर्चा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गर्मागर्म भाषणों, अमित शाह की रैलियों, तेजस्वी यादव के रोड शो और प्रशांत किशोर के ज़मीनी काम का बोलबाला है. इन सबके बीच, एक आवाज़ गायब है - राहुल गांधी की.
कांग्रेस नेता आखिरी बार लगभग दो महीने पहले बिहार में दिखे थे, जब उन्होंने 1 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में अपनी यात्रा समाप्त की थी. इस अभियान को “वोट की रक्षा” करने के लिए एक नैतिक धर्मयुद्ध के रूप में पेश किया गया था – जिसका उद्देश्य बिहार के मतदाताओं को, जिसे उन्होंने सत्तारूढ़ एनडीए द्वारा ‘वोट चोरी’ कहा था, उसके खिलाफ जागरूक करना था.
सोलह दिनों में, उन्होंने 25 जिलों और 110 विधानसभा क्षेत्रों में 1,300 किलोमीटर की दूरी तय की—मोटरसाइकिल की सवारी की, स्थानीय अपील के लिए ‘गमछा’ पहना, मखाना किसानों से मुलाकात की—अक्सर उनके साथ तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन जैसे सहयोगी भी शामिल हुए.
लेकिन दो महीने बाद, कहानी बदल गई है. राहुल, जिन्होंने अपनी यात्रा के माध्यम से कांग्रेस के निष्क्रिय आधार को संक्षेप में जगाया था, अब अपनी गति खो चुके लगते हैं. और सामने से अगुवाई करने के बजाय, उनके नेता मैदान से गायब हैं.
23 अक्टूबर को जब महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस के बैनर पर केवल एक ही चेहरा था - तेजस्वी का. राहुल मंच पर और भावना दोनों में गायब थे. गठबंधन के भीतर, अनकहा फैसला स्पष्ट लग रहा था: वह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का चेहरा हो सकते हैं, लेकिन वह अब बिहार में इसके प्रभारी नहीं हैं.
अनुपस्थिति का रिकॉर्ड : भले ही सीटों के बंटवारे की कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं हुई है, राजद बिहार की 243 सीटों में से 143 पर चुनाव लड़ रही है और कांग्रेस 61 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 2020 के विधानसभा चुनावों में, तेजस्वी के ज़ोरदार अभियान के बावजूद, जिसने राजद को सबसे बड़ी एकल पार्टी के रूप में उभारा था, कांग्रेस का स्ट्राइक रेट विपक्ष के खेमे में सबसे खराब रहा था. कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जो राजद (144) के बाद विपक्षी गठबंधन में सबसे अधिक था, और केवल 19 सीटें ही जीत सकी थी.
विदेश में पिज़्ज़ा ब्रेक और नीतिगत बातें : पटना रैली के बाद से, राहुल गांधी केवल पांच बार सार्वजनिक रूप से दिखाई दिए हैं - उनमें से कोई भी बिहार में नहीं. सितंबर के अंत में, उन्हें गुरुग्राम में एक पिज़्ज़ा आउटलेट पर देखा गया था.
अक्टूबर की शुरुआत में, उन्होंने कोलंबिया की यात्रा की, जहां उन्होंने घोषणा की कि “भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चारों तरफ से हमला हो रहा है.” चिली विश्वविद्यालय में एक बातचीत के दौरान, उन्होंने दुख व्यक्त किया कि भारत में “स्वतंत्र और वैज्ञानिक सोच” पर “ज़बरदस्त हमला” हो रहा है. 17 अक्टूबर को, वह श्रद्धांजलि देने के लिए गायक ज़ुबीन गर्ग के गांव असम गए. तीन दिन बाद, उन्हें पुरानी दिल्ली में एक मिठाई की दुकान पर कैमरे के लिए लड्डू बनाते देखा गया.
कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने, हालांकि, यह कहना जारी रखा कि पार्टी का “पूरे ज़ोर का अभियान” छठ पर्व के बाद ही शुरू होगा. उन्होंने कहा कि राहुल गांधी 29 और 30 अक्टूबर को बिहार का दौरा करेंगे, जिसके बाद प्रियंका गांधी वाड्रा और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे आएंगे. मुजफ्फरपुर और दरभंगा में तेजस्वी के साथ एक संयुक्त रैली की योजना है.
लेकिन क्या यह देर से प्रवेश काम करेगा? पिछले महीने, जब पीएम मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा रैलियों से बिहार में छाए रहे और तेजस्वी ने ज़िलों में भावनात्मक गति बनाई, कांग्रेस राजनीतिक अनिश्चितता में बनी रही.
राहुल की अनुपस्थिति ने पार्टी के उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं को ज़मीन पर दृश्यता और विश्वसनीयता के लिए संघर्ष करने के लिए छोड़ दिया है. उनका पुन: प्रवेश, 6 नवंबर को पहले चरण के मतदान से बमुश्किल एक सप्ताह पहले, एक रणनीति से कम और असंगति जैसा महसूस होता है. अभी के लिए, कांग्रेस उनकी अनुपस्थिति की भरपाई यात्रा के पुराने क्लिप प्रसारित करके करने की कोशिश कर रही है, जिसमें राहुल गांधी को ‘जन नायक’ कहा जा रहा है.
खेमे के भीतर संकट : इस भटकाव में कांग्रेस की बिहार में अपनी आंतरिक उथल-पुथल भी जुड़ गई है. टिकट वितरण ने खुले विद्रोह को जन्म दिया है, जिसमें राज्य के नेताओं ने एआईसीसी प्रभारी कृष्णा अल्लावारु पर भ्रष्टाचार और पक्षपात का आरोप लगाया है. असंतुष्ट सदस्यों को पार्टी मुख्यालय पर विरोध प्रदर्शन करते देखा गया. उनका नारा, “टिकट चोर, गद्दी छोड़,” राहुल के एनडीए सरकार पर किए गए “वोट चोर, गद्दी छोड़” ताने की एक विडंबनापूर्ण गूंज थी.
यह असंतोष चुनाव अभियान के अंतिम चरण में भी केंद्रीय नेतृत्व और स्थानीय कैडर के बीच गहरे तालमेल की कमी को दर्शाता है. हाल के दिनों में, पार्टी के भीतर और राजद जैसे सहयोगियों के साथ उत्पन्न विवाद को संभालने के लिए अशोक गहलोत और भूपेश बघेल जैसे वरिष्ठ नेताओं को भेजा गया था. हेमंत सोरेन, जो शक्ति प्रदर्शन के तौर पर राहुल के साथ बिहार में चले थे, अंततः बाहर हो गए और चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया. लेकिन इन सबके बावजूद, राहुल अनुपस्थित रहे हैं.
“टाइम्स ऑफ इंडिया” की रिपोर्ट के अनुसार, राहुल गांधी 29 अक्टूबर को तेजस्वी यादव के साथ अपनी पहली राजनीतिक रैली को संबोधित करने वाले हैं. दोनों मुजफ्फरपुर और दरभंगा में संयुक्त रैली करेंगे. उनका देर से आना शायद एक सोची-समझी रणनीति हो सकती है, लेकिन आप किसी भी राजनीतिक पंडित से पूछेंगे तो वे आपको बताएंगे कि किसी भी चुनाव में, जमीनी स्तर पर मौजूदगी सबसे ज्यादा मायने रखती है, और फिलहाल, वह कहीं दिखाई नहीं दे रही है. इसलिए, बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक 10 दिन पहले, सवाल सीधा है: राहुल, इतना देर क्यों?
बिहार के लिए इंडिया ब्लॉक का घोषणा पत्र
हर घर को एक सरकारी नौकरी, 200 यूनिट मुफ़्त बिजली, जीविका दीदियों को स्थाई कर मासिक 30 हजार देंगे
इंडिया ब्लॉक ने मंगलवार को बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसमें कई वादों के बीच, हर घर के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, पुरानी पेंशन योजना की बहाली और 200 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया गया है.
‘पीटीआई’ के अनुसार, ‘बिहार का तेजस्वी प्रण’ नामक 32 पन्नों का यह घोषणापत्र एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जारी किया गया, जहां 35 वर्षीय राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ गठबंधन के भागीदार भी मौजूद थे. यादव ने घोषणापत्र जारी करते हुए कहा कि बिहार चुनाव के लिए इंडिया ब्लॉक के घोषणापत्र में 25 प्रमुख बिंदु हैं, जो व्यावहारिक समाधान का आश्वासन देते हैं.
उन्होंने कहा, “बिहार में इंडिया ब्लॉक की सरकार बनने के 20 दिनों के भीतर रोजगार की गारंटी देने वाला एक नया कानून लाया जाएगा.” उन्होंने आगे कहा कि इंडिया ब्लॉक की सरकार बनने के 20 महीने के भीतर पूरे बिहार में एक रोजगार गारंटी योजना लागू की जाएगी.
घोषणापत्र में कहा गया है कि बिहार सरकार के सभी संविदाकर्मियों को स्थायी किया जाएगा. साथ ही, सभी ‘जीविका दीदियों’ को स्थायी किया जाएगा और उन्हें ₹30,000 का मासिक वेतन दिया जाएगा.
घोषणापत्र में राज्य में आईटी पार्क, एसईजेड (विशेष आर्थिक क्षेत्र), डेयरी और कृषि आधारित उद्योग, एक शिक्षा नगरी और पांच नए एक्सप्रेसवे का भी वादा किया गया है.
यादव ने कहा, “बिहार के लोग अपराध-मुक्त और घोटाला-मुक्त शासन चाहते हैं... वे चुनावों में एनडीए को सबक सिखाएंगे.” उन्होंने कहा कि लोग ऐसी सरकार चाहते हैं, जो ‘पढ़ाई’ (बेहतर शिक्षा), ‘दवाई’ (बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं), ‘कमाई’ (रोजगार) और ‘सिंचाई’ (बेहतर सिंचाई सुविधाएं) प्रदान करे.
उन्होंने आरोप लगाया, “एनडीए के पास बिहार के लिए कोई दृष्टि नहीं है... उन्होंने अब तक चुनावों के लिए घोषणापत्र जारी नहीं किया है... भाजपा नेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कठपुतली बना दिया है... भाजपा अपने हित को साधने के लिए नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर रही है... केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि नीतीश मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं होंगे.”
यादव ने कहा, “बिहार मद्य निषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम पूरी तरह से विफल रहा है. अगर इंडिया ब्लॉक सत्ता में आता है, तो हम ताड़ी पर लगे प्रतिबंध को हटा देंगे.” उन्होंने आगे कहा कि “इंडिया ब्लॉक का घोषणापत्र बिहार के विकास का रोडमैप है. यह राज्य को नंबर एक बनाने का संकल्प है.”
घोषणापत्र जारी करने के स्थान पर एक बैनर लगाया गया था जिसमें इंडिया ब्लॉक के सभी प्रमुख नेताओं की तस्वीरें थीं. 23 अक्टूबर को पटना में इंडिया ब्लॉक के नेताओं की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने विवाद पैदा कर दिया था क्योंकि बैनर में केवल तेजस्वी यादव की तस्वीर थी और गठबंधन के किसी अन्य नेता की नहीं.
घोषणापत्र जारी करने के अवसर पर इंडिया ब्लॉक के सभी प्रमुख नेता मौजूद थे. वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व किया, जबकि सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, वीआईपी पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी और इंडिया ब्लॉक के अन्य नेता भी मौजूद थे. खेड़ा और यादव ने कहा कि लोकसभा में विपक्ष के नेता, राहुल गांधी, बुधवार को बिहार चुनावों के लिए इंडिया ब्लॉक के अभियान में शामिल होंगे.
‘दोस्ताना लड़ाइयों की महंगी कीमत
कांग्रेस, राजद, सीपीआई और वीआईपी के बीच टकराव
बिहार में चुनाव बहुत कम अंतर से तय होते हैं - 2020 में एनडीए और विपक्षी गठबंधन के बीच वोट शेयर का अंतर सिर्फ 0.03% और 15 सीटों का था. ऐसे में 11 सीटों पर सहयोगियों के बीच ‘दोस्ताना लड़ाई’ एक निर्णायक कारक हो सकती है. इन 11 सीटों पर महागठबंधन के घटक दल ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में लालमणि वर्मा के मुताबिक कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) पांच सीटों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हैं. वैशाली में, जहां जदयू के सिद्धार्थ पटेल मौजूदा विधायक हैं, कांग्रेस ने अपने पिछले उम्मीदवार संजीव सिंह को फिर से मैदान में उतारा है, जबकि राजद ने अजय कुमार कुशवाहा को टिकट दिया है. कुशवाहा 2020 में लोजपा उम्मीदवार के तौर पर तीसरे स्थान पर रहे थे. इसी तरह, कहलगांव, नरकटियागंज, सिकंदरा और सुल्तानगंज में भी कांग्रेस और राजद के उम्मीदवार आमने-सामने हैं. कहलगांव सीट कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करती थी, जिसे दिग्गज नेता सदानंद सिंह नौ बार जीत चुके थे.
कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) चार सीटों पर ‘दोस्ताना लड़ाई’ में हैं. बेगूसराय ज़िले की बछवाड़ा सीट पर, पिछले चुनाव में सीपीआई के अवधेश कुमार राय भाजपा के सुरेंद्र मेहता से सिर्फ 484 वोटों से हार गए थे. इस बार, कांग्रेस ने बिहार युवा कांग्रेस अध्यक्ष शिव प्रकाश ग़रीब दास को मैदान में उतारा है. बिहारशरीफ़, राजापाकर और करगहर में भी दोनों पार्टियां एक-दूसरे का सामना कर रही हैं.
राजद और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के बीच भी दो सीटों पर टकराव है. दरभंगा की गौरा बौराम सीट पर वीआईपी अध्यक्ष संतोष सहनी उम्मीदवार हैं, जो पार्टी संस्थापक मुकेश सहनी के छोटे भाई हैं, जबकि राजद ने अपने पिछले उम्मीदवार अफ़ज़ल अली खान को फिर से टिकट दिया है. इसी तरह, कैमूर की चैनपुर सीट पर भी दोनों दलों के उम्मीदवार मैदान में हैं.
हालांकि, स्थिति और भी बिगड़ सकती थी अगर आख़िरी समय में सहयोगियों के बीच समझौता नहीं होता. कांग्रेस ने लालगंज, प्राणपुर और वारसलीगंज में अपने उम्मीदवार वापस ले लिए, जहां राजद चुनाव लड़ रहा है. इसी तरह, राजद और कांग्रेस के बीच रोसेरा में भी सीधा मुक़ाबला होने वाला था, लेकिन वाम दल के उम्मीदवार का नामांकन जांच के दौरान ख़ारिज हो गया.
राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा कि इन 11 ‘दोस्ताना लड़ाइयों’ का विपक्ष की चुनावी संभावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उन्होंने दावा किया कि “सभी 243 सीटों पर लोग तेजस्वी यादव जी को वोट देंगे.” वहीं, वीआईपी प्रवक्ता देबज्योति ने दावा किया कि राजद उम्मीदवार चैनपुर और गौरा बौराम दोनों में उनकी पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे. जब कांग्रेस और राजद के बीच नौ सीटों पर टकराव के बारे में पूछा गया, तो राज्य कांग्रेस प्रवक्ता ज्ञान रंजन ने इसे विपक्षी गठबंधन का “रणनीतिक क़दम” बताया. लेकिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि इन सीटों पर लड़ाई काफ़ी “ग़ैर-दोस्ताना” होगी.
नीतीश, लालू और एक बार फिर जनता के बीच जाने का समय
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, 74, और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू प्रसाद, 77, लगभग पांच दशकों से बिहार की राजनीति के केंद्र में रहे हैं. उनकी यात्रा 1970 के दशक के जयप्रकाश नारायण (जेपी) आंदोलन में साथियों के रूप में शुरू हुई, जहां उन्होंने आपातकाल के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और समाजवादी आदर्शों का समर्थन किया. इन वर्षों में, उनके रास्ते अलग हुए, वे फिर से साथ आए और बार-बार बिहार के राजनीतिक परिदृश्य को नया आकार दिया - कभी प्रतिद्वंद्वी के रूप में, कभी सहयोगी के रूप में, लेकिन हमेशा इन दशकों में प्रमुख हस्तियों के रूप में. हिंदू नें वर्गीज़ के जॉर्ज ने दोनों नेताओं के लंबे सफरनामे पर विस्तार से लिखा है.
आज, बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य ने दोनों नेताओं को सक्रिय राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया है, हालांकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए हैं. इस साल बिहार में विधानसभा चुनाव संभवतः आख़िरी चुनाव होगा जिसमें नीतीश और लालू प्रसाद मुख्य पात्र होंगे. उनका आसन्न प्रभाव कम होना केवल दो उम्रदराज नेताओं का सुर्खियों से हटना नहीं है; यह उस राजनीतिक युग की समाप्ति का प्रतीक है जिसे उन्होंने ख़ुद आकार दिया और बनाए रखा.
नीतीश और लालू दोनों ने पहले ही अपनी-अपनी पार्टियों का नियंत्रण सौंप दिया है. तेजस्वी प्रसाद यादव राजद का नेतृत्व करने के लिए श्री प्रसाद के चुने हुए उत्तराधिकारी हैं, लेकिन उनके भाई-बहन आसानी से यह पद नहीं छोड़ रहे हैं. वहीं, नीतीश मुख्यमंत्री तो हैं, लेकिन यह मानना मुश्किल है कि वह प्रभारी हैं. उनके सार्वजनिक बयानों और आचरण ने पर्यवेक्षकों को यह निष्कर्ष निकालने पर मजबूर कर दिया है कि श्री कुमार डिमेंशिया से जूझ रहे हैं.
बिहार में पिछले आधी सदी में इन दो प्रमुख पात्रों के बीच रुक-रुक कर हुए संघर्षों और गठबंधनों में एक तीसरा सहायक नेता भी था - रामविलास पासवान - जिनका 2020 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले निधन हो गया. लालू, नीतीश और रामविलास की तिकड़ी बिहार में दलित और पिछड़ी राजनीति के विभिन्न पहलुओं का चेहरा थी.
सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल (यूनाइटेड) कर रहे हैं, जबकि विपक्षी महागठबंधन में राजद और कांग्रेस प्रमुख भागीदार हैं. इन दोनों गुटों के बाहर, कम से कम दो प्रमुख खिलाड़ी हैं जो इस साल निर्णायक प्रभाव डाल सकते हैं - असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली एआईएमआईएम और प्रशांत किशोर का राजनीतिक स्टार्टअप जन सुराज.
कुमार 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने अपनी सुविधा के अनुसार गठबंधन बदले हैं, जिसे बाहरी पर्यवेक्षक अवसरवाद के रूप में देख सकते हैं, लेकिन उनका मुख्य मतदाता वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), इसे अपने हितों को सुरक्षित करने की एक आवश्यक क्षमता के रूप में देखता है. 2023 में राज्य सरकार द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार की आबादी में 36.01% ईबीसी और 27.12% अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) हैं. यादवों के प्रभुत्व वाली राजद के मुक़ाबले, नीतीश ने शेष पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को अपने जनता दल (यूनाइटेड) के मंच के पीछे एकजुट रखा है.
जैसे-जैसे कुमार और प्रसाद राजनीति में कम सक्रिय होंगे, उनके प्रभाव में रहने वाली आबादी ढीली पड़ सकती है और नए राजनीतिक विकल्पों के लिए खुल सकती है. कांग्रेस को उम्मीद है कि सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रति उसका नया उत्साह उसे बिहार में ओबीसी और ईबीसी के बीच स्वीकार्य बना सकता है. वहीं भाजपा हिंदू एकीकरण, जो जातिगत निष्ठा को कमज़ोर करता है, के साथ-साथ ओबीसी और ईबीसी को अपने चुनावी डिजाइनों में अधिक प्रतिनिधित्व देने और कल्याणकारी योजनाओं की एक टोकरी पेश करने की उम्मीद कर रही है. एक मंडल-पश्चात राजनीति की प्रकृति और चरित्र अभी भी अस्पष्ट हैं, लेकिन इस साल के विधानसभा चुनावों के नतीजों में इसके संकेत दिखाई देंगे.
पहले चरण के 32% उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले
द हिंदू के मुताबिक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के एक विश्लेषण के अनुसार, आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में लगभग 32% उम्मीदवारों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं. इनमें से 27% पर हत्या और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामले हैं.
एडीआर और बिहार इलेक्शन वॉच द्वारा यह विश्लेषण बिहार चुनाव के पहले चरण में चुनाव लड़ रहे 1,314 में से 1,303 उम्मीदवारों के स्व-शपथ पत्रों के आधार पर किया गया है. विश्लेषण किए गए 1,303 उम्मीदवारों में से 423 (32%) ने अपने ऊपर आपराधिक मामले होने की घोषणा की है. जबकि 354 (27%) उम्मीदवारों ने अपने ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक़, 33 उम्मीदवारों पर हत्या से संबंधित मामले हैं और 86 उम्मीदवारों ने हत्या के प्रयास के मामले घोषित किए हैं. कुल 42 उम्मीदवारों ने महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध से संबंधित मामले घोषित किए हैं, जिनमें से दो उम्मीदवारों ने बलात्कार से जुड़े मामले घोषित किए हैं.
जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, सीपीआई (एमएल) के पास आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की संख्या सबसे ज़्यादा (93%) है, इसके बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) (76%) और फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (65%) का स्थान है.
प्रमुख दलों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो, जन सुराज पार्टी के 114 में से 50 (44%), बसपा के 89 में से 18 (20%), राजद के 70 में से 53 (76%), जद(यू) के 57 में से 22 (39%), भाजपा के 48 में से 31 (65%), आप के 44 में से 12 (27%), कांग्रेस के 23 में से 15 (65%), सीपीआई(एमएल)(एल) के 14 में से 13 (93%), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के 13 में से 7 (54%), सीपीआई के 5 में से 5 (100%) और सीपीआई(एम) के 3 में से 3 (100%) उम्मीदवारों ने अपने हलफ़नामों में अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं. यह रिपोर्ट 28 अक्टूबर, 2025 को प्रकाशित हुई.
पीके का नाम दो राज्यों की सूची में, नोटिस
द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा यह रिपोर्ट किए जाने के कुछ घंटों बाद कि प्रशांत किशोर का नाम दो राज्यों - पश्चिम बंगाल और बिहार - की मतदाता सूचियों में दर्ज है, करगहर विधानसभा क्षेत्र के निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें नोटिस जारी कर तीन दिनों के भीतर स्पष्टीकरण मांगा है.
सासाराम के भूमि राजस्व उप समाहर्ता सह निर्वाचन अधिकारी, करगहर विधानसभा क्षेत्र द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस में एक्सप्रेस की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है और कहा गया है: “लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 17 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्र में पंजीकृत नहीं होगा. उल्लंघन के मामले में, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 31 के तहत एक वर्ष के कारावास या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. इसलिए, आपको अपना नाम एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्र में शामिल होने के संबंध में तीन दिनों के भीतर अपना पक्ष प्रस्तुत करना होगा.”
जैसा कि द इंडियन एक्सप्रेस ने सबसे पहले रिपोर्ट किया था, बंगाल में, उनका पता 121 कालीघाट रोड के रूप में सूचीबद्ध है, जो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विधानसभा क्षेत्र भवानीपुर में तृणमूल कांग्रेस का कार्यालय है. बिहार में, वह सासाराम संसदीय क्षेत्र के तहत करगहर विधानसभा क्षेत्र में एक मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं. कोનાર किशोर का पैतृक गांव है.
हालांकि किशोर ने टिप्पणी के लिए कॉल और संदेशों का जवाब नहीं दिया, लेकिन उनकी टीम के एक वरिष्ठ सदस्य ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया था कि वह बंगाल चुनाव के बाद बिहार में मतदाता बने थे. उन्होंने कहा कि किशोर ने अपना बंगाल मतदाता कार्ड रद्द करने के लिए आवेदन किया है, लेकिन आवेदन की स्थिति पर विस्तार से नहीं बताया.
नियमों के अनुसार, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 17 के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए मतदाता सूची में पंजीकृत होने का हकदार नहीं होगा.” एक से अधिक स्थानों पर मतदाताओं का नामांकित होना कोई दुर्लभ बात नहीं है. वास्तव में, चुनाव आयोग ने इसे देश में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) आयोजित करने के अपने निर्णय के कारणों में से एक बताया था, जिसकी शुरुआत बिहार से हुई थी.
चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर विपक्ष के सवालिया निशान
विपक्ष ने मंगलवार को मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) के दूसरे चरण को एक ‘लोकतांत्रिक मज़ाक’ बताया, जो आगामी चुनावों में हेरफेर कर सकता है. वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने कहा कि केंद्रीय चुनाव निकाय ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. पटना पहुंचने पर खेड़ा ने कहा, “बिहार में एसआईआर के दौरान आई कठिनाइयों का क्या हुआ? बिहार में एसआईआर के दौरान हमारे द्वारा उठाए गए मुद्दों पर हम चुनाव आयोग से जिन जवाबों की उम्मीद कर रहे हैं, उनका क्या हुआ? इसमें सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा… सच तो यह है कि चुनाव आयोग ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है.” खेड़ा ने प्रक्रिया पर स्पष्टता की भी मांग की: “चुनाव आयोग को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वह और राज्यों में एसआईआर आयोजित करते समय 2003 के दिशानिर्देशों का पालन करेगा.”
चुनावों का सामना कर रहे केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने चुनाव आयोग के इस फ़ैसले को “लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक गंभीर चुनौती” बताया. विजयन ने आरोप लगाया कि इस क़दम ने “चुनाव पैनल के इरादों पर संदेह पैदा किया है” और चेतावनी दी कि यह चुनावी प्रणाली में जनता के विश्वास को कमज़ोर कर सकता है. एसआईआर 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किया जाएगा, जिसमें बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे तीन चुनावी राज्य भी शामिल हैं. विजयन ने कहा कि मौजूदा सूचियों के बजाय 2002 से 2004 की मतदाता सूचियों का उपयोग करना लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियम, 1960 का उल्लंघन होगा.
कांग्रेस के संदीप दीक्षित ने कहा कि चुनाव आयोग एक आरएसएस सदस्य के रूप में काम कर रहा है. “विपक्ष ने सबूत पेश किए कि आपके सभी सिस्टम विफल हो रहे हैं. लेकिन आप इस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं... जहां भी चुनाव आयोग द्वारा एसआईआर या हस्तक्षेप किया जाता है, और वोट प्रतिशत ऊपर या नीचे जाता है, तो इसका फ़ायदा सत्तारूढ़ दल को होता है.” टीएमसी नेता कुणाल घोष ने कहा, “हम पारदर्शी मतदाता सूची के पक्ष में हैं. अगर किसी वैध मतदाता को परेशान करने का कोई प्रयास किया जाता है, तो हम इसका विरोध करेंगे.”
इसके जवाब में, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने टीएमसी पर “केवल मुस्लिम वोट पाने के लिए” एसआईआर का विरोध करने का आरोप लगाया. बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी ने एसआईआर को हाल के प्रशासनिक फेरबदल से जोड़ा और कहा कि टीएमसी डरी हुई है. वहीं महाराष्ट्र में, जहां विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर वोट चोरी का आरोप लगाया है, भाजपा नेता चंद्रशेखर बावनकुले ने मतदाता सूचियों में तार्किक मुद्दों का हवाला दिया. उन्होंने कहा, “मतदाता सूचियों में, नाम कई बार जुड़ जाते हैं, लेकिन हटाए नहीं जाते. जब तक चुनाव आयोग उच्च न्यायालय में याचिका दायर नहीं करता और घर-घर जाकर सत्यापन नहीं करता, मतदाता सूची सटीक नहीं होगी.”
वर्ली में 19,333 फ़र्ज़ी मतदाताओं का आदित्य ठाकरे का दावा
शिवसेना (यूबीटी) के वर्ली विधायक आदित्य ठाकरे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी से प्रेरणा लेते हुए अपने निर्वाचन क्षेत्र में 19,333 संदिग्ध मतदाताओं का पता लगाने का दावा किया है. सोमवार को अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक प्रेजेंटेशन देते हुए, आदित्य ने कहा कि चुनाव आयोग विपक्ष के आरोपों को नहीं सुन रहा है. आदित्य ने कहा, “चुनाव आयोग ने केवल मतदाता सूचियों को शुद्ध करने के अपने कर्तव्य का पालन न करके चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली की अनुमति दी है. हमने वर्ली में मतदाता धोखाधड़ी का पर्दाफ़ाश किया, जहां हमने अपने चुनाव के बाद के अध्ययन में 19,333 मतदाता विसंगतियां पाई हैं. अगर यह मेरे निर्वाचन क्षेत्र में मामला है, तो सोचिए कि मौजूदा सरकार में बैठे लोगों ने पूरे राज्य में कितना वोट फ्रॉड किया होगा.”
उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, “यह कोई गलती नहीं बल्कि धोखाधड़ी है.” आदित्य ने कहा कि वर्ली में मतदाता सूचियों के एक अध्ययन से डुप्लीकेट प्रविष्टियां, बेमेल नाम और बिना फ़ोटो वाले मतदाता सामने आए हैं. उन्होंने बताया कि मई 2024 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान वर्ली विधानसभा क्षेत्र में 2,52,970 मतदाता थे. नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों में यह संख्या बढ़कर 2,63,352 हो गई, जिसमें 16,043 वोटों की वृद्धि हुई, जबकि 5,661 नाम हटा दिए गए. आदित्य 2019 में वर्ली सीट 67,427 वोटों के अंतर से जीते थे. पांच साल बाद उनका अंतर घटकर 8,801 रह गया. उन्होंने दावा किया कि 502 मतदाता ऐसे हैं जिनके पिता/रिश्तेदार का नाम और मतदाता का नाम एक ही है. 643 मतदाताओं में लिंग का बेमेल पाया गया, जबकि 28 मतदाता ऐसे हैं जिनके पास ईपीआईसी (EPIC) नंबर नहीं हैं.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने मंगलवार को इस रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि उन्हें महाराष्ट्र का ‘पप्पू’ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. फडणवीस ने कहा, “मैं आदित्य को जानता हूं और उनसे ‘पप्पुगिरी’ करने की उम्मीद नहीं थी. कल उनका प्रेजेंटेशन (कांग्रेस सांसद) राहुल गांधी के पहले किए गए प्रेजेंटेशन की नकल था. उन्हें (आदित्य को) महाराष्ट्र का पप्पू बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. विपक्ष जो कुछ भी कर रहा है वह कवर फायरिंग है.” फडणवीस ने आगे कहा, “वे जानते हैं कि हार निश्चित है और लोग उनके साथ नहीं हैं. उनका आचरण लोकतंत्र का मज़ाक है.” अगस्त में, राहुल गांधी ने भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता-सूची डेटा पर एक प्रेजेंटेशन दिया था, जिसे चुनाव आयोग और भाजपा दोनों ने लगातार नकारा है.
भाजपा विधायक का आरोप, गुजरात प्रशासन खाद्य मिलावट पर आंखें मूंद रहा है
भाजपा विधायक कुमार कनानी ने गुजरात की स्वास्थ्य मशीनरी पर “थाली में ज़हर” पर आंखें मूंदने का आरोप लगाया है, जो राज्य भर में बड़े पैमाने पर हो रही खाद्य मिलावट की ओर इशारा करता है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक अपनी ही पार्टी पर निशाना साधते हुए, कनानी ने आरोप लगाया कि गुजरात प्रशासन “मूक दर्शक” बना हुआ है, जबकि खाद्य मिलावट राज्य में एक महामारी की तरह फैल रही है.
स्वास्थ्य मंत्री प्रफुल पानसेरिया को लिखे एक पत्र में, कनानी ने मिलावट माफ़िया के ख़िलाफ़ क़ानून और सख़्त कार्रवाई की मांग की और चेतावनी दी कि “जो लोग भोजन में ज़हर मिलाते हैं वे आतंकवादियों से कम नहीं हैं.”
पूर्व स्वास्थ्य मंत्री कनानी ने स्वास्थ्य मंत्री पानसेरिया को एक विस्तृत पत्र लिखा, जिसमें उनसे मिलावट माफ़िया के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का आग्रह किया गया. कनानी ने लिखा, “सिस्टम ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह लोगों के भोजन में मिलाए जा रहे ज़हर से अंधा हो.” उन्होंने आगे कहा कि कैसे खाद्य मिलावट के माध्यम से लाखों लोगों को ज़हर बेचने वाले लोग बिना किसी परिणाम के आज़ाद घूमते हैं.
अपने पत्र में, कनानी ने लिखा कि कैसे नकली घी, नकली पनीर, दूषित मसाले और मिलावटी तेल गुजरात के बाज़ारों में भरे पड़े हैं, जो छोटी डेयरियों और किराना दुकानों के माध्यम से दूर-दराज के गांवों तक पहुंच रहे हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि अपराधी अक्सर कुछ हज़ार रुपये का जुर्माना देकर छूट जाते हैं और फिर से अपना धंधा शुरू कर देते हैं.
उन्होंने लिखा, “जो लोग भोजन में मिलावट करते हैं या नकली दवाएं बनाते हैं, उनमें कोई डर नहीं है.” उन्होंने आगे कहा, “जो लोग लोगों के भोजन में ज़हर मिलाते हैं, वे व्यापारी नहीं हैं; वे खामोश आतंकवादी हैं. वे हर दिन निर्दोषों को मार रहे हैं.” उन्होंने मांग की कि राज्य कठोर दंड के साथ सख़्त, लागू करने योग्य क़ानून बनाए, क्योंकि केवल प्रशासनिक जुर्माने माफ़िया को रोकने में विफल रहे हैं.
कनानी ने पानसेरिया को याद दिलाया कि उन्होंने यह मुद्दा मुख्यमंत्री, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री ऋषिकेश पटेल और यहां तक कि विधानसभा के अंदर भी कई बार उठाया था, लेकिन बहुत कम बदलाव हुआ है. विधायक का यह पत्र ऐसे समय में आया है जब गुजरात भर में खाद्य निरीक्षकों ने हाल ही में नकली घी, तंबाकू, मसाले और इंस्टेंट नूडल्स ज़ब्त किए हैं, जिससे नकली उत्पादन के एक विशाल भूमिगत नेटवर्क का पर्दाफ़ाश हुआ है.
योगी ने वही काम किया, जो वह सबसे अच्छा करते हैं- नाम बदल दिया
योगी आदित्यनाथ फिर से वही कर रहे हैं, जो वह सबसे अच्छा करते हैं- “मुस्लिमों को निशाना बनाना.” यहां, वह उन स्थानों के नामों की एक लंबी सूची पढ़ रहे हैं, जिन्हें उन्होंने बदलने के लिए प्रेरित किया है, जिनमें नवीनतम मुस्तफाबाद गांव है, जिसे जल्द ही दूसरे नाम से जाना जाएगा, उन्होंने मंच से ही ऐलान किया. ‘एनडीटीवी’ के मुताबिक, योगी ने कहा, “इन लोगों ने अयोध्या को फैजाबाद किया था और प्रयागराज को इलाहाबाद किया था. हमने इसे बदला है. पहले पैसा कब्रिस्तान की बाउंड्री में जाता था, हमने इसे बदला है.”
मोदी नहा सकें, इसलिए गंदी यमुना में एक साफ क्षेत्र बनाया
यमुना नदी गंदी है, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में नई भाजपा सरकार इसके पानी को जल्द साफ करने की अपनी क्षमता के बारे में बड़े-बड़े दावे कर रही है. आम आदमी पार्टी – जिसने सत्ता में रहते हुए यमुना के स्वास्थ्य के लिए कुछ खास नहीं किया – का आरोप है कि छठ पूजा के लिए नरेंद्र मोदी के स्नान हेतु एक साफ क्षेत्र बनाया गया है और जब “आज तक” की एक रिपोर्टर ने मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के साथ (कुछ हद तक आधे-अधूरे मन से) यह मुद्दा उठाया, तो उन्होंने इस आरोप से इनकार नहीं किया, ‘ऑल्ट न्यूज’ के मोहम्मद ज़ुबेर ने एक पोस्ट में लिखा.
भारत का सबसे मूल्यवान निर्यात: करोड़ों श्रमिक
भारत में सक्षम-शरीर वाले श्रमिकों की अत्यधिक आबादी है, जो यहां के रोज़गार प्रदाताओं की क्षमता से करोड़ों अधिक है. जबकि कई अन्य देशों में इसके विपरीत समस्या है. श्रमिकों की तुलना में नौकरियां अधिक हैं. “द न्यूयॉर्क टाइम्स” के अनुसार, इस असंतुलन ने मानव प्रतिभा को भारत के सबसे मूल्यवान निर्यातों में से एक में बदल दिया है. ग्लोबल एक्सेस टू टैलेंट फ्रॉम इंडिया फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अर्नब भट्टाचार्य ने अनुमान लगाया कि देश वर्तमान में हर साल लगभग 700,000 श्रमिकों को विदेश भेजता है – एक संख्या जो, उनका मानना है कि, 2030 तक दोगुनी होकर 1.5 मिलियन (15 लाख) हो सकती है.
अखबार लिखता है कि भारतीय सरकार और व्यावसायिक क्षेत्र में अधिक श्रमिकों का निर्यात शुरू करने के लिए एक आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा है. इस विचार को, जिसे अर्थशास्त्री’ श्रम गतिशीलता’ कहते हैं, इसका उद्देश्य है- युवा भारतीयों को उन स्थानों की कंपनियों से जोड़ना जहां आबादी घट रही है और श्रमिकों की कमी विकास को रोक रही है. लेकिन, भारत और उसके विदेशी साझेदारों के लिए चुनौती यह है कि कई देशों में आप्रवासन का विरोध बढ़ रहा है. अधिकारी ऐसी नीतियां बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे भारतीय श्रमिकों को तेज़ी से विदेशों में भेजना आसान हो, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि उनके पास वापस घर लौटने के लिए व्यावहारिक रास्ते मौजूद हों.
ईडब्ल्यूएस: छात्रों का नामांकन बढ़ा, लेकिन पद और पैसा नहीं बढ़ा रही सरकार
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा लागू होने के बाद छात्रों के नामांकन में हुई वृद्धि को संभालने के लिए अतिरिक्त पदों और धन के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के दो साल पुराने अनुरोध पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है. “द टेलीग्राफ” में बसंत कुमार मोहंती की रिपोर्ट है कि मोदी सरकार ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को एक ऐतिहासिक सुधार के रूप में बढ़ावा दिया था, लेकिन दो साल बाद भी, इसे व्यावहारिक बनाने के लिए आवश्यक वित्तीय और संस्थागत सहायता प्रदान करने में विफल रही है.
इंसाफ़ के घर देर है पर अंधेर नहीं, मेरे वीडियो से गलत संदर्भ निकालकर जानबूझकर गलत अनुवाद किया : वांगचुक
जेल में बंद पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की पत्नी और सामाजिक उद्यमी गीतांजलि जे. अंगमो ने “एक्स” पर लिखा है कि वांगचुक ने लेह प्रशासन द्वारा गठित सलाहकार बोर्ड के समक्ष यह अभ्यावेदन दिया है कि उनके बयानों को उनके वीडियो से गलत संदर्भ निकालकर और जानबूझकर गलत अनुवाद करके उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत हिरासत में लिया गया. तीन सदस्यीय सलाहकार बोर्ड ने 24 अक्टूबर को जोधपुर केंद्रीय जेल में वांगचुक की सुनवाई की थी, इसी दौरान कथित तौर पर वांगचुक ने अपना अभ्यावेदन दिया. ख़बरों के अनुसार, सुनवाई में लगभग तीन घंटे लगे. अंगमो ने लिखा, “उन्होंने अपना अभ्यावेदन दिया कि कैसे उनके शब्दों, बयानों और विचारों को उनके वीडियो से संदर्भ से बाहर निकालकर, गैरकानूनी रूप से उन्हें एनएसए के तहत हिरासत में लिया गया , कैसे अनुवादक ने जानबूझकर उनके बयानों को गलत ढंग से अनुवादित किया और कैसे सीआरपीएफ, लद्दाख पुलिस, और निरुद्देश्य व्यक्तियों के बीच हुई बेतरतीब और स्वतंत्र झड़पों को (वांगचुक से) जोड़ा गया.” इससे पहले, अंगमो ने आरोप लगाया था कि केंद्रीय एजेंसियां उनका पीछा कर रही थीं और उनकी निजता का उल्लंघन कर रही थीं. एक हलफनामे में, उन्होंने कहा था कि जेल यात्राओं के दौरान उन्हें निगरानी में रखा गया था और पुलिस द्वारा उनकी बातचीत रिकॉर्ड की गई थी. “यह न्याय और भारतीय लोकतंत्र का उपहास है. लेकिन वह अविचलित हैं और सभी को संदेश देते हैं कि ‘इंसाफ के घर देर है पर अंधेर नहीं’, इस बात को दृढ़ता से दोहराते हुए कि- “सत्यमेव जयते, सत्य की जीत होगी.”
जम्मू-कश्मीर में बीजेपी पर वोट चोरी का आरोप, विधानसभा में हंगामा
जम्मू-कश्मीर प्रदेश ईकाई के भाजपा अध्यक्ष द्वारा विधानसभा में अपनी पार्टी के 28 विधायकों के होने के बावजूद 32 वोटों से राज्यसभा सीट जीतने का विवाद विधानसभा में भी छाया रहा, जहां बीजेपी पर ‘वोट चोरी’ के आरोप लगाए गए. “द वायर” के मुताबिक, तथ्य यह है कि जम्मू-कश्मीर भाजपा अध्यक्ष सत शर्मा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार इमरान नबी डार को अपनी पार्टी की ताकत से चार अधिक वोटों से हराया. उनकी जीत यह बताती है कि विधायकों ने शर्मा की मदद करने के लिए जानबूझकर क्रॉस-वोटिंग की या अपने वोटों को अमान्य कर दिया. डार को सिर्फ 21 वोट मिले.
“मोदी एक दिव्य आदेश से धरती पर आए हैं”
महाराष्ट्र के राज्यपाल आचार्य देवव्रत के लिए, नरेंद्र मोदी केवल भारत के प्रधानमंत्री नहीं हैं बल्कि “एक विचार”, “एक आध्यात्मिक शक्ति” और “इस देश की प्रतिष्ठा” हैं जो “एक दिव्य आदेश से आए हैं.” वकील बर्जिस देसाई की नई किताब ‘मोदीज मिशन’ के विमोचन पर अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का हवाला देते हुए, राज्यपाल ने आगे प्रशंसा की, “इसके पीछे एक दिव्य आदेश है; निस्वार्थ व्यक्ति का जीवन, जिसमें केवल परोपकार और लोक कल्याण की भावना हो. एक ऐसा व्यक्ति जिसके इस धरती पर आगमन पर हर व्यक्ति को गर्व होना चाहिए.”
लोग ईसाई बन रहे हैं, लेकिन आरक्षण के लिए रिकॉर्ड में हिंदू बने रहते हैं
विश्व हिंदू परिषद के एक महासचिव मिलिंद परांडे ने दावा किया है कि कई लोग ईसाई बन रहे हैं, लेकिन “आरक्षण का लाभ लेते रहने की इच्छा के कारण अपने नाम या आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं बदलते हैं.” उन्होंने कहा कि उनके धर्मांतरण की जानकारी केवल चर्च को है, सरकार को नहीं. एक अन्य टिप्पणी में उन्होंने भारतीय युवाओं को नशीली दवाओं का आदी बनाने की साजिश का आरोप लगाया. ‘पीटीआई’ ने उनके हवाले से कहा कि बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी लगभग 10,000 ब्लॉकों में “युवाओं को नशीली दवा विरोधी गतिविधियों में शामिल” करने की योजना बना रहे हैं.
एमपी में सोयाबीन किसान परेशान, उचित दाम नहीं मिल रहे
देश के सोयाबीन उत्पादन का 40% हिस्सा होने के बावजूद, मध्यप्रदेश देश में इस फसल का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन कई मुद्दों ने राज्य के किसानों के मुंह का स्वाद बिगाड़ दिया है. उन्हें अपनी फसल एमएसपी से कम कीमतों पर बेचनी पड़ रही है, बीज की खराब गुणवत्ता और अमेरिका से सस्ते सोयाबीन और सोयामील आयात का खतरा मंडराता जा रहा है. “द हिंदू” में ए.एम. जिगीश ने सोयाबीन पैदा करने वाले किसानों के बारे में विस्तार से रिपोर्ट किया है.
भारतीय वंश का छठा स्रोत ईरान से जुड़ा, कोरगास का आदि-द्रविड़ वंश 4,400 साल पुराना है
एक उल्लेखनीय और आकर्षक सफलता में, वैज्ञानिकों ने भारत की आनुवंशिक संरचना में एक छठे पैतृक स्रोत का पता लगाया है– यह एक आदि-द्रविड़ वंश है जो लगभग 4,400 साल पहले ईरानी पठार से शुरुआती द्रविड़-भाषी लोगों से जुड़ा है. यह खोज तटीय कर्नाटक और केरल की एक आदिम और कमजोर जनजाति कोरगास के अध्ययन से सामने आई. मैंगलोर में येनेपोया विश्वविद्यालय के जनसंख्या आनुवंशिकीविद् और एसोसिएट प्रोफेसर रणजीत दास ने “द टेलीग्राफ” को बताया, “कोरगास इस खोज की कुंजी थे – हमें उनमें सबसे पहले आदि-द्रविड़ पैतृक घटक मिला.” “बाद के विश्लेषणों से पता चलता है कि यह अन्य भारतीय आबादी में भी मौजूद है.” मैंगलोर विश्वविद्यालय और स्विट्जरलैंड के बर्न विश्वविद्यालय के सहयोगियों के साथ किए गए अध्ययन में पाया गया कि यह आदि-द्रविड़ वंश आधुनिक भारतीय जीनोम का लगभग 20% है, जो दक्षिण एशिया के प्राचीन जनसंख्या इतिहास की समझ को फिर से आकार देता है.
पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र ‘चुप्पी के हलफ़नामे’ का कर रहे विरोध
पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ ने सभी नए छात्रों के लिए एक ग्यारह-सूत्रीय हलफ़नामा अनिवार्य कर दिया है, जिसमें कुछ शर्तें शामिल हैं जैसे किसी भी विरोध, धरना या रैली के आयोजन के लिए पूर्व अनुमति लेना, केवल अपनी वास्तविक और न्यायोचित शिकायतों के निपटारे के लिए विरोध प्रदर्शन करना, और इन शर्तों के बार-बार उल्लंघन के मामले में अधिकारियों द्वारा परीक्षा से वंचित करने या प्रवेश रद्द करने की स्वतंत्रता. जब से ये नियम लागू हुए हैं, छात्र इनका विरोध कर रहे हैं और उन्होंने इसे अपनी अकादमिक और संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए उच्च न्यायालय का दरवाज़ा भी खटखटाया है.
11 नवंबर को, छात्र नेता अर्चित गर्ग की याचिका पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में एक नई सुनवाई होगी. गर्ग की याचिका में प्रशासन के हलफ़नामे के पीछे दुर्भावनापूर्ण इरादे का आरोप लगाया गया है: यह छात्रों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ शांतिपूर्वक इकट्ठा होने और विरोध करने के उनके अधिकार को दबा रहा है. जहां विश्वविद्यालय का कहना है कि हलफ़नामे में दी गई शर्तों पर हस्ताक्षर करना परिसर में अनुशासन सुनिश्चित करने और अकादमिक माहौल में व्यवधान को रोकने के लिए एक आवश्यक क़दम है, वहीं छात्रों का कहना है कि यह संस्थागत नियंत्रण की बढ़ती सीमाओं को दर्शाता है, जो उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन करता है.
यह अनिवार्य हलफ़नामा जून में सामने आया था. माना जाता है कि इस विवाद की जड़ें पिछले साल की घटनाओं में हैं, जब छात्रों ने विश्वविद्यालय की मुख्य शासी निकाय - सीनेट - के पुनरुद्धार की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू किया था. विश्वविद्यालय का आरोप है कि छात्रों ने कुलपति के कार्यालय के बाहर उपद्रव किया और उन्होंने इसे आयोजित करने की अनुमति नहीं मांगी थी, जिससे यह अवैध हो गया. इन परिस्थितियों में विश्वविद्यालय अधिकारियों ने छात्रों को नया हलफ़नामा पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करने का फ़ैसला किया.
विश्वविद्यालय ने अदालत में अपने जवाब में तर्क दिया है कि हलफ़नामा तुच्छ नहीं है, बल्कि छात्रों और उनके संघों द्वारा हिंसक आंदोलन, प्रदर्शनों और धरनों के इतिहास के कारण आवश्यक हो गया था. लेकिन पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र इससे सहमत नहीं हैं. 2 अक्टूबर को छात्रों ने हलफ़नामे की प्रतियां जलाकर दशहरा मनाया और इसे विश्वविद्यालय के भीतर “असली बुराई” करार दिया. राजनीति विज्ञान विभाग की एक छात्रा मनप्रीत कौर ने ‘द वायर’ को बताया कि हलफ़नामे की वैधता ही सवालों के घेरे में है, क्योंकि विश्वविद्यालय की सीनेट का अभी तक पुनर्गठन भी नहीं हुआ है. “इस दस्तावेज़ को सीनेट की मंज़ूरी के बिना लागू किया जा रहा है, जो पूरी प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक बनाता है.”
दुनिया के सबसे उम्रदराज़ विद्रोहियों में से एक की घर वापसी देखने वाला भारतीय गांव
पिछले हफ़्ते, भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के उखरुल की हरी-भरी पहाड़ियों पर एक हेलीकॉप्टर दिखाई दिया. जब यह सोमदल गांव के बाहर एक अस्थायी हेलीपैड पर उतरा, तब तक भीड़ गाना शुरू कर चुकी थी. जब दरवाज़ा खुला, तो भीड़ काले चश्मे और काले सूट पहने एक कमज़ोर आदमी की ओर बढ़ी. साठ साल से भी ज़्यादा समय के बाद, भारत के सबसे उम्रदराज़ विद्रोही थुइंगलेंग मुइवा घर लौटे थे.
बीबीसी न्यूज़ के सौतिक बिस्वास की रिपोर्ट है कि अब 91 वर्षीय, श्री मुइवा नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम (इसाक-मुइवा), या एनएससीएन (आई-एम) के महासचिव हैं, जो नागा विद्रोही गुटों में सबसे शक्तिशाली है, जिसने कभी एशिया के सबसे लंबे समय तक चलने वाले विद्रोहों में से एक में भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी. उनके समर्थक उन्हें एक अलग नागा राज्य की मांग के संरक्षक के रूप में देखते हैं - एक ऐसी मांग जिसे भारत ने कभी मान्यता नहीं दी. उनके आलोचक कुछ और याद करते हैं: एक ऐसा आंदोलन जिस पर लक्षित हत्याओं और “करों” के माध्यम से नागालैंड में एक समानांतर सरकार चलाने का आरोप है, जिसे कई लोग जबरन वसूली कहते हैं.
मुइवा 1964 में संप्रभुता के लिए नागा संघर्ष में शामिल होने के लिए इसी पहाड़ी गांव को छोड़कर चले गए थे - एक ऐसी यात्रा जो उन्हें उत्तरी म्यांमार के जंगलों, माओवादी चीन के वैचारिक शिविरों और दिल्ली की बातचीत की मेजों तक ले गई. 1997 में युद्धविराम के लिए जंगलों से बाहर आने के बाद, मुइवा दिल्ली और नागालैंड के हेब्रोन में एक विशाल शिविर में रहे हैं, जो एनएससीएन (आई-एम) के मुख्यालय के रूप में कार्य करता है.
नागा संघर्ष भारत से भी पुराना है. जैसे-जैसे सशस्त्र संघर्ष तेज़ होने लगा, भारत सरकार ने 1955 में सैनिक भेजे. इसके बाद दशकों का उग्रवाद, गुटीय विभाजन और युद्धविराम हुए. 1980 में, मुइवा और उनके साथियों इसाक चिशी स्वू और एस.एस. खापलांग ने एनएससीएन की स्थापना की. अपने चरम पर, एनएससीएन (आई-एम) इस क्षेत्र के सभी उग्रवादों की जननी थी. लेकिन एक अलग नागा ध्वज और संविधान की उनकी मांग एक बाधा बनी हुई है. 2020 में एक साक्षात्कार में, मुइवा ने पत्रकार करण थापर से कहा था: “नागा कभी भी भारतीय संघ का हिस्सा नहीं होंगे, न ही इसके संविधान को स्वीकार करेंगे.”
फिर भी पिछले एक दशक में, जैसे-जैसे मुइवा का स्वास्थ्य गिरा और आंदोलन दर्जनों गुटों में बिखर गया, एनएससीएन (आई-एम) का एक समय का दुर्जेय प्रभाव कम हो गया है. नागाओं की एक युवा पीढ़ी, जो नाकेबंदी और जबरन वसूली से थक चुकी है, अब तेज़ी से शांति और आर्थिक स्थिरता चाहती है. आलोचक मुइवा की वापसी को “खाली हाथ” कहकर ख़ारिज करते हैं, यह तर्क देते हुए कि “एक ऐसे व्यक्ति को महिमामंडित करने का कोई कारण नहीं है जो सभी मोर्चों पर नागाओं के लिए विफल रहा.” समर्थक मानते हैं कि वह युद्ध से थक चुके हैं, शांति के बारे में अनिश्चित हैं, और अभी भी उस राजनीतिक समझौते की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिसने उनके जीवन के संघर्ष को परिभाषित किया है.
बिल गेट्स का जलवायु परिवर्तन पर चौंकाने वाला दावा
“प्रलय” की बात करने वाले जलवायु कार्यकर्ता समुदाय को एक आश्चर्यजनक और महत्वपूर्ण जवाब देते हुए, कार्बन उत्सर्जन में कमी के एक प्रमुख प्रस्तावक, बिल गेट्स ने मंगलवार को एक उल्लेखनीय निबंध प्रकाशित किया जिसमें तर्क दिया गया कि संसाधनों को जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई से हटा दिया जाना चाहिए. इसके बजाय, गेट्स का तर्क है कि दुनिया के परोपकारियों को बीमारी और भूख को रोकने के उद्देश्य से अन्य प्रयासों में अपना निवेश बढ़ाना चाहिए.
सीएनएन के लिए डेविड गोल्डमैन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उन्होंने तर्क दिया कि जलवायु परिवर्तन मानवता को मिटाने वाला नहीं है, और शून्य कार्बन उत्सर्जन प्राप्त करने के पिछले प्रयासों ने वास्तविक प्रगति की है. लेकिन गेट्स ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में पिछले निवेश ग़लत जगह पर किए गए हैं, और बहुत सारा अच्छा पैसा महंगे और संदिग्ध प्रयासों में लगाया गया है. हालांकि गेट्स ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए निवेश जारी रहना चाहिए, उन्होंने तर्क दिया कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा यूएसएआईडी (USAID) में की गई कटौती एक अधिक ज़रूरी समस्या को उजागर करती है.
गेट्स ने लिखा, “जलवायु परिवर्तन, बीमारी और ग़रीबी सभी बड़ी समस्याएं हैं. हमें उनसे उस पीड़ा के अनुपात में निपटना चाहिए जो वे पैदा करती हैं.” उन्होंने आगे कहा, “हालांकि जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम होंगे - विशेष रूप से सबसे ग़रीब देशों के लोगों के लिए - यह मानवता के अंत का कारण नहीं बनेगा. यह उस मीट्रिक पर फिर से ध्यान केंद्रित करने का एक मौका है जो उत्सर्जन और तापमान परिवर्तन से भी ज़्यादा मायने रखना चाहिए: जीवन में सुधार करना.”
गेट्स का यह चौंकाने वाला निबंध अगले महीने के COP30, जलवायु परिवर्तन से लड़ने पर केंद्रित एक वैश्विक शिखर सम्मेलन से पहले आया है. गेट्स ने इस बात से इनकार किया कि उनकी नई स्थिति उनके पिछले रुख से उलट है. उन्होंने मंगलवार के निबंध में कहा कि दुनिया को शून्य कार्बन उत्सर्जन प्राप्त करने के अपने पिछले प्रयासों का समर्थन करना जारी रखना चाहिए. हालांकि, गेट्स ने सीएनबीसी के एंड्रयू रॉस सोर्किन को मंगलवार को एक साक्षात्कार में बताया कि जलवायु निवेश से पीछे हटना एक “बहुत बड़ी निराशा” थी, भले ही यह एक आवश्यक क़दम हो.
कुछ आलोचकों का तर्क है कि गेट्स का बदलाव एक झूठा द्वंद्व प्रस्तुत करता है: गेट्स अब जिस पीड़ा को प्राथमिकता बता रहे हैं, उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन का परिणाम है. पेन सेंटर फॉर साइंस, सस्टेनेबिलिटी एंड द मीडिया के निदेशक माइकल मान ने कहा, “विकासशील देशों के लिए जलवायु संकट से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है. उन्होंने यह सब उल्टा समझ लिया है.”
कलाकार ने 3.5 करोड़ मोतियों से लड़ाकू विमान को कलाकृति में बदला
कलाकार राल्फ ज़िमैन, जो आज लॉस एंजिल्स में रहते हैं, ने एक दशक से अधिक समय से हथियारों को अपने काम का केंद्र बनाया है, जिसमें युद्ध की कलाकृतियों को कलाकृतियों में बदलने के लिए करोड़ों हाथ से पिरोए गए मोतियों का उपयोग किया गया है. उनकी श्रृंखला “वेपन्स ऑफ़ मास प्रोडक्शन” हाल ही में ज़िमैन के अब तक के सबसे महत्वाकांक्षी काम के साथ समाप्त हुई: एक पूरा लड़ाकू विमान. सीएनएन ने इस पर फोटो गैलरी और लेख प्रकाशित किया है.
ज़िमैन कहते हैं, “मैं दुनिया भर में हथियारों के प्रसार और पुलिस बलों के सैन्यीकरण के बारे में बात करना चाहता हूं.” उन्होंने और 100 से अधिक कारीगरों की एक टीम ने इस कलाकृति को पूरा करने में पांच साल से अधिक का समय लिया, जिसे इस गर्मी में सिएटल के द म्यूज़ियम ऑफ़ फ़्लाइट में प्रदर्शित किया गया. इस मिग-21 जेट को लगभग 3.5 करोड़ मोतियों से ढका गया है.
ज़िमैन ने बताया, “इसे करने का कोई मशीनीकृत तरीक़ा नहीं है, उस विमान पर सब कुछ 100% हस्तनिर्मित है.” ज़िमैन दक्षिण अफ़्रीका में पले-बढ़े और बंदूक-विरोधी रहे हैं. उनकी इस श्रृंखला में प्रत्येक कलाकृति का दक्षिण अफ़्रीका के हाल के अतीत से अपना संबंध है. उन्होंने 2013 में नकली एके-47 राइफलें बनाईं, फिर 2016 में, ज़िमैन ने एक कैस्पिर (Casspir) - एक भारी बख्तरबंद, खदान-प्रतिरोधी वाहन - को मोतियों से सजाया, जो “रंगभेद का एक घृणित प्रतीक” बन गया था. 2019 में, ज़िमैन ने एक पूरे मिग-21 को मोतियों से सजाने की चुनौती ली.
ज़िमैन ने बताया कि उन्हें हमेशा से मोतियों का काम पसंद था. “मैं इसके साथ बड़ा हुआ हूं.” वह इसे एक ललित कला के रूप में बढ़ावा देना चाहते थे. ज़िमैन द्वारा नियोजित कई कारीगर ‘एनॉइंटेड हैंड्स’ का हिस्सा हैं, जो बीडवर्कर्स का एक समूह है. इस परियोजना का उद्देश्य इन कारीगरों की आजीविका को संरक्षित करना और अगली पीढ़ी की मदद करना भी है. इस परियोजना का समर्थन करने वाली एक चैरिटी के माध्यम से, 25 कारीगरों के बच्चों और अन्य युवाओं को उनकी शिक्षा के लिए प्रायोजन मिल रहा है. मिग-21 को एक अमेरिकी दौरे के बाद बिक्री के लिए रखा जाएगा, जिसकी आय से शिक्षा कार्यक्रम के साथ-साथ यूक्रेन में बच्चों के लिए कला चिकित्सा को भी वित्त पोषित किया जाएगा.
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