28/11/2025: आधार कार्ड यूपी में जन्म प्रमाण के लिए अमान्य | डीके 'जल्दी' में नहीं | टीएमसी का चुनाव आयोग पर आरोप | रटगर ब्रेगमैन, यह राक्षसों का वक़्त | ट्रम्प की गिरती लोकप्रियता | लेबर कोड पर सवाल
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
अडानी बनाम पेनिंग्स: पर्यावरण कार्यकर्ता की जीत, 5 साल बाद मुकदमा वापस
टीएमसी का चुनाव आयोग पर सीधा वार: “आपके हाथ खून से सने हैं!”
आधार कार्ड अब नहीं चलेगा: यूपी में जन्म प्रमाण के लिए नया नियम लागू
असम में बहुविवाह विरोधी बिल पास: सीएम सरमा का ऐलान, “अगला नंबर यूसीसी का”
लेबर कोड पर केंद्र और केरल आमने-सामने: “श्रमिक विरोधी कानून लागू नहीं करेंगे”
भाजपा दफ्तर के लिए उखाड़े 40 पेड़: सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार को लगाई फटकार
टाटा की सब्सिडी और भाजपा का चंदा: 758 करोड़ के डोनेशन पर उठे सवाल
रेलवे में सिर्फ ‘हलाल’ मांस? मानवाधिकार आयोग का नोटिस, भेदभाव के आरोप
पत्रकार का घर गिरा, पड़ोसी ने जमीन दी: जम्मू में नफरत के बीच भाईचारे की मिसाल
मणिपुर में असम राइफल्स पर हमला: 4 जवान घायल, उग्रवादियों की तलाश जारी
‘एक साथ चुनाव’: विधि आयोग का दावा, संविधान के मूल ढांचे को खतरा नहीं
डीके शिवकुमार का बड़ा बयान: “मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं किसी जल्दी में नहीं”
भारत की जीडीपी 8.2% बढ़ी: दुनिया में सबसे तेज, लेकिन घाटे की चुनौती बरकरार
ट्रंप का नया फरमान: ‘थर्ड वर्ल्ड’ से आने वालों की एंट्री होगी बंद
रीथ लेक्चर्स: “पुरानी दुनिया मर रही है, नई अभी पैदा नहीं हुई” - रटगर ब्रेगमैन
ट्रंप के अमेरिका, मोदी के भारत में समानताएं: जब शासक जनता से डरने लगे
जयपुर का ‘डोल का बध’ जंगल खतरे में: विकास की भेंट चढ़ेंगे 2400 पेड़?
नया लेबर कोड: सुधार या मजूदरों के अधिकारों पर डाका?
ट्रंप का जनाधार दरकने लगा? ‘मागा’ और ‘नॉन-मागा’ वोटर्स में पड़ी फूट
पर्यावरण कार्यकर्ता की बड़ी जीत: अडानी ने वापस लिया कानूनी मुकदमा
द गार्डियन में एंड्रयू मैसेंजर की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय खनन कंपनी अडानी ने ऑस्ट्रेलियाई पर्यावरण कार्यकर्ता बेन पेनिंग्स के खिलाफ चल रहे लंबे कानूनी मामले को खत्म करने पर सहमति जताई है. इसे पेनिंग्स ने अपनी ‘बड़ी जीत’ बताया है. क्वींसलैंड सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक आदेश जारी कर साढ़े पांच साल से चल रहे इस विवाद पर विराम लगा दिया.
मामले की शुरुआत 2020 में हुई थी जब अडानी ने पेनिंग्स के घर की तलाशी के लिए आवेदन किया था. कंपनी को शक था कि पेनिंग्स ने कारमाइकल कोयला खदान से जुड़ी गोपनीय जानकारी हासिल की है. अदालती दस्तावेजों से पता चला कि अडानी ने पेनिंग्स और उनके परिवार की निगरानी के लिए एक निजी जासूस रखा था, जिसने उनकी नौ साल की बेटी की तस्वीरें भी खींची थीं.
अडानी ने पेनिंग्स पर सिविल मुकदमा दायर करते हुए आरोप लगाया था कि उन्होंने खदान के संचालन और उसके ठेकेदारों को बाधित करने का प्रयास किया. एक समय पर कंपनी ने हर्जाने के तौर पर $600 मिलियन (करीब 50 अरब रुपये) की मांग की थी, जिसे अब वापस ले लिया गया है.
समझौते के तहत, पेनिंग्स ने अडानी की गोपनीय जानकारी हासिल न करने या दूसरों को ऐसा करने के लिए न कहने पर सहमति दी है. वहीं, अडानी के ऑस्ट्रेलियाई माइनिंग बिज़नेस (ब्रेवस माइनिंग एंड रिसोर्सेज) के मुख्य परिचालन अधिकारी मिक क्रो ने कहा कि यह मामला कभी भी पैसों के लिए नहीं था, बल्कि पेनिंग्स को कर्मचारियों और ठेकेदारों को परेशान करने से रोकने के लिए था.
पेनिंग्स ने इस मुकदमे को ‘स्लैप सूट’ (जन भागीदारी के खिलाफ रणनीतिक मुकदमा) करार दिया और इसे लोकतंत्र पर हमला बताया. अब जबकि पांच साल की रोक हट गई है, पेनिंग्स ने कहा है कि वह खदान के खिलाफ अपना अभियान और प्रत्यक्ष कार्रवाई फिर से शुरू करेंगे.
तृणमूल कांग्रेस : “सीईसी के हाथ खून से सने हैं”
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के 10 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने शुक्रवार, 28 नवंबर 2025 को नई दिल्ली में भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) की पूर्ण पीठ से मुलाकात की. टीएमसी ने आरोप लगाया कि पश्चिम बंगाल में चल रही मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) की प्रक्रिया के कारण कम से कम 40 लोगों की मौत हुई है.
राज्यसभा सांसद डेरेक ओ’ब्रायन के नेतृत्व वाले इस प्रतिनिधिमंडल में महुआ मोइत्रा, कल्याण बनर्जी और साकेत गोखले जैसे वरिष्ठ नेता शामिल थे. बैठक के बाद पत्रकारों से बात करते हुए ओ’ब्रायन ने कहा कि उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार से तीखे सवाल पूछे और कहा कि “सीईसी के हाथ खून से सने हैं”.
टीएमसी नेताओं का दावा है कि उन्होंने सीईसी को 40 मृतकों की सूची सौंपी, जिनकी मौत कथित तौर पर एसआईआर प्रक्रिया से जुड़ी है, लेकिन आयोग ने इसे खारिज कर दिया. महुआ मोइत्रा ने कहा कि सीईसी ने उनके सवालों का कोई जवाब नहीं दिया और एक घंटे तक बिना रुके बोलते रहे.
टीएमसी ने साफ किया कि वे एसआईआर की अवधारणा के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि जिस “अनियोजित और संवेदनहीन” तरीके से इसे लागू किया जा रहा है, उसका विरोध कर रहे हैं. गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल सहित 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की ऑनलाइन डेस्क के अनुसार टीएमसी राज्यसभा नेता डेरेक ओ’ब्रायन ने बैठक के बाद पत्रकारों से कहा कि पार्टी ने पांच प्रश्न उठाए, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कोई जवाब नहीं दिया. ओ’ब्रायन ने कहा, “हमने यह कहते हुए बैठक शुरू की कि मुख्य चुनाव आयुक्त के हाथों पर खून के धब्बे हैं. इसके बाद, कल्याण बनर्जी, महुआ मोइत्रा और ममता बाला ठाकुर ने लगभग 40 मिनट तक बात की और जो कुछ भी उन्हें साझा करना था, वह किया.”
मोइत्रा ने कहा कि प्रतिनिधिमंडल ने मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ 40 लोगों की एक सूची साझा की, जिनकी मौतें कथित तौर पर एसआईआर प्रक्रिया से जुड़ी हुई थीं. मगर, आयोग ने इसे महज़ आरोप कहकर खारिज कर दिया. टीएमसी की राज्यसभा सांसद ममता ठाकुर ने पूछा, “अगर घुसपैठिए हैं, तो मिजोरम, त्रिपुरा, अरुणाचल, नागालैंड को एसआईआर प्रक्रिया में शामिल क्यों नहीं किया गया और केवल पश्चिम बंगाल को ही क्यों किया गया है?” पिछले चुनावों की वैधता पर संदेह जताते हुए, ठाकुर ने आगे कहा, “अगर यह मतदाता सूची गलत है, तो क्या बाकी सभी वोट (पिछले चुनावों में) वैध नहीं हैं? अगर यह मतदाता सूची सही नहीं है तो वह मतदाता सूची भी सही नहीं है.”
इस बीच “पीटीआई” की खबर है कि राज्य के मुर्शिदाबाद जिले में एक और बीएलओ की कार्डियक अरेस्ट से मौत हो गई. 4 नवंबर को एसआईआर प्रक्रिया शुरू होने के बाद अब तक यह चौथे बीएलओ की मौत है. मृतक जाकिर हुसैन एक स्कूल में शिक्षक थे.
यूपी में आधार कार्ड अब जन्म तिथि का प्रमाण नहीं
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी विभागों को निर्देश दिया है कि वे आधार कार्ड को जन्म तिथि के प्रमाण के रूप में स्वीकार न करें. राज्य के योजना विभाग ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के 31 अक्टूबर, 2025 के पत्र का हवाला देते हुए यह आदेश जारी किया है.
योजना विभाग के विशेष सचिव अमित सिंह सिंघल ने सभी अतिरिक्त मुख्य सचिवों और प्रमुख सचिवों को भेजे आदेश में स्पष्ट किया कि यूआईडीएआई ने पहले ही साफ कर दिया है कि आधार कार्ड जन्म का प्रमाण नहीं है. इसके बावजूद कई विभागों में इसका इस्तेमाल जारी था.
अधिकारियों के मुताबिक, अब जन्म तिथि के प्रमाण के लिए जन्म प्रमाण पत्र, हाईस्कूल की मार्कशीट या अन्य निर्धारित दस्तावेजों का उपयोग करना होगा. यह नियम भर्ती प्रक्रियाओं और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां उम्र की सीमा एक अहम पैमाना होती है.
यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने इस कदम का स्वागत करते हुए कहा कि इससे धोखाधड़ी के मामलों को रोकने में मदद मिलेगी. उन्होंने आज़म खान के बेटे के पैन कार्ड मामले का उदाहरण देते हुए कहा कि यह निर्णय एक अच्छा संदेश देता है.
असम में मुसलमानों को टारगेट करने वाला नया विधेयक, अब यूसीसी की बारी
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने राज्य विधानसभा में एक विवादास्पद बहुविवाह निषेध विधेयक पेश किया है, जिसमें इस प्रथा को सात साल तक की जेल और जुर्माना लगाने का प्रस्ताव है. इतना ही नहीं यदि कोई दूसरी शादी को ‘छिपाता’ पाया जाता है तो 10 साल तक की जेल हो सकती है. विधेयक का एक प्रावधान इसके दायरे को असम के उन निवासियों तक भी बढ़ाता है, जो राज्य के बाहर दूसरी शादी करते हैं, साथ ही उन गैर-निवासियों तक भी बढ़ाता है जिनके पास वहां अचल संपत्ति है. विधेयक में यह भी प्रस्तावित है कि दोषी पाए जाने वाले लोग सरकारी योजनाओं के लिए अयोग्य हो जाएंगे. यह अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को इसके दायरे से बाहर रखता है - क्योंकि बहुविवाह असम के कुछ आदिवासी समुदायों के पारंपरिक कानूनों का हिस्सा है. हिमंता सरकार के इस विधेयक को पेश करने के फैसले की आलोचना की जा रही है. माना जा रहा है कि यह विधेयक अगले साल के विधानसभा चुनावों से पहले मुसलमानों को टारगेट करने के उद्देश्य से लाया गया है, ताकि सट्टरूढ़ भाजपा को वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाबी हासिल हो सके.
राहुल कर्माकर ने इस मुद्दे पर रिपोर्ट की है. इस बीच असम विधानसभा ने गुरुवार को यह विधेयक पास भी कर दिया. इतना ही नहीं मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने इसे राज्य में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के अंतिम कार्यान्वयन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया. उन्होंने कहा, “अब यूसीसी की बारी है.”
केंद्र की श्रम संहिताओं को लागू नहीं करेगा केरल
केरल के श्रम मंत्री वी. शिवनकुट्टी ने घोषणा की है कि उनका राज्य केंद्र के नई श्रम संहिताओं— मजदूरी संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता, औद्योगिक संबंध संहिता, और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य शर्तें संहिता— लागू नहीं करेगा. उन्होंने कहा, “प्रस्ताव में कहा गया है कि चारों श्रम संहिताओं को वापस लिया जाना चाहिए, क्योंकि वे श्रमिक-विरोधी हैं और उन्हें पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना एकतरफा तरीके से तैयार किया गया है. शाजू फिलिप के अनुसार, संहिताओं को लागू करने के लिए केरल कोई कदम नहीं उठाएगा, भले ही केंद्र के निर्देश के बाद 2021 में राज्य श्रम सचिव द्वारा नियम बनाए गए थे.”
इस बीच ट्रेड यूनियन नेताओं ने भी सर्वसम्मति से संकल्प लिया है कि केंद्र पर संहिताओं को वापस लेने के लिए दबाव बनाया जाएगा. उनका तर्क है कि नया ढांचा रोजगार सुरक्षा, सामूहिक सौदेबाजी और अन्य श्रमिक सुरक्षा को कमजोर करता है. अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप, केरल 19 दिसंबर को एक श्रम सम्मेलन आयोजित करेगा, जिसमें संहिताओं का विरोध करने वाले अन्य राज्यों के श्रम मंत्रियों को आमंत्रित किया जाएगा.
भाजपा दफ़्तर के लिए सड़क बनाने हेतु 40 पेड़ उखाड़ने पर हरियाणा सरकार को फटकार
सुप्रीमकोर्ट ने हरियाणा सरकार और उसके शहरी विकास निकाय को करनाल में एक नव-निर्मित भाजपा कार्यालय तक पहुंच योग्य सड़क बनाने के लिए पूरी तरह से विकसित हरे-भरे 40 पेड़ों को उखाड़ने के लिए लताड़ लगाई है. कोर्ट ने इसे “दयनीय” बताया और चेतावनी दी कि यदि वे उपचारात्मक कार्य योजना प्रदान करने में विफल रहे तो “उन्हें दंडित किया जाएगा.”
“बार एंड बेंच” के अनुसार, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ 1971 के युद्ध के एक अनुभवी सैनिक द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी. याचिकाकर्ता ने आवासीय क्षेत्र में एक भूखंड पर सत्तारूढ़ हरियाणा भाजपा द्वारा मनमाने ढंग से कब्ज़ा करने और उसके बाद अपने कार्यालय के लिए एक पहुंच मार्ग के निर्माण की खातिर हरे भरे स्थान में पूरी तरह से विकसित 40 वृक्षों को उखाड़ने के खिलाफ उच्च न्यायालय द्वारा 3 मई को अपनी याचिका खारिज किए जाने को चुनौती दी थी.
मोदी सरकार की मंजूरी के बाद टाटा को सब्सिडी, बदले में भाजपा को रिकॉर्ड दान
“न खाऊंगा न खाने दूंगा” नारे के बरक्स “स्क्रॉल” में आयुष तिवारी की रिपोर्ट है कि मोदी सरकार द्वारा तीन सेमीकंडक्टर संयंत्रों को मंजूरी दिए जाने के ठीक चार सप्ताह बाद टाटा ने भाजपा को 758 करोड़ रुपये दान किए थे. इनमें से दो कारखाने टाटा कंपनियों के थे और उन्हें 44,203 करोड़ रुपये की चौंका देने वाली सब्सिडी मिली – यह एक प्रकार का कॉर्पोरेट परोपकार है, जिसे “विकास” का नाम दिया गया है. 2 अप्रैल, 2024 को पार्टी को टाटा समूह का 757.6 करोड़ रुपये का योगदान 2023-24 में दर्ज किया गया अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक दान है, जो किसी भी अन्य दान से कहीं अधिक है. जाहिर है, कॉर्पोरेट मदद और राजनीतिक एहसान अब एक बहुत ही दृश्यमान मूल्य टैग के साथ आते हैं.
रेलवे में केवल हलाल मांस परोसने पर आपत्ति, एनएचआरसी का रेलवे बोर्ड को नोटिस
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने रेलवे बोर्ड को एक शिकायत मिलने के बाद नोटिस जारी किया है, जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि भारतीय रेलवे अपनी ट्रेनों में केवल हलाल-प्रसंस्कृत मांस परोसता है. शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि यह “अनुचित भेदभाव” पैदा करता है और उन यात्रियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है जो अन्य धार्मिक प्रथाओं का पालन करते हैं.
24 नवंबर को अपनी कार्यवाही में, एनएचआरसी ने टिप्पणी की कि भारतीय रेलवे के खिलाफ शिकायत में लगाए गए आरोप “मानवाधिकारों के प्रथम दृष्टया उल्लंघन” का संकेत देते हैं. एनएचआरसी का यह हस्तक्षेप ऐसे समय में आया है, जब भाजपा शासित राज्यों में हलाल प्रमाणीकरण को लक्षित करने वाला हिंदुत्व-प्रेरित अभियान तेज़ी से चल रहा है.
“मकतूब मीडिया” की रिपोर्ट के मुताबिक, भोपाल निवासी सुनील अहिरवार द्वारा प्रस्तुत शिकायत में कहा गया है कि ट्रेनों में केवल हलाल-प्रसंस्कृत मांस परोसना अन्य धर्मों के यात्रियों के साथ भेदभाव है और पारंपरिक रूप से मांस व्यापार में शामिल हिंदू दलित समुदायों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है.
अहिरवार ने तर्क दिया कि मांस प्रसंस्करण की एक ही विधि का पक्ष लेकर, रेलवे प्रभावी रूप से इन समुदायों को समान आर्थिक अवसरों से वंचित कर रहा है. उन्होंने यह भी दावा किया कि हिंदू और सिख यात्री ऐसे खाद्य विकल्पों के बिना रह जाते हैं, जो उनकी धार्मिक प्रथाओं के अनुरूप हों, जिससे समानता, गैर-भेदभाव, धार्मिक स्वतंत्रता और गरिमा के उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होता है.
शिकायत में संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19(1)(जी), 21 और 25 के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के उल्लंघन का हवाला दिया गया है.
इन चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, सदस्य प्रियंक कानूनगो की अध्यक्षता वाली एनएचआरसी की एक पीठ ने अपनी रजिस्ट्री को रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष को नोटिस जारी करने का निर्देश दिया. रेलवे को आरोपों की जांच करने और दो सप्ताह के भीतर कार्रवाई रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया है. आयोग ने सरकारी सेवाओं के धर्मनिरपेक्ष दायित्वों पर जोर देते हुए कहा कि रेलवे को सभी धार्मिक पृष्ठभूमि के यात्रियों की भोजन संबंधी पसंद का सम्मान करना चाहिए.
एनएचआरसी ने आगे टिप्पणी की कि बिक्री को केवल हलाल मांस तक सीमित करने से इस क्षेत्र से जुड़े हिंदू अनुसूचित जाति समूहों और अन्य गैर-मुस्लिम समुदायों की आजीविका “बुरी तरह प्रभावित” हो सकती है. फिलहाल, रेलवे अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से इस नोटिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
एनएचआरसी सदस्य प्रियंक कानूनगो ने कहा कि “जब हमने शिकायत की जांच की, तो हमने पाया कि इस्लामी धार्मिक विद्वानों के अनुसार, केवल एक मुस्लिम ही हलाल वध कर सकता है.” उन्होंने आगे कहा कि एक सरकारी संगठन के रूप में, रेलवे केवल हलाल मांस उत्पादों को बेचकर एक पूरे समुदाय के साथ भेदभाव नहीं कर सकता और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक विचारों के आधार पर भोजन बेचना “भेदभावपूर्ण” है और भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बनाए रखने के लिए ऐसी प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए.
जम्मू में मुस्लिम पत्रकार का घर गिराए जाने के बाद हिंदू पड़ोसी ने ज़मीन उपहार में दी, ‘आप चापलूस हैं तो सुरक्षित हैं’
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में जम्मू-कश्मीर से एक हृदयस्पर्शी खबर आई है. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” में फ़ैयाज़ वानी की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकार अरफाज़ अहमद डैंग का घर गुरुवार को जब गिरा दिया गया तो तुरंत ही जम्मू के रहने वाले कुलदीप शर्मा ने उन्हें पांच मरला ज़मीन उपहार में दे दी. जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने डैंग के घर को यह आरोप लगाते हुए ध्वस्त कर दिया था कि यह अतिक्रमण की गई ज़मीन पर बनाया गया था. हालांकि, डैंग ने दावा किया कि उनके घर का विध्वंस उनकी पत्रकारिता का प्रतिशोध है.
एक रिपोर्ट के अनुसार, डैंग, जो डिजिटल समाचार पोर्टल “नीस सहर इंडिया” चलाते हैं, ने हाल ही में एक बड़े सीमा पार मादक पदार्थ तस्करी मामले में गिरफ्तार संदिग्ध तस्करों से एक पुलिस अधिकारी का संबंध जोड़ा था. इस विध्वंस के कारण डैंग के बुजुर्ग माता-पिता, उनकी पत्नी और उनके तीन बच्चे बेघर हो गए हैं.
इस बीच, विध्वंस के दिल दहला देने वाले दृश्यों और अधिकारियों से और समय देने की गुहार लगा रहे परिवार को देखकर, पड़ोसी हिंदू ने दयालुता दिखाते हुए परिवार की मदद के लिए हाथ बढ़ाया. कुलदीप शर्मा ने कहा, “मैंने अरफ़ाज़ को 5 मरला (लगभग 1400 वर्गफुट) ज़मीन तोहफे में दी है. मैंने इसके लिए उचित राजस्व दस्तावेज़ बनवाए हैं. मैंने इसे पंजीकृत करवा लिया है.” उन्होंने कहा, “यह मेरी ज़मीन है, और मैं इसे अपने भाई को उपहार के रूप में दे रहा हूं, ताकि वह बेसहारा न रहे.” शर्मा के अनुसार, घर के विध्वंस के दुखद दृश्यों को देखकर वे बहुत भावुक हो गए थे. उन्होंने कहा, “मैं उनकी दुर्दशा से हिल गया था और मैंने परिवार की मदद करने का फैसला किया.”
शर्मा ने प्रतिज्ञा लेते हुए कहा, “मैंने कहा है कि अगर मुझे भीख भी मांगनी पड़ी, तो भी मैं उनका घर फिर से बनवाने में मदद करूंगा. कुछ भी हो जाए, उनका घर दोबारा बनेगा.” परिवार के साथ एकजुटता दिखाते हुए, शर्मा ने कहा, “उन्होंने 3 मरला पर बना उसका घर गिरा दिया. मैंने उसे 5 मरला दे दी है. अगर वे इसे भी गिराते हैं, तो मैं 10 मरला जमीन दूंगा. कृपया लोगों पर अत्याचार न करें. उसका परिवार और छोटे बच्चे अब सड़क पर हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “हम इस देश में रह रहे हैं, फिर भी हमें बेघर कर दिया गया है.” उन्होंने दृढ़ता से कहा, “हमारा सांप्रदायिक सद्भाव कभी खत्म नहीं होगा. हम उसका समर्थन करेंगे. मेरे जैसे और भी लोग होंगे. उनकी बेटी, तानिया शर्मा ने अपने पिता के निर्णय पर अत्यधिक गर्व व्यक्त किया. उन्होंने कहा, “मेरे पिता द्वारा उठाया गया कदम सराहनीय है. मेरा मानना है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को इन विध्वंस अभियानों में अपना घर खोने वाले परिवारों का समर्थन करने के लिए एक साथ आना चाहिए.”
समुदाय के जबरदस्त समर्थन से प्रभावित परिवार को राहत मिली है. अरफाज़ के पिता ने कहा कि जम्मू के लोगों द्वारा दिखाई गई एकजुटता से उन्हें ऊर्जा मिली है. उन्होंने कहा, “अब मुझे कोई तनाव नहीं है क्योंकि जम्मू के लोग हमारे साथ हैं. हमारे यहां एकता है. कल से, हजारों लोगों ने हमारा समर्थन किया है और हमारे साथ खड़े होने और मदद करने के प्रयास किए हैं.”
इससे पहले, “द टेलीग्राफ” से बात करते हुए, डैंग ने कहा कि जम्मू विकास प्राधिकरण (जेडीए) की टीमें चार बुलडोजर और लगभग 700-800 सुरक्षा कर्मियों के साथ उनके घर को ध्वस्त करने आई थीं, जिससे उनका मानना है कि विध्वंस कथित अतिक्रमण के अलावा अन्य इरादों से प्रेरित था. डैंग ने कहा कि ऑपरेशन के दौरान उन्हें फोन कॉल करने की अनुमति नहीं दी गई और जब उन्होंने आपत्ति करने की कोशिश की तो उनके साथ हाथापाई की गई. उन्होंने पत्रकारों से कहा, “अगर आपको इसे नष्ट करना है, तो करिए, लेकिन मुझे एक पत्रकार के तौर पर अपना काम करने दीजिए.” वीडियो फुटेज में दिखाया गया कि जब घर मलबे में तब्दील हो रहा था, तब पुलिस उन्हें लाइव कमेंट्री फिल्माने से रोक रही थी.
डैंग ने कहा, “वे पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सबक सिखाना चाहते हैं - किसी को भी जो ईमानदारी से काम करता है.” “यदि आप चापलूस हैं, तो आप सुरक्षित हैं. यदि आप सच्चाई दिखाते हैं, तो ऐसा होता है.” हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि घर अतिक्रमण था और विध्वंस एक व्यापक अतिक्रमण विरोधी अभियान का हिस्सा था. डैंग इस बात से इनकार करते हैं, उनका कहना है कि उनका परिवार 40 साल से इस संपत्ति पर रह रहा था और उन्हें कभी कोई नोटिस नहीं दिया गया. “द हिंदू” ने उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया: “इससे पहले, बटिंडी में मेरे घर को गिरा दिया गया था. मैंने साहस दिखाया और अपने माता-पिता के घर चला गया. अब यह घर भी गिरा दिया गया है. क्या पूरे जम्मू शहर में मेरा ही घर एकमात्र अवैध है?”
इस कदम ने व्यापक आलोचना को जन्म दिया. सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने सवाल किया कि डैंग के घर को क्यों निशाना बनाया गया जबकि सरकारी जमीन पर कब्जा करने के आरोपी कई हाई-प्रोफाइल राजनेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.
कार्टून | सतीश आचार्य
मणिपुर में संदिग्ध उग्रवादियों ने असम राइफल्स की टीम पर हमला किया, 4 जवान घायल
असम राइफल्स की एक गश्ती टीम पर शुक्रवार को मणिपुर के तेंगनौपाल जिले में संदिग्ध उग्रवादियों ने गोलीबारी की, आधिकारिक सूत्रों ने इसकी पुष्टि की, हालांकि हताहतों या घायलों की संख्या अभी तक निर्धारित नहीं की गई है. लेकिन, पुलिस सूत्रों ने चार जवानों के घायल होने की जानकारी दी है.
“एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस” के अनुसार, रक्षा मंत्रालय के एक बयान में कहा गया है, “28 नवंबर 2025 की तड़के, मणिपुर के तेंगनौपाल जिले में, भारत-म्यांमार सीमा के पास, आतंकवादियों द्वारा असम राइफल्स की एक गश्ती दल पर गोलीबारी की गई. नागरिकों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, तुरंत नियंत्रित और सावधानीपूर्वक जवाबी कार्रवाई की गई.” बयान में आगे कहा गया है, “इलाके में अतिरिक्त सैनिकों को तैनात कर दिया गया है और ऑपरेशन जारी है.” किसी भी उग्रवादी समूह ने हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है.
‘एक साथ चुनाव’ पर विधि आयोग: संघीय ढांचे या मतदाता के अधिकार को प्रभावित नहीं करेंगे विधेयक
देश में एक साथ चुनाव कराने वाले विधेयकों को लेकर 23वें विधि आयोग ने कथित तौर पर इस पर अपनी राय पक्की कर ली है कि जब संघीय ढांचे और मतदाता के अधिकार की बात आती है, तो ये विधेयक संविधान के मूल ढांचे को भंग नहीं करते हैं. 4 दिसंबर को संसद की संयुक्त समिति के समक्ष विधेयकों पर आयोग की ब्रीफिंग निर्धारित है.
दामिनी नाथ अपनी रिपोर्ट में लिखती हैं कि आयोग का विचार यह है कि ये विधेयक, जो लोकसभा और राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव को सक्षम बनाएंगे, उन्हें राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अनुच्छेद 368(2) के खंड (क) से (ङ) के तहत आने वाले विषयों में कोई बदलाव प्रस्तावित नहीं करते हैं, जो उन विषयों से संबंधित हैं जिनके लिए राज्यों के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है.
भाजपा सांसद पीपी चौधरी की अध्यक्षता वाली समिति के एक प्रश्न के जवाब में, आयोग ने यह भी पाया है कि आदर्श आचार संहिता को वैधानिक मान्यता देने की कोई आवश्यकता नहीं है. संविधान (एक सौ उनतीसवां संशोधन) विधेयक, 2024 और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक, जिन्हें ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ विधेयक के रूप में जाना जाता है, पर गठित यह समिति 4 दिसंबर को मिलने वाली है. बैठक की सूचना के अनुसार, विधि आयोग और चुनाव आयोग के प्रतिनिधि समिति को जानकारी देने के लिए निर्धारित हैं.
याद रहे, दोनों विधेयक पिछले साल दिसंबर में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा पेश किए गए थे और समिति को भेजे गए थे. इन विधेयकों में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को समकालिक बनाने का प्रावधान है, जिसके लिए यह प्रस्तावित है कि किसी विशेष लोकसभा के बाद चुनी गई राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल उस लोकसभा के कार्यकाल के साथ समाप्त हो जाए. एक बार जब विधायिकाओं का कार्यकाल संरेखित हो जाएगा, तो अगला आम चुनाव एक साथ होगा.
डी.के. शिवकुमार बोले, “मुझे कुछ नहीं चाहिए और मैं जल्दी में नहीं हूं”
कर्नाटक में सत्ता संघर्ष को लेकर मीडिया में हो रही चर्चा पर उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने ही पानी डाल दिया है. शिवकुमार ने शुक्रवार को कहा कि उन्हें “कुछ नहीं चाहिए और वह जल्दी में नहीं हैं.” कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने यह पूछे जाने पर कि क्या वह दिल्ली जाकर पार्टी आलाकमान से मिलेंगे, सकारात्मक जवाब दिया और कहा कि “दिल्ली हमारा मंदिर है.”
“द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, एक आंगनवाड़ी कार्यक्रम की स्वर्ण जयंती के अवसर पर, जहां उन्होंने मुख्यमंत्री सिद्दारमैया के साथ मंच साझा किया, शिवकुमार ने पत्रकारों से कहा, “मेरी पार्टी फैसला लेगी. मुझे कुछ नहीं चाहिए. मैं जल्दी में नहीं हूं.” शिवकुमार का यह बयान कर्नाटक कांग्रेस के शीर्ष दो नेताओं के बीच कथित सत्ता-साझाकरण की व्यवस्था की खबरों के बीच सोशल मीडिया पर हुई आपसी बहस के एक दिन बाद आया है.
भारत ने दूसरी तिमाही में 8.2% जीडीपी वृद्धि दर्ज की, लेकिन राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों के लिए चुनौती
भारतीय अर्थव्यवस्था ने वित्तीय वर्ष 2025-26 की दूसरी तिमाही में 8.2 प्रतिशत की उम्मीद से अधिक वृद्धि दर्ज की, जो पिछले छह तिमाहियों में सबसे अधिक है. “पीटीआई” के अनुसार, इस विस्तार ने भारत को दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने में मदद की, जबकि इसी तिमाही में चीन की अर्थव्यवस्था 4.8 प्रतिशत बढ़ी.
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार, जीएसटी दर में कटौती से खपत बढ़ने की प्रत्याशा में विनिर्माण क्षेत्र ने पिछले वर्ष के 2.2% के मुकाबले 9.1 प्रतिशत की मजबूत वृद्धि दर्ज की, जिसने कृषि उत्पादन (4.1% से घटकर 3.5%) में आई गिरावट को संतुलित किया. सेवा क्षेत्र (बैंकिंग, रियल एस्टेट सहित) ने भी 7.2% की तुलना में 10.2 प्रतिशत की प्रभावशाली दोहरे अंकों की वृद्धि दर्ज की.
वित्त वर्ष 2025-26 की पहली छमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 8 प्रतिशत रहा. पहली छमाही में इस मजबूत प्रदर्शन के साथ, भारत इस साल जनवरी में आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमानित 6.3-6.8 प्रतिशत के वार्षिक वृद्धि लक्ष्य को पार कर सकता है.
इक्रा की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने टिप्पणी की कि जीडीपी वृद्धि व्यापक बाजार की अपेक्षा के विपरीत, उम्मीदों से काफी आगे निकल गई. उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 2026 में वास्तविक जीडीपी विस्तार अब 7 प्रतिशत से अधिक होने के लिए तैयार है.
वहीं, डेलॉइट इंडिया की अर्थशास्त्री रुम्की मजूमदार ने कहा कि भारत का जीडीपी डिफ्लेटर 2019 के बाद से अपने सबसे निचले स्तर पर आ गया है, जिससे सांकेतिक जीडीपी वृद्धि कम हो गई है. उन्होंने कहा कि यह सांकेतिक जीडीपी से जुड़े प्रमुख अनुपातों, जैसे कि राजकोषीय घाटा, ऋण और चालू खाता, के लिए चुनौतियां खड़ी करता है. उन्होंने आशंका व्यक्त की कि सरकार के लिए अपने राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को पूरा करना कठिन होगा, जिसे जीडीपी के प्रतिशत के रूप में मापा जाता है. इससे पहले अक्टूबर में, भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी पूर्वानुमान को 6.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया था. एनएसओ के अनुसार, दूसरी तिमाही में स्थिर कीमतों पर जीडीपी 48.63 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है.
रीथ लेक्चर्स -1
“पुरानी दुनिया मर रही है और नई दुनिया पैदा होने के लिए संघर्ष कर रही है, ये राक्षसों का वक़्त है.”
बीबीसी के संस्थापक लॉर्ड जॉन रीड की याद में होने वाले रीथ लेक्चर्स हर साल होते हैं. इस साल के लेक्चरर प्रख्यात डच इतिहासकार रटगर ब्रेगमैन हैं और ‘ह्यूमनकाइंड’ और ‘यूटोपिया फॉर रियलिस्ट्स’ जैसी बेस्टसेलिंग किताबों के लेखक हैं. उन्होंने अपनी पहली किताब तब लिखी थी जब वो सिर्फ 25 साल के थे. उनकी किताबों ने लोगों के दिलों को छुआ है क्योंकि वो ऐसे वक़्त में उम्मीद जगाती हैं जब लगता है कि हम बेहद निराशाजनक समस्याओं से घिरे हैं. लेकिन जिस उम्मीद की वो बात करते हैं, उस तक पहुँचने के लिए वो बदले में कुछ माँगते भी हैं. उनका मानना है कि हमें अपनी ज़िंदगी जीने का तरीका बदलना होगा. वो विवादों से घबराने वाले इंसान नहीं हैं. वो शायद सबसे ज़्यादा मशहूर हैं दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम पर बैंकर्स और अरबपतियों को खरी-खोटी सुनाने के लिए, जहाँ उन्होंने अमीरों द्वारा टैक्स चोरी को असली मुद्दा बताया था. उन्होंने कहा था कि ये वैसा ही है जैसे किसी फायरफाइटर की कॉन्फ्रेंस में पानी के बारे में बात करने की इजाज़त न हो. इस लेक्चर सीरीज़ का नाम है ‘मोरल रेवोल्यूशन’. वो कहते हैं कि ये कार्रवाई करने की पुकार है. पेश है चार हिस्सो में हुए भाषण की पहली कड़ी. हम अंशों में चारों भाषण न्यूजलेटर में प्रकाशित करेंगे.
रटगर ब्रेगमैन का लेक्चर
एक उपदेशक का बेटा होने के नाते, मैंने बहुत पहले सीख लिया था कि हर अच्छे प्रवचन के तीन हिस्से होते हैं. पहला, दुःख (Misery). दूसरा मुक्ति. और तीसरा, शुक्रगुज़ारी. अब, ये भाषण श्रृंखला इंसानी इतिहास के उस कमाल के दौर के बारे में एक उम्मीद भरी सीरीज़ होने वाले हैं जिसमें हम जी रहे हैं, इंसानियत की ग़ज़ब संभावनाओं के बारे में, और समर्पित नागरिकों के छोटे समूहों की ताकत के बारे में जो हमारी सामूहिक किस्मत तय कर सकते हैं. लेकिन आज हमें अपना ज़्यादातर वक़्त पहले हिस्से पर बिताना होगा. यानी दुःख या मिजरी.
बचपन से ही मुझे उथल-पुथल और बर्बादी की कहानियों ने हमेशा फैसिनेट किया है. नीदरलैंड्स में बड़े होते हुए, मुझे ख़ासकर उन कहानियों ने जकड़ रखा था कि कैसे हमारे छोटे से देश पर नाज़ियों ने कब्ज़ा कर लिया था. मैं खुद से बार-बार पूछता था, मैं क्या करता? क्या मुझमें सही करने की हिम्मत होती? एक एडल्ट के तौर पर, और एक इतिहासकार के तौर पर, मैं अब भी वो सवाल पूछता हूँ, और वो पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी लगते हैं. मुझे पता है कि मैंने इंसानियत की अच्छाई और उन यूटोपियास (utopias) के बारे में उम्मीद भरी किताबें लिखकर अपना नाम बनाया है जो हम मिलकर बना सकते हैं. लेकिन आज, एक आशावादी नोट पर शुरुआत करना बेईमानी होगी. जैसा कि इटालियन फिलॉसफर एंटोनियो ग्राम्शी ने 1926 में एक फासीवादी जेल से अपनी नोटबुक में लिखा था, “पुरानी दुनिया मर रही है और नई दुनिया पैदा होने के लिए संघर्ष कर रही है, ये राक्षसों का वक़्त है.”
हमारे आज के दुःख की गहराई को समझने के लिए, बर्बादी की एक क्लासिक कहानी से शुरुआत करना मददगार होगा. जब महान इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने रोम के पतन का वर्णन किया, तो उन्होंने गोलमोल बातें नहीं कीं. उन्होंने हमें नाम, तारीखें और डीटेल्स दीं, कायरता और भ्रष्टाचार के पन्ने के पन्ने. ‘द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ द रोमन एम्पायर’ पढ़ना ऐसा है जैसे किसी सभ्यता को स्लो मोशन में सड़ते हुए देखना. सोने के सिंहासन पर बैठे क्रूर सम्राट, जनरल जिन्होंने अपनी ही सेनाओं को बेच दिया, और सीनेटर्स जिन्हें राज-काज से ज़्यादा तमाशे की फ़िक्र थी.
और फिर भी जब आप आज गिब्बन को पढ़ते हैं तो जो चीज़ आपको सबसे ज़्यादा चौंकाती है वो उनकी नीचता नहीं, बल्कि उनका जाना-पहचाना लगना है. गिब्बन ने उन नेताओं के बारे में लिखा जिनमें गंभीरता की कमी थी. ऐसे एलीट्स जिनमें गुणों की कमी थी, और ऐसे समाज जिन्होंने पतन को तरक्की समझ लिया. 2000 साल बाद, हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ अरबपति अपना टैक्स बचाते हैं, नेता शासन करने के बजाय नाटक करते हैं, और मीडिया के मालिक झूठ और नफरत से मुनाफा कमाते हैं. रोम के एलीट बाँसुरी बजा रहे थे जब रोम जल रहा था. हमारे एलीट्स ने आग को लाइव-स्ट्रीम किया और धुएँ से पैसे कमाए. अनैतिकता और अगंभीरता. आज हमारे नेताओं की ये दो सबसे बड़ी खूबियाँ हैं. और ये कोई गलती से हुई कमी नहीं है, बल्कि ये उसका लॉजिकल नतीजा है जिसे मैं ‘बेशर्मों की सर्वाइवल’ कहता हूँ. आज, सबसे काबिल लोग आगे नहीं बढ़ते, बल्कि वो बढ़ते हैं जिनके उसूल सबसे कम हैं. सबसे गुणवान नहीं, बल्कि सबसे ढीठ.
मैं यूरोप पर बाद में आऊँगा, लेकिन पहले अटलांटिक के उस पार चलते हैं जहाँ ये लॉजिक अब अपने शुद्धतम रूप में पहुँच चुका है. यूनाइटेड स्टेट्स. मैं पिछले कुछ सालों के पागलपन की पूरी समरी देकर आपको बोर नहीं करना चाहता. एक तरफ हमारे पास एक एस्टेब्लिशमेंट था जो एक बुज़ुर्ग आदमी को सहारा दे रहा था जो साफ़ तौर पर दिमागी तौर पर कमज़ोर हो चुके थे. दूसरी तरफ हमारे पास एक सज़ायाफ्ता रियलिटी स्टार था. जब अपने प्रशासन में लोगों को भरने की बात आती है, तो वो आज के दौर का कैलिगुला है, वो रोमन सम्राट जो अपने घोड़े को कॉन्सुल बनाना चाहता था. वो अपने आप को वफादारों, धोखेबाज़ों और चापलूसों से घेर लेता है.
जो चीज़ मुझे इंट्रेस्ट करती है वो लेफ्ट वर्सेस राइट नहीं है, वो है हिम्मत बनाम कायरता, गुण बनाम पाप. और सच तो ये है कि सड़न हर जगह है. नैतिक सड़न हर तरह के एलीट इंस्टीट्यूशंस में गहराई तक फैली हुई है. अगर राइट विंग अपने बेशर्म भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है, तो लिबरल्स उसका जवाब एक लकवा मार देने वाली कायरता से देते हैं. दर्जनों कॉर्पोरेशंस, मीडिया नेटवर्क्स, यूनिवर्सिटीज़ और म्यूजियम्स ने पहले ही नए शासन के आगे घुटने टेक दिए हैं. कुछ सबसे नामी लॉ फर्म्स ने अपनी वफादारी की कसम खाने में जल्दी दिखाई. लेकिन चलिए ये दिखावा न करें कि ये कोई अचानक गिरावट थी. इन फर्म्स ने सालों तक वॉल स्ट्रीट के मुजरिमों, तंबाकू कंपनियों और अफ़ीम से मुनाफा कमाने वालों का बचाव किया है. उन्होंने अपने उसूलों को धोखा नहीं दिया. उन्होंने उन्हें ज़ाहिर किया है. उनकी वफादारी कभी इन्साफ या लोकतंत्र के लिए नहीं थी, बल्कि ताकत और मुनाफे के लिए थी.
और ये वफादारी कहाँ बनी थी? जवाब सरल है. दुनिया की सबसे मशहूर यूनिवर्सिटीज़ में, साइंस और तर्क के सबसे बड़े किलों में, उन सेक्युलर मंदिरों में जहाँ बड़े-बड़े खंभे हैं और पत्थर पर मोटो (mottos) लिखे हैं—हार्वर्ड में “सच”, येल में “रोशनी और सच”, और प्रिंसटन में “राष्ट्र की सेवा और इंसानियत की सेवा में”. हर साल, हज़ारों होनहार टीनेजर्स उन ग्लोबल समस्याओं के बारे में खूबसूरत एप्लीकेशन निबंध लिखते हैं जिन्हें वो सुलझाना चाहते हैं. क्लाइमेट चेंज, भुखमरी, संक्रामक बीमारियाँ. लेकिन कुछ साल बाद, उनमें से ज़्यादातर को मैकिन्जी, गोल्डमैन सैक्स और किर्कलैंड एंड एलिस जैसी कंपनियों की तरफ भेज दिया जाता है. ऑक्सफोर्ड में पढ़ा मेरा एक दोस्त इसे ‘टैलेंट का बरमूडा ट्राएंगल’ कहता है. कंसल्टेंसी, फाइनेंस और कॉर्पोरेट लॉ. एक बड़ा सा ब्लैक होल जो हमारे तथाकथित ‘बेस्ट एंड ब्राइटेस्ट’ को निगल लेता है. एक गहरी खाई जो 1980 के दशक से साइज़ में तीन गुना हो गई है.
हाँ, मुझे पता है कि ऐसी कंपनियाँ अपने संदिग्ध बिज़नेस मॉडल्स पर पर्पस या कॉर्पोरेट ज़िम्मेदारी की एक पतली परत चढ़ाना पसंद करती हैं. क्या आप जानते हैं कि तंबाकू जायंट, फिलिप मॉरिस का ईएसजी स्कोर शानदार है? क्या आपने सुना है कि ब्रिटिश अमेरिकन टोबैको को फाइनेंशियल टाइम्स द्वारा ‘क्लाइमेट लीडर’ और ‘डायवर्सिटी लीडर’ दोनों नामित किया गया था? और वो सच में इसके हकदार थे. उनके कार्बन डाइऑक्साइड कंपेंसेशन प्रोग्राम स्टेट ऑफ द आर्ट हैं और उनकी इंक्लूसिविटी ट्रेनिंग बिज़नेस में सबसे अच्छी हैं. वो लाखों लोगों को मारते हुए कितना अच्छा काम कर रहे हैं.
कृपया खुद को धोखा न दें. कॉर्पोरेट दुनिया में कोई नैतिक जागृति नहीं हुई है. ‘बिज़नेस फॉर गुड’, ‘कॉन्शियस कैपिटलिज्म’, ‘सोशल इम्पैक्ट’. ये सब ज़्यादातर एक ढकोसला था. बातों के नीचे, कल्चरल लहर दशकों से दूसरी दिशा में चल रही है. ज़रा अमेरिकन फ्रेशमैन सर्वे को देखिए, जो 1960 के दशक से फर्स्ट-ईयर कॉलेज स्टूडेंट्स की वैल्यूज़ को ट्रैक कर रहा है. आधी सदी पहले, जब स्टूडेंट्स से उनके जीवन के सबसे ज़रूरी लक्ष्यों के बारे में पूछा गया, तो 80% से 90% ने कहा: ज़िंदगी की एक सार्थक फिलॉसफी डेवलप करना. सिर्फ 50% ने बहुत सारा पैसा कमाने को प्राथमिकता दी. आज, वो नंबर्स पलट गए हैं. अब 80 से 90% कहते हैं कि अमीर बनना सबसे ज़्यादा मायने रखता है और सिर्फ आधे अभी भी ज़िंदगी की सार्थक फिलॉसफी की कद्र करते हैं.
अब याद रखिए, ये मानव प्रकृति नहीं, मानव संस्कृति है. बच्चे बस एक आइना दिखा रहे हैं और जो वो वापस रिफ्लेक्ट करते हैं वही है जो हम उन्हें सीखा रहे हैं. फिलहाल, हार्वर्ड के लगभग 40% ग्रैजुएट्स उन बीएस जॉब्स (BS jobs) के बरमूडा ट्राएंगल में चले जाते हैं. और अगर आप बिग टेक को शामिल करें, तो ये हिस्सा 60% से ज़्यादा हो जाता है. और वहाँ काम अक्सर उतना ही बेमतलब होता है. एक मैथ प्रोडिजी (गणित का होनहार) जो फेसबुक में काम करने लगा, उसके बदनाम शब्दों में: “मेरी जनरेशन के सबसे तेज़ दिमाग ये सोच रहे हैं कि लोगों से विज्ञापनों पर क्लिक कैसे करवाया जाए.” ये बेहद ख़राब है. लेफ्ट और राइट दोनों तरफ, अमेरिका को उसके एलीट्स ने धोखा दिया है. रोम के आखिरी दिनों की तरह, एम्पायर अंदर से सड़ रहा है, टैलेंट और दौलत की कमी से नहीं, बल्कि हिम्मत और गुणों की कमी से.
मुझे ये कहने में बहुत ख़ुशी होती कि अटलांटिक के इस तरफ चीज़ें बेहतर हैं, कि यूरोप आज़ाद दुनिया का नया लीडर बन गया है. ज़ाहिर है. हालाँकि हमारी राजनीति उतनी खुलेआम भ्रष्ट नहीं है, लेकिन वही पतन की आत्मा पुरानी दुनिया को भी डरा रही है. सच तो ये है कि यूरोप के एलीट्स की डिफाइनिंग खूबियाँ सिर्फ अनैतिकता और अगंभीरता नहीं हैं. ये ‘अप्रासंगिकता’ भी है.
अगर अमेरिका रोम के पतन जैसा दिखता है, शानदार और भद्दा, तो यूरोप वेनिस की धीमी मौत को फिर से जी रहा है. एक साम्राज्य आग में ढह जाता है, दूसरा खामोशी में डूब जाता है. एक आग से ख़त्म होता है, दूसरा कोहरे में खो जाता है. शायद आप इस कहानी से वाकिफ होंगे. अपने शिखर पर, वेनिस व्यापार और इनोवेशन का एक अजूबा था. एक लैगून पर बसा छोटा शहर एक समुद्री साम्राज्य बन गया था, जिसने सदियों तक मेडिटेरेनियन व्यापार पर राज किया. इसकी सफलता एक अपेक्षाकृत खुली व्यवस्था में थी. व्यापारी मेरिट के ज़रिए ऊपर उठ सकते थे, व्यापार अच्छे से रेगुलेटेड था, और ग्रेट काउंसिल जैसे इंस्टीट्यूशंस ने रईसों और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाया था.
लेकिन 14वीं सदी तक, वो खुलापन गायब होने लगा. पतन के बीज 1297 में ग्रेट काउंसिल की ‘सेराटा’ (Serrata) या ‘बंदी’ के साथ बोए गए. मेंबरशिप वंशानुगत हो गई, जिसने जमे हुए रईसों का एक क्लास बना दिया जिन्होंने अपने विशेषाधिकारों की कड़ी सुरक्षा की. इस स्वार्थी एलीट ने सरकारी पदों पर एकाधिकार कर लिया, नए आने वालों को रोका, और अपनी दौलत और ताकत को बचाने के लिए नियम बदल दिए. सदियों के दौरान, वेनेशियन पॉलिटिक्स ‘रेंट-सीकिंग’ (rent-seeking) में बदल गई. शासक परिवारों ने इनोवेशन में दोबारा निवेश किए बिना व्यापार मोनोपोलीज़ से मुनाफा निकाला. उन्होंने अपनी दौलत महलों और कैसीनो में उड़ा दी और ओटोमन एम्पायर जैसी उभरती हुई ताकतों से बढ़ते खतरों को नज़रअंदाज़ कर दिया. यंग एलीट्स अब व्यापारी और एडमिरल नहीं बनना चाहते थे. इसके बजाय, उन्होंने आराम और लक्ज़री की ज़िंदगी पसंद की. और समय के साथ, वेनिस अपने पुराने स्वरूप की एक परछाई बन गया, बाहर से खूबसूरत, अंदर से खोखला. क्या ये आपको किसी चीज़ की याद दिलाता है?
आज, पूरा यूरोप एक बड़ा वेनिस बनने के खतरे में है, एक खूबसूरत ओपन-एयर म्यूजियम, चाइनीज़ और अमेरिकन टूरिस्ट्स के लिए एक बढ़िया डेस्टिनेशन, एक ऐसी जगह जहाँ वो देखने आते हैं जो कभी दुनिया का सेंटर था. ज़रा हमारी सबसे वैल्यूएबल कंपनियों को देखिए. यूएस और चाइना में, इकॉनमी की कमांडिंग हाइट्स टेक्नोलॉजी और इंडस्ट्री में हैं; एआई, इलेक्ट्रिक कार्स, सोलर पैनल्स, बैटरीज—बिग टेक के बारे में आप जो भी सोचें, लेकिन ये पावर इंडस्ट्रीज हैं, जो भविष्य तय कर रही हैं. असल में, सारी अमेरिकन जायंट्स—माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, अमेज़न, एनवीडिया, अल्फाबेट—अकेले ही पूरी जर्मन या फ्रेंच स्टॉक मार्केट से ज़्यादा वैल्यूएबल हैं. इसके विपरीत, यूरोप की टॉप कंपनियाँ बिग फैशन द्वारा डोमिनेटेड हैं. डिओर, लुई विटॉन, लॉरियल—हम हार्डवेयर के बजाय हैंडबैग्स का कॉन्टिनेंट बन गए हैं.
साथ ही, हमारा समाज तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है. बर्थ रेट्स गिर रहे हैं, ग्रोथ रुक-रुक कर चल रही है, और यूरोप की दौलत ज़्यादातर वंशानुगत हो गई है. जर्मनी में, 4 में से 3 अरबपतियों को उनकी दौलत विरासत में मिली. यूके में, बच्चों वाले परिवारों ने 20 सालों से अपनी आमदनी बढ़ते हुए नहीं देखी है, जबकि पेंशनर्स की आमदनी बढ़ती रही है. फ्रांस में, बुज़ुर्ग अब काम करने वाली आबादी से ज़्यादा आमदनी एन्जॉय करते हैं, और ये दुनिया के इतिहास में पहली बार हुआ है. राजनीतिक तौर पर, हम खुद में खोए हुए लोग बन गए हैं, मुख्य रूप से इमिग्रेशन पर अटके हुए हैं, हालाँकि हम में से सिर्फ 10% ईयू के बाहर पैदा हुए थे, और हमें उन नए आने वालों की ज़रूरत होगी उन सभी पेंशनर्स और इनहेरिटर्स को सँभालने के लिए.
यूरोप ने लंबे समय से खुद को मूल्यों का महाद्वीप माना है. हमें दूसरों को लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर भाषण देना पसंद है. लेकिन ज़रा इस साल हमें देखिए. जब इज़राइल ने गाज़ा पर 6 हिरोशिमा के बराबर बम गिराए, तो यूरोपियन लीडर्स मानवीय स्थिति पर अपनी चिंता भी मुश्किल से ज़ाहिर कर पाए, जैसे कि ये कोई प्राकृतिक आपदा हो. लेकिन जबकि यूरोपियंस दूसरों को रोकने में बहुत सफल नहीं हैं. हम खुद को रेगुलेट करने में बहुत अच्छे हो गए हैं. चाइना दुनिया का इंडस्ट्रियल पावरहाउस है. यूएस दुनिया का टेक्नोलॉजिकल पावरहाउस है और हम नियम बनाने में दुनिया को लीड करते हैं.
हमने एक पूरी नई क्लास ट्रेन की है, बिल्डर्स और क्रिएटर्स की नहीं, बल्कि कंप्लायंस ऑफिसर्स, ईएसजी ऑडिटर्स, सस्टेनेबिलिटी वेरीफायर्स और डेटा प्रोटेक्शन कंसल्टेंट्स की. ‘इनोवेट करने से पहले रेगुलेट करो, बनाने से पहले सुपरवाइज़ करो’. ये अभी यूरोप का माइंडसेट लगता है. हमने गर्व से दुनिया को अपने एआई एक्ट के बारे में बताया, भले ही हमारे पास बात करने के लिए कोई फ्रंटियर एआई कंपनियाँ नहीं थीं. हम उन इंडस्ट्रीज को गवर्न करने में शानदार हैं जो हमारे पास हैं ही नहीं. ठीक 14वीं सदी के वेनिस की तरह, हमारे पास एक इकॉनमी है जो उन्हें इनाम देती है जो कॉम्प्लेक्सिटी बढ़ाते हैं और रेंट्स (किराया/मुनाफा) निकालते हैं.
अब, मुझे गलत मत समझना. मैं एक पुराने स्टाइल का यूरोपियन सोशल डेमोक्रेट हूँ. मैं यहाँ सरकार-विरोधी या ईयू-विरोधी क्लीशे (clichés) बेचने नहीं आया हूँ. मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि एक हालिया लार्ज-स्केल स्टडी ने पाया कि तथाकथित बीएस जॉब्स—वो जॉब्स जिन्हें एम्प्लॉयीज़ खुद सामाजिक रूप से बेमतलब मानते हैं—पब्लिक सेक्टर के मुकाबले प्राइवेट सेक्टर में तीन गुना ज़्यादा कॉमन हैं. और मैं ये भी जानता हूँ कि ब्रेक्जिट के बाद भी, यूके सरकार की बीमारियाँ और भी ख़राब हैं. उदाहरण के लिए, इसका टैक्स कोड अब 22,000 पन्नों का है, जो दुनिया में सबसे लंबा है. यूरोप में, हमें अपने मज़बूत वेलफेयर स्टेट्स और अपने एम्बिशियस क्लाइमेट एफर्ट्स पर गर्व होना चाहिए. और हमें बिग टेक को रेगुलेट करने की ज़रूरत डेफिनेटली है. लेकिन सोशल डेमोक्रेसी को भविष्य बनाने पर फोकस करना चाहिए, सिर्फ वर्तमान को रेगुलेट करने पर नहीं. और रेगुलेशन सरल, ट्रांसपेरेंट और नए आने वालों के लिए खुला होना चाहिए, न कि घना, अस्पष्ट और स्टेटस को को बचाने वाला.
अब हमें जो मिल रहा है वो टैलेंट की भारी बर्बादी है. हमारे सबसे अच्छे दिमाग स्टार्ट-अप्स नहीं बना रहे हैं या रियल-वर्ल्ड प्रॉब्लम्स सॉल्व नहीं कर रहे हैं. वो रिपोर्ट्स लिख रहे हैं और ऑडिट्स की तैयारी कर रहे हैं. क्लाइमेट इनइक्विटी के नाम पर, हमने एक कंप्लायंस इकॉनमी बना ली है, जो प्रोडक्टिविटी को सज़ा देती है और ब्यूरोक्रेसी को इनाम. स्टेट ने डिलीवर करने की अपनी बहुत सी क्षमता खो दी है क्योंकि सिविल सर्वेंट्स जो कभी बनाना जानते थे, उनकी जगह कंसल्टेंट्स ने ले ली है.
तो आप सोच सकते हैं, विरोध कहाँ है? ज़ाहिर है, इतने सारे सड़न (decay) के सामने, एक नया लेफ्ट, एक प्रगतिशील आंदोलन खड़ा हुआ होगा, जो सरकार को फिर से महान बनाने के लिए दृढ़ हो. लेकिन नहीं, मॉडर्न लेफ्ट का एक बड़ा हिस्सा, ख़ासकर यूरोप में, “ना की पार्टी” बन गया है. ग्रोथ को ना, बनाने को ना, एम्बिशन को ना. इसका नया गॉस्पेल ‘डीग्रोथ’ है.
निष्पक्ष होकर कहें तो, डीग्रोथ मूवमेंट एक असली चीज़ का नाम लेता है. हमारी इकॉनमीज़ इस तरह नहीं चल सकतीं, जंगलों को उनके दोबारा उगने से तेज़ काटना, समुंदरों को मछलियों से खाली करना और वातावरण को कार्बन से भरना. डी-ग्रोथ की चेतावनी गंभीर है, लेकिन उनका जवाब नहीं. वो टेक्नोलॉजी से एलर्जी रखते हैं और समृद्धि पर शक करते हैं. वो सप्लाई और डिमांड के जिद्दी तथ्यों को ये दिखावा करके हटा देते हैं कि आप हुक्म से घरों की कीमतें आधी कर सकते हैं या नारे लगाकर गरीबी ख़त्म कर सकते हैं. वो जो पेश करते हैं वो समस्याओं को हल करने का प्रैक्टिकल प्रोग्राम नहीं है. बल्कि प्रबंधित पतन की एक बेहद अप्रिय और काफी एलिटिस्ट विचारधारा है.
सबसे ज़्यादा हैरान करने वाला, मुझे लगता है, लेफ्ट के कुछ कोनों में जारी किया गया ये फरमान है कि अब बच्चे नहीं होने चाहिए. डेमोग्राफर्स हमें बताते हैं कि पूरे डेवलप्ड वर्ल्ड में, बर्थ रेट्स में गिरावट भारी रूप से लेफ्ट के लोगों द्वारा माँ-बाप न बनने के फैसले से चल रहे है. ज़रा इस बारे में सोचिए. वो परंपरा जो कभी भविष्य के लिए खड़ी थी, अब दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़—नई ज़िंदगी—को पृथ्वी के खिलाफ एक अपराध मानती है. अगर आप एक ऐसी स्ट्रेटेजी डिज़ाइन करना चाहते थे जो आपके मूवमेंट को एक जनरेशन के अंदर अप्रासंगिक बना दे, तो आप इससे बेहतर शायद ही कुछ कर पाते.
गहरी त्रासदी ये है कि लेफ्ट कभी प्रोग्रेस में विश्वास करता था. ये विचार कि लोग और देश आगे बढ़ सकते हैं. ये शिक्षा और मुक्ति की परंपरा थी. जैसा कि अमेरिकन इतिहासकार नेल्सन लिचेंस्टीन ने लिखा है:
“गुलामी के खिलाफ धर्मयुद्ध से लेकर 1930 के दशक के लेबर अपसर्ज तक, सभी महान सुधार आंदोलनों ने खुद को एक नैतिक और देशभक्त राष्ट्रवाद के चैंपियंस के रूप में परिभाषित किया, जिसे उन्होंने उन संकीर्ण और स्वार्थी एलीट्स के खिलाफ खड़ा किया जो एक गुणवान समाज के उनके विज़न के खिलाफ लड़ रहे थे.”
लेकिन आज, वो यूटोपियन क्षितिज धुंधला हो गया है. लोगों को बेहतर भविष्य के विज़न से प्रेरित करने के बजाय, लेफ्ट अंदर की तरफ मुड़ गया है, और छोटे से छोटे मोरल सर्कल्स में टूट गया है. ये कैंसिल करने में तेज़, समझौता करने में धीमा, जज करने में तेज़, समझाने में धीमा हो गया है. पब्लिक शेमिंग के कैथार्सिस ने गठबंधन बनाने की मेहनत की जगह ले ली है. तो आज हमारे पास प्रोनाउन्स हैं, पर प्रोग्रेसिव टैक्सेशन नहीं. लैंड एकनॉलेजमेंट है पर अफोर्डेबल हाउसिंग नहीं, इंक्लूसिव लैंग्वेज है पर एक्सक्लूसिव ज़ोनिंग है. हमारे पास ऑप्टिक्स (दिखावा) है. लेकिन आउटकम्स (नतीजे) नहीं. तो क्या हमें वाकई हैरान होना चाहिए कि डेवलप्ड वर्ल्ड में लेफ्ट हार रहा है? बिलकुल नहीं. जब आप बनाना और ऑर्गेनाइज़ करना बंद कर देते हैं, तो आप सिर्फ चुनाव नहीं हारते, आप लोगों को खो देते हैं. और जब लेफ्ट पीछे हटता है, तो खाली जगह खाली नहीं रहती. दूसरे लोग अंदर घुसने के लिए तैयार रहते हैं.
तो अब, बुरी खबर सुनाता हूँ.
अगर आपको लगता है कि रोम या वेनिस का पतन डरावना था, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, ये और भी बुरा हो सकता है. हाँ, हमारे बीच जोकर और कायर हैं, लेकिन हमारे बीच असली फासीवादी भी हैं. हम फ्यूडल रेंट सीकर्स द्वारा शासित हो सकते हैं जो धीरे-धीरे हमारे समाज से जान निकाल लें, लेकिन हम उन लोगों द्वारा भी टेक ओवर किए जा सकते हैं जो इसे पूरी तरह से नष्ट कर दें.
मैंने हाल ही में एक एक्सक्लूसिव सिलिकॉन वैली कॉन्फ्रेंस अटेंड की. डिनर पर, बातचीत एक टेक ब्रो द्वारा डोमिनेट की गई जो इस तरह से बात कर रहा था जिसने मुझे मुसोलिनी जैसे 1930s के फासीवादियों की याद दिला दी. मैंने उसे ये पॉइंट आउट किया, और उसने बिना किसी आयरनी के जवाब दिया, “हाँ, मुझे लगता है कि हमें थोड़ा फासी होना चाहिए.”
ये सिर्फ एक आदमी नहीं था. वो वेस्टर्न वर्ल्ड में फासीवाद के व्यापक पुनरोदय का हिस्सा है. क्या हमें वाकई एफ शब्द इस्तेमाल करने की ज़रूरत है? हाँ, है. जैसे जेनोसाइड स्कॉलर्स साफ़ तौर पर क्लासिफाई कर सकते हैं कि गाज़ा में क्या हुआ है, वैसे ही फासीवाद के स्कॉलर्स अब जो उभर रहा है उसके संकेतों को पहचान सकते हैं. हम सड़कों पर हथियारों से लैस ट्रूप्स देखते हैं. हम नकाबपोश आदमियों को लोगों को वैन में खींचते हुए देखते हैं. हम राजनीतिक विरोधियों के घरों पर रेड्स देखते हैं. हम एक पैरामिलिट्री फोर्स का उदय देखते हैं जो सिर्फ एक आदमी के प्रति वफादार है. ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि फासीवाद के कुछ लीडिंग एक्सपर्ट्स यूनाइटेड स्टेट्स छोड़ चुके हैं. उनमें से एक ने कहा कि 1933 का सबक ये है कि जल्दी निकलो, देर से नहीं.
इस सब के दौरान, वाइट सुप्रीमेसिस्ट्स जश्न मना रहे हैं. “आठ साल पहले, आप एक एक्सट्रीमिस्ट थे अगर आप इमिग्रेंट्स द्वारा रिप्लेस किए जाने का विरोध करते थे,” एक लीडिंग नियो-नाज़ी ने हाल ही में ट्विटर पर लिखा. “अब ये ऑफिशियल वाइट हाउस पॉलिसी है.” या नियो-फासिस्ट इन्फ्लुएंसर्स जैसे ब्लॉगर कर्टिस यारविन के उदय को देखिए. वो लोकतंत्र को ख़त्म करना चाहता है और इसकी जगह एक टेक्नो-मोनार्की लाना चाहता है जिसका नेता एक सीईओ हो जिसके पास एब्सोल्यूट पावर हो, एलन मस्क या जेफ बेज़ोस जैसा कोई. यारविन ने पीटर थिएल जैसे अरबपतियों को प्रेरित किया है, जिन्होंने बदले में जेडी वेंस, जो अभी वाइस प्रेसिडेंट हैं, के उदय को बैंकरोल करने में मदद की. और दूसरे और भी आगे जाते हैं. माइकल एंटोन, जो सबसे प्रभावशाली मागा इंटेलेक्चुअल्स में से एक हैं, उन्होंने ‘रेड सीज़रिज्म’ के विचार को पॉपुलर किया है, वन-मैन रूल का एक रूप जिसे वो राजशाही और तानाशाही के बीच का बताते हैं.
ये लोग निर्दयी होकर ताकत चाहते हैं. वो लिटरली मानते हैं कि एक नए नेपोलियन या एक राइट-विंग लेनिन के टेक ओवर करने का वक़्त आ गया है. और लेनिन की तरह, वो जानते हैं कि वो बेहद बदनाम हैं. कि वो कभी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं जीतेंगे. इसीलिए वो लोकतंत्र के खिलाफ हैं और इसीलिए वो हमारी उदासीनता पर दांव लगा रहे हैं.
वो चाहते हैं कि हम प्लग आउट करें, स्क्रॉल करें, बिंज करें, अपने वीआर ग्लासेस और नॉइज़ कैंसिलिंग हेडफोन्स पहन लें जबकि वो दुनिया पर कब्ज़ा कर लें.
अगर आप आज की खबरों से दहशत में हैं, तो मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि अपनी कल्पना का विस्तार करें. खुद को 10 साल बाद की तस्वीर में देखें, आने वाले दशक का इतिहास पढ़ते हुए. अगर ये एक अथॉरिटेरियन टेकओवर की कहानी बताता है, तो जो आप आज देख रहे हैं वो बिलकुल वही है जो आप शुरुआती चैप्टर्स में एक्सपेक्ट करेंगे. मैंने आपको चेतावनी दी थी, ये लेक्चर दुःख भरा होने वाला था.
एक दशक पहले, जब डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार चुने गए थे, लिबरल एलीट्स ने अपनी वैल्यूज़ और अमेरिका और यूरोप के लाखों लोगों की वैल्यूज़ के बीच के फर्क का विश्लेषण और बहस करने में अनगिनत घंटे बिताए. “अगर हम सुनते और ट्रम्प वोटर्स या फराज वोटर्स या ली पेन वोटर्स या एएफडी वोटर्स या वाइल्डर्स वोटर्स के लिए सहानुभूति रखते, तो हम दुनिया को ठीक कर सकते थे.” या ऐसा कहा गया. पढ़े-लिखे एलीट्स ने ये एहसास नहीं किया कि उनका असली धोखा सुनने या सहानुभूति की कमी नहीं थी. ये अपने प्रिविलेज को चेक करने की कमी नहीं थी. ये अपने प्रिविलेज का यूज़ करने की कमी थी, ये समाज में सच्चे दिल से योगदान करने की विफलता रही है.
तो यही वो चीज़ है जिस पर मैं इस सीरीज़ के पहले लेक्चर के अंत में ज़ोर देना चाहता हूँ. ये कुछ लोगों की कहानी नहीं है. ये पूरी वेस्टर्न दुनिया में लीडरशिप की एक गहरी विफलता के बारे में है. एलीट्स की एक जनरेशन को असाधारण प्रिविलेज विरासत में मिला है, बेहतरीन शिक्षा तक पहुँच, सबसे ताकतवर इंस्टीट्यूशंस, और उन्होंने इसका इस्तेमाल जनता की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा के लिए किया.
हमने अपने सबसे अच्छे और तेज़ लोगों को सिखाया है कि कैसे चढ़ना है, लेकिन ये नहीं सिखाया कि कौन सी सीढ़ी चढ़ने लायक है. हमने नैतिकता के बिना एम्बिशन की, ईमानदारी के बिना बुद्धिमानी की एक मेरिटोक्रेसी बनाई है, और अब हम उसके नतीजे भुगत रहे हैं. गिरता हुआ भरोसा, बढ़ता हुआ सिनिसिज़्म. और एक नई जनरेशन जो ताकत को स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट और हर गुण को नाटक समझती है.
बेशक, सत्ता में हर कोई ऐसा नहीं है. आज सभी एम्बिशन खोखली नहीं है. अभी भी ऐसे लीडर्स और नागरिक हैं जो लाइन होल्ड करने की कोशिश कर रहे हैं. सिविल सर्वेंट्स जो राजनीतिक दबाव का विरोध करते हैं, पत्रकार जो सच के लिए अपनी सुरक्षा को खतरे में डालते हैं, वकील और जजेज़ जो अपने उसूलों को धोखा देने से इनकार करते हैं. लेकिन वो अपवाद बने हुए हैं, संख्या में कम और आवाज़ में दबे हुए. उनकी चिंगारियों ने अभी आग नहीं पकड़ी है.
अब हमें जिस चीज़ की ज़रूरत है वो सिर्फ बेहतर पॉलिसीज़ या बेहतर पॉलिटिशियंस नहीं हैं. हमें एक ‘मोरल रेवोल्यूशन’ (नैतिक क्रांति) की ज़रूरत है. हमें एक प्राचीन विचार को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है, जो आज के माहौल में लगभग हास्यास्पद लगता है, कि ताकत का मक़सद अच्छाई करना है. और यही इस लेक्चर सीरीज़ का लक्ष्य है. ये तर्क देना कि हमारे समय का सबसे ज़रूरी बदलाव टेक्नोलॉजिकल या जिओ-पॉलिटिकल या इंडस्ट्रियल नहीं, बल्कि मोरल है. हमें एक नई तरह की महत्वाकांक्षा की ज़रूरत है, स्टेटस, या दौलत, या शोहरत के लिए नहीं, बल्कि इंटीग्रिटी, हिम्मत, और जन-सेवा के लिए—एक मोरल एम्बिशन. ये शायद सुनने में... और फिर भी, ठीक इसीलिए क्योंकि चीज़ें बहुत ख़राब हो सकती हैं, वो बहुत बेहतर भी हो सकती हैं. इतिहास सिर्फ गिरावट का रिकॉर्ड नहीं है. ये हैरान करने वाले पलट-वार से भी भरा हुआ है. अपने अगले रीथ लेक्चर में, मैं दिखाऊँगा कि कैसे मोरल रेवोल्यूशंस ने अतीत को आकार दिया है और कैसे हम इसे फिर से मुमकिन कर सकते हैं.
श्रवण गर्ग : ट्रम्प के अमेरिका, मोदी के भारत में समानताएं, जब शासक जनता से डरने लगें
कल्पना कीजिए दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति, जिसे अपनी ‘मर्दानगी’ और ‘ताकत’ पर गुमान है, वह अपने ही नागरिकों के डर से व्हाइट हाउस के बंकर में छिपने को मजबूर हो जाता है.
यह कोई फ़िल्मी दृश्य नहीं है. श्रवण गर्ग याद दिलाते हैं कि ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन के दौरान डोनाल्ड ट्रम्प के साथ ऐसा ही हुआ था. और आज, जब ट्रम्प की काल्पनिक जीत का एक साल पूरा होने को है (रेबेका सोलनीट के लेख के अनुसार), अमेरिका फिर उसी मोड़ पर खड़ा है.
लेकिन यह कहानी सिर्फ वाशिंगटन की नहीं है.
हरकारा डीप डाइव के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने भारत और अमेरिका के बीच एक डरावनी समानता का ज़िक्र किया. वे कहते हैं, “ट्रम्प और मोदी, दोनों की कुंडली एक जैसी है.”
1. शांतिदूत या अपने ही लोगों के दुश्मन?
दोनों नेता दुनिया में युद्ध रुकवाने का दावा करते हैं. दोनों को नोबेल शांति पुरस्कार की चाहत है. लेकिन विडंबना देखिए—वे अपनी ही सीमाओं के भीतर, अपने ही नागरिकों के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं. अमेरिका में डेमोक्रेटिक राज्यों में ‘नेशनल गार्ड्स’ भेजे जा रहे हैं, और भारत में विपक्ष की सरकारों को गिराने या काम न करने देने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल हो रहा है.
2. बेड़ियों में जकड़े नागरिक
श्रवण जी ने एक दिल दहला देने वाली तस्वीर का ज़िक्र किया—अमेरिका में इलीगल इमिग्रेंट्स के नाम पर भारतीयों को बेड़ियों और हथकड़ियों में जकड़कर मिलिट्री विमानों से वापस भेजा गया. और सबसे अफ़सोसनाक बात? भारत में इसकी चर्चा तक नहीं हुई. क्यों? क्योंकि एक ‘नैरेटिव’ है कि हमारे लोग वहां बहुत खुश हैं. जब शासक अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए ‘दूसरों’ (इमिग्रेंट्स या घुसपैठियों) को निशाना बनाता है, तो अंत में गाज उसके अपने नागरिकों पर ही गिरती है.
3. एलीट का सरेंडर बनाम यूनिवर्सिटीज का साहस
रेबेका सोलनीट लिखती हैं कि अमेरिका में अमीर और एलीट वर्ग (जैसे एलन मस्क) सबसे पहले झुके. लेकिन वहां की यूनिवर्सिटीज ने रीढ़ की हड्डी दिखाई. सात बड़ी यूनिवर्सिटीज ने ट्रम्प प्रशासन से मिलने वाली आर्थिक मदद को ठुकरा दिया, लेकिन अपनी ‘अकादमिक आज़ादी’ (Academic Freedom) से समझौता नहीं किया.
क्या भारत के शिक्षण संस्थान आज यह हिम्मत दिखा सकते हैं? यह एक ऐसा सवाल है जो हमें खुद से पूछना चाहिए.
4. सड़क ही संसद है
अमेरिका में 70 लाख लोग सड़कों पर हैं—’No Kings’ का नारा लेकर. श्रवण जी कहते हैं कि भारत में हमें यह नहीं बताया जाता कि अमेरिकी नागरिक कैसे लड़ रहे हैं, ताकि कहीं हम उनसे ‘विरोध करना’ न सीख लें. वहां विपक्ष (डेमोक्रेट्स) भले ही कमजोर हो, लेकिन ‘जन’ (नागरिक) मजबूत है. भारत में भी, पिछले 11 सालों का इतिहास गवाह है—चाहे किसान आंदोलन हो या सीएए विरोधी प्रदर्शन—जब-जब सरकार पीछे हटी है, तो वह किसी पार्टी के कारण नहीं, बल्कि सड़क पर उतरे आम आदमी के कारण हटी है.
ट्रम्प का ‘थर्ड वर्ल्ड माइग्रेशन’ बैन ऐलान
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने घोषणा की है कि उनकी सरकार सभी “थर्ड वर्ल्ड” देशों से होने वाले माइग्रेशन को हमेशा के लिए रोक देगी. ट्रम्प पहले से ही ग़ैरक़ानूनी प्रवासियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई कर रहे हैं. द वायर ने बताया कि यह बयान उस घटना के बाद आया है जिसमें व्हाइट हाउस के पास हुई गोलीबारी में एक नेशनल गार्ड जवान की मौत हो गई. पुलिस का दावा है कि गोली चलाने वाला एक अफ़गान नागरिक था.
ट्रम्प ने अपनी सोशल मीडिया साइट ‘ट्रुथ सोशल’ पर लिखा, “मैं सभी थर्ड वर्ल्ड देशों से माइग्रेशन को हमेशा के लिए रोक दूँगा. बाइडेन सरकार के दौरान आए लाखों की तादाद में ग़ैरकानूनी प्रवासियों को वापस भेजा जाएगा. जो लोग अमेरिका के लिए फायदेमंद नहीं हैं, उन्हें हटा दिया जाएगा. ”
“थर्ड वर्ल्ड” शब्द शीत युद्ध के समय बना था,जब उन देशों को यह नाम दिया गया था जो न अमेरिका के साथ थे, न सोवियत संघ के साथ. बाद में इस शब्द का मतलब “गरीब या विकासशील देशों” से लिया जाने लगा. आज इसे “ग्लोबल साउथ” कहा जाता है.
लेकिन रॉयटर्स की एक रिपोर्ट ट्रम्प के दावे से अलग बात बताती है. रिपोर्ट कहती है कि जिस व्यक्ति पर गोली चलाने का आरोप है, उसकी पहचान 29 साल के रहमानुल्लाह लाकनवाल के तौर पर हुई है, उसे इस साल ट्रम्प प्रशासन ने ही शरण दी थी. लाकनवाल साल 2021 में अमेरिका आया था, उस कार्यक्रम के ज़रिए जिसे बाइडेन सरकार ने अफ़गानिस्तान में तालिबान के कब्ज़े के बाद शुरू किया था.
ट्रम्प ने कहा कि उनका लक्ष्य “अवैध और परेशान करने वाली आबादी को कम करना” है और इस समस्या का समाधान सिर्फ “रिवर्स माइग्रेशन” है, यानि लोगों को वापस भेजना
उन्होंने पहले भी आदेश दिया था कि बाइडेन सरकार के दौरान मंज़ूर हुए शरण मामलों और 19 देशों के नागरिकों को दिए गए ग्रीन कार्ड की जांच की जाए. रॉयटर्स के मुताबिक़, अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवा (USCIS) ने अफ़गान नागरिकों से जुड़े सभी आवेदन फिलहाल रोक दिए हैं.
थैंक्सगिविंग के मौके पर ट्रम्प ने एक लंबा और विवादित बयान भी दिया. उन्होंने लिखा कि “शरणार्थियों का बोझ” अमेरिका की स्कूलों, अस्पतालों, क़ानून-व्यवस्था और आर्थिक स्थिति को नुकसान पहुंचा रहा है. उन्होंने मिनेसोटा के गवर्नर टिम वॉल्ज़ को “गंभीर रूप से मंदबुद्धि” कहा और कांग्रेस सदस्य इल्हान उमर पर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की. उन्होंने उमर के देश को “पिछड़ा और अपराध से भरा” बताया और दावा किया कि वह “शायद ग़ैरकानूनी तरीके से अमेरिका आई हों.
जयपुर का डोल का बध जंगल ख़तरे में: 105 एकड़ के इस हरे-भरे वन को मॉल, फिनटेक पार्क और होटल में बदलने की तैयारी
जयपुर के बीचों-बीच बसे डोल का बध जंगल पर अप्राकृतिक ख़तरा मंडला रहा है. 105 एकड़ में फैला यह प्राचीन जंगल 2,400 से ज़्यादा पेड़ों, 40 से अधिक प्रजातियों, 60 से ज़्यादा औषधीय पौधों और 85 से अधिक पक्षी प्रजातियों का घर है। इसमें नीलगाय जैसे संरक्षित जानवर और दुर्लभ एलेक्ज़ेंड्राइन पैराकीट भी पाई जाती हैं. आर्टिकल 14 ने हाल ही में जयपुर में हुए इसके ख़िलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है.
मार्केटिंग प्रोफेशनल शौर्य गोयल, जो इस जंगल को बचाने की मुहिम का हिस्सा हैं, बताते हैं कि अप्रैल से नवंबर 2025 के बीच लगभग 15% जंगल साफ कर दिया गया. स्थानीय लोगों का कहना है कि यह शुरुआत है, क्योंकि राज्य सरकार यहां मॉल, फिनटेक पार्क, होटल और राजस्थान मंडपम सेंटर जैसी बड़ी परियोजनाएँ ला रही है. यह पूरी योजना लगभग 3,700 करोड़ रुपये की बताई जाती है.
राजस्थान में दिसंबर 2023 से सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने इस जंगल को एक बड़े कमर्शियल हब में बदलने की मंजूरी दी है. हालांकि, अदालत में सरकार का दावा है कि “एक भी पेड़ नहीं काटा गया”, सिर्फ 56 पेड़ों को ‘स्थानांतरित’ किया गया है और 10 गुना पेड़ नई जगह लगाए गए हैं.
पर्यावरणविदों का कहना है कि ये दावे ज़मीनी हक़ीक़त से मेल नहीं खाते, खासकर तब, जब भारत दुनिया के सबसे प्रदूषण और जलवायु संकट झेलने वाले देशों में से एक है. वैज्ञानिकों की रिपोर्ट ‘G20 रिस्क एटलस’ के अनुसार भारत के शहर गर्मी, जल संकट और क्लाइमेट चेंज के सबसे बड़े ख़तरे झेलेंगे. ऐसे में शहरों के जंगल बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
नया श्रम कोड : सुधार के नाम पर अधिकारों की कटौती?
भारत सरकार द्वारा लागू किए गए नए लेबर कोड को एक “ऐतिहासिक सुधार” के रूप में पेश किया गया है , जिसने वेतन, इंडस्ट्रियल रिलेशंस, सामाजिक सुरक्षा और कार्यस्थल सुरक्षा से जुड़े कुल 29 पुराने क़ानूनों को हटाकर सिर्फ चार कोड में बदल दिया. सरकारी विज्ञापनों में इसे बड़ी उपलब्धि बताया गया जैसे यूनिवर्सल न्यूनतम वेतन, बेहतर सामाजिक सुरक्षा, कम कंप्लायंस और ज़्यादा औपचारिक रोज़गार का वादा.
लेकिन द वायर में प्रकाशित मुनीर के विश्लेषण के अनुसार, इन चमकदार दावों और वादों के पीछे एक ऐसा सिस्टम छिपा है जो आधुनिक तो नज़र आता है, मगर हक़ीक़त में यह मज़दूरों के अधिकारों को पहले से ज़्यादा मज़ीद कमज़ोर कर सकता है. इनमे से मज़दूरों को दी जाने वाली कई “सुरक्षाएँ” सिर्फ कागज़ी हैं, कमजोर हैं, या इस तरह लिखी गई हैं कि नियोक्ताओं के पास ज़्यादा अधिकार हों और श्रमिकों की सुरक्षा कम हो.
सबसे बड़ा झटका जॉब सिक्योरिटी में आया है. इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड ने कंपनियों को कर्मचारियों की छँटनी करने के लिए ज़रूरी सरकारी अनुमति की सीमा 100 कर्मचारियों से बढ़ाकर 300 कर दी है. इसका मतलब यह है कि अब कंपनियाँ आसानी से छँटनी कर सकती हैं, और इस पर सरकारी निगरानी कम कर दी गई है.
कई विशेषज्ञ इसे “हायर-एंड-फायर कल्चर” बढ़ाने वाला क़दम क़रार दे रहे हैं बताते हैं. वहीं “वर्कर” और “एम्प्लॉयी” की परिभाषाएँ भी इतनी उलझी हैं कि कानूनी अस्पष्टता और बढ़ सकती है.
सरकार के वादे के बावजूद यूनिवर्सल मिनिमम वेज भी अधूरा साबित होता है. राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन का आधार बहुत कम है और वेतन सीमा 18,000 रुपए प्रति माह तय की गई है, जिसे ट्रेड यूनियन “अपर्याप्त” बताते हैं। OECD देशों की तरह भारत ने न्यूनतम वेतन को न तो जीवन-यापन लागत से जोड़ा, न ही औसत आय से.
सामाजिक सुरक्षा भी सिर्फ नाम मात्र की है. गिग वर्कर्स और असंगठित श्रमिकों को शामिल तो किया गया है, पर 1-2% योगदान दर से वास्तविक सुरक्षा मिलना लगभग असंभव है. ESIC की कवरेज भी सीमित है क्योंकि 21,000 रुपये की वेतन सीमा बड़ी संख्या में कमज़ोर श्रमिकों को बाहर कर देती है. एक साल में ग्रेच्युटी का नियम दिखने में अच्छा है, लेकिन छोटी अवधि के रोज़गार चक्र बढ़ने से इससे अधिक लाभ कई बार नियोक्ताओं को होता है.
नए लेबर कोड काम के घंटे को भी लचीला बताते हैं, लेकिन 8 से 12 घंटे की शिफ्ट की अनुमति, वह भी कमज़ोर निगरानी के बीच, ओवरवर्क को सामान्य बना सकती है. इंस्पेक्टर्स को “फैसिलिटेटर” में बदला गया है, और निरीक्षणों को एल्गोरिद्म से जोड़ा गया है, जिससे कार्यस्थल सुरक्षा और कमज़ोर हो सकती है.
सामूहिक सौदेबाज़ी की शक्ति भी चरमराती दिखाई देती है. ट्रेड यूनियनों का कहना है कि नए कोड से हड़ताल और संगठन बनाना और मुश्किल हो जाएगा, जबकि दूसरी ओर कंपनियों को अधिक ढील मिल गई है. इससे श्रमिकों की बार्गेनिंग पावर और घटेगी.
दुनिया के मुक़ाबले भारत के ये सुधार काफी कमज़ोर नज़र आते हैं. यूरोपीय देशों में काम के घंटे, छुट्टियाँ, नाइट शिफ्ट की सुरक्षा और बिना कारण नौकरी से निकालने पर बहुत सख़्त नियम हैं. वहाँ सामाजिक सुरक्षा सभी नागरिकों के लिए मज़बूत और सार्वभौमिक होती है. नॉर्डिक देश तो इससे भी आगे बढ़कर कम काम के घंटे और चार दिन के कार्य सप्ताह जैसे मॉडल अपना चुके हैं.
इसकी तुलना में भारत के लेबर कोड अधिकतर नियोक्ता-सुविधा केंद्रित दिखते हैं. उनका ध्यान क़ानूनों को सरल बनाने और व्यापार करने में आसानी पर है, न कि श्रमिकों की शक्ति और सुरक्षा बढ़ाने पर।
मुनीर का कहना है कि अगर भारत सच में अपने करोड़ों श्रमिकों की सुरक्षा चाहता है, तो उसे सिर्फ “कॉस्मेटिक सुधार” छोड़कर बड़े संरचनात्मक बदलाव की ज़रुरत है, जैसे छँटनी पर कड़े नियम, जीवन-यापन लायक न्यूनतम वेतन, मज़बूत सामाजिक सुरक्षा, श्रमिकों की सामूहिक सौदेबाज़ी का अधिकार और स्वतंत्र निरीक्षण तंत्र.
वे कहते हैं, कैलिफ़ोर्निया जैसे स्थानों में मज़दूरों के लिए दुनिया के सबसे मज़बूत क़ानून हैं और इससे व्यापार भागा नहीं है, बल्कि वह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इसे उदाहरण बनाकर भारत को समझना होगा कि व्यापार की सुविधा और श्रमिकों की गरिमा दोनों साथ-साथ चल सकती हैं.
ट्रम्प का जनाधार बिखरने के कगार पर: क्या है ‘मागा’ और ‘नॉन-मागा’ का अंतर?
पोलिटिको का नया सर्वेक्षण बताता है कि 2024 में डोनाल्ड ट्रम्प को वोट देने वाले एक तिहाई से अधिक मतदाता खुद को ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) रिपब्लिकन नहीं मानते. यह समूह ट्रम्प के प्रति कम वफादार है और अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति के लिए उन्हें जिम्मेदार मानता है.
सर्वेक्षण के अनुसार:
आर्थिक चिंताएं: नॉन-मागा मतदाता जीवन यापन की लागत को लेकर अधिक चिंतित हैं (59%) जबकि मागा समर्थकों में यह आंकड़ा कम (48%) है.
भविष्य की उम्मीद: 73% मागा रिपब्लिकन मानते हैं कि अगले पांच सालों में उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी, जबकि नॉन-मागा समूह में यह भरोसा केवल 57% है.
पार्टी पर भरोसा: स्वास्थ्य सेवा जैसे मुद्दों पर नॉन-मागा मतदाताओं का रिपब्लिकन पार्टी पर भरोसा काफी कम (55%) है, जबकि मागा मतदाताओं में यह 85% है.
यह विभाजन रिपब्लिकन पार्टी के लिए खतरे की घंटी है, खासकर मध्यावधि चुनावों से पहले. लैटिनो और युवा पुरुष मतदाताओं का डेमोक्रेट्स की ओर वापस झुकना यह संकेत दे रहा है कि ट्रम्प का 2024 का गठबंधन कमजोर पड़ रहा है. रिपोर्ट कहती है कि रिपब्लिकन पार्टी के पास इन मतदाताओं को स्थायी रूप से जोड़े रखने के लिए चार साल से भी कम का समय है.
अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.










