29 दिसंबर 2024: मनुस्मृति पर विवाद, सम्भल में चुप्पी, मनमोहन जो नहीं थे, साख गिरने से परेशान रही मोदी सरकार, किसान नेता की गिरती सेहत, जिन पाकिस्तानी चीजों से है प्यार
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
बीएचयू में मनुस्मृति की प्रतियां जलाने की कोशिश, 13 गिरफ्तार : 25 दिसंबर को 1927 में महिला सम्मेलन में भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति की प्रतियां जलायी थीं. इसके 97वें साल के उपलक्ष्य में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्रों ने इस ग्रंथ पर चर्चा रखी थी. इस दौरान प्रॉक्टोरियल बोर्ड से उनकी झड़प हो गई. इसकी शिकायत बीएचयू के चीफ प्रॉक्टर प्रोफेसर एसपी सिंह ने 25 दिसंबर को पुलिस में की. इसके बाद भारी हंगामे के बीच भगत सिंह छात्र मोर्चा से जुड़े 13 छात्रों को मनुस्मृति की प्रतियां जलाने की कोशिश के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. शुरुआत में पुलिस 10 छात्रों को पकड़ कर ले गई थी, जबकि बाद में तीन और को हिरासत में ले लिया. सभी 13 छात्रों को अदालत में पेश कर न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया है. वहीं इसी दिन दलित संघर्ष समिति के सदस्यों ने हुबली, कर्नाटक के जगत सर्किल पर प्रदर्शन किया और मनुस्मृति की प्रतियां जलाई. जाति व लिंग के नाम पर भेदभाव के खिलाफ ‘मनुस्मृति की शवयात्रा’ भी निकाली गई.
सैलानियों को मस्जिदों और घरों में पनाह: शुक्रवार से कश्मीर घाटी के अधिकतर इलाक़ों में मध्यम से भारी बर्फबारी जारी है. इस कारण शनिवार से सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है. इससे न सिर्फ़ उड़ान और रेल परिचालन बाधित हुए हैं, बल्कि श्रीनगर-जम्मू राष्ट्रीय राजमार्ग भी बंद हो गया. बहुत सारे सैलानी जो कश्मीर में फंस गये हैं, उन्हें वहां के लोग अपने घरों और मस्जिदों में जगह दे रहे हैं. लोग सोशल मीडिया पर तस्वीरें और वीडियो साझा करके बता रहे हैं कि एक तरफ जहां कश्मीरियों के खिलाफ कितना कुछ बोला जाता है, वही अपने दिल और दरवाज़े फंसे हुए लोगो के लिए खोल रहे हैं. एक और जगह किसी ने लिखा, कि जहाँ दूसरे राज्यों में कई जगह मस्जिदों को बुलडोजर से ढहाया जा रहा है, मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं, यहां मस्जिद सभी को शरण दे रही हैं.
‘सरकार किसान नेता को आत्महत्या के लिए उकसाने की जिम्मेदार है’ : पिछले एक महीने से ज्यादा समय (26 नवंबर) से एमएसपी लागू करने और किसानों के अन्य मांगों के समर्थन में किसान नेता आमरण अनशन पर हैं. कैंसर पीड़ित इस किसान नेता की हालत गंभीर हो गई है. सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को पंजाब सरकार को डल्लेवाल को अस्पताल ले जाने के लिए मनाने के लिए 31 दिसंबर तक का समय दिया. जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की अवकाश पीठ ने स्थिति को बिगड़ने देने और डल्लेवाल को चिकित्सा सहायता प्रदान कराने के अपने पहले के निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए पंजाब सरकार की खिंचाई की और कहा, ‘वे उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध में शामिल हैं’. अदालत ने ये बातें तब कही, जब पंजाब सरकार की ओर से पेश हुए एडवोकेट जनरल गुरमिंदर सिंह ने पीठ को बताया कि विशेषज्ञों की एक टीम ने विरोध स्थल का दौरा किया और उन्हें अस्पताल में भर्ती होने के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने चिकित्सा सहायता लेने से इनकार कर दिया है. इसमें (आईवी) ड्रिप भी शामिल है. उनका कहना है कि इससे आंदोलन का उद्देश्य कमजोर हो जाएगा.
रोपवे का विरोध: प्रस्तावित रोपवे परियोजना के खिलाफ रियासी जिले की त्रिकुटा पहाड़ियों में लगातार चौथे दिन शनिवार को भी माता वैष्णो देवी संघर्ष समिति ने बंद जारी रखा. इन्हें जम्मू चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (जेसीसीआई) का भी समर्थन हासिल है. विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने 18 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया था. उनकी रिहाई के लिए अब पांच लोग भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं और आंदोलन को ओर चार दिन (72 घंटे) के लिए बढ़ा दिया है.
एक तस्वीर के जरिये डॉ सिंह की याद और कैग वाले विनोद राय की भी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के प्रमुख मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अमित मित्रा ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की याद में 54 वर्ष पुरानी एक तस्वीर शेयर करते हुए एक भावुक कर देने वाली पोस्ट लिखी है. डॉ. मित्रा लिखते हैं-
डॉ. मनमोहन सिंह के छात्रों के रूप में हम उनकी गर्मजोशी और स्नेह को गहराई से याद करेंगे. नीचे दी गई तस्वीर दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (1969) की है और डॉ. सिंह की विनम्रता को दर्शाती है. प्रोफेसर कुर्सियों पर बैठे थे, लेकिन वह चुपचाप आए और छात्रों के बीच खड़े हो गए. (सर्किल में : प्रो. अमर्त्य सेन, डॉ. सिंह और मैं). डॉ. सिंह के बाईं ओर जो खड़े थे, वह विनोद राय हैं. विडंबना देखिए कि 40 साल बाद भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) के रूप में विनोद की रिपोर्ट ने डॉ. सिंह और उनकी सरकार के खिलाफ एक तूफान खड़ा किया (2G और कोयला 'घोटाला'), जिससे उनकी सरकार का पतन हुआ और 2014 में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ. लेकिन 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए कोयला मामले में डॉ. सिंह के खिलाफ अभियोजन को रोक दिया कि “केस में कोई दम नहीं है, न ही कोई आरोप है.” लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी !!
2017 में सीबीआई कोर्ट ने 2G को लेकर आरोपों को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि “कुछ लोगों ने कुछ चयनित तथ्यों को कुशलता से व्यवस्थित करके एक घोटाला बनाया.” लेकिन देर हो चुकी थी ! 2021 में, विनोद ने संबंधित मामले में अदालत में बिना शर्त माफी मांगी. उस समय विपक्ष ने विनोद की 2012 की रिपोर्ट को डॉ. सिंह की सरकार को हटाने की साजिश बताया. बहुत देर हो चुकी थी! एक 54 साल पुरानी तस्वीर (जो विनोद ने ही मुझे कुछ साल पहले भेजी थी!) एक हजार शब्दों के बराबर है…
आकार पटेल: मनमोहन सिंह जो नहीं थे
आकार पटेल ‘प्राइस ऑफ मोदी इयर्स’ के लेखक है और भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल बोर्ड के चेयर हैं.
मनमोहन सिंह क्या थे, इस बारे में बहुत कुछ लिखा गया है और लिखा जाएगा. यहाँ कुछ बातें इस बारे में हैं कि वह क्या नहीं थे.
मनमोहन सिंह नए भारत के प्रतिनिधि नहीं थे. वह भारत की पुरानी विचारधारा के नेता थे. उन्होंने विभाजन के बजाय समावेश पर जोर दिया. यदि उन्होंने अपने सार्वजनिक भाषणों में धर्म का उल्लेख किया, तो यह किसी विशेष समूह को बदनाम और दानव बनाने और उनके खिलाफ आबादी को भड़काने के प्रयास के कारण नहीं था.
नए भारत के नए वयस्क, 18 वर्ष की आयु के और आज मतदान करने वाले, लेकिन 2014 में केवल 10 वर्ष के थे और एक दशक की नफरत में डूबे हुए हैं, यह जानकर आश्चर्य हो सकता है, लेकिन यह अतीत में भारतीय नेतृत्व का स्थापित खाका था. मनमोहन सिंह ने इसके बेहतरीन पहलुओं का प्रतिनिधित्व किया.
सिंह हीरो नहीं थे और न ही आडंबरपूर्ण थे. उन्होंने अपने भाषणों में खुद का उल्लेख किसी तीसरे व्यक्ति की तरह नहीं किया. उन्होंने सोने की पिन स्ट्राइप्स से कढ़ाई किए हुए अपने नाम वाले सूट नहीं पहने. उन्होंने अपनी विनम्र पृष्ठभूमि का ज्यादा जिक्र नहीं किया और जब वे सामने आए तो उन्होंने खुद को और अविभाजित भारत में अपने गांव के जीवन को किसी मंच पर नहीं रखा.
यह सच है कि उन्होंने अपनी डिग्रियों का दिखावा नहीं किया, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं था कि वह कुछ छिपाना चाहते थे. या कि उनके बायोडाटा में मनगढ़ंत सामग्री थी. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज में उनके नाम पर छात्रवृत्तियां हैं. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नेफ़िल्ड कॉलेज, जहाँ उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, ने उन्हें अपनी वेबसाइट पर जगह दी है. उनकी थीसिस को 'भारत के निर्यात रुझान और आत्मनिर्भर विकास की संभावनाएं' शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था.
चूंकि वह ज्ञान में डूबे हुए थे और तुनकमिज़ाज़ नहीं थे, इसलिए वे जानबूझ कर भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का इरादा नहीं रखते थे. वे बिल्कुल इसके उलट थे. उन्हें हमारी विकास दर को जानबूझकर कम करने के विचार से गहरा दुख होता, उदाहरण के लिए, एक सनक में नोटबंदी कर देना. अपने लोगों को बेवजह तक़लीफ देना उनके बस की बात नहीं थी और वह ऐसे कार्यों को करने में असमर्थ थे, जिससे आधी रात के लॉकडाउन के कारण लाखों लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
वह उत्तेजना में आकर फैसले करने वालों में नहीं थे. इस तरह की निर्णय क्षमता वही दिखाते हैं, जो बिना सोचे समझे निष्कर्ष निकालते हैं. वह विचारशील और बौद्धिक रूप से गहरे थे. वह इस बात से अनजान नहीं थे कि दुनिया कैसे काम करती है. मार्च 2009 में, फाइनेंशियल टाइम्स ने तीन संपादकों को उनका साक्षात्कार लेने के लिए भेजा. उनका पहला सवाल, जो आज भी प्रासंगिक है, यह था: "क्या आप वैश्विक मौद्रिक व्यवस्था की विफलताओं और डॉलर के स्थान पर एक नये रिजर्व असेट बनाने के मामले पर चीन से सहमत हैं?"
उनका जवाब, जो आज भी प्रासंगिक है, था: "खैर, ये कोई नए मुद्दे नहीं हैं. मैं 1970 के दशक में पॉल वोल्कर के साथ 20 की पहली समिति से जुड़ा था. इन मुद्दों पर कई बार चर्चा हो चुकी है - एक तटस्थ रिजर्व असेट की ओर बढ़ना. लेकिन जटिल मुद्दे हैं. पैसे जारी करने की ताकत एक देश की शक्ति का संकेत है और कोई भी अपनी मर्जी से ताकत नहीं छोड़ता है."
मनमोहन सिंह अपने पूर्ववर्ती के विपरीत देश से पहले पार्टी को रखने में असमर्थ थे. यह नये भारत के लिए विचार करने की बात है जब आज बताया जा रहा है कि सिंह कमजोर थे और दबाव का विरोध करने में असमर्थ थे. इतिहास सिंह को कैसे याद रखेगा? काफी गर्मजोशी से, ऐसा लगता है.
29 अप्रैल 2002 को एक साप्ताहिक पत्रिका द्वारा प्रकाशित इस रिपोर्ट पर ध्यान दें, जिसका शीर्षक था 'वाजपेयी कैसे हिंदुत्व के कोएर बॉय (संगतकार गायक) बने'. इसमें लिखा है: "पार्टी अध्यक्ष जन कृष्णमूर्ति ने अपना अध्यक्षीय भाषण पूरा किया ही था कि मोदी खड़े हो गए और गंभीर, शुद्ध हिंदी में कहा: 'अध्यक्ष जी, मैं गुजरात पर बोलना चाहता हूं ... पार्टी के दृष्टिकोण से, यह एक गंभीर मुद्दा है. एक स्वतंत्र और स्पष्ट चर्चा की आवश्यकता है. इसे करने के लिए मैं इस मंच के समक्ष अपना इस्तीफा देना चाहता हूं. अब समय आ गया है कि हम यह तय करें कि पार्टी और देश को आगे से किस दिशा में जाना चाहिए.' "उन्हें और कुछ कहने की जरूरत नहीं थी. एक झटके में, गुजरात के मुख्यमंत्री ने मौका झपट लिया था. उन्होंने अपने समर्थकों पहले से तैयार थे जो अब उनके साथ गिने जाने के लिए तैयार थे. खाद्य मंत्री शांता कुमार, जिन्होंने मोदी और विहिप की अति के खिलाफ आवाज उठाई थी, को फटकार लगाई गई और उन्हें अनुशासनात्मक समिति का सामना करना पड़ा. उन्हें माफी मांगने के लिए मजबूर किया गया. यहां तक कि अगर प्रधानमंत्री को भी अपनी निजी छवि और गठबंधन सरकार को बचाने के लिए मोदी का इस्तीफा लेना सही लग रहा था, पार्टी में मोदी समर्थन की भावना की आक्रामकता के खिलाफ जाने उनके पास कोई रास्ता नहीं था. उन्होंने इस मुद्दे को एक दिन के लिए टालने की कोशिश की, लेकिन इसका भी विरोध किया गया."
जनवरी 1949 में, गांधी की हत्या के एक साल बाद, जॉर्ज ऑरवेल ने 'गांधी पर चिंतन' नामक एक निबंध लिखा. निबंध को वे इन पंक्तियों के साथ समाप्त करते हैं.
"लेकिन अगर, 1945 तक, ब्रिटेन में भारतीय स्वतंत्रता के प्रति सहानुभूति रखने वाले विचारों का एक बड़ा समूह बन गया था, तो इसके पीछे गांधी का व्यक्तिगत प्रभाव कितना था? और अगर, जैसा कि हो सकता है, भारत और ब्रिटेन आखिरकार सभ्य और मैत्रीपूर्ण संबंध में बस भी जाते हैं, तो क्या यह आंशिक रूप से इसलिए होगा क्योंकि गांधी ने अपने जिद्द पर बिना नफरत के संघर्ष को जारी रखकर राजनीतिक माहौल को विषाक्त होने से मुक्त रखा था? यह प्रश्न पूछने का भी विचार उनकी ऊंचाई को दर्शाता है. कोई महसूस कर सकता है, जैसा मैं करता हूँ कि तबीयत से ही नापसंद है गाँधी. उनकी तरफ से किये गये ये दावे कि गाँधी संत हैं (हालांकि उन्होंने खुद कभी ऐसा कोई दावा नहीं किया), को खारिज किया जा सकता है. कोई संतत्व के आदर्श को भी खारिज कर सकता है यह महसूस करते हुए कि गांधी के बुनियादी इरादे मनुष्य विरोधी और प्रतिक्रियावादी थे. पर अगर आप उन्हें सिर्फ एक राजनेता की तरह देखेंगे और हमारे वक़्त के दूसरे राजनीतिक हस्तियों से उनकी तुलना करेंगे, तो देखिये कि कितनी साफ गंध वे अपने पीछे छोड़ गये हैं.’
सरकार मान रही थी लोकतंत्र और कानून- दोनों में उसकी साख गिर रही है
रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने अपने सीरीज मिनिस्ट्री ऑफ ट्रुथ की तीसरे और अंतिम भाग में बताया है कि कैसे केंद्र सरकार दुनिया भर के सूचकांकों और रिपोर्ट्स पर भारत की गिरती साख और रेटिंग की फिक्सिंग करने की कोशिश कर रही थी. श्रीगिरीश जलिहाल की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में, कैबिनेट सचिव ने विधायी विभाग को एक निर्देश जारी किया: वैश्विक सूचकांकों पर सरकार की खराब छवि को सुधारें. प्रधानमंत्री कार्यालय की निगरानी में, अधिकारियों ने अनिच्छा से अपनी छवि सुधारने का मिशन शुरू किया.
इसके लिए, दो सूचकांकों को दोषी ठहराया गया - एक जिसने भारत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन को पहले की तुलना में कम लोकतांत्रिक बताया और दूसरा जिसने कानून के राज के प्रति चिंताजनक उदासीनता को उजागर किया. इन सूचकांकों को प्रकाशित करने वाले संगठनों पर सरकार की उपलब्धियों को न समझने का आरोप लगाया गया. 'द रिपोर्टर्स कलेक्टिव' की एक जांच में पता चला कि सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए कई प्रयास किए. इनमें, ग्लोबल हंगर इंडेक्स के प्रकाशकों के साथ लॉबिंग करना और अपना अलग गरीबी सूचकांक बनाना शामिल था. यह सब 'सुधार और विकास के लिए वैश्विक सूचकांक' (जीआईआरजी) नामक एक परियोजना का हिस्सा था, जिसके तहत 19 मंत्रालयों को 30 से अधिक वैश्विक रैंकिंग सूचकांकों की निगरानी और समीक्षा करने का काम सौंपा गया था.
कानून और न्याय मंत्रालय के विधायी विभाग को रूल ऑफ लॉ इंडेक्स और डेमोक्रेसी इंडेक्स पर काम करना था. मिशन स्पष्ट था: प्रकाशकों को अपनी कार्यप्रणाली बदलने के लिए राजी करना या उनके निष्कर्षों को बदनाम करना, साथ ही बेहतर दिखने वाले विकल्प पेश करना. लेकिन, मंत्रालय के विशेषज्ञों ने इन सूचकांकों की कार्यप्रणाली की जांच करने के बाद, अप्रत्याशित काम किया: वे इन सूचकांकों के निष्कर्षों से सहमत हो गए. आधिकारिक ब्रीफिंग पेपर्स में न केवल इन निष्कर्षों का समर्थन किया गया, बल्कि यह भी बताया गया कि मोदी के शासन में लोकतंत्र और कानून का शासन किस तरह कमजोर हुआ है.
मंत्रालय ने यह भी माना कि "भारत की जांच एजेंसियां राजनीतिक रूप से प्रेरित हो गई हैं." यह सरकार द्वारा विपक्ष और नागरिक समाज संगठनों द्वारा लगाए गए उन आरोपों को पहली बार आंतरिक रूप से स्वीकार करना था, जिनमें एजेंसियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया था. लोकतंत्र सूचकांक पर एक ब्रीफिंग पेपर में कहा गया है, "यह कहना गलत नहीं होगा कि हाल ही में दो ऐसे मुद्दे थे, जिनमें न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी, वे हैं (i) राजनीति का अपराधीकरण और (ii) चुनावों पर खर्च."
मंत्रालय ने राजनीति के अपराधीकरण पर कहा, "मुख्य समस्या यह है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाले बन जाते हैं, इससे सुशासन देने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की प्रभावशीलता प्रभावित होती है." हालांकि, इन गंभीर आंतरिक मूल्यांकनों के बावजूद, सरकार ने इन सूचकांकों को बदनाम करने और उन्हें खारिज करने के प्रयास जारी रखे. एक ब्रीफिंग पेपर में यह भी दावा किया गया कि बी.आर. अम्बेडकर, भारत के संविधान के निर्माता को भी वैश्विक सूचकांकों की चिंता थी, लेकिन इसमें एक लाइन गलत तरीके से अम्बेडकर से जोड़ी गई थी.
मंत्रालय ने कानून के शासन के सूचकांक पर भारत की खराब स्थिति के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराया, हालांकि उसने खुद स्वीकार किया कि देश में "कानूनों में खामियां" हैं. लोकतंत्र सूचकांक पर, मंत्रालय ने माना कि "राजनीति का अपराधीकरण" और "चुनावों में पैसे का गलत इस्तेमाल" लोकतंत्र के लिए हानिकारक हैं. लेकिन, इसके बावजूद, मंत्रालय ने लोकतंत्र सूचकांक को खारिज करने की कोशिश की. सरकार ने सूचकांक के प्रकाशकों पर दबाव डालने और उनसे संपर्क करने की कोशिश की. साथ ही, उन्होंने सूचकांक के लिए डेटा देने वाले कुछ भारतीय शोधकर्ताओं की भी पहचान की. सरकार ने अन्य मंत्रालयों से भी इन सूचकांकों पर अपनी प्रतिक्रिया मांगी, लेकिन अधिकांश मंत्रालयों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
अंत में, मंत्रालय ने इस जिम्मेदारी से मुक्त होने की कोशिश की, लेकिन कोई अन्य मंत्रालय इसे लेने को तैयार नहीं था. एक आखिरी प्रयास में, मंत्रालय ने अन्य मंत्रालयों से ऐसे मापदंडों का प्रस्ताव करने के लिए कहा जो भारत की प्रगति को बेहतर ढंग से दर्शाते हों, जैसे कि "जीडीपी विकास". मंत्रालय ने एक बाहरी एजेंसी को भारत के लोकतंत्र का मूल्यांकन करने का काम सौंपने का भी सुझाव दिया. सरकार अपनी छवि को लेकर कितनी चिंतित है और इसे सुधारने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है, भले ही उसकी खुद की रिपोर्टें उसकी नकारात्मक छवि की पुष्टि करती हों.
पाकिस्तान में घुसकर अब अफगानियों ने मारा
अफगानिस्तान के रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि उसकी सेनाओं ने पाकिस्तान के भीतर कई स्थानों पर हमले किए हैं. यह कार्रवाई पिछले सप्ताह पाकिस्तानी हवाई हमलों के जवाब में की गई है, जिनमें अफगानिस्तान के पूर्वी पक्तिका प्रांत में एक प्रशिक्षण सुविधा को निशाना बनाया गया था, जिससे दर्जनों लोगों की मृत्यु हुई थी, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. तालिबान के रक्षा मंत्रालय ने बताया कि लक्षित पाकिस्तानी स्थान वे केंद्र और ठिकाने थे, जो "अफगानिस्तान में हमलों का आयोजन और समन्वय करने वाले दुर्भावनापूर्ण तत्वों और उनके समर्थकों के लिए सेवा प्रदान कर रहे थे". अफगानिस्तान के दक्षिणपूर्वी खोस्त प्रांत में हजारों लोगों ने इस सैन्य प्रतिक्रिया का जश्न मनाया है. बता दें कि पाकिस्तान ने तालिबान सरकार पर सीमा पार उग्रवाद को नियंत्रित करने में विफल रहने का आरोप लगाया है, जिसे तालिबान सरकार खारिज करती आई है.
समुद्र में टैंकर टकराने के बाद फैलता रूसी तेल
इसी साल 15 दिसंबर को केर्च जलडमरूमध्य में आए तूफान के कारण दो रूसी तेल टैंकरों को गंभीर क्षति पहुंची, जिससे काला सागर में लगभग 3,700 टन निम्न-ग्रेड ईंधन तेल फैल गया. इस घटना के बाद, रूस ने संघीय आपातकाल की घोषणा की है. तेल रिसाव के कारण अनापा जैसे प्रसिद्ध रिसॉर्ट क्षेत्रों की तटरेखाएं प्रदूषित हो गई हैं, जिससे समुद्री जीवन विशेषकर समुद्री पक्षियों, डॉल्फ़िन और पोर्पोइज़, पर गंभीर प्रभाव पड़ा है. सफाई कार्यों में 10,000 से अधिक लोग शामिल हैं, लेकिन प्रतिकूल मौसम के कारण तेल का तटों पर आना जारी है, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण हो रहा है. स्वयंसेवकों ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से तत्काल संघीय सहायता की अपील की है, क्योंकि स्थानीय अधिकारियों के पास इस बड़े पैमाने पर आपदा से निपटने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी है. रूसी वैज्ञानिकों ने सफाई प्रयासों की आलोचना करते हुए कहा है कि आवश्यक उपकरणों की कमी के कारण पर्यावरणीय क्षति को कम करने में कठिनाई हो रही है.
एच 1बी वीजा पर ट्रम्प कैम्प में दो फाड़
राष्ट्रपति-निर्वाचित डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थक एच-1बी वीजा कार्यक्रम पर ऑनलाइन भिड़ गए हैं, जो कुशल विदेशी श्रमिकों को अमेरिका में लाने के लिए बनाया गया है. एच-1बी कार्यक्रम हर साल 65,000 वीजा जारी करता है, जिनमें से अधिकांश भारतीय नागरिकों को मिलते हैं. ट्रम्प ने पहले कभी इस कार्यक्रम की आलोचना की है, लेकिन अब उन पर पाखंड का आरोप लग रहा है.
ट्रम्प द्वारा सरकारी खर्च में कटौती के लिए चुने गए विवेक रामास्वामी ने अमेरिकी संस्कृति को दोषी ठहराया है, जिसके कारण अमेरिकी कंपनियां कुशल विदेशी श्रमिकों को नियुक्त कर रही हैं, जो आमतौर पर एच-1बी वीजा के माध्यम से होता है.
रामास्वामी बयान पर कि अमेरिकी संस्कृति उत्कृष्टता की बजाय सामान्यता को महत्व देती है. इस पोस्ट पर ट्रम्प समर्थकों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी, जो किसी भी तरह के आप्रवासन का विरोध करते हैं. बाद में रामास्वामी ने स्पष्ट किया कि एच-1बी सिस्टम खराब है और इसे बदला जाना चाहिए. इस विवाद में स्टीव बैनन जैसे प्रमुख ट्रम्प समर्थक शामिल हो गए, जिन्होंने इस कार्यक्रम को "घोटाला" कहा. वहीं, इलोन मस्क ने एच-1बी कार्यक्रम का समर्थन करते हुए कहा कि यह शीर्ष प्रतिभा को आकर्षित करता है. हालांकि, उनकी अपनी कंपनी द्वारा कम वेतन पर इसका उपयोग करने की आलोचना भी हुई. पंजाबी मूल की निक्की हेली ने कहा कि अमेरिकी श्रमिकों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
अमेरिकी इमिग्रेशन और कस्टम्स एनफोर्समेंट की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारतीयों को वापस मुल्क भेजने की कार्रवाइयों में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है. बताया गया है कि 2024 में हर छह घंटे में एक भारतीय को स्वदेश वापस भेजा जा रहा है. 2021 में जहां 292 भारतीयों को डिपोर्ट किया गया था, 2024 में यह संख्या 400 फ़ीसदी बढ़कर 1529 हो गई है.
वेनेजुएला की मारिया कोरिना मचाडो, निरंकुशताओं के सामने लोकतंत्र की आत्मा को बचाए रखने की उम्मीद
इस वक़्त दुनिया में लोकतंत्र के ताने बाने को तोड़ने और बरबाद करने वाली तानाशाही प्रवृत्तियों को जो लोग बारीकियों से पढ़ रहे हैं, उनमें एन एपलबॉम सबसे अहम नामों में से एक है. वे एक पत्रकार हैं, जिनकी पिछली दो किताबें ट्वाइलाइट ऑफ डेमोक्रेसी और ऑटोक्रेसी आईएनसी इन्हीं विषयों पर केंद्रित है. एपलबॉम पहले वाशिंगटन पोस्ट की स्तंभकार और संपादक मंडल का हिस्सा रही हैं और अब एटलांटिक में लिखती हैं. जॉन हापकिंस यूनिवर्सिटी में सीनियर फेलो भी. उनकी गुलाग: ए हिस्ट्री किताब को 2004 में पुलित्ज़र पुरस्कार भी मिला. इस बार एटलांटिक में उन्होंने वेनेजुएला के बारे में लिखा है, जहाँ चुनाव हारने वाले ने मतगणना को मानने से इंकार कर दिया और जो जीता है वह देश छोड़कर स्पेन भाग गया. निकोलस मदूरो की हार के न सिर्फ सबूत हैं बल्कि दुनिया के कई देशों ने भी इन नतीजों की तसदीक की है. एपलबॉम को हरकारा की ही तरह आप सब्सटैक पर यहाँ पढ़ सकते हैं.
अपने लेख 'द एंथ्रोपोलॉजिकल चेंज हैपनिंग इन वेनेजुएला' में ऐन एपलबॉम ने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पर चर्चा की है. असल में साल 2013 में ह्यूगो शावेज़ की मृत्यु के बाद मादुरो ने वेनुजुएला की सत्ता संभाली, लेकिन उनके कार्यकाल में राजनीतिक संकट और आर्थिक पतन चरम पर पहुंच गया. चुनावों में धांधली, विपक्षियों की गिरफ्तारी और मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप लगे. इसके बाद साल 2014 में तेल की कीमतों में गिरावट ने वेनेजुएला की तेल-आधारित अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया. 2024 में मुद्रास्फीति दर 500% से अधिक रही और 70 फीसदी से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गए. कुल मिलाकर अमरीकियों के खिलाफ आवाज बुलंद रखने वाले इस लैटिन अमेरिकन देश पर सकंट ही संकट आ गए. इसके बाद यहां आई एक नई विपक्षी नेता, जिसका नाम है मारिया कोरिना मचाडो. मचाडो ने सत्ता के खिलाफ बिगुल फूंक दिया और उसे खूब जनसमर्थन मिल रहा है. विपक्षी नेता मारिया कोरीना मचाडो ने 2024 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने का प्रयास किया. मचाडो को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया. इस दौरान विपक्षी नेता जुआन गुआइडो ने खुद को अंतरिम राष्ट्रपति घोषित किया. 60 से अधिक देशों ने उन्हें मान्यता दी, लेकिन मादुरो सत्ता में बने रहे. राष्ट्रपति चुनाव आयोजित किए गए. मचाडो के नेतृत्व में विपक्ष ने एकजुट होकर प्रचार किया. चुनाव में विपक्षी दलों ने जीत का दावा किया, लेकिन मादुरो ने हार स्वीकार करने से इनकार कर दिया. चुनाव के बाद मचाडो के समर्थकों पर मादुरो सरकार ने कार्रवाई की. विपक्षी आंदोलन के बावजूद, मादुरो सत्ता पर काबिज हैं. मचाडो डूबते वेनेजुएला के लिए एक नई आशा और भविष्य की नींव रख रही हैं, लेकिन यह देखना बाकी है कि उनका यह आंदोलन मादुरो शासन को खत्म कर सकेगा या फिर नहीं.’
एपलबॉम के एटलांटिक में लिखे डिस्पैच पर हरकारा को विस्तार से आप यहां पढ़ सकते हैं.
कजाख जहाज गिराने के लिए पुतिन ने माफी मांगी
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने शनिवार को अज़रबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव से 25 दिसंबर को कजाकिस्तान में दुर्घटनाग्रस्त हुए अज़रबैजान एयरलाइंस के विमान से जुड़ी "दुखद घटना" के लिए माफी मांगी. क्रेमलिन ने कहा कि यह घटना रूसी हवाई क्षेत्र में हुई थी. क्रेमलिन ने कहा कि जब विमान ग्रोज़्नी में उतरने की कोशिश कर रहा था, तो यूक्रेनी ड्रोन रूस पर हमला कर रहे थे और रूसी वायु रक्षा बलों ने हमलों को विफल कर दिया. क्रेमलिन ने कहा कि पुतिन ने अलीयेव को बताया कि, “इस दौरान, ग्रोज़्नी, (मोज़दोक का शहर) और व्लादिकाव्काज़ पर यूक्रेनी लड़ाकू ड्रोन द्वारा हमला किया जा रहा था और रूसी वायु रक्षा इन हमलों को विफल कर रही थी." हालांकि, उन्होंने यह साफ नहीं बताया कि कज़ाख जहाज को रूसी वायु रक्षा ने विमान को मार गिराया था.
सम्भल में मुसलमान : ‘खामोशी, खामोशी और सिर्फ खामोशी’ :
एक हल्की मुस्कान और एक हल्का-सा सिर हिलाना, जो ‘नहीं’ का संकेत है. पिछले हफ़्ते सम्भल की शाही जामा मस्जिद में शुक्रवार की नमाज़ के लिए जा रहे कई मुसलमानों से जब पूछा गया कि क्या वे बात करना चाहते हैं तो स्क्रॉल को यही जवाब मिला. स्क्रॉल ने इस पर एक लम्बा रिपोर्ताज छापा है.
सम्भल में हिंसा के करीब एक महीने बाद, जिला मजिस्ट्रेट मौके पर मौजूद थे और मस्जिद के बाहर सुरक्षा व्यवस्था की निगरानी कर रहे थे, जबकि सशस्त्र पुलिसकर्मियों का एक दल नमाज़ के लिए आने वालों पर कड़ी नज़र रख रहा था. इतना ही नहीं, नमाज़ पढ़ने वालों को मीडिया से बात करने से भी रोका गया. नमाज़ के बाद, पुलिस ने मस्जिद को घेर लिया. नमाज़ पढ़ने वालों को एक गली से बाहर जाने के लिए मजबूर किया. उधर पत्रकारों को जाने की अनुमति नहीं थी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस शहर में प्रशासन ने एक लंबे समय से बंद मंदिर के दरवाजे खोलकर करीब आधी सदी पहले हुए दंगों की यादें ताजा कर दी. इसने शहर के कुछ मुस्लिम निवासियों की बिजली भी काट दी.
24 नवंबर को मस्जिद के सर्वे के दौरान हुई हिंसा में चार मुस्लिम लोगों की मौत हो गई. उनके परिवारों ने आरोप लगाया कि पुलिस की गोली-बारी के कारण उनकी मौत हुई. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सर्वे तो रुक गया, लेकिन शहर के मुस्लिम निवासियों के लिए परेशानी यहीं खत्म नहीं हुई.
कुछ ही दिनों में प्रशासन ने बिजली चोरी और अतिक्रमण के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया, खास तौर पर मुस्लिम इलाकों को निशाना बनाया. इसके तहत सम्भल के सांसद जिया उर रहमान बर्क के घर का एक हिस्सा गिरा दिया गया. उन पर बिजली चोरी करने के आरोप में 1.9 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया.
खग्गू सराय के मुस्लिम इलाके में अभियान ने और भी अजीब मोड़ ले लिया. 14 दिसंबर को अधिकारियों ने एक मंदिर के ताले खोल दिए और दावा किया कि यह 1978 से बंद है, जब सांप्रदायिक हिंसा के चलते हिंदू इलाके से भाग गए थे. उसी दिन, सम्भल में पुलिस अधीक्षक और जिला मजिस्ट्रेट ने मंदिर में पूजा-अर्चना की. तब से मुस्लिम बहुल इलाके की संकरी गली में दूर-दूर से हिंदू भक्तों का आना-जाना लगा रहता है. 30 किलोमीटर दूर चंदौसी शहर के एक भक्त सचिन मिश्रा ने स्क्रॉल को बताया कि हिंसा के कारण हिंदुओं को खग्गू सराय से भागना पड़ा था, तब से मंदिर बंद है. हालांकि, खग्गू सराय के मुसलमान इसका खंडन करते हैं. मोहम्मद अली वारसी कहते हैं, ‘जब 1992 में बाबरी मस्जिद (अयोध्या में) के विध्वंस के बाद सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा था, तब हमने यहां हिंदुओं की रक्षा की थी. मंदिर की चाबियाँ रखने वाले रस्तोगी परिवार ने 2006 में खग्गू सराय छोड़ दिया और वे तब तक मंदिर में पूजा करते थे. यहाँ कभी कोई दुश्मनी नहीं रही.’
मंदिर के फिर से खुलने के दो दिन बाद, जिस परिवार के पास इसकी चाबियाँ थीं, उसके सदस्य धर्मेंद्र रस्तोगी ने इस बात की पुष्टि की. उन्होंने एक टेलीविज़न चैनल को बताया, ‘परिवार ने खग्गू सराय को डर के नहीं छोड़ा. इसलिए छोड़ा, क्योंकि इलाके में कोई दूसरा हिंदू परिवार नहीं रहता था. उन्होंने यह भी कहा कि किसी ने मंदिर पर अतिक्रमण नहीं किया था और जब इसे फिर से खोला गया तो यह उसी स्थिति में पाया गया, जैसा कि उन्होंने छोड़ा था’. हालांकि, उसके बाद से रस्तोगी ने मीडिया से बात करने से परहेज किया है.
आदित्यनाथ ने 16 दिसंबर को उत्तर प्रदेश विधानसभा में कहा कि 1978 के सम्भल दंगों में 184 हिंदुओं को जिंदा जला दिया गया था. यह स्पष्ट नहीं है कि आदित्यनाथ को यह आंकड़ा कहां से मिला. सांप्रदायिक हिंसा के एक स्वतंत्र डेटासेट में केवल 16 लोगों की मौत दर्ज की गई है.
खग्गू सराय से करीब 5 किलोमीटर दूर शहर के सराय तारीन इलाके में 17 दिसंबर को बिजली चोरी और अतिक्रमण के खिलाफ अभियान के दौरान पुलिस ने एक और मंदिर को फिर से खोल दिया. मंदिर की देखभाल करने वाले अमित सर्राफ का कहना है कि मंदिर कई सालों से बंद था. यह पूछे जाने पर कि इसे फिर से क्यों खोला गया, उन्होंने स्क्रॉल से कहा-
‘ऐसा इसलिए है, क्योंकि अब हमारे पास महाराज जी (आदित्यनाथ) की सरकार है. उन्होंने हमसे अपनी विरासत की रक्षा करने के लिए कहा है’. सर्राफ ने एक नक्शा निकाला, जिसमें उन्होंने दावा किया कि सम्भल और उसके आसपास के 19 पवित्र कुओं और 56 मंदिरों के स्थान चिह्नित हैं, जो हिंदुओं के लिए दुर्गम हैं. सर्राफ ने कहा, ‘हम इन सभी कुओं और मंदिरों को फिर से खोलने के लिए प्रशासन से बातचीत कर रहे हैं’.
सर्राफ ने दावा किया कि उन्हें यह नक्शा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्राप्त हुआ है और सरकार के पास भी इस नक्शे की एक प्रति है.
खग्गू सराय मंदिर को फिर से खोलने के एक दिन बाद, सम्भल के जिला मजिस्ट्रेट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मंदिर और कुएं की उम्र निर्धारित करने के लिए कार्बन डेटिंग पद्धति का उपयोग करने के लिए कहा. पांच दिन बाद, 20 दिसंबर को कार्बन डेटिंग अभ्यास आयोजित किया गया.
वहीं सम्भल के मुसलमानों का कहा कि उन्हें मंदिरों को फिर से खोलने से कोई समस्या नहीं है, लेकिन वे प्रशासन की ओर से इस प्रक्रिया में फैलाए गए सांप्रदायिक कहानियों से चिंतित हैं.
बिजली चोरी अभियान ने खग्गू सराय के मुसलमानों को असामान्य कदम उठाने पर मजबूर कर दिया है. एक घर के बाहर, निवासियों ने एक डिस्क्लेमर लगा दिया है, जिसमें कहा गया है कि उनके पास सौर ऊर्जा कनेक्शन है. यह इसलिए है, ताकि बिजली विभाग को पता रहे कि कम बिल बिजली चोरी के कारण नहीं हैं. इस डर का एक स्पष्ट उदाहरण है कि शहर के मुसलमानों ने अब मंदिर से सटे अपने घर के एक हिस्से को खुद ही ढाह दिया है, क्योंकि उन्हें डर है कि प्रशासन इसे ध्वस्त कर देगा.
वहीं प्रशासन ने मुसलमानों के खिलाफ़ पक्षपात के आरोपों से इनकार किया है. सम्भल के पुलिस अधीक्षक कृष्ण बिश्नोई ने स्क्रॉल को बताया कि प्रशासन की हालिया कार्रवाई से मुसलमानों को चिंतित होने की कोई वजह नहीं है. उन्होंने कहा, ‘बिजली चोरी और अतिक्रमण की जांच एक नियमित प्रक्रिया है. अगर कोई दोषी नहीं है तो उसे दंडित नहीं किया जाएगा’.
बिजली चोरी विरोधी अभियान के दौरान मंदिर को फिर से खोलने पर बिश्नोई ने कहा कि इस मामले को सांप्रदायिक कृत्य के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. उन्होंने इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि क्या उनके और जिला मजिस्ट्रेट के लिए मंदिर में प्रार्थना करना उचित था.
दो सिनेमाघरों की कहानी: एक गिरा दिया गया और एक बचा लिया गया
'द टेलिग्राफ' में अनुसूया बासू ने दो पुराने सिनेमा हॉल के बहाने, कला के सरंक्षण का सवाल अपने लेख के जरिए पैदा किया है. मुंबई के चर्चगेट और कोलकाता के एस्प्लेनेड में स्थित एरोस सिनेमा और एलीट सिनेमा, दोनों आर्ट डेको स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण थे. एरोस सिनेमा 1938 में बना और एलीट 1940 में. दोनों ने हॉलीवुड और बॉलीवुड की बड़ी हिट फिल्मों की स्क्रीनिंग की और हर आयु वर्ग के सिनेमा प्रेमियों को आकर्षित किया. एरोस सिनेमा मुंबई के कैम्बाटा बिल्डिंग का हिस्सा है और इसकी आर्ट डेको शैली, विशेषकर स्ट्रीमलाइन मॉडर्न डिज़ाइन, इसे चर्चगेट क्षेत्र में अन्य विक्टोरियन गोथिक संरचनाओं से अलग बनाती है. आर्किटेक्ट शोराबजी भेदवार द्वारा डिज़ाइन किया गया एरोस, समुद्री जहाज जैसा दिखता है, और इसका 'एरोस' साइनेज इसे एक बीकन जैसा बनाता है. 2017 में इसे बंद कर दिया गया था, लेकिन वास्तुकार हफीज़ कांट्रैक्टर और कीर्तिदा उंवाला ने इसके जीर्णोद्धार का कार्य संभाला. अब यह आईमैक्स थिएटर, रेस्तरां और खुदरा दुकानों के साथ अपने पुराने वैभव और आधुनिक सुविधाओं का संगम बन चुका है. इस थिएटर की मुख्य वास्तुकला जैसे ब्लैक एंड व्हाइट मार्बल फ्लोर, सनरूफ, और बेस रिलीफ कॉलम को सावधानीपूर्वक संरक्षित किया गया है.
एरोस के विपरीत, एलीट सिनेमा का अंत अधिक दुखद रहा. 2024 में इसे पूरी तरह तोड़ दिया गया और अब यहां जूते की दुकान बनने की योजना है. ब्रिटिश आर्किटेक्ट एम.ए. रिडले एबट और भारतीय आर्किटेक्ट जॉन बर्चमैन फर्नांडिस द्वारा डिज़ाइन की गई यह संरचना कभी 20वीं सेंचुरी फॉक्स कॉर्प द्वारा संचालित थी. 1950 में "रेड रिवर" फिल्म के साथ फिर से खुलने वाले एलीट ने 2018 में अपना आखिरी शो दिखाया. जब एरोस को जीर्णोद्धार के दौरान ढका गया था, तो सोशल मीडिया पर इसके प्रति अपार प्रेम व्यक्त किया गया। लोग अपनी पहली फिल्म डेट और यादें साझा करने लगे. वहीं, एलीट के बंद होने और ध्वस्त किए जाने पर कोलकाता में केवल कुछ समाचार रिपोर्टें और सेल्फी ही सामने आईं. इंटैक, कोलकाता चैप्टर के जी.एम. कपूर ने बताया कि यह क्षेत्र कभी ब्रिटिश निवासियों का मनोरंजन केंद्र था, जहां सिनेमा हॉल, बार और रेस्टोरेंट हुआ करते थे. आज, कई सिनेमा हॉल या तो शॉपिंग सेंटर्स में बदल गए हैं या उपेक्षित खड़े हैं. एरोस का जीर्णोद्धार इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार विरासत और आधुनिकता का तालमेल बनाकर ऐतिहासिक इमारतों को संरक्षित किया जा सकता है. वहीं, एलीट का पतन इस बात की याद दिलाता है कि यदि समय पर कदम न उठाए जाएं, तो सांस्कृतिक धरोहर कैसे खत्म हो जाती है.
आइस एज में बच गये, ग्लोबल वॉर्मिंग से कैसे संभलेंगे
‘द गार्डियन’ की खबर है कि मस्क ऑक्स जो आइस युग के दौरान धरती पर जीवित रहे, आज बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के चलते अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. किसी ग्रैंड पियानो जितने भारी और घने ऊनी कोट से ढके ये आर्कटिक जानवर ग्रीनलैंड के उत्तरी हिस्से में तेजी से खिसक रहे हैं, लेकिन अंततः उनके पास आगे बढ़ने के लिए कोई जगह नहीं बचेगी. ग्रीनलैंड के कंगरल्यूसुआक क्षेत्र में जहां एक समय मुख्य अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा हुआ करता था, 20,000 से अधिक मस्क ऑक्स रहते हैं. 1960 के दशक में यहां उत्तर से 27 मस्क ऑक्स लाए गए थे, और आज ये क्षेत्र स्थानीय समुदायों के लिए आर्थिक और खाद्य संसाधन का बड़ा स्रोत हैं. जलवायु परिवर्तन ने इन प्राचीन जानवरों के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. प्रोफेसर सुसान कुट्ज़, जो लंबे समय से मस्क ऑक्स पर शोध कर रही हैं, कहती हैं, ‘आर्कटिक में तापमान दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में चार गुना तेजी से बढ़ रहा है. यह उनकी नई बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा रहा है.’ कनाडाई आर्कटिक द्वीपों में मस्क ऑक्स की संख्या 2000 के दशक की शुरुआत से आधी रह गई है. खासकर एरिसिपेलोथ्रिक्स रूसीओपथिए नामक बैक्टीरिया ने इनके लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है.
मलयालम साहित्य और सिनेमा के सितारे एमटी वासुदेवन नायर का जाना
अनामिका अनु केरल में रह रहीं हिंदी की पुरस्कृत कवि, लेखक हैं और इस लेख में वह मलयालम के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में से एक एम टी वासुदेवन नायर को याद कर रही हैं, जिनका इसी 25 को निधन हो गया.
एम टी वासुदेवन नायर का जन्म पालघाट में 15 जुलाई 1933 को हुआ. वहीं 25 दिसंबर 2024 को उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी कहानियों में आषाढ़ के दिन में भूख से विचलित बच्चे का धैर्य है, उनकी कहानियों में मातृसत्तात्मक परिवारों की मजबूरियां हैं ,उनकी कहानियों में ऐतिहासिक पात्रों का नये तरह से पदार्पण है,उनकी कहानियों में पौराणिक कथा पात्रों का नये आलोक में आगमन है. सीपीआई (एम) के पुरजोर समर्थक एम टी वासुदेवन नायर ने ग्राम्य जीवन, शहरी उलझनों और पौराणिक कथाओं के यौगिकीकरण से मलयालम साहित्य में वह कद हासिल कर लिया जो तकष़ी शिवशंकर पिल्लै और वायक्कम मोहम्मद बशीर को प्राप्त है. ओ पी विजयन ,माधवी कुट्टी और एम टी वासुदेवन नायर की तिकड़ी ने एक समय में मलयालम साहित्य को नयी ऊंचाई दी. यह वह लेखक था जो अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद आर्थिक समस्या के कारण काॅलेज में दाख़िला न ले सका और उस समय का इस्तेमाल उसने तरह तरह की किताबों को पढ़ने में किया. उसके भीतर के लेखक को ऐसा सुंदर आमंत्रण मिला कि रसायन शास्त्र से स्नातक वह छात्र मलयालम साहित्य और सिनेमा की धरोहर बन गया. 1957 में पत्रकारिता से जुड़े. केरल की प्रतिष्ठित ‘मातृभूमि पत्रिका’ के संपादक बने. इस दौरान उन्होंने कई प्रतिभाशाली लेखक और कवियों को पत्रिका में स्थान दिया. उन्हें चार बार उत्कृष्ट पटकथा लेखन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया.यह कोई साधारण बात नहीं थी. उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म निर्माल्यम को ही राष्ट्रपति स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ. उनकी फिल्म कदावु को अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में पुरस्कृत किया गया. 1970 में उनके उपन्यास ‘कालम’ के लिए उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी से नवाज़ा गया. 1995 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2005 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. एमटी ने नौ उपन्यास लिखे.एक उपन्यास अपने मित्र एन पी मुहम्मद के साथ मिलकर लिखा.लघु कथाओं की 19 किताबें लिखी. उन्होंने पचास से अधिक फिल्मों की पटकथाएं लिखी. उन्होंने छह फिल्मों का निर्देशन किया. 16 दिसंबर को एम टी वासुदेवन नायर को साँस की तकलीफ़ के कारण कोझीकोड के बेबी मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया.वहीं 25 दिसंबर 2024 को उनकी मृत्यु हो गयी.वे 91 साल के थे.
चलते-चलते: जिन पाकिस्तानी चीज़ों से भारतीयों को है प्यार
फ्रीलॉन्स राइटर और फोटोग्राफर तनुश्री भसीन ‘द वायर’ के लिए भारत में पाकिस्तानी टेलीविजन देखने के बारे में लिखती हैं कि हाल ही में खत्म सुपरहिट पाकिस्तानी ड्रामा 'कभी मैं कभी तुम' में मुख्य जोड़ी मुस्तफा (फहाद मुस्तफा) और शारजीना (हनिया आमिर) को उनके माता-पिता घर से निकाल देते हैं और उन्हें अपने सिर पर छत खोजने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. घटनाओं के इस अजीब मोड़ पर एक भारतीय प्रशंसक फहाद मुस्तफा को संबोधित करके लिखता है, ‘मुस्तफा भाई, मेरा दिल्ली में फ्लैट खाली पड़ा है. आप शारजीना को लेकर यहां आ जाओ’.
इस टिप्पणी ने सीमा के दोनों ओर के लोगों का दिल जीत लिया. ऐसी कहानियाँ आपको बताती हैं कि दिल्ली और कराची के बीच की दूरी कितनी कम है, शाब्दिक और प्रतीकात्मक दोनों ही तरह से. एक ही भाषा, मानदंड, भोजन, संगीत और रीति-रिवाजों के साथ, मानव निर्मित सीमा के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दोनों देशों को अलग करता हो.
पाकिस्तानी नाटकों के भारतीय प्रशंसक आधिकारिक एआरवाई यूट्यूब चैनल पर ‘कभी मैं कभी तुम’ का आनंद ले सकते हैँ और कमेंट सेक्शन में देख सकते हैं, प्यार की बाढ़ आ गई है. यूट्यूब पर पहले एपिसोड के वीडियो पर एक ऐसी भी टिप्पणी थी, ‘राजनीति से विभाजित, कभी मैं कभी तुम के जरिये एकजुट’.
पाकिस्तानी नाटक अक्सर भारतीय दर्शकों को आकर्षित करते हैं. प्रेम कहानियों, पारिवारिक नाटकों, कॉलेज कॉमेडी से लेकर सामाजिक टिप्पणियों तक, पाकिस्तानी शोज़ दर्शकों को कहानी कहने का एक विस्तृत फलक प्रदान करते हैं, जो हमेशा भारतीय टेलीविज़न पर उपलब्ध नहीं होता है.
यूट्यूब पर इन सीरियल्स के व्यूज़ 2 करोड़ तक पहुँच गए हैं. मजे की बात यह है कि जेनरेशन जी भी इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और कमेंट सेक्शन में अपनी प्रतिक्रियाएँ पोस्ट कर रही है.
2014 में इसकी लोकप्रियता चरम पर थी, जब ‘ज़ी’ ने ‘ज़िंदगी’ नाम से एक चैनल लॉन्च किया था, जो भारतीय दर्शकों के लिए पाकिस्तानी नाटक प्रसारित करता था. सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे से जुड़े होने के कारण, जहाँ पाकिस्तानी दर्शक बॉलीवुड फिल्मों का भरपूर आनंद लेते हैं, वहीं भारतीय पाकिस्तानी नाटकों का भरपूर आनंद लेते हैं.
भारत-पाकिस्तान के बीच जो दूरी है, वह मीलों दूर भी लग सकती है. आखिरकार, दोनों देश बंटे हुए हैं- राज्यों की विभाजन स्मृति और दिलों में दुश्मनी की एक खास भावना समाई हुई है. यही कारण है कि आप राजनीति, कूटनीति और यहां तक कि क्रिकेट में भी संघर्ष और टकराव देखते हैं. पाकिस्तान के सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रशंसा और राजनीतिक रूप से देश के साथ दुश्मनी में यह विरोधाभास भारत-पाकिस्तान के रिश्ते की विशेषता है.
जब क्रिकेट की बात आती है, तो चीजें बहुत सरल होती हैं. इसमें प्रतिद्वंद्विता और प्रतिस्पर्धा का विशिष्ट और लंबा इतिहास होता है, लेकिन जब सिनेमा, टेलीविजन और संगीत की बात आती है, तो सीमा के दोनों ओर कलात्मक अभिव्यक्ति को आकार देने वाले समान इतिहास और सांस्कृतिक चिह्नों को नकारना मुश्किल है.
इसका एक ज्वलंत उदाहरण कोक स्टूडियो पाकिस्तान के साथ उपमहाद्वीपीय पहचान और प्रशंसा है. इन गीतों के कमेंट सेक्शन में पाकिस्तानी गायकों और संगीतकारों के लिए अपने प्यार को व्यक्त करने वाले भारतीयों की भरमार है.
आबिदा परवीन और नसीबो लाल के गाने तू झूम… के नीचे एक टिप्पणी में लिखा है, ‘कोक स्टूडियो पाकिस्तान का कमेंट सेक्शन एकमात्र ऐसा मंच है, जहां भारतीय और पाकिस्तानी दोनों ही एक साथ मिलकर संगीत का आनंद लेते हैं’. अली सेठी के गाने पसूरी… को इतनी सराहना मिली, खास तौर पर भारत में कि इसे बॉलीवुड फिल्म में भी इस्तेमाल किया गया.
फिर जब पाकिस्तानी शासन, सेना या राजनीति के बारे में बुरा-भला कहने की बात आती है, तो भारतीय विशेष रूप से ज़हरीले होते हैं. अपने पड़ोसी के दुर्भाग्य पर विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं. फिर, भारतीय उस देश के टेलीविज़न शो और गानों को कैसे पसंद कर पाते हैं, जिससे वे स्पष्ट रूप से घृणा करते हैं?