सुशांत सिंह: जंग में लड़ना और मारना कभी भी क्रिकेट के चौके या कैच के बराबर नहीं हो सकता
क्रिकेट का राष्ट्रीय जुनून से राजनीतिक हथियार में बदलना मोदी के भारत में लोकतंत्र के व्यापक पतन को दर्शाता है.
सुशांत सिंह येल यूनिवर्सिटी में साउथ एशियन स्टडीज़ के लेक्चरर और भारत में कैरवन मैगज़ीन के कंसल्टिंग एडिटर हैं. यह लेख क्रिकेट एटाल में प्रकाशित हुआ. उसमें से अनूदित प्रमुख अंश.
क्रिकेट एटाल के पाठकों के लिए, क्रिकेट से ज़्यादा मायने कुछ ही चीज़ें रखती हैं. लेकिन उनके लिए भी, जान और माल का नुक़सान निश्चित रूप से इससे ऊपर होगा. इसलिए यह बहुत परेशान करने वाला था जब भारत के एशिया कप जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर अपना संदेश पोस्ट किया: “खेल के मैदान पर #OperationSindoor. नतीजा वही - भारत जीता. हमारे क्रिकेटरों को बधाई”.
यह सिर्फ़ एक बेसुरा जश्न नहीं था. यह उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक चीज़ को दिखाता था; खेल की जीत को जानबूझकर सैन्य संघर्ष के बराबर मानना, क्रिकेट की जीत को एक असल युद्ध का विस्तार मानना जिसमें लोग मरते हैं.
ऑपरेशन सिंदूर कोई खेल नहीं था. 26 नागरिकों की जान लेने वाले पहलगाम आतंकी हमले के बाद 7 मई को भारत द्वारा शुरू किए गए इस ऑपरेशन में नियंत्रण रेखा के पार और पाकिस्तान के अंदर तक समन्वित हमले किए गए थे. 50 से ज़्यादा पाकिस्तानी मारे गए, जिनमें 40 नागरिक और 11 सैनिक शामिल थे. नियंत्रण रेखा पर रहने वाले दर्जनों भारतीयों ने इस संघर्ष में अपने घर और अपनी जानें गँवाईं. कई भारतीय सैनिक भी शहीद हुए, जिनमें से कुछ को तो तभी माना गया जब भारतीय वायु सेना प्रमुख उनके शोक संतप्त परिवार से मिलने गए. बाक़ी सैनिकों ने अपने अंग गँवा दिए, जिन्हें तब पहचाना गया जब वायु सेना प्रमुख पुणे में सशस्त्र बल अंग केंद्र (Armed Forces Limb Centre) के दौरे पर गए.
एक क्रिकेट मैच का जश्न मनाने के लिए इस ऑपरेशन का ज़िक्र करके, मोदी ने असली क़ुर्बानी और असली दुख को मामूली बना दिया. इस नैतिक दिवालियापन पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. दिल्ली के लाल क़िले से 15 अगस्त को दिए गए अपने सालाना स्वतंत्रता दिवस भाषण में मोदी ने इनमें से किसी भी क़ुर्बानी का ज़िक्र तक नहीं किया. भारतीय सैनिकों को अभूतपूर्व रूप से 127 वीरता पुरस्कार मिले, लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि उनके बहादुरी के कामों का ब्यौरा देने वाले प्रशस्ति पत्रों (citations) को जनता की नज़रों से दूर रखा गया. कुछ छिपाया जा रहा है क्योंकि छिपाने के लिए कुछ है. शायद इस खुलासे से मोदी की सावधानी से गढ़ी गई जातीय-राष्ट्रवादी कहानी की हवा निकल जाती.
अब क्रिकेट को भी उसी प्रोपेगैंडा के मक़सद को पूरा करने के लिए बुलाया गया है. इसकी तैयारी जीत की बाउंड्री लगने से पहले ही साफ़ दिख रही थी. पाकिस्तान की सीमा पर तैनात भारतीय सेना के जवानों को एक न्यूज़ एजेंसी के सामने अंधराष्ट्रवादी बकवास करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिसे बड़े पैमाने पर मोदी सरकार के प्रोपेगैंडा का हिस्सा माना जाता है. कई मशहूर हस्तियों, केंद्रीय मंत्रियों और सत्ताधारी पार्टी के राजनेताओं का एक झुंड इस सुनियोजित प्रदर्शन में शामिल हो गया.
इतिहासकार राम गुहा ने उन लाखों लोगों की नैतिक घृणा को आवाज़ दी जब उन्होंने मोदी के पोस्ट को “जल्दबाज़ी में किया गया, बिना सोचा-समझा, राजनीतिक रूप से नासमझी भरा और उनके पद के बिल्कुल अयोग्य” बताया. वो अकेले नहीं थे. पूरे राजनीतिक स्पेक्ट्रम के आलोचकों ने प्रधानमंत्री की “अपने पद और हमारे देश की गरिमा को कम करने” के लिए निंदा की.
लेकिन निंदा इसके गहरे ख़तरे को नज़रअंदाज़ करती है. क्रिकेट को सैन्य अभियानों के बराबर रखने से खेल का क़द नहीं बढ़ता. यह जनता की चेतना में युद्ध को मनोरंजन बना देता है. जब एक परमाणु-संपन्न देश का प्रधानमंत्री युद्ध को क्रिकेट मैच की तरह मानता है, तो वह भविष्य के संघर्षों की संभावना को और बढ़ा देता है क्योंकि वो उनसे उनकी नैतिक गंभीरता छीन लेता है.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ़्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्जेस क्लेमेंसो ने कहा था, “युद्ध इतना गंभीर मामला है कि इसे सिर्फ़ जनरलों पर नहीं छोड़ा जा सकता”. लड़ना और मारना कभी भी चौके मारने या कैच लेने के बराबर नहीं हो सकता. मोदी के ट्वीट ने युद्ध को मानवता के सबसे गंभीर काम से बदलकर एक आम खेल बना दिया. एक ऐसे देश में जो पहले से ही बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवादी राजनीति से पीड़ित है, यह बहुत बड़ी लापरवाही है. पाकिस्तान, जो ख़ुद एक परमाणु शक्ति है, उसे सिर्फ़ एक और विरोधी नहीं माना जा सकता जिसे यूँ ही हरा दिया जाए. फिर भी मोदी के संदेश ने ठीक यही सुझाया; युद्ध बस एक और खेल है जिसमें “भारत जीतता है”.
इतिहास एक सीखने लायक़ विरोधाभास पेश करता है. 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान, भारत और पाकिस्तान ने इंग्लैंड में विश्व कप में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खेला, लेकिन बुनियादी शिष्टाचार बना रहा. तब भी बीजेपी का ही शासन था, फिर भी राजनेताओं ने खेल और संघर्ष के बीच की सीमाओं को बनाए रखा. पाँच साल बाद, उसी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान का दौरा कर रही भारतीय टीम से कहा था कि वो सिर्फ़ मैच ही न जीतें, बल्कि दिल भी जीतें. उससे भी पहले, 1971 में, जब भारत ने पाकिस्तान को सैन्य रूप से हराकर बांग्लादेश को आज़ाद कराने में मदद की, तब भारतीय और पाकिस्तानी क्रिकेटर रेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड टीम के हिस्से के रूप में एक साथ ऑस्ट्रेलिया का दौरा कर रहे थे. सनी डेज़ में, सुनील गावस्कर याद करते हैं कि कैसे वो, ज़हीर अब्बास और दूसरे खिलाड़ी एक साथ खाना खाते थे, भले ही उन्हें युद्ध की प्रगति के बारे में अपडेट किया जा रहा था. खेल खेल रहा. युद्ध युद्ध रहा.
अगर एशिया कप के दौरान मैदान पर सूर्यकुमार यादव की बल्लेबाज़ी ख़राब थी, तो मैदान के बाहर उनका आचरण और भी ख़राब था. पत्रकारों से बिना उकसावे के, डींगें हाँकते हुए ऐसे दावे करना जैसे कि वो बीजेपी के संसदीय टिकट के लिए ऑडिशन दे रहे हों, उन्होंने अपनी मैच फ़ीस सेना को दान करने का वादा किया. उन्होंने यह कहकर सारी हदें पार कर दीं कि मोदी “ख़ुद फ्रंट फ़ुट पर बल्लेबाज़ी करते हैं; ऐसा लगा जैसे उन्होंने स्ट्राइक ली और रन बनाए”. अगर आप उन्हें जल्द ही मोदी के साथ तस्वीरें खिंचवाते, राष्ट्रीय पुरस्कार या बड़ी राजनीतिक ज़िम्मेदारियाँ पाते देखें तो हैरान मत होइएगा.
फिर भी उनका गुस्सा पूरी तरह से एक नाटक था. उन्होंने निजी तौर पर सलमान आग़ा से दो बार हाथ मिलाया और एसीसी प्रमुख और पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री, मोहसिन नक़वी से भी हाथ मिलाया, जिनसे उन्होंने ट्रॉफ़ी लेने से इनकार कर दिया था. जनता में दिखाया गया गुस्सा एक सावधानी से तैयार किया गया ड्रामा था, शायद सिखाया-पढ़ाया गया. आख़िरकार, भारतीय टीम के कोच बीजेपी के पूर्व सांसद हैं.
इन सबके केंद्र में बीजेपी है. भारतीय क्रिकेट टीम अब भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती; यह बीजेपी की खेल शाखा के रूप में काम करती है. यह कोई हादसा नहीं बल्कि एक सोची-समझी योजना है. बीजेपी ने संस्थाओं पर क़ब्ज़ा करके भारतीय क्रिकेट को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है. मौजूदा बीसीसीआई के पूरे नेतृत्व को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आवास पर हुई एक बैठक में चुना गया था, जहाँ सभी पावर ब्रोकर मौजूद थे. फिर वे जय शाह के साथ डिनर के लिए अहमदाबाद गए. बीसीसीआई सचिव, देवजीत सैकिया के बीजेपी से गहरे संबंध हैं. अध्यक्ष, मिथुन मन्हास को जय शाह ने जम्मू-कश्मीर क्रिकेट में बीजेपी के प्रॉक्सी के रूप में चुना था, माना जाता है कि उन्हें बीसीसीआई अध्यक्ष पद के लिए ख़ुद गौतम गंभीर ने नामित किया था.
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में क्रिकेट से जुड़ा हर बड़ा फ़ैसला अब बीजेपी के हितों को पूरा करता है. इसलिए एशिया कप के दौरान हमने जो देखा वह होना ही था. यह खेल को पूरी तरह से राजनीतिक प्रोपेगैंडा के अधीन करना था.
यह भारतीय क्रिकेट के नैतिक नेतृत्व पर गहरे सवाल खड़े करता है. ज़मीर की आवाज़ें कहाँ हैं? मौजूदा या पूर्व खिलाड़ी, या लेखक और कमेंटेटर कहाँ हैं, जो सत्ता से सच बोलने को तैयार हों? क्रिकेटरों में सैयद किरमानी लगभग अकेले खड़े हैं जो खुलकर बोले हैं. क्या भारत कभी उस्मान ख़्वाजा जैसा कोई खिलाड़ी पैदा नहीं कर सकता, जो ग़ाज़ा के समर्थन में खड़ा हुआ, या पीटर लालोर जैसा कोई, जिसे फ़िलिस्तीन समर्थक पोस्ट के लिए नौकरी से निकाल दिया गया था?
इंग्लैंड के पास माइक ब्रेअर्ली थे, जिन्होंने रंगभेद के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर अभियान चलाया. भारत में कभी बिशन बेदी थे. बेदी, जिनका अक्टूबर 2023 में निधन हो गया, ज़रूर आवाज़ उठाते. क्रिकेट अधिकारियों की आलोचना करते समय कभी भी बात को घुमाने-फिराने के लिए नहीं जाने जाते थे, उन्होंने एक बार दिल्ली के मुख्य स्टेडियम के स्टैंड से अपना नाम हटाने की माँग की थी ताकि एक मृत बीजेपी राजनेता की मूर्ति की स्थापना का विरोध कर सकें. उन्होंने सिद्धांत के तौर पर आकर्षक कैरी पैकर कॉन्ट्रैक्ट को ठुकरा दिया और बाद में IPL खिलाड़ियों की नीलामी की निंदा करते हुए कहा कि इसमें क्रिकेटरों के साथ “उन घोड़ों जैसा व्यवहार किया जाता है जिन्हें सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच दिया जाता है”. उन्होंने एक बार कहा था, “अगर अपने मन की बात कहना जुर्म है, तो मैं कई बार दोषी हूँ”.
आज के सितारे ऐसा कोई साहस नहीं दिखाते. सुनील गावस्कर, जिन्होंने कभी बॉम्बे दंगों के दौरान हमला झेल रहे एक मुस्लिम परिवार की जान बचाई थी, अब बीसीसीआई के एक मोटे कॉन्ट्रैक्ट पर आराम से बैठे हैं, और जब क्रिकेट को हथियार बनाया जा रहा है तो चुप हैं. हाल ही में क्रिकेट की मशहूर हस्तियाँ आंदोलनकारी किसानों के ख़िलाफ़ मोदी का समर्थन करने के लिए कतार में खड़ी हो गईं, जिन किसानों ने आख़िरकार उन्हें विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने पर मजबूर कर दिया. इनमें सचिन तेंदुलकर, रवि शास्त्री और विराट कोहली शामिल थे. हालाँकि, विराट कोहली का बाद में मोहम्मद शमी का बचाव करना एक टीम के साथी के साथ एकजुटता दिखाना था जिसे उसकी धार्मिक पहचान के लिए निशाना बनाया जा रहा था.
यह व्यवस्थागत मिलीभगत कोई इत्तफ़ाक़ नहीं है. जोयोजीत पाल और अन्य का शोध दिखाता है कि कैसे भारतीय खिलाड़ी व्यवस्थागत रूप से सत्ताधारी पार्टी की पहलों के साथ जुड़ जाते हैं, जबकि उनके अमेरिकी समकक्ष राजनीतिक मुद्दों पर आलोचनात्मक रूप से अपनी बात रखते हैं. उनके अध्ययन से पता चलता है कि “खेलों पर मालिकाना हक़ और सरकारी नियंत्रण इस बात को प्रभावित करता है कि पेशेवर खिलाड़ी किन मुद्दों पर ऑनलाइन अपनी राय रखने को तैयार हैं”. संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, जहाँ एथलीट अक्सर राजनेताओं और नीतियों की आलोचना करते हैं, भारतीय खेल हस्तियाँ “किसी भी भारतीय खिलाड़ी द्वारा मोदी पर लगभग कोई सीधा हमला नहीं” दिखाती हैं. यह संस्थाओं पर जानबूझकर किए गए क़ब्ज़े को दर्शाता है. जब खेल सरकारी प्रोपेगैंडा बन जाता है, तो एथलीट नैतिक नेतृत्व के लिए ज़रूरी स्वतंत्रता खो देते हैं.
क्रिकेट का राष्ट्रीय जुनून से राजनीतिक हथियार में बदलना मोदी के भारत में लोकतंत्र के व्यापक पतन को दर्शाता है.
चलिए साफ़ करते हैं. पाकिस्तान की प्रतिक्रिया भी उतनी ही निराशाजनक थी. कुछ खिलाड़ियों द्वारा भड़काऊ जश्न मनाना, आग़ा द्वारा चेक फेंकना और नक़वी द्वारा ट्रॉफ़ी छीनना छोटी हरकतें थीं, जो भारत की नैतिक विफलता के क़रीब भी नहीं थीं, लेकिन क्रिकेट की भावना पर बुरा असर डालती थीं. हालाँकि, असली त्रासदी इस बात में है कि यह घटना भारत की दिशा के बारे में क्या बताती है. जब क्रिकेट युद्ध का रूपक बन जाता है, जब खेल की जीतों को सैन्य विजय माना जाता है, तो मानवता ख़ुद पीड़ित होती है.
खेल की ताक़त राजनीतिक विभाजनों से ऊपर उठने, कृत्रिम सीमाओं के पार साझा ख़ुशी पैदा करने की क्षमता में निहित है. मोदी के ट्वीट ने उस संभावना को नष्ट कर दिया, क्रिकेट को अपने जातीय-राष्ट्रवादी हथियारों के ज़ख़ीरे में एक और हथियार बना दिया. ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ को अब समझना चाहिए कि उन्होंने किस चीज़ में भाग लिया था जब वह मोदी के साथ भारतीय नेता के नाम वाले स्टेडियम के चारों ओर एक रथ पर सवार हुए थे. वह कोई मासूम क्रिकेट कूटनीति नहीं थी. यह दुनिया के मंच पर सत्तावादी राष्ट्रवाद को वैधता देना था.
बर्टोल्ट ब्रेख्त ने लिखा था, “दुखी है वह धरती जो कोई नायक पैदा नहीं करती!”. “नहीं, एंड्रिया.... दुखी है वह धरती जिसे नायक की ज़रूरत है”. नायक हों या न हों, भारत को ऐसे ज़मीर वाले लोगों की सख़्त ज़रूरत है जो सत्ता के दुरुपयोग के बारे में सच बोलने को तैयार हों.
हिंदू-राष्ट्रवादी पागलपन द्वारा शासित देश में क्रिकेट का सैन्यवाद से जुड़ाव कोई हानिरहित मज़ाक़ नहीं है. इसका विरोध करने को तैयार सार्वजनिक आवाज़ों के बिना, जो एक मज़ाक़िया निराशा लगती है, वह एक ख़तरनाक आपदा बन सकती है, जहाँ क्रिकेट ख़ुशी नहीं बल्कि हिंसा, विनाश और इंसानी जानों के नुक़सान का औचित्य प्रदान करता है.
विकल्प बना हुआ है: क्रिकेट मानवीय उत्कृष्टता के जश्न के रूप में, या क्रिकेट राजनीतिक नफ़रत के हथियार के रूप में. मोदी ने अपनी पसंद साफ़ कर दी है. सवाल यह है कि क्या भारत के लोगों में अलग तरह से चुनने का साहस बचा है.