31/10/2025: ट्रम्प से काहे बच रहे हैं मोदी? | आजीविका दीदी उन्हें वोट देंगी? | नीतीश, तपस्वी के गुणदोष | जेमिमा की वाहवाही से पहले जो नफ़रत थी | टेंशन में क्यों है अग्निवीर | उषा वेंस का हिंदू होना
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आज की सुर्खियां
दिवाली का बहाना या ट्रम्प का डर? दुनिया के मंच पर प्रधानमंत्री मोदी की कुर्सी खाली क्यों है?
उधर शहबाज़ शरीफ़ ट्रम्प की तारीफ़ में जुटे, इधर सूरत और तिरुप्पुर में धंधा चौपट.
सियासत में जीता-सांस लेता बिहार वोट डालने क्यों नहीं जाता?
खाते में दस हज़ार, पर क्या जीविका दीदी का वोट नीतीश कुमार को जाएगा?
कभी स्थिर, कभी अस्थिर, क्या अपने ही बनाए चक्रव्यूह में फंस गए हैं नीतीश कुमार?
लालू के ‘नौसिखिया’ बेटे से ‘A to Z’ के नेता तक, क्या तेजस्वी ने पलट दी है बिहार की बाज़ी?
एक साल पहले ‘धर्मांतरण’ के नाम पर नफ़रत, आज वर्ल्ड कप की हीरो... ये है जेमिमा की कहानी.
‘हमारे खिलाफ हिंसा का कोई सबूत नहीं’, सुप्रीम कोर्ट से उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा
72% अग्निवीर तनाव में, आधे से ज़्यादा को भविष्य की चिंता, सर्वे में सामने आई हकीकत.
अमेरिकी उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार से एक छात्रा का सवाल- आपकी हिंदू पत्नी कब ईसाई बनेंगी?
अब बिजली कंपनियों की बारी? निजीकरण की तैयारी में अडानी, रिलायंस और टाटा.
दिल्ली दंगे ‘सत्ता परिवर्तन’ की साज़िश थे, पुलिस ने उमर खालिद की ज़मानत का किया विरोध.
सुशांत सिंह | मोदी भाग क्यों रहे हैं ट्रम्प से-1
भारत को अपने प्रधानमंत्री की ज़रूरत है कि वे उपस्थित रहें, अपने हितों की रक्षा करें, जो भी ताक़त बची है उससे बातचीत करें, और यह दिखावा करना बंद करें कि घरेलू राजनीतिक नाटक अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव का विकल्प हो सकता है. सुशांत सिंह का यह विश्लेषण टेलीग्राफ में छपा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले हफ़्ते दुनिया के सामने एक अजीब नज़ारा पेश किया. उन्होंने मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम को सूचित किया कि वे कुआलालंपुर में आसियान शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं होंगे क्योंकि भारत में दिवाली का जश्न अभी भी चल रहा था. इस स्पष्टीकरण के साथ समस्या सरल और शर्मनाक है. इस साल 20 अक्टूबर को पड़ने वाली दिवाली 23 अक्टूबर को भाई दूज के साथ समाप्त हो गई थी. जब 26 अक्टूबर को आसियान शिखर सम्मेलन शुरू हुआ, तो त्योहार को तीन दिन बीत चुके थे. यह बहाना न केवल कमज़ोर था, बल्कि साफ़ तौर पर बेईमानी भरा था, एक ऐसा कूटनीतिक झूठ जो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों दर्शकों की बुद्धिमत्ता का अपमान करता है.
यह इस महीने की शुरुआत में एक ऐसे ही पैटर्न का अनुसरण करता है जब मोदी ने शर्म अल-शेख में गाज़ा शांति शिखर सम्मेलन छोड़ दिया था, और राष्ट्राध्यक्षों द्वारा भाग लिए गए एक कार्यक्रम में एक कनिष्ठ मंत्री को भेजा था. परिणाम स्पष्ट था. जब विश्व नेता मिस्र में एकत्र हुए, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ डोनाल्ड ट्रंप के बगल में खड़े थे, अमेरिकी राष्ट्रपति की तारीफ़ों के पुल बांध रहे थे, और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित कर रहे थे. ट्रंप स्पष्ट रूप से प्रसन्न हुए, उन्होंने इस श्रद्धांजलि को “वास्तव में सुंदर” कहा और मज़ाक में कहा कि वह संतुष्ट होकर घर जा सकते हैं. इस बीच, मोदी कहीं नज़र नहीं आए, उनकी अनुपस्थिति ने भारत के प्रतिनिधित्व को एक कनिष्ठ मंत्री तक सीमित कर दिया जो वैश्विक दिग्गजों के समुद्र में खो गया था.
यह पैटर्न साफ़ है. पश्चिम एशिया में, भारत एक महत्वपूर्ण शांति शिखर सम्मेलन से अनुपस्थित था. दक्षिण पूर्व एशिया में, मोदी ने भौतिक उपस्थिति के बजाय वर्चुअल भागीदारी को चुना. इन अनुपस्थितियों को जोड़ने वाली चीज़ शेड्यूलिंग संघर्ष या त्योहार की प्रतिबद्धताएँ नहीं हैं, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र के लिए कहीं अधिक परेशान करने वाली बात है जो एक उभरती हुई वैश्विक शक्ति होने का दावा करता है. मोदी बहुपक्षीय जुड़ावों से भाग रहे हैं क्योंकि उन्हें ट्रंप के साथ एक ही कमरे में होने का डर है.
इसके परिणाम मिस्ड फ़ोटो अवसरों से कहीं ज़्यादा हैं. पश्चिम एशिया में, जहाँ भारत ने इज़राइल और अरब दुनिया दोनों के साथ सावधानीपूर्वक संबंध बनाए हैं, मोदी का शर्म अल-शेख शिखर सम्मेलन में शामिल न होना भारत की आवाज़ को गाज़ा में संघर्ष के बाद की व्यवस्थाओं को आकार देने में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभाने देता है. दक्षिण पूर्व एशिया में, जो भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति और उसकी व्यापक इंडो-पैसिफ़िक रणनीति के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र है, मोदी की वर्चुअल उपस्थिति भारत को एक परिधीय खिलाड़ी बना देती है. जब नेता उपस्थित होने का प्रयास करते हैं, तो वे प्रतिबद्धता का संकेत देते हैं. जब वे घर से डायल-इन करते हैं, तो वे अप्रासंगिकता का संकेत देते हैं.
मोदी की इस टाल-मटोल की रणनीति का सबसे बड़ा शिकार क्वाड हो सकता है. भारत को इस साल क्वाड शिखर सम्मेलन की मेज़बानी करनी है. फिर भी इस बैठक के लिए कोई तारीख़ तय नहीं है और इसके होने की संभावना दिन-ब-दिन कम होती जा रही है. ट्रंप 2.0 के तहत, इंडो-पैसिफ़िक को व्यवस्थित रूप से प्राथमिकता से हटा दिया गया है. जब ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीस 20 अक्टूबर को व्हाइट हाउस में ट्रंप से मिले, तो क्वाड का उल्लेख तक नहीं किया गया.
यह अमेरिकी प्राथमिकताओं में एक मौलिक बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है. ट्रंप ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध चाहते हैं. यदि चीन के साथ रणनीतिक प्रतिस्पर्धा अब अमेरिकी विदेश नीति का आयोजन सिद्धांत नहीं है, तो संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए भारत की उपयोगिता नाटकीय रूप से कम हो जाती है. पिछले चौथाई सदी को भारत के उदय के प्रति अमेरिकी उदारता के रूप में वर्णित किया जा सकता है. रणनीतिक परोपकार का वह युग समाप्त होता दिख रहा है.
इस शून्य में पाकिस्तान ने कदम रखा है, जो ट्रंप के स्नेह में फिर से उभर आया है. अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने 26 अक्टूबर को दोहा जाते समय संवाददाताओं से बात करते हुए वाशिंगटन के पाकिस्तान के साथ अपने रणनीतिक संबंधों का विस्तार करने के इरादे के बारे में स्पष्ट किया. ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान पर टैरिफ़ को 29% से घटाकर 19% कर दिया है, जबकि भारत को 50% के दंडात्मक टैरिफ़ का सामना करना पड़ रहा है.
मोदी की पाकिस्तान नीति ने उन्हें ठीक ग़लत समय पर कमज़ोर बना दिया है. इस्लामाबाद के साथ किसी भी सार्थक बातचीत में शामिल होने से उनका इनकार, और पाकिस्तान को एक घरेलू राजनीतिक पंचिंग बैग के रूप में उठाना, इन सबने उन्हें कोई भी दाँव खेलने लायक नहीं छोड़ा है. शरीफ़ ने इसके विपरीत, भारत-पाकिस्तान युद्धविराम कराने के लिए ट्रंप को दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया है. मोदी तथ्यात्मक रूप से सही हो सकते हैं, लेकिन ट्रंप के वाशिंगटन में, चापलूसी तथ्यों से अधिक मायने रखती है.
इसके परिणाम भारत के प्रति ट्रंप की नीति में पहले से ही दिखाई दे रहे हैं. वह रूस से कच्चा तेल ख़रीदने के लिए चुनिंदा रूप से भारत को निशाना बना रहे हैं और दो सबसे बड़ी रूसी तेल कंपनियों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं. इन प्रतिबंधों के साथ द्वितीयक प्रतिबंधों का स्पष्ट ख़तरा है, जिसका अर्थ है कि रूसी तेल ख़रीदना जारी रखने वाली भारतीय कंपनियों को पश्चिमी वित्तीय प्रणाली से काट दिया जा सकता है.
इस बीच, बहुप्रचारित व्यापार सौदा अधर में लटका हुआ है. भारतीय निर्यातक पहले से ही दंडात्मक टैरिफ़ के बोझ तले दबे हुए हैं. सूरत में, हीरे की कटाई और पॉलिशिंग के वैश्विक केंद्र में, कारख़ाने कम क्षमता पर काम कर रहे हैं और श्रमिकों को ज़बरन छुट्टी पर भेज दिया गया है. तमिलनाडु के कपड़ा केंद्र तिरुप्पुर में, कारख़ाने उत्पादन लाइनें बंद कर रहे हैं और श्रमिकों को बड़े पैमाने पर छंटनी का डर है.
यह सब मोदी के कार्यकाल की केंद्रीय पौराणिक कथा को उजागर करता है. एक दशक तक, मोदी के मंत्रियों और ‘गोदी मीडिया’ ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि मोदी के व्यक्तित्व का बल भारत की विदेश नीति की सफलता को संचालित करता है. ट्रंप 2.0 ने इसे एक कल्पना के रूप में उजागर किया है. व्यक्तित्व शक्ति से बहुत कम मायने रखता है, और रणनीतिक संरेखण के बिना संबंधों का कोई मतलब नहीं है.
भारत ख़ुद को एक असंभव स्थिति में पाता है. मोदी घर पर राजनीतिक रूप से कमज़ोर हो रहे हैं क्योंकि उनकी विदेश नीति के दावों का खोखलापन स्पष्ट हो गया है. भारतीय श्रमिक और व्यवसाय ट्रंप के आर्थिक दबाव के कारण पीड़ित हैं. इस संकट पर मोदी की प्रतिक्रिया उन कमरों से बचने की है जहाँ ट्रंप मौजूद हो सकते हैं.
यह टाल-मटोल की रणनीति टिक नहीं सकती. हर शिखर सम्मेलन जिसे मोदी छोड़ते हैं, वह एक और अवसर खो जाता है, एक और रिश्ता कमज़ोर होता है, और एक और संकेत भेजा जाता है कि भारत विश्व मंच से पीछे हट रहा है. बड़ी विडंबना यह है कि मोदी का व्यक्तिगत शर्मिंदगी का डर राष्ट्रीय गिरावट की गारंटी दे रहा है.
भारत को अपने प्रधानमंत्री की ज़रूरत है कि वे उपस्थित रहें, अपने हितों की रक्षा करें, जो भी ताक़त बची है उससे बातचीत करें, और यह दिखावा करना बंद करें कि घरेलू राजनीतिक नाटक अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव का विकल्प हो सकता है. सवाल यह है कि क्या मोदी में ऐसा करने का साहस है. मौजूदा सबूतों के आधार पर, जवाब ना लगता है.
सुशांत सिंह येल विश्वविद्यालय में लेक्चरर हैं.
मेनका दोशी | मोदी भाग क्यों रहे हैं ट्रम्प से-2
ट्रंप की एशिया यात्रा में मोदी की अनुपस्थिति, चीन से व्यापार सौदे पर नज़र
इस हफ़्ते, एशिया के नेताओं ने “डोनाल्ड ट्रम्प को कैसे जीतें और उन्हें टैरिफ़ और न बढ़ाने के लिए कैसे प्रभावित करें” पर एक मास्टरक्लास का प्रदर्शन किया. यहाँ तक कि चीन ने भी सोयाबीन की ख़रीद फिर से शुरू करने और दुर्लभ पृथ्वी के निर्यात पर सहमति जताकर कम टैरिफ़ हासिल कर लिए. लेकिन एक बड़ा देश ग़ायब था. मेनका दोशी ने ब्लूमबर्ग में लंबा विश्लेषण लिखा है.
भारत, और नरेंद्र मोदी, आसियान नेताओं के शिखर सम्मेलन में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित थे. आधिकारिक कारण यह था कि प्रधानमंत्री अभी भी दिवाली मना रहे थे. लेकिन ब्लूमबर्ग की सुधि रंजन सेन की रिपोर्ट है कि मोदी ने बिहार के महत्वपूर्ण राज्य चुनावों के इतने क़रीब अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पाकिस्तान के किसी भी उल्लेख से बचने के लिए घर पर रहना पसंद किया.
मोदी की अनुपस्थिति ने ट्रम्प को ज़रा भी नहीं रोका. दक्षिण कोरिया के ग्योंगजू में एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर सम्मेलन में कॉर्पोरेट नेताओं की एक बैठक में, ट्रंप ने मोदी को “सबसे अच्छे दिखने वाले व्यक्ति” के रूप में वर्णित किया जो एक “किलर” भी है और लड़ने के लिए उत्सुक है.
उनके बयानों को यहाँ फिर से प्रस्तुत करना उचित है:
ट्रम्प ने कहा, “मैंने प्रधानमंत्री मोदी को फ़ोन किया, मैंने कहा, ‘हम आपके साथ व्यापार सौदा नहीं कर सकते’.” “’आप पाकिस्तान के साथ युद्ध शुरू कर रहे हैं. हम ऐसा नहीं करने जा रहे हैं’.”
ट्रम्प ने कहा कि उन्होंने पाकिस्तान को भी ऐसा ही फ़ोन किया, और दोनों पक्षों ने उनसे कहा कि “आपको हमें लड़ने देना चाहिए.”
अंत में, राष्ट्रपति ने कहा, उन्होंने “प्रत्येक देश पर 250% टैरिफ़” की धमकी दी, “जिसका मतलब है कि आप कभी भी व्यापार नहीं करेंगे.”
अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत और पाकिस्तान को “सख़्त लोग” बताया.
ट्रम्प ने कहा, “मैं आपको बता दूँ, प्रधानमंत्री मोदी सबसे अच्छे दिखने वाले व्यक्ति हैं,” यह कहते हुए कि भारतीय नेता ऐसे दिखते हैं “जिन्हें आप अपने पिता के रूप में पसंद करेंगे.”
लेकिन, ट्रम्प ने कहा, “वह एक किलर हैं.”
“वह बहुत सख़्त हैं,” ट्रम्प ने भारतीय प्रधानमंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया: “नहीं, हम लड़ेंगे!”
“मैंने कहा, ‘वाह, क्या यह वही आदमी है जिसे मैं जानता हूँ?” ट्रम्प ने कहा.
अब एक गंभीर बात पर आते हैं - ट्रम्प की एशिया यात्रा अमेरिका को स्पष्ट जीत दिलाती है, लेकिन “एकतरफ़ा” सौदों में “दक्षिण पूर्व एशिया के लिए स्पष्ट लागत और अस्पष्ट लाभ” हैं.
तो, क्या मोदी ने उपस्थित न होकर सही तरीक़े से ख़ुद को और भारत को शर्मिंदगी से बचाया?
इसका उत्तर तीन तत्वों द्वारा निर्धारित किया जाता है - एशिया के बाक़ी हिस्सों के साथ भारत का संबंध, अमेरिकी टैरिफ़ का आर्थिक प्रभाव और चुनावों का महत्व.
मोदी का आसियान शिखर सम्मेलन को वर्चुअल संबोधन ने उन्हें ट्रम्प के जापान, दक्षिण कोरिया और चीन के साथ गहरे संबंधों का एक साइड शो बनने से बचा लिया हो सकता है, लेकिन यह अपने पड़ोसियों के सामने भारत की सीमाओं को भी उजागर करता है.
जहाँ तक विकास की दूसरी चिंता का सवाल है - ट्रम्प के टैरिफ़ ने अभी तक भारत के निर्यात में कोई ख़ास सेंध नहीं लगाई है. इसके अलावा, इलेक्ट्रॉनिक्स सहित बड़ी श्रेणियाँ, जिनमें एप्पल आईफ़ोन शामिल हैं, अभी भी छूट प्राप्त हैं. फिर भी, अमेरिका को निर्यात, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2% है, सितंबर में महीने-दर-महीने 20.3% गिर गया, जो उन शुल्कों के प्रभावी होने के बाद डेटा का पहला पूरा महीना था.
यह मुझे तीसरे बिंदु पर लाता है - चुनाव. अब तक मोदी ट्रम्प से मात खाते दिख रहे हैं, लेकिन उनके पास एक तुरुप का पत्ता है. भारतीय नेता अपने अमेरिकी दोस्त से दुश्मन बने नेता से ज़्यादा समय तक सत्ता में रह सकते हैं. भारत में इस बात पर कोई रोक नहीं है कि एक प्रधानमंत्री कितने कार्यकाल तक सेवा कर सकता है. अमेरिका में है, एक वास्तविकता जिसे ट्रम्प ने इस हफ़्ते अनिच्छा से स्वीकार किया.
तो, क्रिकेट की भाषा में - एक टेस्ट मैच में पाँच मुश्किल ओवर क्या हैं? मोदी को बस इतना करना है कि वह आख़िरी हँसी हँसने के लिए काफ़ी देर तक विकेट पर बने रहें. इसीलिए बिहार जीतना ट्रम्प को लुभाने से ज़्यादा मायने रख सकता है.
बिहार में बड़ी संख्या में मतदान क्यों नहीं होता?
द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार को भारत के सबसे राजनीतिक राज्यों में से एक माना जा सकता है, लेकिन मतदान के दिन यह राजनीतिक जोश अक्सर ठंडा पड़ जाता है. मतदान के आंकड़े एक स्थायी पहेली बने हुए हैं. एक ऐसा राज्य जो राजनीति में जीता और सांस लेता है, वहां का एक बड़ा हिस्सा वोट नहीं डालता. इन आंकड़ों के पीछे प्रवासन, आर्थिक कठिनाई और मतदाता और चुने हुए प्रतिनिधि के बीच विश्वास के टूटने की एक जटिल कहानी है.
सबसे पहले आंकड़ों पर नज़र डालें तो, बिहार में अपने पड़ोसियों और राष्ट्रीय औसत की तुलना में लगातार कम मतदान हुआ है. ऐतिहासिक डेटा से पता चलता है कि बिहार में मतदान दशकों से निराशाजनक रूप से कम रहा है. पिछले 60 वर्षों में यह कभी भी 63% का आंकड़ा पार नहीं कर पाया है. इसकी तुलना पड़ोसी पश्चिम बंगाल से करें, जहां नियमित रूप से 80% से अधिक मतदान होता है. यहां तक कि उत्तर प्रदेश (2024 में 62.2%) और झारखंड (नवीनतम विधानसभा चुनावों में 68.34%) जैसे राज्य भी बिहार से बेहतर प्रदर्शन करते हैं.
हालांकि 1990 के दशक में, मंडल आंदोलन के चरम पर, भागीदारी में उछाल देखा गया था, लेकिन 2000 के लोकसभा चुनाव में यह 62.6% था. राष्ट्रीय जनता दल के 15 साल के शासन को समाप्त करने वाले महत्वपूर्ण 2005 के विधानसभा चुनावों में मात्र 46.5% (फरवरी) और 45.8% (अक्टूबर) मतदान हुआ. सबसे हालिया 2020 के चुनाव में 57.3% मतदान दर्ज किया गया.
मतदान में सबसे बड़ी संरचनात्मक बाधा मतदाताओं की अनुपस्थिति है. बिहार भारत के आंतरिक प्रवासन का केंद्र है, जो देश के कुल प्रवासियों में लगभग 15% का योगदान देता है. ये युवा, कार्यबल और जनसांख्यिकीय लाभांश हैं - और मतदान के दिन, वे दिल्ली, मुंबई या लुधियाना में होते हैं, और आर्थिक रूप से लौटने में असमर्थ होते हैं. यह एक “कागज़ी मतदाता” (ghost electorate) बनाता है. जब हम बिहार के 7.42 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं की बात करते हैं, तो हमें उन लाखों लोगों को भी ध्यान में रखना चाहिए जो केवल कागज़ पर मतदाता हैं.
मतदाता मोहभंग को मापने का एक तकनीकी तरीक़ा है जिसे चुनाव विश्लेषक DISP (Disproportionality Index) कहते हैं. DISP किसी पार्टी के वोट शेयर और उसके सीट शेयर के बीच के अंतर को मापता है. जब 1990 में लालू प्रसाद यादव पहली बार सत्ता में आए, तो DISP कम था. 1995 में, लालू ने सत्ता बरकरार रखी, लेकिन DISP दोगुना हो गया. उनकी पार्टी ने अपनी सीटें 122 से बढ़ाकर 167 कर लीं, लेकिन उनका वोट शेयर मुश्किल से बढ़ा. 2010 के नतीजों में अब तक का सबसे ज़्यादा DISP दर्ज किया गया. नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए ने 206 सीटों की भारी जीत हासिल की, लेकिन वोटों के मामले में, उन्होंने विपक्ष से केवल 50% अधिक वोट हासिल किए. DISP का मान 35.4 था.
2020 के चुनाव ने इस वोट-सीट के अंतर का सबसे स्पष्ट उदाहरण प्रदान किया. दो प्रमुख गठबंधनों, एनडीए और महागठबंधन, ने 37.2% का समान वोट शेयर हासिल किया. फिर भी, एनडीए ने 125 सीटों के साथ सरकार बनाई, जबकि महागठबंधन 110 सीटों के साथ विपक्ष में रह गया. इसका मतलब है कि जीत और हार के बीच का अंतर लोकप्रिय इच्छा का नहीं, बल्कि वोट वितरण की दक्षता का था. यह बिहारी मतदाता के संदेहवाद में एक भूमिका निभाता है. उच्च DISP, बार-बार होने वाले राजनीतिक “यू-टर्न” के साथ मिलकर, एक गहरे विश्वास घाटे की ओर ले जाता है जो भाग लेने की प्रेरणा को दबा देता है.
बिहार में सत्ता परिवर्तन अक्सर कम मतदान पर भी हुआ है. 2005 में, राजद का 15 साल का शासन समाप्त हो गया. लेकिन यह ऐतिहासिक परिवर्तन 30 से अधिक वर्षों में सबसे कम मतदान - 45.8% - पर हुआ. यह कोई लोकलुभावन लहर नहीं थी; जीत नए मतदाताओं को उत्साहित करके नहीं, बल्कि मौजूदा जाति ब्लॉकों (कुर्मी, कोइरी, ईबीसी) के राजद से हटकर नए जद(यू)-भाजपा गठबंधन की ओर रणनीतिक पुनर्संरेखण द्वारा हासिल की गई थी. इसलिए, बिहारी बड़ी संख्या में वोट नहीं देता क्योंकि वे प्रवासन के कारण शारीरिक रूप से अनुपस्थित हैं, वे गरीबी के दुष्चक्र से आर्थिक रूप से थके हुए हैं, और वे एक ऐसी प्रणाली से राजनीतिक रूप से थके हुए हैं जहां उनके जनादेश को नियमित रूप से तोड़ा-मरोड़ा और धोखा दिया जाता है.
जीविका दीदी के खाते में दस हज़ार:
क्या वे उनको वोट देंगी?
द वायर हिंदी पर प्रकाशित मनोज सिंह की रिपोर्ट के अनुसार, गोपालगंज जिले के विजयीपुर प्रखंड के दिघवा ग्राम पंचायत की दलित बस्ती की रंभा और आरती कहती हैं, ‘दस हजार रूपया में का होई? कौन रोजगार होई? एगो नीमन बकरी भी नाहीं मिली. बकरी चरावे खातिर भी त खेत बारी होखे के चाहीं. हमन के तो उहो नाहीं बा. महंगाई से खर्चा बढ़त जात बा. जीविका क मतलब हो गईल बा कि केहू तरह जिय. नीतीश जी खाली जीविका जीविका न करीं. हमन के रोजगार दीं. कल-कारखाना लगाईं. लड़िकन के नौकरी दीं. महंगाई कम करीं.’
बिहार विधानसभा चुनाव में जीविका दीदियों की सबसे अधिक चर्चा हो रही है. नीतीश सरकार मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 1.40 करोड़ जीविका दीदियों को अपने पसंद की आजीविका शुरू करने के लिए दस-दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता दिये जाने को खूब जोर-शोर से प्रचारित कर रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी हर सभा में इसका जिक्र कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि ‘1 करोड़ 40 लाख से अधिक जीविका दीदियां अलग-अलग कामों से बिहार और देश की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभा रही हैं. हमारी सरकार द्वारा हर परिवार की एक महिला को अपनी पसंद का रोजगार शुरू करने के लिए 10 हजार रुपये दिये जा रहे हैं.’
एनडीए गठबंधन इस कदम को जीत की गारंटी मान रही है. दूसरी तरफ, तेजस्वी यादव ने जीविका दीदियों को हर महीने 2500 रुपये की सहायता देने के साथ-साथ कम्युनिटी मोबालाइजर (सीएम) को पक्की नौकरी और 32 हजार रुपये देने की घोषणा की है. नीतीश सरकार ने 26 सितंबर को मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की शुरूआत की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में 75 लाख जीविका दीदियों के खाते में पैसे भेजे. इस तरह 1.21 करोड़ महिलाओं को कुल दस हजार करोड़ की आर्थिक सहायता दी गई है.
नीतीश सरकार ने 2007 में बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना शुरू की, जिसे स्थानीय भाषा में जीविका कहा जाता है. आज बिहार में 11,44,421 स्वयं सहायता समूह गठित किए जा चुके हैं जिनसे 1.40 करोड़ महिलाएं जुड़ी हुई हैं. दिघवा गांव की दलित बस्ती की जीविका दीदियों में इस आर्थिक सहायता को लेकर कोई खास उत्साह नहीं है. आरती ने ये दस हजार रुपये समूह से लिए गए 13 हजार कर्ज चुकाने के लिए दे दिया. सुनकेशा देवी ने अपने दस हजार मकान का लिंटर लगवाने के लिए खर्च कर दिए. रंभा देवी कहती हैं कि उन्होंने बकरी खरीदनी चाही लेकिन दस हजार में ‘नीमन’ बकरी नहीं मिली.
बांसुरी जीविका स्वयं सहायता समूह की सभी सदस्य महिलाएं दलित बिरादरी से आती हैं. इन परिवारों के अधिकतर पुरुष सदस्य मजदूरी करने दिल्ली, मुंबई, राजस्थान गए हुए हैं. भूमिहीनता, बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई ग्रामीण गरीबों को कर्ज के जाल में फंसा रही है. चनवा देवी के बेटों ने माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से कर्ज लिया था और किश्त नहीं चुका पाने के कारण उनकी पत्नियां घर में ताला बंद कर दिल्ली चली गई हैं. कंपनी वाले अब चनवा देवी को तंग कर रहे हैं.
दलित बस्ती की महिलाएं अपने विधायक सुनील कुमार से बहुत दुखी हैं. उनका कहना है कि वे ‘जात भाई’ हैं लेकिन कभी उनकी सुध लेने नहीं आए. रिंकू देवी और सुनकेशा कहती हैं कि, ‘उ इधर तकबे नाहीं करलें. कब्बो देखहूं नाहीं अइलें कि हमन के कईसे जीयत बांटी जा.’ जीविका समूहों की सफलता को खूब चमकाया जाता रहा है लेकिन बांसुरी जीविका समूह की हकीकत तो एकदम दूसरी ही है.
नीतीश के पीछे लामबंद हो सकती हैं ‘जाति-निरपेक्ष’ महिला मतदाता
द हिंदू में शोभना के. नायर की रिपोर्ट के अनुसार, क्या नीतीश कुमार सरकार का 1.2 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपये देने का फ़ैसला, जो ठीक चुनावों के समय किया गया है, एक गेम-चेंजर साबित होगा?
बिहार के जहानाबाद ज़िले के काफ़रपुर गाँव में, 58 वर्षीय किरण देवी पुरुषों को राजनीति पर चर्चा करते सुनती हैं और रुककर अपनी राय देती हैं. वे कहती हैं, “इंदिरा गांधी ने देश को दिखाया कि एक महिला नेतृत्व कर सकती है, लेकिन नीतीश कुमार ने हमें नेतृत्व करने का अवसर दिया.” बकरी उनकी नई ख़रीद है, जो उन्होंने पिछले महीने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार की ‘मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना’ के तहत मिले 10,000 रुपये से ख़रीदी है. इस योजना के तहत, 1.2 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपये दिए गए हैं, जो जीविका (एक विश्व बैंक-सहायता प्राप्त परियोजना) से जुड़ी हैं. अब तक 12,100 करोड़ रुपये, जो बिहार के वार्षिक बजट का लगभग 4% है, 1.21 करोड़ महिला लाभार्थियों के बैंक खातों में स्थानांतरित किए जा चुके हैं.
किरण देवी चौहान हैं, जो एक अति पिछड़ा वर्ग (EBC) की मतदाता हैं. उनकी बात सुनकर, दूसरी महिलाएँ भी चर्चा में शामिल हो जाती हैं. 48 वर्षीय कांति देवी, नीतीश कुमार को महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने का श्रेय देती हैं. उन्होंने भी मिले हुए पैसों से बकरियाँ ख़रीदी हैं. महिलाएँ इस बात पर चर्चा करती हैं कि साल के अंत तक वे अपनी नई ख़रीद से कितना कमा सकती हैं, यह समझाते हुए कि बकरियाँ साल में दो बार बच्चे देती हैं.
बिहार सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, ‘मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना’ पर लगभग छह महीने से काम चल रहा था. मासिक भुगतान बनाम एकमुश्त भुगतान के मॉडल पर विचार किया गया, और वित्तीय व्यवहार्यता के कारण एकमुश्त भुगतान का मॉडल चुना गया.
यह योजना नीतीश कुमार द्वारा अपने लिए बनाए गए महिलाओं के ‘जाति-निरपेक्ष’ वोट बैंक को और मज़बूत करने में मदद करती है. उनकी विभिन्न महिला-केंद्रित योजनाओं, जैसे पंचायतों में आरक्षण बढ़ाने से लेकर छात्राओं के लिए छात्रवृत्ति और वित्तीय सहायता तक, ने महिलाओं के बीच उनकी पैठ बनाई है.
मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र में, 65 वर्षीय चंदर दीप दास अपनी पत्नी बीना रानी के साथ राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं. बीना रानी कहती हैं, “नीतीश कुमार ने हमें लड़कियों और लड़कों के लिए बहुत सारी सुविधाएँ दी हैं.” उन्होंने बताया कि जीविका ने उन्हें अपने घर की दहलीज़ से बाहर निकलने में सक्षम बनाया. उन्होंने सरकार द्वारा दिए गए पैसे से एक गाय ख़रीदी है, जिसमें उन्होंने अपनी बचत से 25,000 रुपये और मिलाए.
विपक्ष के महागठबंधन ने भी अपने घोषणापत्र में ‘माई-बहिन मान योजना’ के तहत महिलाओं को वित्तीय सहायता देने का प्रस्ताव दिया है, जिसमें 2,500 रुपये प्रति माह देने का वादा किया गया है. हालांकि, यह घोषणा अभियान में थोड़ी देर से आई है और शायद उन 10,000 रुपयों का मुक़ाबला करना मुश्किल होगा जो राज्य की एक तिहाई महिला मतदाताओं तक पहले ही पहुँच चुके हैं.
कई महिलाओं की शिकायतें भी हैं कि उन्हें इस योजना से बाहर रखा गया है. दिलचस्प बात यह है कि महिलाएँ इसके लिए मुख्यमंत्री को दोषी नहीं ठहरा रही हैं. गया ज़िले की एक दलित मतदाता रेखा देवी कहती हैं, “मोदी जाने क्यों नहीं दिया.” उनका ग़ुस्सा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर है.
दरभंगा में, 35 वर्षीय सरिता यादव 10,000 रुपये की राशि पर सवाल उठाती हैं. वे पूछती हैं, “10,000 रुपये की आज के समय में कोई वैल्यू है?” लेकिन उनकी बेटी कंचन, जो 12वीं कक्षा में पढ़ती है, चुपचाप मुस्कुराती है. अपनी माँ के जाते ही वह कहती है, “मैं अगले चुनाव में नीतीश को वोट दूँगी, जब मैं वोट देने के योग्य हो जाऊँगी. आख़िरकार, उन्होंने हमें स्कूल बैग, यूनिफ़ॉर्म, पढ़ाई के लिए स्टेशनरी दी.”
नीतीश कुमार: बिहार की राजनीति के ‘स्थिर’ और ‘अस्थिर’ दोनों
द हिंदू में प्रकाशित एक विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार विरोधाभासी रूप से एक स्थिर और अस्थिर, दोनों हैं. पिछले ढाई दशकों में, उन्होंने नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है - सात बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थन से और दो बार राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ. नवंबर 2005 से, वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मजबूती से बने हुए हैं. फिर भी, नीतीश बिहार की राजनीति में सबसे अप्रत्याशित चर बने हुए हैं.
हाल के दिनों में, वह अपनी कुछ ग़लतियों के लिए सुर्ख़ियों में रहे हैं, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “मुख्यमंत्री” कहना, “4,000 सांसदों” को चुनने का आग्रह करना और राष्ट्रगान के दौरान बेचैन दिखना. इन घटनाओं ने उनकी मानसिक स्थिति पर सवाल खड़े किए हैं, लेकिन न तो भाजपा चुनाव से पहले उन्हें छोड़ना चाहती है और न ही प्रतिद्वंद्वी उन पर कोई व्यक्तिगत हमला करना चाहते हैं.
नीतीश का उदय न तो तेज़ था और न ही अचानक. उन्होंने हर कदम पर हार का सामना किया. 1977 में जेपी आंदोलन से निकले कई युवा नेता संसद पहुंचे, लेकिन नीतीश हार गए. उन्हें 1977 और 1980 के विधानसभा चुनावों में बेलछी नरसंहार के नतीजों का सामना करना पड़ा और वे हार गए. आख़िरकार 1985 में उन्होंने हरनौत विधानसभा सीट जीती. नीतीश और लालू का साथ विश्वविद्यालय के दिनों का है. नीतीश ने लालू को छात्र संघ अध्यक्ष और बाद में विपक्ष का नेता बनने में मदद की. 1990 में, उन्होंने लालू को मुख्यमंत्री बनाने में भी अहम भूमिका निभाई. लेकिन दो साल के भीतर ही उनके रिश्ते टूट गए.
लालू के “तानाशाही” तरीकों से नाराज़ होकर, नीतीश ने 1994 में कुर्मी चेतना रैली में “भीख नहीं हिस्सेदारी चाहिए” का नारा दिया. उन्होंने समता पार्टी बनाई, लेकिन 1995 के चुनाव में बुरी तरह हार गए. इसके बाद, उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन किया, जिसका साझा लक्ष्य लालू को सत्ता से हटाना था. यह गठबंधन सफल रहा और 3 मार्च, 2000 को नीतीश पहली बार सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने. आख़िरकार 24 नवंबर, 2005 को उन्हें पूर्ण बहुमत मिला.
मुख्यमंत्री के रूप में उनका पहला कार्यकाल परिवर्तनकारी माना जाता है. उन्होंने विकास और सामाजिक प्रतिनिधित्व का एक नया मिश्रण पेश किया. उन्होंने सड़कों का निर्माण किया और साथ ही महादलित और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) जैसे समुदायों तक पहुंचे, जिन्होंने उनका मुख्य वोट बैंक बनाया.
हालांकि, उनकी वैचारिक अस्थिरता ने उन्हें कई बार पाला बदलने पर मजबूर किया है. 2013 में, उन्होंने मोदी के नाम पर एनडीए छोड़ा, 2015 में लालू के साथ गए, 2017 में “भ्रष्टाचार” का हवाला देकर एनडीए में लौट आए, 2022 में फिर महागठबंधन में शामिल हुए और 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले फिर एनडीए में वापस आ गए.
2024 के चुनाव के बाद, उनका व्यवहार बदला हुआ दिखा. वे मोदी के पैर छूते दिखे और केंद्र में कम मंत्री पद स्वीकार किए. दो दशकों के शासन के बाद भी, राज्य एक चौराहे पर खड़ा है. हालिया जाति सर्वेक्षण ने बिहार की अर्थव्यवस्था की गंभीर तस्वीर पेश की है, जिसमें 34.13% परिवार 6,000 रुपये या उससे कम की मासिक आय पर गुज़ारा कर रहे हैं. राज्य पर भारी क़र्ज़ है. अब सवाल यह है कि “नीतीश के बाद कौन?” इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है. नीतीश ने बिहार को वह स्थिरता दी जिसका वह आदी नहीं था, लेकिन आगामी चुनाव यह तय करेगा कि उन्हें कैसे याद किया जाएगा - एक ऐसे नेता के रूप में जिसने राज्य की नियति बदल दी या राजनीति के लंबे सफ़र में एक और मुख्यमंत्री के रूप में.
एनडीए ने बिहार चुनाव के लिए घोषणापत्र जारी किया: एक करोड़ नौकरियों और ईबीसी को 10 लाख की सहायता का वादा
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस और पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने शुक्रवार को आगामी 2025 बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसमें युवाओं, अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और महिला उद्यमियों के लिए कई बड़े वादे किए गए हैं. घोषणापत्र बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और अन्य सहयोगी दलों के नेताओं की उपस्थिति में जारी किया गया.
एनडीए ने सत्ता में आने पर राज्य के एक करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा किया है. इस पहल का समर्थन करने के लिए हर जिले में मेगा स्किल सेंटरों को ग्लोबल स्किलिंग सेंटरों में अपग्रेड किया जाएगा. साथ ही, राज्य में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए 50 लाख करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित करने का भी वादा किया गया है.
प्रमुख घोषणाओं में, घोषणापत्र में अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के सदस्यों को 10 लाख रुपये की सहायता देने और उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए एक मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तहत एक आयोग बनाने का वादा किया गया है. एनडीए ने कहा कि वह लक्षित वित्तीय और कौशल-आधारित पहलों के माध्यम से “करोड़पति महिला उद्यमियों” को बढ़ावा देकर महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए काम करेगा.
घोषणापत्र में बिहार भर में सात एक्सप्रेसवे बनाने और पटना के अलावा चार अतिरिक्त शहरों में मेट्रो रेल सेवाएं शुरू करने की प्रतिबद्धताएं भी शामिल हैं. इसमें दस नए औद्योगिक पार्क और एक विश्व स्तरीय मेडिसिटी के साथ-साथ प्रत्येक जिले में मेडिकल कॉलेज बनाने का भी प्रस्ताव है. शिक्षा के मोर्चे पर, एनडीए किंडरगार्टन से स्नातकोत्तर स्तर तक मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करेगा और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले अनुसूचित जाति के छात्रों को 2,000 रुपये की एकमुश्त सहायता प्रदान करेगा.
एनडीए ने ‘पंचामृत’ गारंटी के तहत मुफ्त राशन, 5 लाख रुपये का मुफ्त इलाज और गरीबों के लिए 50 लाख और पक्के मकान देने का भी वादा किया. घोषणापत्र के अनुसार, अगर एनडीए सत्ता में आता है, तो वह पीएम किसान सम्मान निधि के तहत वित्तीय सहायता को 6,000 रुपये से बढ़ाकर 9,000 रुपये सालाना करेगा, मछुआरों के लिए सहायता को 4,500 रुपये से बढ़ाकर 9,000 रुपये सालाना करेगा, और सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करेगा.
भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, “यह घोषणापत्र किसानों के कल्याण, युवाओं के लिए रोजगार, महिलाओं के सशक्तिकरण, बुनियादी ढांचे के विकास, नए उद्यमों की स्थापना और एक विकसित और आत्मनिर्भर बिहार के निर्माण के लिए हमारी प्रतिबद्धता का एक दस्तावेज है.”
तेजस्वी यादव का राजनीतिक उभार
द वायर में अजय आशीर्वाद महाप्रशस्त के विश्लेषण के अनुसार, बिहार में 2020 के विधानसभा चुनावों से पहले, तेजस्वी यादव को आगे बढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. लालू प्रसाद यादव चारा घोटाला मामलों में अपनी सज़ा काटते हुए रांची जेल में बंद थे. तब एक राजनीतिक नौसिखिया, तेजस्वी को अचानक चुनावी प्रचार के गहरे समंदर में धकेल दिया गया था.
पर्यवेक्षकों के एक वर्ग ने तेजस्वी को ख़ारिज कर दिया था. उनका राजनीतिक अनुभव की कमी, उनके पिता का बिगड़ता स्वास्थ्य, और उनके परिवार में संघर्षों की अफ़वाहें - इन सभी को ऐसे कारक के रूप में देखा गया जो युवा यादव के करियर को शुरू होने से पहले ही समाप्त कर सकते थे.
लेकिन तेजस्वी ने चुनौती स्वीकार की और चीज़ों को बदल दिया. उन्होंने चुनावों से पहले अपना सबसे व्यापक प्रचार किया, प्रतिदिन लगभग 8-9 रैलियों को संबोधित किया, और लगभग 5000 किलोमीटर की चुनावी यात्रा की. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अभियान को राज्य की सबसे ज्वलंत चिंता - बेरोज़गारी - के इर्द-गिर्द केंद्रित किया. उनका संदेश युवाओं तक पहुँचा, और वे बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ एकमात्र योद्धा के रूप में देखे जाने लगे - इतना कि वे राजद को विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनाने में सफल रहे.
साथ ही, तेजस्वी ने बिहार के जटिल राजनीतिक परिदृश्य को संभालने में भी कौशल दिखाया. वह इस बात से वाक़िफ़ थे कि राजद समय के साथ एक मुस्लिम और यादव-वर्चस्व वाली पार्टी में बदल गई थी, जिससे अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और दलितों के बड़े हिस्से अलग-थलग हो गए थे.
अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही, तेजस्वी ने इन ग़लतियों को सुधारने का प्रयास किया है. उन्होंने सचेत रूप से अपनी पार्टी को केवल ‘M-Y’ (मुस्लिम-यादव) की नहीं, बल्कि ‘A to Z’ की पार्टी बताया, जिसका अर्थ था कि उनका इरादा आबादी के सभी वर्गों तक पहुँचना है. हाल ही में जून 2025 में, तेजस्वी ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया जब उन्होंने एक वरिष्ठ EBC नेता मंगनी लाल मंडल के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ़ कर दिया.
वाम दलों के साथ गठबंधन ने भी उनके राजनीतिक कौशल को साबित किया, क्योंकि कांग्रेस और छोटी पार्टियों के साथ, महागठबंधन अब न केवल एक व्यापक सामाजिक गठबंधन का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि एक कट्टर धर्मनिरपेक्ष, फासीवाद-विरोधी गठबंधन का भी प्रतिनिधित्व करता है.
अब जब नीतीश कुमार सरकार ने पूरी तरह से नकद हस्तांतरण और लक्षित कल्याणकारी योजनाओं पर भरोसा किया है, तेजस्वी ने रोज़गार सृजन, सार्वजनिक शिक्षा और सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा के मुद्दों को उठाकर बिहार के लिए एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण पेश करने की लगातार कोशिश की है. उन्होंने अपने विकास के एजेंडे से भाजपा के “अवैध आप्रवासन” पर केंद्रित अभियान को भी कमज़ोर कर दिया है.
तेजस्वी ने उन कमियों को दूर करने की पूरी कोशिश की है जिन्होंने राजद को सत्ता से दूर रखा है. उन्होंने राजनीतिक शिल्प और दूरदर्शिता दिखाई है और बिहार के लिए एक दीर्घकालिक विकास का दृष्टिकोण पेश किया है जो उनके पिता अपने चरम पर नहीं कर सके. जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनावों के लिए तैयार हो रहा है, राजद को यह धारणा ख़त्म करने के लिए अपने प्रयासों को दोगुना करने की आवश्यकता हो सकती है कि यह एक विशेष M-Y पार्टी है, लेकिन यह निश्चित रूप से पार्टी के लिए नई और गतिशील शुरुआत है. तेजस्वी को अभी भी बड़े जूते भरने हैं, लेकिन उन्होंने खुद को अपने पिता का एक योग्य उत्तराधिकारी साबित किया है.
आज भारत का नाज़ कही जा रही जेमिमा साल भर पहले दक्षिणपंथी नफ़रत के निशाने पर थीं
वायर हिंदी द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय महिला क्रिकेट टीम आईसीसी वीमेंस वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंच गई है. गुरुवार (30 अक्टूबर) को ऑस्ट्रेलिया के साथ खेले गए सेमी फाइनल मैच में मिली जीत की सूत्रधार जेमिमा रोड्रिग्स और कप्तान हरमनप्रीत कौर रहीं. ये मैच इसलिए भी खास रहा, क्योंकि शायद यह वर्ल्ड कप इतिहास में पहली बार है जब किसी टीम ने नॉकआउट मैच में 339 रनों का लक्ष्य हासिल किया है.
इस मैच में प्लेयर ऑफ द मैच का खिताब जीतने वाली जेमिमा रोड्रिग्स ने 134 गेंदों में नाबाद 127 रन बनाए. मैच के बाद जेमिमा बेहद भावुक हो गईं, जो उनके संघर्ष, धैर्य और आत्मविश्वास की कहानी बयां करता है. जेमिमा ने खुद बताया कि ये सब उनके लिए कितना मुश्किल था, वे मानसिक तनाव और एंग्जायटी का सामना कर रही थीं.
आज जेमिमा को भारत का गौरव बताया जा रहा है, लेकिन यह हमारे देश की विडंबना ही है कि विश्व कप की इस शानदार पारी से पहले जेमिमा नफरती ट्रोलर्स, हिंदुत्ववादी चैनलों और एक समाचार एजेंसी के नफरती अभियान का सामना कर रही थीं. द वायर ने तब बताया था कि मुंबई के खार जिमखाना ने उनकी सदस्यता रद्द कर दी थी, क्योंकि कुछ सदस्यों ने कथित तौर पर उनके पिता इवान द्वारा क्लब परिसर का इस्तेमाल ‘धार्मिक गतिविधियों’ के लिए करने पर आपत्ति जताई थी. ऐसा दावा किया गया कि उनके पिता द्वारा ‘कमज़ोर’ लोगों का ‘धर्मांतरण’ करने के लिए यहां कार्यक्रम आयोजित किए गए थे.
हिंदुत्ववादी ब्रिगेड ने उन्हें अपने नफरती एजेंडे का निशाना बनाया और यह दावा दोहराया कि रॉड्रिग्स के पिता इवान ने परिसर का इस्तेमाल धर्मांतरण के लिए किया था. कुछ ने तो उनके साथ सामूहिक बलात्कार तक की मांग भी की. हालांकि, क्लब के अध्यक्ष विवेक देवनानी ने इन आरोपों का खंडन किया था और कहा था कि यह क्लब के एक गुट द्वारा आगामी चुनावों से पहले राजनीति का परिणाम है.
एक साल बाद गुरुवार को हुए मैच के बाद दिए गए अपने साक्षात्कार में रोड्रिग्स बहुत भावुक, लेकिन दृढ़ नज़र आईं. उन्होंने कहा, ‘मैं जीसस का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं – मैं यह अकेले नहीं कर सकती थी. मैं अपनी मां, पिता, कोच और हर उस व्यक्ति का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं जिसने मुझ पर भरोसा किया.’ उन्होंने यह भी बताया कि मैच के दौरान जब वह थक गईं तब वह बाइबिल की एक पंक्ति दोहरा रही थीं, ‘बस तुम खड़े रहो, ऊपरवाला तुम्हारे लिए खड़ा होगा’ और वही हुआ, उन्होंने मेरे लिए लड़ाई लड़ी.
‘हमारे खिलाफ हिंसा का कोई सबूत नहीं’, सुप्रीम कोर्ट से उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा
2020 दिल्ली दंगों के मामले में खुद को निर्दोष बताते हुए छात्र कार्यकर्ताओं और जेएनयू के पूर्व छात्रों शरजील इमाम, उमर खालिद और गुलफिशा फातिमा ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि उन्हें “हिंसा से जोड़ने वाला कोई सबूत नहीं है.” उन्होंने साजिश के आरोपों से भी इनकार किया.
न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एनवी अंजारिया की पीठ के समक्ष खालिद ने कहा, “751 एफआईआर दर्ज हैं. मुझ पर एक में आरोप लगाया गया है, और अगर यह एक साजिश है, तो यह कुछ हद तक आश्चर्यजनक है. मेरे खिलाफ हिंसा का कोई सबूत नहीं है.”
खालिद की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि निचली अदालत में समय की कमी के कारण 26 तारीखों पर मामले को नहीं लिया जा सका, जबकि विशेष लोक अभियोजक की अनुपलब्धता के कारण 59 तारीखों पर मामले की सुनवाई नहीं हो सकी.
सिब्बल ने सवाल किया कि उनके मुवक्किल पर इस मामले में आरोप कैसे लगाया जा सकता है, जबकि दंगों के समय वह दिल्ली में मौजूद भी नहीं था. सिब्बल ने कहा कि खालिद को हिंसा के किसी भी कृत्य से जोड़ने वाले हथियारों या आपत्तिजनक सामग्री की कोई बरामदगी नहीं हुई है. सिब्बल ने अपने मुवक्किल के लिए जमानत की मांग करते हुए तर्क दिया, “खालिद पर हिंसा के लिए कोई फंड जुटाने या हिंसा के लिए कोई अपील करने का कोई आरोप नहीं है. खालिद के खिलाफ लगाया गया एकमात्र खुला कृत्य 17 फरवरी को महाराष्ट्र के अमरावती में दिया गया उनका भाषण है.”
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की खबर के अनुसार, अदालत ने शुक्रवार को इस मामले को सोमवार, 3 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दिया, ताकि अन्य सह-आरोपियों, जिनमें मीरान हैदर, मोहम्मद सलीम खान और शिफा उर रहमान शामिल हैं, साथ ही दिल्ली पुलिस से भी आगे की दलीलें सुनी जा सकें.
पुलिस ने खालिद, इमाम और फातिमा को दिल्ली दंगों से जुड़े बड़ी साज़िश के मामले में कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आपराधिक साज़िश के आरोप में गिरफ्तार किया था.
फातिमा का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने बताया किया कि वह 11 अप्रैल, 2020 से (पांच साल और पांच महीने से अधिक समय) हिरासत में है. उन्होंने बताया कि जबकि आरोप पत्र 16 सितंबर, 2020 को दाखिल किया गया था, पूरक आरोप पत्र हर साल दाखिल किए जाते रहे हैं. उन्होंने सवाल किया, “बड़ा मुद्दा यह है कि क्या आरोप पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया अनिश्चित काल तक जारी रह सकती है?”
कार्यवाही की धीमी गति पर सवाल उठाते हुए, सिंघवी ने टिप्पणी की, “ट्रायल अभी तक शुरू क्यों नहीं हुआ है? फातिमा अब इस मामले में हिरासत में अकेली महिला हैं, क्योंकि अन्य महिलाओं को पहले ही जमानत मिल चुकी है. अगर आपको छह या सात साल बाद जमानत मिलती है, तो उसका क्या मतलब है?”
सिंघवी ने आगे बताया कि अभी तक आरोप तय नहीं किए गए हैं, और 800 से अधिक गवाहों की सूची है. सिंघवी ने तर्क दिया, “यह आपराधिक न्याय प्रणाली की विकृति है. स्वतंत्रता की अवधारणा यह है कि आप मुझे बिना मुकदमे के जेल में नहीं रख सकते.”
इमाम की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने तर्क दिया कि पुलिस पिछले साल सितंबर 2024 तक पूरक आरोप पत्र दाखिल करती रही, जिसका अर्थ है कि जांच कम से कम चार साल तक जारी रही. उन्होंने कहा कि इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि कम से कम 2024 तक आरोपियों की ओर से कोई देरी नहीं हुई थी.
उन्होंने सवाल किया कि इमाम को साज़िश के लिए ज़िम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है, जबकि दंगा होने से लगभग एक महीने पहले, अन्य मामलों के संबंध मेंवह 25 जनवरी, 2020 से हिरासत में है. दवे ने कहा, “इमाम अन्य किसी भी दंगा मामले में भी आरोपी नहीं है. कथित भड़काऊ भाषणों से जुड़े अन्य मामलों में उसे जमानत मिल चुकी है और वह केवल इसी मामले के कारण जेल में है.
72% अग्निवीरों ने नौकरी का तनाव बताया, 52% भविष्य को लेकर चिंतित
भारतीय सशस्त्र बलों में अल्पकालिक सेवा प्रदान करने वाली केंद्र सरकार की टूर ऑफ ड्यूटी या अग्निवीर योजना के बारे में एक नए सर्वेक्षण में पाया गया है कि 72% प्रतिभागियों ने नौकरी का तनाव अनुभव किया, जबकि 52% अपनी चार साल की सेवा अवधि पूरी होने के बाद रोजगार के अवसरों को लेकर चिंतित थे. जहां 38% प्रशिक्षण की गुणवत्ता से संतुष्ट थे, वहीं 40% असंतुष्ट थे और 22% तटस्थ रहे. याद रहे कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी सरकार पर रक्षा बजट को एक बड़े व्यापारिक घराने के फायदे के लिए खर्च करने के उद्देश्य से अग्निवीर योजना लाने का आरोप लगाया था.
“गुजरात समाचार” के अनुसार, एमएस विश्वविद्यालय के समाज कार्य संकाय के छात्र मनीष जांगिड़ ने डॉ. शर्मिष्ठा सोलंकी के मार्गदर्शन में पूरे भारत से चुने गए 50 अग्निवीरों का सर्वेक्षण किया. अध्ययन के अनुसार, उम्मीदवार चार साल तक सशस्त्र बलों में सेवा करते हैं, जिसके बाद केवल 25% को स्थायी सेवा के लिए चुना जाता है, जबकि बाकी को सेवामुक्त कर दिया जाता है. शोध में पाया गया कि 60% प्रतिभागियों ने अग्निपथ योजना के बारे में नकारात्मक विचार साझा किए. जबकि 54% ने चार साल बाद दीर्घकालिक सेवा में बने रहने की इच्छा व्यक्त की, 26% ने स्थायी भूमिकाओं के लिए चुने जाने में बहुत कम रुचि या आत्मविश्वास दिखाया. प्रशिक्षण की गुणवत्ता के संबंध में, 38% संतुष्ट, 40% असंतुष्ट थे, और 22% तटस्थ रहे.
बंगाल : ‘एसआईआर’ के पहले मतुआ समुदाय को 50 रुपये में ‘हिंदू कार्ड’
पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की निर्वाचन आयोग की नियोजित कार्रवाई से पहले, ठाकुरनगर गांव में एक अभियान चल रहा है, जो कोलकाता से लगभग तीन घंटे की दूरी पर है. इस अभियान में मतुआ समुदाय के सदस्यों को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के तहत उनके आवेदनों में सहायता करने के लिए, 50 रुपये के शुल्क पर ऐसे दस्तावेज़ प्रदान किए जा रहे हैं, जो उनके हिंदू धर्म की पुष्टि करते हैं.
जॉयदीप सरकार और सयोनी चक्रवर्ती की रिपोर्ट कहती है कि सीएए में संशोधन किया गया है, ताकि इसके लक्षित आबादी में से उन लोगों को निर्वासन से बचाया जा सके जो 2025 से पहले भारत आए थे, फिर भी भाजपा सांसद और उनके भाई के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस अभियान में जारी किए गए ‘हिंदू कार्ड’, प्राप्तकर्ताओं को सुरक्षा की भावना देते हैं. यह अभियान ऐसे समय में भी हो रहा है जब हाल के वर्षों में तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी रूप से प्रभावशाली मतुआ समुदाय के बीच लाभ कमाया है.
बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम्स) के विनिवेश की योजना, यहां भी अडानी, रिलायंस और टाटा
“रॉयटर्स” ने सूत्रों और बिजली मंत्रालय के दस्तावेज़ों का हवाला देते हुए बताया है कि राज्य डिस्कॉम्स पर कर्ज़ का बोझ बने रहने के कारण केंद्र सरकार उनके लिए 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की एक बेलआउट योजना (वित्तीय सहायता योजना) बना रही है. न्यूज़ एजेंसी के मुताबिक, इस योजना के तहत फंड प्राप्त करने के लिए राज्यों को अपनी बिजली कंपनियों का निजीकरण करना होगा और प्रबंधकीय नियंत्रण सौंपना होगा या नियंत्रण रखते हुए उन्हें स्टॉक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कराना होगा. गौरतलब है कि अडानी, रिलायंस और टाटा जैसे व्यवसायिक घरानों की बिजली शाखाएं राज्य की कंपनियों में हिस्सेदारी हासिल करके इस नीति से लाभान्वित हो सकती हैं. साथ ही, इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि डिस्कॉम्स के निजीकरण के पिछले प्रयासों का कर्मचारियों और विपक्षी दलों द्वारा विरोध किया गया है. बावजूद इसके निजीकरण के प्रेस जारी हैं.
हमें चुनावों से बाहर करने से बांग्लादेश में विभाजन और बढ़ेगा : शेख हसीना
बांग्लादेश की भगोड़ी पूर्व नेता शेख हसीना ने चेतावनी दी है कि अगले साल के चुनावों से उनकी अवामी लीग पार्टी को बाहर करना देश में विभाजनों को और गहरा करेगा, क्योंकि उनके लाखों समर्थक मतदान का बहिष्कार करने के लिए तैयार हैं. वर्तमान में भारत में निर्वासित, 78 वर्षीय हसीना पर अगस्त 2024 में छात्र-नेतृत्व वाले विद्रोह द्वारा सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जा रहा है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, सत्ता से चिपके रहने के दौरान हुई कार्रवाई में 1,400 लोग मारे गए थे. हसीना ने “रॉयटर्स” को ईमेल के माध्यम से भेजी गई टिप्पणियों में कहा, “अवामी लीग पर प्रतिबंध न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि आत्म-पराजय वाला भी है.” उन्होंने कहा कि लाखों लोग अवामी लीग का समर्थन करते हैं, इसलिए मौजूदा स्थिति में वे वोट नहीं देंगे. यदि आप एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं जो काम करे, तो आप लाखों लोगों को उनके मताधिकार से वंचित नहीं कर सकते.
रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट खारिज
भारत ने रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों को खारिज कर दिया है. इसमें आरोप लगाया गया था कि 22 अप्रैल (पहलगाम आतंकी हमले) के बाद रोहिंग्याओं को बंदी बनाकर उनसे पूछताछ की गई और उन्हें निर्वासित करने के लिए धमकाया गया. “स्क्रॉल.इन” की रिपोर्ट के अनुसार, म्यांमार में मानवाधिकारों की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में, असम के सांसद और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप सैकिया ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के एक विशेष प्रतिवेदक के ये आरोप “भ्रमित करने वाले” हैं और इनका कोई “तथ्यात्मक आधार नहीं” है कि भारतीय अधिकारियों ने रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ बुरा व्यवहार किया, जिसमें पहलगाम आतंकी हमले के बाद उनमें से कई को बांग्लादेश निर्वासित करना और अन्य को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थानांतरित करना शामिल है. सैकिया ने कहा कि निर्वासन को पहलगाम से जोड़ना विशेष प्रतिवेदक के “सांप्रदायिक और पक्षपाती” दृष्टिकोण को दर्शाता है, और उन्होंने विशेषज्ञ से आग्रह किया कि वे “असत्यापित और मीडिया की विकृत रिपोर्टों पर निर्भर न रहें, जिनका एकमात्र उद्देश्य सरकार को बदनाम करना प्रतीत होता है.”
भारत ने ताजिकिस्तान के ऐनी एयरबेस से क्यों किया किनारा?
भारत ने ताजिकिस्तान के ऐनी एयरबेस पर अपना परिचालन, आधिकारिक तौर पर समाप्त कर दिया है, जो मध्य एशिया में दो दशक लंबी सैन्य उपस्थिति के अंत का प्रतीक है. यह वापसी, जो कथित तौर पर 2022 में हुई, दोनों देशों के बीच एक द्विपक्षीय समझौते की समाप्ति और बेस के संयुक्त संचालन के बाद हुई. इस कदम से क्षेत्र में भारत के भविष्य के रणनीतिक कदमों के बारे में सवाल उठते हैं, खासकर जब रूस और चीन वहां अपना प्रभाव मजबूत कर रहे हैं. भारत ताजिक सरकार के साथ एक समझौते के तहत 2002 से ऐनी एयरबेस, जिसे गिसार मिलिट्री एयरोड्रोम के नाम से भी जाना जाता है, का संचालन कर रहा था और जिसने इसे भारत के लिए एक दुर्लभ विदेशी सैन्य चौकी बना दिया था और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पास एक महत्वपूर्ण लाभप्रद स्थान प्रदान किया था. “द प्रिंट” की रिपोर्ट है कि एयरबेस भारत द्वारा पट्टे पर लिया गया था, लेकिन ताजिकिस्तान ने नई दिल्ली को सूचित किया था कि एक बार समाप्त होने के बाद लीज़ आगे नहीं बढ़ाई जाएगी. पता चला है कि एयरबेस पर गैर-क्षेत्रीय सैन्य कर्मियों की उपस्थिति को लेकर रूस और चीन के स्पष्ट दबाव के कारण ताजिकिस्तान लीज़ आगे नहीं बढ़ाना चाहता था.
2020 दंगे: दिल्ली पुलिस ने ‘सत्ता परिवर्तन’ की साज़िश बताया, जमानत का विरोध
दिल्ली पुलिस ने 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के षड्यंत्र मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोपित छात्र कार्यकर्ताओं उमर खालिद, शरजील इमाम और तीन अन्य की रिहाई का कड़ा विरोध किया है. पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया है कि कथित अपराधों में राज्य को अस्थिर करने का जानबूझकर किया प्रयास शामिल था और इसलिए “जेल, जमानत नहीं” की आवश्यकता है. “द इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, 177 पन्नों के हलफनामे में, दिल्ली पुलिस ने तर्क दिया कि फरवरी 2020 में हुई हिंसा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शनों का सहज रूप से बढ़ा हुआ रूप नहीं थी, बल्कि नागरिक असंतोष की आड़ में किया गया एक समन्वित “शासन परिवर्तन ऑपरेशन” का हिस्सा थी. अभियोजन पक्ष के अनुसार, इस योजना का उद्देश्य अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा के दौरान सांप्रदायिक तनाव भड़काना था, ताकि अशांति को ‘अंतर्राष्ट्रीय’ रूप दिया जा सके और भारत सरकार को भेदभावपूर्ण बताया जा सके. दो दिन पहले, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और एनवी अंजारिया की पीठ ने प्रवर्तन एजेंसी से विचार करने को कहा था कि क्या आरोपी, जिनमें से कई लगभग पांच साल से विचाराधीन कैदी के रूप में न्यायिक हिरासत में हैं, को जमानत पर रिहा किया जा सकता है. दूसरी ओर, आरोपी खालिद, इमाम, मीरान हैदर, गुलफिशा फातिमा और शिफा-उर-रहमान इस बात पर कायम हैं कि वे शांतिपूर्ण विरोध के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे थे और “बड़ी साजिश” का मामला असंतोष को अपराध बनाने का एक प्रयास है.
अमेरिका ने चाबहार को प्रतिबंधों से छह महीने की राहत दी
भारत ने दावा किया है कि अमेरिकी प्रशासन ने ईरान के चाबहार बंदरगाह पर लागू अमेरिकी प्रतिबंधों के लिए छह महीने की छूट दी है. यह छूट 29 अक्टूबर से लागू हो गई है. इस बंदरगाह को नई दिल्ली ने पिछले एक दशक में क्षेत्र के साथ व्यापार और पारगमन (ट्रांजिट) के विस्तार के लिए एक महत्वपूर्ण प्रवेश द्वार के रूप में विकसित किया है. यह कदम ट्रम्प प्रशासन द्वारा लंबे समय से चली आ रही प्रतिबंधों की उस छूट को रद्द करने के एक महीने से अधिक समय बाद आया है, जिसने भारत को ओमान की खाड़ी पर स्थित रणनीतिक ईरानी बंदरगाह पर अपनी उपस्थिति स्थापित करने की अनुमति दी थी. “द इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने साप्ताहिक मीडिया ब्रीफिंग में कहा, “मैं पुष्टि कर सकता हूं कि हमें चाबहार पर लागू अमेरिकी प्रतिबंधों पर छह महीने की अवधि के लिए छूट मिली है.”
चाबहार ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित एक गहरे पानी का बंदरगाह है. यह भारत के सबसे नज़दीक ईरानी बंदरगाह है और खुले समुद्र में स्थित होने के कारण, यह बड़े मालवाहक जहाजों के लिए आसान और सुरक्षित पहुंच प्रदान करता है.
एक भारतीय कंपनी, इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (आईपीजीएल), ने अपनी पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल चाबहार फ्री ज़ोन (IPGCFZ) के माध्यम से 24 दिसंबर, 2018 से चाबहार बंदरगाह का परिचालन संभाल लिया था. तब से, इसने 90,000 टीईयू (बीस-फुट समतुल्य इकाइयां) से अधिक कंटेनर यातायात और 8.4 एमएमटी (मिलियन मीट्रिक टन) से अधिक बल्क और सामान्य कार्गो को संभाला है. आज तक, चाबहार बंदरगाह के माध्यम से 2.5 मिलियन टन गेहूं और 2000 टन दालें भारत से अफगानिस्तान भेजी जा चुकी हैं. 2021 में, भारत ने इस बंदरगाह के माध्यम से टिड्डी प्लेग से लड़ने के लिए ईरान को 40,000 लीटर पर्यावरण-अनुकूल कीटनाशक की आपूर्ति भी की थी.
ट्रम्प की चुप्पी के बीच, जापान की ताकाइची ने मोदी के साथ पहली बातचीत में क्वाड का समर्थन किया
“द वायर” के अनुसार, अपनी एशिया यात्रा के दौरान ‘क्वाड’ और इसके नेताओं के भारत में होने वाले शिखर सम्मेलन के बारे में ट्रम्प की चुप्पी के बावजूद जापान की नई और पहली महिला प्रधानमंत्री साने ताकाइची ने बुधवार दोपहर मोदी के साथ एक फोन कॉल के दौरान कहा कि दोनों देश, जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत-अमेरिका (क्वाड) के माध्यम से “मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक” को साकार करने के लिए मिलकर काम करना जारी रखेंगे. दरअसल, ट्रम्प की चुप्पी ने नई दिल्ली और टोक्यो को इस बात पर चिंतित कर दिया है कि राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में क्वाड और व्यापक इंडो-पैसिफिक ढांचे को वाशिंगटन के एजेंडे में पहले जैस प्रमुखता नहीं दी जा रही है.
जेडी वेंस से उनकी हिंदू पत्नी और ‘अमेरिकन ड्रीम’ पर सवाल, जवाब पर प्रशंसा और आलोचना दोनों
टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट के अनुसार, यह एक असाधारण क्षण था जब एक अप्रवासी छात्रा ने अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस को कटघरे में खड़ा कर दिया, लेकिन उन्होंने भी अपना पक्ष मजबूती से रखा. मिसिसिपी विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान जेडी वेंस और दक्षिण एशियाई मूल की एक छात्रा के बीच हुई बातचीत ने अमेरिका के बारे में एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी.
प्रश्न-उत्तर सत्र के दौरान, छात्रा ने डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा आप्रवासन संख्या को भारी रूप से कम करने की कोशिशों पर वेंस को चुनौती दी. उसने कहा, “जब आप कहते हैं कि यहां बहुत ज़्यादा अप्रवासी हैं, तो आप लोगों ने यह संख्या कब तय की? आपने हमें एक सपना क्यों बेचा; आपने हमें इस देश में अपनी जवानी और दौलत खर्च करने पर मजबूर किया और हमें एक सपना दिया. आपने हम पर कोई एहसान नहीं किया; हमने इसके लिए कड़ी मेहनत की है.”
इससे पहले छात्रों को संबोधित करते हुए, वेंस ने कहा था, “हमें कुल संख्या को बहुत, बहुत नीचे लाना होगा,” हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि वह किस स्तर के कानूनी आप्रवासन को स्वीकार्य मानते हैं. छात्रा ने आगे पूछा, “तो फिर आप उपराष्ट्रपति के तौर पर यह कैसे कह सकते हैं कि ‘हमारे पास अब उनमें से बहुत ज़्यादा हैं और हम उन्हें बाहर निकालने जा रहे हैं’ उन लोगों से जो यहां कानूनी रूप से आपके द्वारा मांगे गए पैसे का भुगतान करके रह रहे हैं?”
भावुक होते हुए उसने आगे कहा, “आपने हमें रास्ता दिया, और अब आप इसे कैसे रोक सकते हैं और कह सकते हैं कि हम यहां के नहीं हैं?” वेंस ने इसका बचाव करते हुए कहा कि अमेरिका को घरेलू हितों की रक्षा के लिए आप्रवासन को सीमित करना होगा. उन्होंने कहा, “हमारी आप्रवासन नीति ऐसी नहीं हो सकती कि जो 50 या 60 साल पहले देश के लिए अच्छा था, वह भविष्य के लिए भी देश को अनिवार्य रूप से बांधे रखे.” उन्होंने यह भी कहा कि जिन लोगों से देश ने वादा किया है, देश उसका सम्मान करेगा.
उन्होंने कहा, “मेरा काम अमेरिकी उपराष्ट्रपति के रूप में पूरी दुनिया के हितों की देखभाल करना नहीं है. यह संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों की देखभाल करना है.” उनकी इस टिप्पणी पर दर्शकों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं.
छात्रा ने यह भी पूछा कि ईसाई होना एक सच्चा अमेरिकी होने के लिए शर्त क्यों बन गया है, और उसने उनकी हिंदू पत्नी और तीन बच्चों के बारे में भी सवाल किया. वेंस ने कहा कि जबकि उनकी पत्नी अक्सर उनके साथ चर्च जाती हैं, वह चाहते हैं कि वह किसी दिन ईसाई धर्म से “प्रेरित” हों, जैसे वह हुए थे. उन्होंने कहा, “मैं ईसाई धर्म में विश्वास करता हूं और उम्मीद करता हूं कि एक दिन मेरी पत्नी भी इसे उसी तरह देखेगी.” उन्होंने आगे कहा, “अगर वह ऐसा नहीं करती हैं, तो भगवान कहते हैं कि हर किसी के पास स्वतंत्र इच्छा है, इसलिए इससे मुझे कोई समस्या नहीं होती.”
अमेरिकी उपराष्ट्रपति की टिप्पणियों ने सोशल मीडिया पर हंगामा खड़ा कर दिया, और कई लोगों ने उनकी टिप्पणियों के लिए उनकी आलोचना की. कुछ ने उन पर “हिंदूफोबिक” होने और अपनी पत्नी पर अपनी ईसाई मान्यताएं थोपने की कोशिश करने का आरोप लगाया. पूर्व भारतीय राजनयिक कंवल सिब्बल ने लिखा, “वह उसे अज्ञेयवादी कहते हैं. उसकी हिंदू उत्पत्ति को स्वीकार करने से डरते हैं. धार्मिक स्वतंत्रता की यह सब बातें कहां गईं?”
फ़ैक्ट-चेकर मोहम्मद ज़ुबैर ने व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए लिखा, “हिंदू रक्षा दल, बजरंग दल और विहिप जेडी वेंस की ‘घर वापसी’ कराने के लिए अमेरिका जा रहे हैं.”
कुछ भारतीय-अमेरिकियों ने भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. एक ने लिखा, “उषा वेंस अज्ञेयवादी नहीं हैं. जेडी वेंस थे.” एक अन्य सोशल मीडिया यूज़र ने लिखा, “उषा वेंस हिंदू हैं, अज्ञेयवादी नहीं. उनका एक वैदिक हिंदू विवाह हुआ था और उनके एक बच्चे का नाम विवेक है.”
हाल ही में उषा वेंस ने कहा था कि उनकी कैथोलिक धर्म में परिवर्तित होने की कोई योजना नहीं है. उन्होंने समझाया कि उनके बच्चे बड़े होने पर खुद यह तय करने के लिए स्वतंत्र होंगे कि वे कैथोलिक के रूप में बपतिस्मा लेना चाहते हैं या नहीं.
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