“पुरानी दुनिया मर रही है और नई दुनिया पैदा होने के लिए संघर्ष कर रही है, ये राक्षसों का वक़्त है.”
बीबीसी के संस्थापक लॉर्ड जॉन रीड की याद में होने वाले रीथ लेक्चर्स हर साल होते हैं. इस साल के लेक्चरर प्रख्यात डच इतिहासकार रटगर ब्रेगमैन हैं और ‘ह्यूमनकाइंड’ और ‘यूटोपिया फॉर रियलिस्ट्स’ जैसी बेस्टसेलिंग किताबों के लेखक हैं. उन्होंने अपनी पहली किताब तब लिखी थी जब वो सिर्फ 25 साल के थे. उनकी किताबों ने लोगों के दिलों को छुआ है क्योंकि वो ऐसे वक़्त में उम्मीद जगाती हैं जब लगता है कि हम बेहद निराशाजनक समस्याओं से घिरे हैं. लेकिन जिस उम्मीद की वो बात करते हैं, उस तक पहुँचने के लिए वो बदले में कुछ माँगते भी हैं. उनका मानना है कि हमें अपनी ज़िंदगी जीने का तरीका बदलना होगा. वो विवादों से घबराने वाले इंसान नहीं हैं. वो शायद सबसे ज़्यादा मशहूर हैं दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम पर बैंकर्स और अरबपतियों को खरी-खोटी सुनाने के लिए, जहाँ उन्होंने अमीरों द्वारा टैक्स चोरी को असली मुद्दा बताया था. उन्होंने कहा था कि ये वैसा ही है जैसे किसी फायरफाइटर की कॉन्फ्रेंस में पानी के बारे में बात करने की इजाज़त न हो. इस लेक्चर सीरीज़ का नाम है ‘मोरल रेवोल्यूशन’. वो कहते हैं कि ये कार्रवाई करने की पुकार है. पेश है चार हिस्सो में हुए भाषण की पहली कड़ी. हम अंशों में चारों भाषण न्यूजलेटर में प्रकाशित करेंगे.
रटगर ब्रेगमैन का लेक्चर
एक उपदेशक का बेटा होने के नाते, मैंने बहुत पहले सीख लिया था कि हर अच्छे प्रवचन के तीन हिस्से होते हैं. पहला, दुःख (Misery). दूसरा मुक्ति. और तीसरा, शुक्रगुज़ारी. अब, ये भाषण श्रृंखला इंसानी इतिहास के उस कमाल के दौर के बारे में एक उम्मीद भरी सीरीज़ होने वाले हैं जिसमें हम जी रहे हैं, इंसानियत की ग़ज़ब संभावनाओं के बारे में, और समर्पित नागरिकों के छोटे समूहों की ताकत के बारे में जो हमारी सामूहिक किस्मत तय कर सकते हैं. लेकिन आज हमें अपना ज़्यादातर वक़्त पहले हिस्से पर बिताना होगा. यानी दुःख या मिजरी.
बचपन से ही मुझे उथल-पुथल और बर्बादी की कहानियों ने हमेशा फैसिनेट किया है. नीदरलैंड्स में बड़े होते हुए, मुझे ख़ासकर उन कहानियों ने जकड़ रखा था कि कैसे हमारे छोटे से देश पर नाज़ियों ने कब्ज़ा कर लिया था. मैं खुद से बार-बार पूछता था, मैं क्या करता? क्या मुझमें सही करने की हिम्मत होती? एक एडल्ट के तौर पर, और एक इतिहासकार के तौर पर, मैं अब भी वो सवाल पूछता हूँ, और वो पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी लगते हैं. मुझे पता है कि मैंने इंसानियत की अच्छाई और उन यूटोपियास (utopias) के बारे में उम्मीद भरी किताबें लिखकर अपना नाम बनाया है जो हम मिलकर बना सकते हैं. लेकिन आज, एक आशावादी नोट पर शुरुआत करना बेईमानी होगी. जैसा कि इटालियन फिलॉसफर एंटोनियो ग्राम्शी ने 1926 में एक फासीवादी जेल से अपनी नोटबुक में लिखा था, “पुरानी दुनिया मर रही है और नई दुनिया पैदा होने के लिए संघर्ष कर रही है, ये राक्षसों का वक़्त है.”
हमारे आज के दुःख की गहराई को समझने के लिए, बर्बादी की एक क्लासिक कहानी से शुरुआत करना मददगार होगा. जब महान इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने रोम के पतन का वर्णन किया, तो उन्होंने गोलमोल बातें नहीं कीं. उन्होंने हमें नाम, तारीखें और डीटेल्स दीं, कायरता और भ्रष्टाचार के पन्ने के पन्ने. ‘द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ द रोमन एम्पायर’ पढ़ना ऐसा है जैसे किसी सभ्यता को स्लो मोशन में सड़ते हुए देखना. सोने के सिंहासन पर बैठे क्रूर सम्राट, जनरल जिन्होंने अपनी ही सेनाओं को बेच दिया, और सीनेटर्स जिन्हें राज-काज से ज़्यादा तमाशे की फ़िक्र थी.
और फिर भी जब आप आज गिब्बन को पढ़ते हैं तो जो चीज़ आपको सबसे ज़्यादा चौंकाती है वो उनकी नीचता नहीं, बल्कि उनका जाना-पहचाना लगना है. गिब्बन ने उन नेताओं के बारे में लिखा जिनमें गंभीरता की कमी थी. ऐसे एलीट्स जिनमें गुणों की कमी थी, और ऐसे समाज जिन्होंने पतन को तरक्की समझ लिया. 2000 साल बाद, हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ अरबपति अपना टैक्स बचाते हैं, नेता शासन करने के बजाय नाटक करते हैं, और मीडिया के मालिक झूठ और नफरत से मुनाफा कमाते हैं. रोम के एलीट बाँसुरी बजा रहे थे जब रोम जल रहा था. हमारे एलीट्स ने आग को लाइव-स्ट्रीम किया और धुएँ से पैसे कमाए. अनैतिकता और अगंभीरता. आज हमारे नेताओं की ये दो सबसे बड़ी खूबियाँ हैं. और ये कोई गलती से हुई कमी नहीं है, बल्कि ये उसका लॉजिकल नतीजा है जिसे मैं ‘बेशर्मों की सर्वाइवल’ कहता हूँ. आज, सबसे काबिल लोग आगे नहीं बढ़ते, बल्कि वो बढ़ते हैं जिनके उसूल सबसे कम हैं. सबसे गुणवान नहीं, बल्कि सबसे ढीठ.
मैं यूरोप पर बाद में आऊँगा, लेकिन पहले अटलांटिक के उस पार चलते हैं जहाँ ये लॉजिक अब अपने शुद्धतम रूप में पहुँच चुका है. यूनाइटेड स्टेट्स. मैं पिछले कुछ सालों के पागलपन की पूरी समरी देकर आपको बोर नहीं करना चाहता. एक तरफ हमारे पास एक एस्टेब्लिशमेंट था जो एक बुज़ुर्ग आदमी को सहारा दे रहा था जो साफ़ तौर पर दिमागी तौर पर कमज़ोर हो चुके थे. दूसरी तरफ हमारे पास एक सज़ायाफ्ता रियलिटी स्टार था. जब अपने प्रशासन में लोगों को भरने की बात आती है, तो वो आज के दौर का कैलिगुला है, वो रोमन सम्राट जो अपने घोड़े को कॉन्सुल बनाना चाहता था. वो अपने आप को वफादारों, धोखेबाज़ों और चापलूसों से घेर लेता है.
जो चीज़ मुझे इंट्रेस्ट करती है वो लेफ्ट वर्सेस राइट नहीं है, वो है हिम्मत बनाम कायरता, गुण बनाम पाप. और सच तो ये है कि सड़न हर जगह है. नैतिक सड़न हर तरह के एलीट इंस्टीट्यूशंस में गहराई तक फैली हुई है. अगर राइट विंग अपने बेशर्म भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है, तो लिबरल्स उसका जवाब एक लकवा मार देने वाली कायरता से देते हैं. दर्जनों कॉर्पोरेशंस, मीडिया नेटवर्क्स, यूनिवर्सिटीज़ और म्यूजियम्स ने पहले ही नए शासन के आगे घुटने टेक दिए हैं. कुछ सबसे नामी लॉ फर्म्स ने अपनी वफादारी की कसम खाने में जल्दी दिखाई. लेकिन चलिए ये दिखावा न करें कि ये कोई अचानक गिरावट थी. इन फर्म्स ने सालों तक वॉल स्ट्रीट के मुजरिमों, तंबाकू कंपनियों और अफ़ीम से मुनाफा कमाने वालों का बचाव किया है. उन्होंने अपने उसूलों को धोखा नहीं दिया. उन्होंने उन्हें ज़ाहिर किया है. उनकी वफादारी कभी इन्साफ या लोकतंत्र के लिए नहीं थी, बल्कि ताकत और मुनाफे के लिए थी.
और ये वफादारी कहाँ बनी थी? जवाब सरल है. दुनिया की सबसे मशहूर यूनिवर्सिटीज़ में, साइंस और तर्क के सबसे बड़े किलों में, उन सेक्युलर मंदिरों में जहाँ बड़े-बड़े खंभे हैं और पत्थर पर मोटो (mottos) लिखे हैं—हार्वर्ड में “सच”, येल में “रोशनी और सच”, और प्रिंसटन में “राष्ट्र की सेवा और इंसानियत की सेवा में”. हर साल, हज़ारों होनहार टीनेजर्स उन ग्लोबल समस्याओं के बारे में खूबसूरत एप्लीकेशन निबंध लिखते हैं जिन्हें वो सुलझाना चाहते हैं. क्लाइमेट चेंज, भुखमरी, संक्रामक बीमारियाँ. लेकिन कुछ साल बाद, उनमें से ज़्यादातर को मैकिन्जी, गोल्डमैन सैक्स और किर्कलैंड एंड एलिस जैसी कंपनियों की तरफ भेज दिया जाता है. ऑक्सफोर्ड में पढ़ा मेरा एक दोस्त इसे ‘टैलेंट का बरमूडा ट्राएंगल’ कहता है. कंसल्टेंसी, फाइनेंस और कॉर्पोरेट लॉ. एक बड़ा सा ब्लैक होल जो हमारे तथाकथित ‘बेस्ट एंड ब्राइटेस्ट’ को निगल लेता है. एक गहरी खाई जो 1980 के दशक से साइज़ में तीन गुना हो गई है.
हाँ, मुझे पता है कि ऐसी कंपनियाँ अपने संदिग्ध बिज़नेस मॉडल्स पर पर्पस या कॉर्पोरेट ज़िम्मेदारी की एक पतली परत चढ़ाना पसंद करती हैं. क्या आप जानते हैं कि तंबाकू जायंट, फिलिप मॉरिस का ईएसजी स्कोर शानदार है? क्या आपने सुना है कि ब्रिटिश अमेरिकन टोबैको को फाइनेंशियल टाइम्स द्वारा ‘क्लाइमेट लीडर’ और ‘डायवर्सिटी लीडर’ दोनों नामित किया गया था? और वो सच में इसके हकदार थे. उनके कार्बन डाइऑक्साइड कंपेंसेशन प्रोग्राम स्टेट ऑफ द आर्ट हैं और उनकी इंक्लूसिविटी ट्रेनिंग बिज़नेस में सबसे अच्छी हैं. वो लाखों लोगों को मारते हुए कितना अच्छा काम कर रहे हैं.
कृपया खुद को धोखा न दें. कॉर्पोरेट दुनिया में कोई नैतिक जागृति नहीं हुई है. ‘बिज़नेस फॉर गुड’, ‘कॉन्शियस कैपिटलिज्म’, ‘सोशल इम्पैक्ट’. ये सब ज़्यादातर एक ढकोसला था. बातों के नीचे, कल्चरल लहर दशकों से दूसरी दिशा में चल रही है. ज़रा अमेरिकन फ्रेशमैन सर्वे को देखिए, जो 1960 के दशक से फर्स्ट-ईयर कॉलेज स्टूडेंट्स की वैल्यूज़ को ट्रैक कर रहा है. आधी सदी पहले, जब स्टूडेंट्स से उनके जीवन के सबसे ज़रूरी लक्ष्यों के बारे में पूछा गया, तो 80% से 90% ने कहा: ज़िंदगी की एक सार्थक फिलॉसफी डेवलप करना. सिर्फ 50% ने बहुत सारा पैसा कमाने को प्राथमिकता दी. आज, वो नंबर्स पलट गए हैं. अब 80 से 90% कहते हैं कि अमीर बनना सबसे ज़्यादा मायने रखता है और सिर्फ आधे अभी भी ज़िंदगी की सार्थक फिलॉसफी की कद्र करते हैं.
अब याद रखिए, ये मानव प्रकृति नहीं, मानव संस्कृति है. बच्चे बस एक आइना दिखा रहे हैं और जो वो वापस रिफ्लेक्ट करते हैं वही है जो हम उन्हें सीखा रहे हैं. फिलहाल, हार्वर्ड के लगभग 40% ग्रैजुएट्स उन बीएस जॉब्स (BS jobs) के बरमूडा ट्राएंगल में चले जाते हैं. और अगर आप बिग टेक को शामिल करें, तो ये हिस्सा 60% से ज़्यादा हो जाता है. और वहाँ काम अक्सर उतना ही बेमतलब होता है. एक मैथ प्रोडिजी (गणित का होनहार) जो फेसबुक में काम करने लगा, उसके बदनाम शब्दों में: “मेरी जनरेशन के सबसे तेज़ दिमाग ये सोच रहे हैं कि लोगों से विज्ञापनों पर क्लिक कैसे करवाया जाए.” ये बेहद ख़राब है. लेफ्ट और राइट दोनों तरफ, अमेरिका को उसके एलीट्स ने धोखा दिया है. रोम के आखिरी दिनों की तरह, एम्पायर अंदर से सड़ रहा है, टैलेंट और दौलत की कमी से नहीं, बल्कि हिम्मत और गुणों की कमी से.
मुझे ये कहने में बहुत ख़ुशी होती कि अटलांटिक के इस तरफ चीज़ें बेहतर हैं, कि यूरोप आज़ाद दुनिया का नया लीडर बन गया है. ज़ाहिर है. हालाँकि हमारी राजनीति उतनी खुलेआम भ्रष्ट नहीं है, लेकिन वही पतन की आत्मा पुरानी दुनिया को भी डरा रही है. सच तो ये है कि यूरोप के एलीट्स की डिफाइनिंग खूबियाँ सिर्फ अनैतिकता और अगंभीरता नहीं हैं. ये ‘अप्रासंगिकता’ भी है.
अगर अमेरिका रोम के पतन जैसा दिखता है, शानदार और भद्दा, तो यूरोप वेनिस की धीमी मौत को फिर से जी रहा है. एक साम्राज्य आग में ढह जाता है, दूसरा खामोशी में डूब जाता है. एक आग से ख़त्म होता है, दूसरा कोहरे में खो जाता है. शायद आप इस कहानी से वाकिफ होंगे. अपने शिखर पर, वेनिस व्यापार और इनोवेशन का एक अजूबा था. एक लैगून पर बसा छोटा शहर एक समुद्री साम्राज्य बन गया था, जिसने सदियों तक मेडिटेरेनियन व्यापार पर राज किया. इसकी सफलता एक अपेक्षाकृत खुली व्यवस्था में थी. व्यापारी मेरिट के ज़रिए ऊपर उठ सकते थे, व्यापार अच्छे से रेगुलेटेड था, और ग्रेट काउंसिल जैसे इंस्टीट्यूशंस ने रईसों और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाया था.
लेकिन 14वीं सदी तक, वो खुलापन गायब होने लगा. पतन के बीज 1297 में ग्रेट काउंसिल की ‘सेराटा’ (Serrata) या ‘बंदी’ के साथ बोए गए. मेंबरशिप वंशानुगत हो गई, जिसने जमे हुए रईसों का एक क्लास बना दिया जिन्होंने अपने विशेषाधिकारों की कड़ी सुरक्षा की. इस स्वार्थी एलीट ने सरकारी पदों पर एकाधिकार कर लिया, नए आने वालों को रोका, और अपनी दौलत और ताकत को बचाने के लिए नियम बदल दिए. सदियों के दौरान, वेनेशियन पॉलिटिक्स ‘रेंट-सीकिंग’ (rent-seeking) में बदल गई. शासक परिवारों ने इनोवेशन में दोबारा निवेश किए बिना व्यापार मोनोपोलीज़ से मुनाफा निकाला. उन्होंने अपनी दौलत महलों और कैसीनो में उड़ा दी और ओटोमन एम्पायर जैसी उभरती हुई ताकतों से बढ़ते खतरों को नज़रअंदाज़ कर दिया. यंग एलीट्स अब व्यापारी और एडमिरल नहीं बनना चाहते थे. इसके बजाय, उन्होंने आराम और लक्ज़री की ज़िंदगी पसंद की. और समय के साथ, वेनिस अपने पुराने स्वरूप की एक परछाई बन गया, बाहर से खूबसूरत, अंदर से खोखला. क्या ये आपको किसी चीज़ की याद दिलाता है?
आज, पूरा यूरोप एक बड़ा वेनिस बनने के खतरे में है, एक खूबसूरत ओपन-एयर म्यूजियम, चाइनीज़ और अमेरिकन टूरिस्ट्स के लिए एक बढ़िया डेस्टिनेशन, एक ऐसी जगह जहाँ वो देखने आते हैं जो कभी दुनिया का सेंटर था. ज़रा हमारी सबसे वैल्यूएबल कंपनियों को देखिए. यूएस और चाइना में, इकॉनमी की कमांडिंग हाइट्स टेक्नोलॉजी और इंडस्ट्री में हैं; एआई, इलेक्ट्रिक कार्स, सोलर पैनल्स, बैटरीज—बिग टेक के बारे में आप जो भी सोचें, लेकिन ये पावर इंडस्ट्रीज हैं, जो भविष्य तय कर रही हैं. असल में, सारी अमेरिकन जायंट्स—माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, अमेज़न, एनवीडिया, अल्फाबेट—अकेले ही पूरी जर्मन या फ्रेंच स्टॉक मार्केट से ज़्यादा वैल्यूएबल हैं. इसके विपरीत, यूरोप की टॉप कंपनियाँ बिग फैशन द्वारा डोमिनेटेड हैं. डिओर, लुई विटॉन, लॉरियल—हम हार्डवेयर के बजाय हैंडबैग्स का कॉन्टिनेंट बन गए हैं.
साथ ही, हमारा समाज तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है. बर्थ रेट्स गिर रहे हैं, ग्रोथ रुक-रुक कर चल रही है, और यूरोप की दौलत ज़्यादातर वंशानुगत हो गई है. जर्मनी में, 4 में से 3 अरबपतियों को उनकी दौलत विरासत में मिली. यूके में, बच्चों वाले परिवारों ने 20 सालों से अपनी आमदनी बढ़ते हुए नहीं देखी है, जबकि पेंशनर्स की आमदनी बढ़ती रही है. फ्रांस में, बुज़ुर्ग अब काम करने वाली आबादी से ज़्यादा आमदनी एन्जॉय करते हैं, और ये दुनिया के इतिहास में पहली बार हुआ है. राजनीतिक तौर पर, हम खुद में खोए हुए लोग बन गए हैं, मुख्य रूप से इमिग्रेशन पर अटके हुए हैं, हालाँकि हम में से सिर्फ 10% ईयू के बाहर पैदा हुए थे, और हमें उन नए आने वालों की ज़रूरत होगी उन सभी पेंशनर्स और इनहेरिटर्स को सँभालने के लिए.
यूरोप ने लंबे समय से खुद को मूल्यों का महाद्वीप माना है. हमें दूसरों को लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर भाषण देना पसंद है. लेकिन ज़रा इस साल हमें देखिए. जब इज़राइल ने गाज़ा पर 6 हिरोशिमा के बराबर बम गिराए, तो यूरोपियन लीडर्स मानवीय स्थिति पर अपनी चिंता भी मुश्किल से ज़ाहिर कर पाए, जैसे कि ये कोई प्राकृतिक आपदा हो. लेकिन जबकि यूरोपियंस दूसरों को रोकने में बहुत सफल नहीं हैं. हम खुद को रेगुलेट करने में बहुत अच्छे हो गए हैं. चाइना दुनिया का इंडस्ट्रियल पावरहाउस है. यूएस दुनिया का टेक्नोलॉजिकल पावरहाउस है और हम नियम बनाने में दुनिया को लीड करते हैं.
हमने एक पूरी नई क्लास ट्रेन की है, बिल्डर्स और क्रिएटर्स की नहीं, बल्कि कंप्लायंस ऑफिसर्स, ईएसजी ऑडिटर्स, सस्टेनेबिलिटी वेरीफायर्स और डेटा प्रोटेक्शन कंसल्टेंट्स की. ‘इनोवेट करने से पहले रेगुलेट करो, बनाने से पहले सुपरवाइज़ करो’. ये अभी यूरोप का माइंडसेट लगता है. हमने गर्व से दुनिया को अपने एआई एक्ट के बारे में बताया, भले ही हमारे पास बात करने के लिए कोई फ्रंटियर एआई कंपनियाँ नहीं थीं. हम उन इंडस्ट्रीज को गवर्न करने में शानदार हैं जो हमारे पास हैं ही नहीं. ठीक 14वीं सदी के वेनिस की तरह, हमारे पास एक इकॉनमी है जो उन्हें इनाम देती है जो कॉम्प्लेक्सिटी बढ़ाते हैं और रेंट्स (किराया/मुनाफा) निकालते हैं.
अब, मुझे गलत मत समझना. मैं एक पुराने स्टाइल का यूरोपियन सोशल डेमोक्रेट हूँ. मैं यहाँ सरकार-विरोधी या ईयू-विरोधी क्लीशे (clichés) बेचने नहीं आया हूँ. मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि एक हालिया लार्ज-स्केल स्टडी ने पाया कि तथाकथित बीएस जॉब्स—वो जॉब्स जिन्हें एम्प्लॉयीज़ खुद सामाजिक रूप से बेमतलब मानते हैं—पब्लिक सेक्टर के मुकाबले प्राइवेट सेक्टर में तीन गुना ज़्यादा कॉमन हैं. और मैं ये भी जानता हूँ कि ब्रेक्जिट के बाद भी, यूके सरकार की बीमारियाँ और भी ख़राब हैं. उदाहरण के लिए, इसका टैक्स कोड अब 22,000 पन्नों का है, जो दुनिया में सबसे लंबा है. यूरोप में, हमें अपने मज़बूत वेलफेयर स्टेट्स और अपने एम्बिशियस क्लाइमेट एफर्ट्स पर गर्व होना चाहिए. और हमें बिग टेक को रेगुलेट करने की ज़रूरत डेफिनेटली है. लेकिन सोशल डेमोक्रेसी को भविष्य बनाने पर फोकस करना चाहिए, सिर्फ वर्तमान को रेगुलेट करने पर नहीं. और रेगुलेशन सरल, ट्रांसपेरेंट और नए आने वालों के लिए खुला होना चाहिए, न कि घना, अस्पष्ट और स्टेटस को को बचाने वाला.
अब हमें जो मिल रहा है वो टैलेंट की भारी बर्बादी है. हमारे सबसे अच्छे दिमाग स्टार्ट-अप्स नहीं बना रहे हैं या रियल-वर्ल्ड प्रॉब्लम्स सॉल्व नहीं कर रहे हैं. वो रिपोर्ट्स लिख रहे हैं और ऑडिट्स की तैयारी कर रहे हैं. क्लाइमेट इनइक्विटी के नाम पर, हमने एक कंप्लायंस इकॉनमी बना ली है, जो प्रोडक्टिविटी को सज़ा देती है और ब्यूरोक्रेसी को इनाम. स्टेट ने डिलीवर करने की अपनी बहुत सी क्षमता खो दी है क्योंकि सिविल सर्वेंट्स जो कभी बनाना जानते थे, उनकी जगह कंसल्टेंट्स ने ले ली है.
तो आप सोच सकते हैं, विरोध कहाँ है? ज़ाहिर है, इतने सारे सड़न (decay) के सामने, एक नया लेफ्ट, एक प्रगतिशील आंदोलन खड़ा हुआ होगा, जो सरकार को फिर से महान बनाने के लिए दृढ़ हो. लेकिन नहीं, मॉडर्न लेफ्ट का एक बड़ा हिस्सा, ख़ासकर यूरोप में, “ना की पार्टी” बन गया है. ग्रोथ को ना, बनाने को ना, एम्बिशन को ना. इसका नया गॉस्पेल ‘डीग्रोथ’ है.
निष्पक्ष होकर कहें तो, डीग्रोथ मूवमेंट एक असली चीज़ का नाम लेता है. हमारी इकॉनमीज़ इस तरह नहीं चल सकतीं, जंगलों को उनके दोबारा उगने से तेज़ काटना, समुंदरों को मछलियों से खाली करना और वातावरण को कार्बन से भरना. डी-ग्रोथ की चेतावनी गंभीर है, लेकिन उनका जवाब नहीं. वो टेक्नोलॉजी से एलर्जी रखते हैं और समृद्धि पर शक करते हैं. वो सप्लाई और डिमांड के जिद्दी तथ्यों को ये दिखावा करके हटा देते हैं कि आप हुक्म से घरों की कीमतें आधी कर सकते हैं या नारे लगाकर गरीबी ख़त्म कर सकते हैं. वो जो पेश करते हैं वो समस्याओं को हल करने का प्रैक्टिकल प्रोग्राम नहीं है. बल्कि प्रबंधित पतन की एक बेहद अप्रिय और काफी एलिटिस्ट विचारधारा है.
सबसे ज़्यादा हैरान करने वाला, मुझे लगता है, लेफ्ट के कुछ कोनों में जारी किया गया ये फरमान है कि अब बच्चे नहीं होने चाहिए. डेमोग्राफर्स हमें बताते हैं कि पूरे डेवलप्ड वर्ल्ड में, बर्थ रेट्स में गिरावट भारी रूप से लेफ्ट के लोगों द्वारा माँ-बाप न बनने के फैसले से चल रहे है. ज़रा इस बारे में सोचिए. वो परंपरा जो कभी भविष्य के लिए खड़ी थी, अब दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़—नई ज़िंदगी—को पृथ्वी के खिलाफ एक अपराध मानती है. अगर आप एक ऐसी स्ट्रेटेजी डिज़ाइन करना चाहते थे जो आपके मूवमेंट को एक जनरेशन के अंदर अप्रासंगिक बना दे, तो आप इससे बेहतर शायद ही कुछ कर पाते.
गहरी त्रासदी ये है कि लेफ्ट कभी प्रोग्रेस में विश्वास करता था. ये विचार कि लोग और देश आगे बढ़ सकते हैं. ये शिक्षा और मुक्ति की परंपरा थी. जैसा कि अमेरिकन इतिहासकार नेल्सन लिचेंस्टीन ने लिखा है:
“गुलामी के खिलाफ धर्मयुद्ध से लेकर 1930 के दशक के लेबर अपसर्ज तक, सभी महान सुधार आंदोलनों ने खुद को एक नैतिक और देशभक्त राष्ट्रवाद के चैंपियंस के रूप में परिभाषित किया, जिसे उन्होंने उन संकीर्ण और स्वार्थी एलीट्स के खिलाफ खड़ा किया जो एक गुणवान समाज के उनके विज़न के खिलाफ लड़ रहे थे.”
लेकिन आज, वो यूटोपियन क्षितिज धुंधला हो गया है. लोगों को बेहतर भविष्य के विज़न से प्रेरित करने के बजाय, लेफ्ट अंदर की तरफ मुड़ गया है, और छोटे से छोटे मोरल सर्कल्स में टूट गया है. ये कैंसिल करने में तेज़, समझौता करने में धीमा, जज करने में तेज़, समझाने में धीमा हो गया है. पब्लिक शेमिंग के कैथार्सिस ने गठबंधन बनाने की मेहनत की जगह ले ली है. तो आज हमारे पास प्रोनाउन्स हैं, पर प्रोग्रेसिव टैक्सेशन नहीं. लैंड एकनॉलेजमेंट है पर अफोर्डेबल हाउसिंग नहीं, इंक्लूसिव लैंग्वेज है पर एक्सक्लूसिव ज़ोनिंग है. हमारे पास ऑप्टिक्स (दिखावा) है. लेकिन आउटकम्स (नतीजे) नहीं. तो क्या हमें वाकई हैरान होना चाहिए कि डेवलप्ड वर्ल्ड में लेफ्ट हार रहा है? बिलकुल नहीं. जब आप बनाना और ऑर्गेनाइज़ करना बंद कर देते हैं, तो आप सिर्फ चुनाव नहीं हारते, आप लोगों को खो देते हैं. और जब लेफ्ट पीछे हटता है, तो खाली जगह खाली नहीं रहती. दूसरे लोग अंदर घुसने के लिए तैयार रहते हैं.
तो अब, बुरी खबर सुनाता हूँ.
अगर आपको लगता है कि रोम या वेनिस का पतन डरावना था, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, ये और भी बुरा हो सकता है. हाँ, हमारे बीच जोकर और कायर हैं, लेकिन हमारे बीच असली फासीवादी भी हैं. हम फ्यूडल रेंट सीकर्स द्वारा शासित हो सकते हैं जो धीरे-धीरे हमारे समाज से जान निकाल लें, लेकिन हम उन लोगों द्वारा भी टेक ओवर किए जा सकते हैं जो इसे पूरी तरह से नष्ट कर दें.
मैंने हाल ही में एक एक्सक्लूसिव सिलिकॉन वैली कॉन्फ्रेंस अटेंड की. डिनर पर, बातचीत एक टेक ब्रो द्वारा डोमिनेट की गई जो इस तरह से बात कर रहा था जिसने मुझे मुसोलिनी जैसे 1930s के फासीवादियों की याद दिला दी. मैंने उसे ये पॉइंट आउट किया, और उसने बिना किसी आयरनी के जवाब दिया, “हाँ, मुझे लगता है कि हमें थोड़ा फासी होना चाहिए.”
ये सिर्फ एक आदमी नहीं था. वो वेस्टर्न वर्ल्ड में फासीवाद के व्यापक पुनरोदय का हिस्सा है. क्या हमें वाकई एफ शब्द इस्तेमाल करने की ज़रूरत है? हाँ, है. जैसे जेनोसाइड स्कॉलर्स साफ़ तौर पर क्लासिफाई कर सकते हैं कि गाज़ा में क्या हुआ है, वैसे ही फासीवाद के स्कॉलर्स अब जो उभर रहा है उसके संकेतों को पहचान सकते हैं. हम सड़कों पर हथियारों से लैस ट्रूप्स देखते हैं. हम नकाबपोश आदमियों को लोगों को वैन में खींचते हुए देखते हैं. हम राजनीतिक विरोधियों के घरों पर रेड्स देखते हैं. हम एक पैरामिलिट्री फोर्स का उदय देखते हैं जो सिर्फ एक आदमी के प्रति वफादार है. ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि फासीवाद के कुछ लीडिंग एक्सपर्ट्स यूनाइटेड स्टेट्स छोड़ चुके हैं. उनमें से एक ने कहा कि 1933 का सबक ये है कि जल्दी निकलो, देर से नहीं.
इस सब के दौरान, वाइट सुप्रीमेसिस्ट्स जश्न मना रहे हैं. “आठ साल पहले, आप एक एक्सट्रीमिस्ट थे अगर आप इमिग्रेंट्स द्वारा रिप्लेस किए जाने का विरोध करते थे,” एक लीडिंग नियो-नाज़ी ने हाल ही में ट्विटर पर लिखा. “अब ये ऑफिशियल वाइट हाउस पॉलिसी है.” या नियो-फासिस्ट इन्फ्लुएंसर्स जैसे ब्लॉगर कर्टिस यारविन के उदय को देखिए. वो लोकतंत्र को ख़त्म करना चाहता है और इसकी जगह एक टेक्नो-मोनार्की लाना चाहता है जिसका नेता एक सीईओ हो जिसके पास एब्सोल्यूट पावर हो, एलन मस्क या जेफ बेज़ोस जैसा कोई. यारविन ने पीटर थिएल जैसे अरबपतियों को प्रेरित किया है, जिन्होंने बदले में जेडी वेंस, जो अभी वाइस प्रेसिडेंट हैं, के उदय को बैंकरोल करने में मदद की. और दूसरे और भी आगे जाते हैं. माइकल एंटोन, जो सबसे प्रभावशाली मागा इंटेलेक्चुअल्स में से एक हैं, उन्होंने ‘रेड सीज़रिज्म’ के विचार को पॉपुलर किया है, वन-मैन रूल का एक रूप जिसे वो राजशाही और तानाशाही के बीच का बताते हैं.
ये लोग निर्दयी होकर ताकत चाहते हैं. वो लिटरली मानते हैं कि एक नए नेपोलियन या एक राइट-विंग लेनिन के टेक ओवर करने का वक़्त आ गया है. और लेनिन की तरह, वो जानते हैं कि वो बेहद बदनाम हैं. कि वो कभी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं जीतेंगे. इसीलिए वो लोकतंत्र के खिलाफ हैं और इसीलिए वो हमारी उदासीनता पर दांव लगा रहे हैं.
वो चाहते हैं कि हम प्लग आउट करें, स्क्रॉल करें, बिंज करें, अपने वीआर ग्लासेस और नॉइज़ कैंसिलिंग हेडफोन्स पहन लें जबकि वो दुनिया पर कब्ज़ा कर लें.
अगर आप आज की खबरों से दहशत में हैं, तो मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि अपनी कल्पना का विस्तार करें. खुद को 10 साल बाद की तस्वीर में देखें, आने वाले दशक का इतिहास पढ़ते हुए. अगर ये एक अथॉरिटेरियन टेकओवर की कहानी बताता है, तो जो आप आज देख रहे हैं वो बिलकुल वही है जो आप शुरुआती चैप्टर्स में एक्सपेक्ट करेंगे. मैंने आपको चेतावनी दी थी, ये लेक्चर दुःख भरा होने वाला था.
एक दशक पहले, जब डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार चुने गए थे, लिबरल एलीट्स ने अपनी वैल्यूज़ और अमेरिका और यूरोप के लाखों लोगों की वैल्यूज़ के बीच के फर्क का विश्लेषण और बहस करने में अनगिनत घंटे बिताए. “अगर हम सुनते और ट्रम्प वोटर्स या फराज वोटर्स या ली पेन वोटर्स या एएफडी वोटर्स या वाइल्डर्स वोटर्स के लिए सहानुभूति रखते, तो हम दुनिया को ठीक कर सकते थे.” या ऐसा कहा गया. पढ़े-लिखे एलीट्स ने ये एहसास नहीं किया कि उनका असली धोखा सुनने या सहानुभूति की कमी नहीं थी. ये अपने प्रिविलेज को चेक करने की कमी नहीं थी. ये अपने प्रिविलेज का यूज़ करने की कमी थी, ये समाज में सच्चे दिल से योगदान करने की विफलता रही है.
तो यही वो चीज़ है जिस पर मैं इस सीरीज़ के पहले लेक्चर के अंत में ज़ोर देना चाहता हूँ. ये कुछ लोगों की कहानी नहीं है. ये पूरी वेस्टर्न दुनिया में लीडरशिप की एक गहरी विफलता के बारे में है. एलीट्स की एक जनरेशन को असाधारण प्रिविलेज विरासत में मिला है, बेहतरीन शिक्षा तक पहुँच, सबसे ताकतवर इंस्टीट्यूशंस, और उन्होंने इसका इस्तेमाल जनता की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा के लिए किया.
हमने अपने सबसे अच्छे और तेज़ लोगों को सिखाया है कि कैसे चढ़ना है, लेकिन ये नहीं सिखाया कि कौन सी सीढ़ी चढ़ने लायक है. हमने नैतिकता के बिना एम्बिशन की, ईमानदारी के बिना बुद्धिमानी की एक मेरिटोक्रेसी बनाई है, और अब हम उसके नतीजे भुगत रहे हैं. गिरता हुआ भरोसा, बढ़ता हुआ सिनिसिज़्म. और एक नई जनरेशन जो ताकत को स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट और हर गुण को नाटक समझती है.
बेशक, सत्ता में हर कोई ऐसा नहीं है. आज सभी एम्बिशन खोखली नहीं है. अभी भी ऐसे लीडर्स और नागरिक हैं जो लाइन होल्ड करने की कोशिश कर रहे हैं. सिविल सर्वेंट्स जो राजनीतिक दबाव का विरोध करते हैं, पत्रकार जो सच के लिए अपनी सुरक्षा को खतरे में डालते हैं, वकील और जजेज़ जो अपने उसूलों को धोखा देने से इनकार करते हैं. लेकिन वो अपवाद बने हुए हैं, संख्या में कम और आवाज़ में दबे हुए. उनकी चिंगारियों ने अभी आग नहीं पकड़ी है.
अब हमें जिस चीज़ की ज़रूरत है वो सिर्फ बेहतर पॉलिसीज़ या बेहतर पॉलिटिशियंस नहीं हैं. हमें एक ‘मोरल रेवोल्यूशन’ (नैतिक क्रांति) की ज़रूरत है. हमें एक प्राचीन विचार को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है, जो आज के माहौल में लगभग हास्यास्पद लगता है, कि ताकत का मक़सद अच्छाई करना है. और यही इस लेक्चर सीरीज़ का लक्ष्य है. ये तर्क देना कि हमारे समय का सबसे ज़रूरी बदलाव टेक्नोलॉजिकल या जिओ-पॉलिटिकल या इंडस्ट्रियल नहीं, बल्कि मोरल है. हमें एक नई तरह की महत्वाकांक्षा की ज़रूरत है, स्टेटस, या दौलत, या शोहरत के लिए नहीं, बल्कि इंटीग्रिटी, हिम्मत, और जन-सेवा के लिए—एक मोरल एम्बिशन. ये शायद सुनने में... और फिर भी, ठीक इसीलिए क्योंकि चीज़ें बहुत ख़राब हो सकती हैं, वो बहुत बेहतर भी हो सकती हैं. इतिहास सिर्फ गिरावट का रिकॉर्ड नहीं है. ये हैरान करने वाले पलट-वार से भी भरा हुआ है. अपने अगले रीथ लेक्चर में, मैं दिखाऊँगा कि कैसे मोरल रेवोल्यूशंस ने अतीत को आकार दिया है और कैसे हम इसे फिर से मुमकिन कर सकते हैं.
अपील :
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