प्रताप भानु मेहता का भाषण "संस्कृति के चार संकट" : हरकारा विशेष
नेहरू कैसे उन पहचान और संस्कृति की उन बारीकियों को समझ पाए, जिनकी पेचीदगियों में आज का भारत फँसा हुआ है.
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हरकारा विचार श्रृंखला
अपने लम्बे भाषण में मेहता संस्कृति की स्थापनाओं और विभाजन रेखाओं की तरफ हमारा ध्यान ले जाते हैं. यह संस्कृति पर एकाधिकार, पहचान के सवाल, संस्कृति की राजनीति, दक्षिणपंथियों का दबदबा, हीनभावना की अभिव्यक्तियां, राष्ट्रवाद के कारक, आधुनिकता के विखंडन, विखंडन के प्रबंधन, आचरण की अनुुपस्थिति के कारण हमारी नागरिकता और लोकतंत्र पर किस तरह असर डाल रहा है, इसकी पड़ताल है. और न सिर्फ राजनीति विज्ञान के अध्येताओं के लिए, हर उस व्यक्ति के लिए एक जरूरी बात है, जो भारत की राजनीति, समाज और नागरिकता की पेचीदगियों को लेकर निजी और साझा व्यग्रता को महसूस करते हैं.
प्रताप भानु मेहता ने 30 दिसंबर को संस्कृति के चार संकट पर भाषण दिया, जिसका सिरा उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय से निकाला था. उन्होंने दिनकर और पंडित जवाहर लाल नेहरू के पत्राचार का हवाला दिया और नेहरू के मोहम्मद इकबाल के साथ पत्राचार का भी. मौका था पत्रकार - संपादक वेद प्रताप वैदिक की सालगिरह पर आयोजित समारोह का. मेहता ने कहा कि रामधारी सिंह दिनकर अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत की सांस्कृतिक विरासत पर एक तरह का मनन करते हैं. उन्होंने इस विरासत को चार अलग-अलग संदर्भों में देखने की कोशिश की; हिंदुत्व के लिहाज़ से, हिंदुत्व के विरोध के लिहाज़ से, इस्लाम और भारतीय संस्कृति के रिश्ते के लिहाज़ से और फिर यूरोपीय और भारतीय संस्कृति के रिश्ते के लिहाज़ से. दिनकर की यह पुस्तक जब नए संस्करण में वापस प्रकाशित हुई तो उन्होंने इस पर भी विचार किया कि आधुनिकता के संदर्भ में भारत की सांस्कृतिक विरासत है के सामने क्या-क्या चुनौतियां प्रस्तुत होंगी और उन्होंने यह एक तरह से संदेश देने की कोशिश की थी कि इन चुनौतियों के संदर्भ में भारतीय संस्कृति को बड़ी सावधानीपूर्वक और कुशलतापूर्वक आधुनिकता की प्रक्रिया से गुजरना होगा.
मेहता ने अपने भाषण में भारत पर एकाधिकार और अनेकाधिकार की दलील देने वालों को भारत के लिए संकट बताया यह कहते हुए कि दोनों ही मर्म की तरफ ध्यान नहीं दे रहे होते हैं.
उनका पूरा भाषण ही उन बारीकियों के आस पास था, जिसके साथ नेहरू दुनिया, लोकतंत्र और प्रवृत्तियों को देख रहे थे. मेहता ने दिनकर की किताब पर जवाहरलाल नेहरू की भूमिका में दर्ज एक वाक्य से अपनी बात की शुरुआत की . वह वाक्य था, “भारत में बसने वाले बसने वाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों का एकाधिकार उसके पास है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान रहा है और अगर हम इस बुनियादी सत्य को नहीं मानेंगे तो हम भारत को नहीं समझ पाएंगे.” मेहता ने अपनी बात की जमीन जमाने के लिए जो दूसरा वाक्य चुना वह नेहरू और मोहम्मद इक़बाल के बीच की ख़तोखिताबत से लिया गया था, जिसमें दोनों के बीच अहमदिया मसले और इस्लाम को लेकर बातचीत हो रही थी. नेहरू का यह वाक्य था, “ऐसा क्यों है कि जब भी कल्चर के मसले सियासत में आते हैं, तो रिएक्शनरी (प्रतिक्रियावादी) उसकी अगुवाई करने लगते हैं.” मेहता ने कहा कि यह बड़ा गहन सवाल है और नेहरू का कोई भी लेखन देख लीजिए, एक तरह से उनको हमेशा यह भय लगा रहता था कि अगर संस्कृति या सांस्कृतिक विषयों को राजनीति में लाया जाएगा तो वह हमेशा प्रतिक्रियावादी रूप लेंगे और आज जो मैं थोड़ा सा चिंतन आपके सामने कुछ पेश करना चाहता हूं, वह इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश है कि नेहरू ने ऐसा क्यों सोचा.. क्या यह गहन सत्य वे जानते थे कि संस्कृति का राजनीतिकरण, उसका मक़सद कुछ भी हो और वह कहीं से भी उत्पन्न हो) वह कहीं न कहीं प्रतिक्रियावादी रूप ले ही लेता है, रिएक्शनरी हो ही जाता है.
एक या बहुल का विवाद
मेहता का कहना था कि संस्कृति का पहला संकट तो यही है कि एक तरफ भारतीय संस्कृति पर एकाधिकार जमाने की कोशिश है और दूसरी तरफ उसे खारिज करने का प्रयास. “आज के संदर्भ में भारत में भारतीय संस्कृति पर जो लड़ाई है, उसमें एक द्वंद्व बड़ा उभर कर आया है: एक तरफ एक पहचान की राजनीति है, जिसका नाम हिंदुत्व है, जो अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहती है और दूसरी तरफ एक और तरह की राजनीति है, जो नेहरू के इस वाक्य को एक तरह से ब्रह्मवाक्य मानकर चलती है कि विश्व की हर संस्कृति की छाप भारतीय संस्कृति पर है और यह हमारी कमजोरी नहीं, यह हमारी शक्ति है. यह विविधता और बहुलता ही इस संस्कृति का सबसे बड़ा स्वरूप है. कुछ सरलीकरण है यह, लेकिन इस द्वंद्व के बारे में सोचें तो एक चीज थोड़ी सी अजीब और खटकने वाली लगती है कि जो भी ताकत हिंदुत्व का प्रतिरोध करते हुए हिंदुत्व के एकाधिकार के समक्ष बहुलता और विविधता की बात करती है, वह एक तरह से उसी जाल में फँस जाती है जिस जाल में हिंदुत्व फंसा हुआ है.“
अपनी बात को बढ़ाते हुए मेहता ने दो उदाहरण पेश किए. अगर हम किसी हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक से कृष्ण का भजन सुन रहे हों और वह मुसलमान हो तो हममें से बहुत से लोग उसके गायन, संगीत, भाव, राग, रस पर नहीं, बल्कि उसकी पहचान पर ही ध्यान देंगे. इसी तरह दारा शिकोह का भी उन्होंने जिक्र किया और कहा, “वह सबको पसंद है, आरएसएस को भी .वे कहते हैं कि हमको औरंगजेब नहीं दारा शिकोह चाहिए. सब दारा शिकोह की तारीफ करते हैं. आख़िर क्यों दारा सबको पसंद है? क्या हम जानते हैं कि दारा ख़ुद क्या कहता है? मज्म-उल-बहरैन में दारा का कहना है कि अगर आप उपनिषद पढ़ेंगे तो आप कुरान को ज्यादा गहनता से समझ सकेंगे और अगर आप कुरान पढ़ेंगे तो शायद आपको उपनिषद में जो चेतना और अस्तित्व के सत्य हैं, उनके बारे में आपको शायद ज्यादा ज्ञान मिले. और अपनी जगह यह जो दोनों उदाहरण हैं, ठीक भी लगते हैं. कोई अनुचित नहीं है यह कहना. लेकिन अगर आप इन दोनों वाक्यों पर थोड़ा सा और ध्यान दें तो आपके दिमाग में सबसे पहले आएगा कि हमारी तारीफ़ या आलोचना का मापदंड क्या है.
मेहता पूछते हैं, “जिस आधार पर इस भजन वाले गाने को तोला जा रहा है या दारा शिकोह को तोला जा रहा है, वह उनकी पहचान है या फिर वह जो कह रहे हैं या गा रहे हैं वह ? दारा शिकोह ने मजमा उल बहरीन में खुद कहा है कि यह जो किताब मैं लिख रहा हूं, यह खाली इन दो समुदायों का या दो दर्शनों का मिश्रण नहीं है. यह इन दोनों समुदायों के दर्शन को लेकर एक नए शाश्वत सत्य की खोज है. जो किताब का केंद्र बिंदु है, वह यह नहीं है कि यह दो दर्शन हैं, जिनके अलग अस्तित्व हैं, जिनकी अलग पहचान है और मैं इन दोनों का सम्मिश्रण हूँ. जो किताब का केंद्र बिंदु है, वह यह है कि यह चेतना के बारे में, अस्तित्व के बारे में एक नए सत्य का पदार्पण करती है. जो कृष्ण भजन गा रहे हैं, उनकी विवेचना का आधार यह नहीं है कि इस भजन का भाव क्या है, भाव की सार्थकता क्या है, भाव का रस क्या है? वह क्रिटिसिज्म इस सवाल तक सीमित हो जाता है कि यह गाने वाला कौन है.
पहचान पर जाएं या होने के मर्म पर
मेहता फिर पूछते हैं कि हम किस बात को महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं. “देखिए यह गंगा जमुनी तहजीब की जो बात होती है, उस संदर्भ में मैं आपसे इस पर सोचने का आग्रह करूंगा कि अगर इस रूप में हम विविधता को देखते हैं तो यह ठीक है कि अपनी जगह पर और आजकल के संदर्भ में बहुत जरूरी है यह सब कहना. लेकिन इस तरह विविधता को देखने के तरीक़े में संस्कृति के साथ जैसे जुड़ते हैं, उसमें संस्कृत की उत्पत्ति कहां से हुई है, उसकी पहचान क्या है, यही प्रश्न हावी रहते हैं. उस संस्कृति का शाश्वत सत्य क्या है, उस संस्कृति का भाव क्या है, वह एक तरह से सतह के नीचे रह जाता है. उसमें किसी की ज्यादा रुचि नहीं है.”
“जो संस्कृति का सत्य है, जिस सत्य को दारा शिकोह बताने की कोशिश कर रहे हैं, जो भक्ति भाव शायद कृष्ण भजन में निहित हो, उसकी विवेचना करने के साधन हमारे पास नहीं हैं. आज भारतीय संस्कृति का एक संकट यह है कि हिंदुत्व के प्रतिरोध में जो शक्तियां खड़ी हो रही हैं, वे उसका जवाब भी पहचान की राजनीति से ही देना चाहती हैं. उनके लिए भी उत्पत्ति का सवाल उतना ही जरूरी है. बस वह सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि इसमें एक नहीं दो ओरिजिन है, या यह दो-तीन दर्शनों का मिश्रण है. लेकिन वह भी इस संस्कृति के जो शाश्वत सत्य की विवेचना से डरते हैं.”
“अगर आप उत्पत्ति और पहचान की ही बात करते रहेंगे तो स्वाभाविक है कि एक समूह कह देगा ठीक है हमको सिर्फ एक ही उत्पत्ति के स्रोत से से लगाव है, दो से नहीं है. उत्पत्ति के तर्क का औचित्य क्या है? हैं खासकर भारत के धर्मनिरपेक्ष लोगों से मैं आग्रह करना चाहता हूं कि वे इस जाल में न फँसें . यह तो बहुत आसान जवाब हो गया ‘यूनिटी वर्सेस प्लूरलिटी’ या ‘हिंदुत्व वर्सेस डाइवर्सिटी’. आप उसी धरातल पर खेल रहे हैं जहां वे आपको खिलाना चाहते हैं.”
संस्कृति को राजनीति में लाना
मेहता ने फिर अल्लामा इकबाल को लिखे गये नेहरू के ख़त का ज़िक्र किया. अहमदिया सवाल को लेकर उनके बीच बात चल रही है. ऐसा वाक्य लिखने के पीछे जवाहरलाल नेहरू की क्या सोच रही होगी? यह लिखने के पहले जवाहरलाल नेहरू ने तीन-चार संदर्भों में इस विषय पर मंथन किया था. एक तो जब यह पत्राचार हुआ तो वह यूरोप से लौटे ही थे. उसके कुछ दिनों बाद जर्मनी में उन्होंने फासीवाद का उभार देख रखा था. जर्मनी में जवाहरलाल नेहरू को एक तरह से स्पष्ट रूप से यह लगने लगा था कि जर्मन राजनीति एक तरह से एक सांस्कृतिक केंद्र बिंदु पर फंसी हुई थी. मेहता कहते हैं, जर्मनी में जो हो रहा था, वह इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र में नहीं हो रहा था. क्योंकि जर्मनी में लोकतांत्रिक संस्थाएं केंद्र बिंदु नहीं थी. वहाँ सारी राजनीति का केंद्र बिंदु एक तरह से जर्मन कल्चर बन गया था. ये तो सवाल था ही कि इतना रचनात्मक और सांस्कृतिक समाज फासीवादी कैसे हो गया, पर इसी के साथ यह सवाल भी है कि सांस्कृतिक पहचान का जो प्रश्न है वो राजनीति का केंद्र बिंदु कैसे बन गया? यह ज्यादा गहरा सवाल है. नेहरू की निगाह इस पहलू पर भी गहराई से गई कि जर्मनी में जब संस्कृति का प्रश्न उठाया गया तो वह आधुनिकता, औद्योगीकरण और तर्कवाद को खारिज करने के हिसाब से उठाया गया था. और संस्कृति की बात उस विखंडन को रोकने की कोशिश का नतीजा है, जो आधुनिकता लेकर आती है.
आधुनिकता के विखंडन से जूझना
मेहता संस्कृति से अब आधुनिकता की तरफ आते हैं. कहते हैं, ‘आधुनिकता का जो मूल अनुभव है वह एकाधिक स्तर पर विखंडन का अनुभव है. यह केवल एक समाजशास्त्रीय विखंडन नहीं है. आधुनिकता की गतिशीलता का संचार विश्व के प्रति खुलेपन के कारण होता है, वह हमारे मूल्यों का और हमारी आत्मा का एक गहरा विखंडन है. अगर आप आधुनिकता को समझना चाहते हैं तो आपको इस विखंडन को समझना होगा. कोई भी जो आधुनिकता का गंभीर विचारक रहा है या यूरोपियन सोशल थ्योरी का ,उसने इस विखंडन पर मनन किया है. आप हेगेल से शुरू कर सकते हैं. हेगेल ने जब कहा कि आधुनिकता की जिस तरह की संस्थाएं हैं, आधुनिक राज्य है, आधुनिक जनतंत्र है, जिस तरह से आधुनिकता में परिवार का स्वरूप बदलता है. इन सबमें एक तरह से सामाजिक विखंडन की प्रक्रिया चलती रहती है.’ हर संस्था का अपना वज़ूद है या कह लीजिए एक तरह से एक तरह से एक अलग सा अनुभव है. मैक्स वेबर ने जब आधुनिकता की चर्चा की तो उन्होंने भी आधुनिकता को एक तरह से इस विखंडन के रूप में देखा.
“आप अपनी जिंदगी पर गौर कर लीजिए. हम लोग जिस तरह से जीते हैं, हम बाज़ार में जाते हैं, हम पूंजीवादी समाज में रहते हैं. उपभोग के रूप में, उत्पादक के रूप में हम लाभ और मुनाफे और नुकसान की बात करते हैं, हम नागरिक के रूप में औपचारिक जनतंत्र के संदर्भ में राजनीतिक समानता की बात करते हैं. एक राज्य के नागरिक होने के नाते हम बाध्यता और बल के तर्क के अधीन हो जाते हैं. राज्य का क्या वज़ूद है. राज्य तो हिंसक बल का आचित्य ही है. जब हम अपने व्यक्तिगत जीवन में काम, सौंदर्य में एक स्वतंत्र आत्मा की खोज करने की मांग करते हैं, लेकिन यह जो खोज है, ये जो अभिव्यक्ति है, शृंगारिक अभिव्यक्ति, सौंदर्यशास्त्र, एस्थेटिक्स कह लीजिए इसका तो किसी सार्वजनिक भलाई से कोई वास्ता नहीं है. एक तरह से सेल्फ एक्सप्रेशन है.
आधुनिकता के बारे में कार्ल मार्क्स का एक और उदाहरण ले लीजिए. ‘ऑन द ज्यूइश क्वेश्चन’ में कार्ल मार्क्स ने सबसे पहले नोट किया था कि आधुनिकता में हर व्यक्ति को जो सबसे बड़ा द्वंद्व महसूस होता है. वह यह है कि नागरिक के तौर पर तो वह समान है, लेकिन उपभोक्ता और उत्पादक के बतौर असमान. आधुनिकता में मूल्यों का विखंडन और एक तरह से कह लीजिए हमारे अस्तित्व का विखंडन तय है. हर तरह से देख लीजिए और यह विखंडन आधुनिकता का गहरा सत्य है. वह इस आधुनिकता को परिभाषित करता है.”
“19वीं और 20वीं सदी में जब संस्कृति का प्रश्न इंग्लैंड में उभर कर आया, उसके तीन पहलू थे. एक तो पहलू यह था कि अगर यह आधुनिकता हमारा यथार्थ है तो इस आधुनिकता के संदर्भ में हम महत्त्वपूर्ण मूल्यों का संरक्षण किस तरह से कर पाएंगे? अगर सौंदर्यशास्त्र सिर्फ सबकी स्व-अभिव्यक्ति है, अगर राजनीति में सब समान है तो इसका क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि अगर सब कुछ समान है तो सारे विचारों भी को भी एक तरह से समानता के तल पर तोला जाना चाहिए? हर मसले में समानता के सिद्धांत को मान लेने में में एक ख़तरा है.
प्रश्न यह था कि जो उच्च मानवीय मूल्य हैं, उनको कैसे संरक्षण दिया जाए? दूसरा जो संदर्भ था, अगर आप आधुनिकता को अर्थव्यवस्था के संदर्भ में देखें या राज्य व्यवस्था के संदर्भ में देखें, आधुनिकता एक तरह से उपयोगितावाद का एक सिद्धांत है. बाज़ार में जाते ही सिर्फ एक प्रश्न सामने होता है: किसी भी चीज़ का दाम क्या है. ‘द मेजर ऑफ वैल्यू इज प्राइस’ जैसा हॉब्स ने कहा था. सीधा सा मापदंड है! आप अगर राज्य के संदर्भ में मूल्यों की बात करें तो वहां भी एक तरह से एक उपयोगितावाद उभर कर आता है. किसी चीज़ का मूल्य इससे तय होता है कि वह राज्य को मजबूत करेगी या नहीं? अगर एक ही सवाल पूछा जाए संस्कृति के बारे में कि राज्य की मजबूती के लिए इसकी उपयोगिता क्या है और उपयोगिता के इस सवाल की क़ीमत क्या है या अगर यही सवाल प्रमुख बन जाए कि यह किस तरह से सत्ता को नियोजित करती है तो फिर संस्कृति कहां जाएगी?
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और जो तीसरा संदर्भ था, संस्कृति का इस आधुनिकता के विखंडन के प्रतिरोध में, वह था एक तरह से एक जीवन की जैविक पुनर्स्थापना, संपूर्णता की पुनर्स्थापना का. यह जो विखंडन है, यह जो बिखराव है, यह जो द्वंद्व है, जो कॉन्फ्लिक्ट्स हम हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में महसूस करते हैं और यहां पर हम सब बड़ी-बड़ी सांस्कृतिक बातें करेंगे गैरउपयोगितावादी. यहां से निकलते ही हम एक तरह से एक उपयोगितावादी सेल्फ लेकर चलेंगे. एक तरह से हमारा स्वभाव बदल जाएगा. जैसे ही हम जनतंत्र की बात करेंगे, राजनीतिक समानता की दुहाई देंगे. यह जो एक विखंडन है, जिसने हमारे अस्तित्व को परिभाषित कर रखा है, हम निकल नहीं सकते. हम वैचारिक तौर पर सब निकलना चाहते हैं. इसीलिए आधुनिकता का हर आलोचक यह कहता है कि यह विखंडन एक तरह से हमारी मानवता का बिखराव है. तो सवाल ये हैं कि कि हमारे भीतर जो जीवन की संपूर्णता, उसे एकीकृत करने की जो लालसा रहती है, जिन द्वंद्वों से हम जूझते हैं, क्या संस्कृति इसमें कुछ मदद कर सकती है? इस विखंडन के खिलाफ प्रतिरोध में? बड़ी अच्छी बात है अगर संस्कृति यह सब चीजें कर सके तो.
जवाहरलाल नेहरू एक चीज समझ पाए जो बहुत कम भारतीय चिंतक समझ पाए. वह यह है कि आधुनिकता के संदर्भ में अगर आपने जैविक संपूर्णता की भावना बहुत ज्यादा जागृत की तो वह हमेशा प्रतिक्रियावादी रूप ही लेगी. वह क्यों लेगी प्रतिक्रियावादी रूप? जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक यात्रा देखिए. जवाहरलाल नेहरू इकलौते भारतीय चिंतक हैं, जिन्होंने खुली आंखों से दोनों विचारधाराओं की प्रवृत्तियों का प्रतिरोध किया. एक तरफ़ फासिज्म तो दूसरी तरफ़ कम्युनिज्म. जवाहरलाल नेहरू से ज्यादा ‘एंटी कम्युनिस्ट क्रेडेंशियल’ किसी भारतीय नेता की नहीं है. बीजेपी यह बात कभी समझ नहीं पाएगी कि अगर भारत को कम्युनिज्म से किसी ने बचाया तो जवाहरलाल नेहरू ने बचाया.
कम्युनिज्म और फासिज्म अलग-अलग आइडियोलॉजी हैं. उनका इतिहास में अलग-अलग रोल रहा है, लेकिन उन दोनों में एक समानता क्या है? जवाहरलाल ने यह समानता देखी कि यह दोनों आइडियोलॉजी आधुनिकता के, समाज के विखंडन के खिलाफ प्रतिरोध हैं. कम्युनिज्म में भीतरी तौर पर एक लालसा है कि यह विखंडन पूरी तरह ख़त्म हो जाए. एक तरह से एक ऐसा समाज बन सके जो इनसे ऊपर उठ सके. उस समाज में न विखंडन हो, न ये द्वंद्व. इस विखंडन को खत्म करने की लालसा को पूरा करने के लिए केवल बल ही जरिया हो सकता है या फिर कोई प्रतिक्रियावादी स्वरूप.
मेहता रेखांकित कर रहे हैं कि कैसे दोनों प्रवृत्तियों के मूल में एक तरह का नकार है. और वह बल प्रयोग, हिंसा का हिमायती हो जाता है, अपने ही समाज के खिलाफ. अब वे आते है, आधुनिकता और विखंडन के साथ जीने का रास्ता निकाल पाने वाले उदारवाद पर. वे कहते हैं, “आजकल उदारवाद एक तरह से कह लीजिए एक गाली सा बन गया है हर देश में. अमेरिका में भी गाली सा बन गया है. किसी को अगर गाली देनी हो तो सबसे पहले कह देंगे लिबरल है. उदारवाद के जो राजनीतिक सिद्धांत है वे बड़े स्पष्ट हैं. एक तरह से व्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनीतिक समानता के सिद्धांत, लेकिन उदारवाद को जो सबसे ज्यादा बल देता है, वह है एक मनोवैज्ञानिक प्रवृति और वह प्रवृति यह है कि उदारवाद ने इस आधुनिकता के विखंडन को अपनाया है. वह एक ऐसे समाज की कल्पना करता है, एक ऐसे संविधान की कल्पना करता है, जिसमें यह जो विखंडन है, एक तरह से यह खत्म तो नहीं होगा, पर इस विखंडन का एक सुचारु प्रबंधन किया जा सकता है. हर चीज की कुछ सीमाए हैं. अगर आप नागरिक हैं और उपभोक्ता भी तो उसका जो द्वंद्व है, उसको खत्म नहीं किया जा सकता है, लेकिन कुछ सीमाएं बांधी जा सकती है.”
“19वीं और 20वीं सदी में जिस भी विचारधारा ने इस विखंडन से ऊपर उभरने की कोशिश की उसे या तो हिंसा का सहारा लेना पड़ा, एक तरह से ‘आर्टिफिशियली फोर्स’ करना पड़ा जैसे कम्युनिज्म ने किया या फासिज्म ने किया. या वह एक तरह से प्रतिक्रियावादी फोर्स बन गया. धर्म या, धार्मिक आइडियोलॉजी के मामले में यही रिलीजियस फंडामेंटलिज्म करता है. हर धर्म आधुनिक दुनिया में यही दावा करता है हम तो ‘वे ऑफ लाइफ’ हैं. हिंदुत्व का प्रसिद्ध कथन है; “हिंदुइज्म इज नॉट अ रिलीजन इट्स अ वे ऑफ लाइफ”. अगर आप इकबाल को भी पढ़ लेंगे तो उन्होंने भी यही कहा था इस्लाम के बारे में कि “इट्स कंप्लीट वे ऑफ लाइफ.” आधुनिक क्रिश्चियन विचारक, कैथोलिक थिंकर्स भी कहेंगे : “दिस इज कंप्लीट वे ऑफ लाइफ”. क्योंकि जो उस धार्मिक अवधारणा का वजूद है और उसका अस्तित्व है, वह यही है कि इस आधुनिकता के जो बिखराव हैं, उसे एक तरह से समायोजित किया जाए. जवाहरलाल नेहरू समझ गए थे कि यह जो लालसा है संस्कृति में कि वह इस विखंडन को समाप्त कर देगी, यह वही लालसा प्रतिक्रियावाद, फासिस्टवाद की जड़ है.”
संविधान पर सांस्कृतिक एकात्मता का बोझ
भारतीय चिंतन का जो मूल आधार रहा है, वह यही रहा है कि कैसे इस आधुनिकता के विखंडन से उबरा जाए. इस बात पर यह जोर नहीं दिया गया कि कैसे इसका नियोजित प्रबंधन किया जाए? इस विखंडन को बिना बल के, बिना हिंसा के कैसे नियोजित किया जाए. मैक्स वेबर ने फ्रेज इस्तेमाल किया था ‘आयरन केज’. यह विखंडन शायद उतना जटिल नहीं है. इसमें कुछ संभावनाए हैं. इसका प्रबंधन, अच्छा प्रबंधन हो सकता है, खराब प्रबंधन हो सकता है लेकिन सत्यम शिवम सुंदरम आधुनिकता में एक नहीं हो सकते. ‘गुड ट्रुथ एंड ब्यूटी कैन नॉट अलाइन’. इनका अपना अस्तित्व है, इनका अपना वज़ूद है और हम जिस तरह से अपना जीवन जीते हैं, विभिन्न पहलुओं में हम यह द्वंद्व महसूस किए बिना नहीं रह सकते और उदारवाद का मनोविज्ञान यह कहता है कि आप इस द्वंद्व को स्वीकार करें. पूर्णता की बात नहीं चल पाती. राज्य के संदर्भ में बल जरूरी है, राज्य के संदर्भ में नागरिक जरूरी है, कैपिटलिज्म के संदर्भ में ‘प्राइस’ जरूरी है. जहां पर व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का सवाल है, वहां पर संस्कृति का जुड़ाव, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति से ज्यादा जोड़ा जाएगा. ऐसे संदर्भ में अगर कोई बात करता है वे ऑफ लाइफ की तो इसके क्या मायने हैं? . इसका मायने यही है कि आप किसी कृत्रिम तरीके से, और कृत्रिम का मतलब यही होगा राज्य के बल से, जोर लगा के एक तरह से इस विखंडन का ख़त्म करेंगे.
इसलिए उदारवाद ने हमेशा अपने आप को संस्कृति से अलग रखा. लोग कहते हैं उदारवाद भी एक तरह की संस्कृति है. अगर ऐतिहासिक विश्लेषण करें, अगर उत्पत्ति के हिसाब से देखें तो हो सकता है कह दें यहां पर उत्पन्न हुई. लेकिन असल में वह कहता है कि कि एक ऐसा प्रबंधन बनाया जा सकता है, जो एक तरह से इस संस्कृतिक द्वंद्व से थोड़ा सा ऊपर उठकर रहे, जो यह अहंकार न दिखाए कि वह ‘वे ऑफ लाइफ’ है. वह जगजीत सिंह की गजल है न जिसमें वह लाइन है : “ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बंधन…” तो उसको अगर थोड़ा बदलें, हमारे संविधान के संदर्भ में तो देखते हैं कि वह भी बंधनों से परे जाने की बात करता है. हमारे संविधान की खासियत यही है कि उसमें इस सांस्कृतिक समावेश का बोझ नहीं डाला गया. संविधान भी कहता है कि ना पहचान की सीमा हो ना किसी धर्म का हो बंधन. हमारे संविधान के बारे में यह अक्सर कहा जाता है कि संविधान का हमारी संस्कृति से क्या वास्ता? पाश्चात्य और कोलोनियल संविधान है. अगर उत्पत्ति के हिसाब से देखें, हो सकता है. लेकिन उस संविधान की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति में यह मूल तत्व एक तरह से निहित था कि अगर आप इस संविधान पर सांस्कृतिक एकात्मता का बोझ डालेंगे, उसको पहचान की राजनीति से जोड़ेंगे, उससे यह आशा करेंगे कि वह इन द्वंद्वों को खत्म कर दे, तो वह फिर एक प्रतिक्रियावादी रूप ही लेगा. हमारी राजनीति का यह एक तरह से बहुत बड़ा संकट है कि वह इस उदारवादी मनोवृति को समझ नहीं पाए. सिर्फ जवाहरलाल नेहरू आधुनिकता में एक ऐसे चिंतक हैं, जो बारीकी से इस सच को समझ पाए कि हमें इस कॉन्फ़्लिक्ट के साथ रहना होगा, जिसका प्रबंधन भर आप कर सकते हैं.
संस्कृति, प्रजातंत्र और हीनताबोध
तीसरा जो संकट संस्कृति के विषय में और मैं थोड़ा संक्षेप में संक्षेप में बोलू वो यह है कि संस्कृति और प्रजातंत्र का क्या संबंध है? भारतीय संस्कृति के जो आजकल चर्चे होते हैं और खासकर जो सबसे ज्यादा भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं, उनमें जो सबसे बड़ा पहलू आपको दिखेगा वह यह कि उनमें आत्मविश्वास की कमी है. जो जितना ज़ोर से संस्कृति को डिफेंड करता है, समझ लीजिए कि उनमें आत्मविश्वास की उतनी ही कमी है. क्योंकि अगर वह संस्कृति स्वाभाविक अभिव्यक्ति है तो उसको जोर से चीखने चिल्लाने की जरूरत नहीं है. वह एक यथार्थ है, लोगों की अभिव्यक्ति में एक तरह से दिखता है.
यह आत्मविश्वास की कमी क्यों? एक तरह से कह दीजिए कि आत्मविश्वास उपनिवेशवाद का परिणाम है. उसने एक तरह से भारतीय व्यवस्थाओं को, हमारी ज्ञान व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया और यह कहना भी एक तरह से उचित होगा कि आजादी के बाद भी जो ज्ञान परंपराएं थी, जो ट्रेडिशनलशिप थी, उसको एक तरह से हमारा यूनिवर्सिटी सिस्टम वह जगह नहीं दे पाया. बड़ी अजीब सी बात थी इंडियन यूनिवर्सिटी सिस्टम में आप इंटरप्रिटेशन ऑफ रामायण पढ़ सकते थे लेकिन रामायण नहीं पढ़ सकते थे. (यह बात ग़लत है) तथ्य है ये दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी था. क्या यह वामपंथ के कारण हुआ? मैं नहीं मानता. उस ज्ञान की धारा की अवहेलना जिसको कहते हैं, उसका मूल कारण वामपंथ नहीं था. उसका मूल कारण हमारी सामान्य संस्थाओं की कमी थी, जहां पर पूरा यूनिवर्सिटी सिस्टम ध्वस्त हो रहा हो. पहचान की राजनीति पर वहां पर तर्क-वितर्क कितने हुए? किसको चिंता रही होगी इन सब बातों की? हमने 100 से ज्यादा संस्कृत पीएचडी ग्रांटिंग डिपार्टमेंट्स बनाए. उत्तर भारत में में संस्कृत लगभग अनिवार्य भाषा थी. तीन साल पढ़ाई जाती है. बच्चों को अगर तीन साल ठीक से पढ़ाई गई होती तो करीब लाखों संस्कृत बोलने वाले बच्चे निकलते. पर ऐसा नहीं हुआ. तो सवाल यह नहीं था हमारी व्यवस्था में कि इन चीजों की अवहेलना की गई. सवाल यह था कि जिस तरह से हमने शिक्षा को नकारा, उसकी चपेट में यह सब आने ही थे. जिसको कहते हैं: ओरिजिनल सिन. जो बुनियादी दोष है वह यह नहीं है कि वामपंथियों ने विश्वविद्यालयों पर कब्जा कर लिया था. हो सकता है एक दो विश्वविद्यालय में हो. जो बुनियादी कमी थी, वो यह थी कि जो हमारी स्वतंत्र संस्थाएं थी, हमारी यूनिवर्सिटी थी, हमारी धार्मिक संस्थाएँ थीं, हमारे मठ-मंदिर थे, उन सबके पास जितनी अकूत संपत्ति थी और जितने संसाधन थे, उन्होंने इस ज्ञान प्रवाह में निवेश नहीं किया. पश्चिम में क्रिश्चियन यूनिवर्सिटीज बनी ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, सब क्रिश्चियन यूनिवर्सिटी हैं.
आप एक थॉट एक्सपेरिमेंट कीजिए, अगर शंकराचार्य का मठ, साई बाबा का मठ, उस तरह की यूनिवर्सिटी जिसकी उत्पत्ति एक तरह से उस सांस्कृतिक धरोहरों को लेकर निकली हो, लेकिन वह इस आधुनिकता से निकलती, शायद भारत का इतिहास कुछ और होता. भारत का वैचारिक इतिहास कुछ और होता. तो हम में जो आत्मविश्वास की कमी है, वह इस सांस्कृतिक संकट की स्वीकारोक्ति है कि हमारे अध्ययन के संदर्भ में, विश्वविद्यालय, पढ़ाई, स्कूल, पाठ्यपुस्तकों के संदर्भ में, उसमें वामपंथियों या अंग्रेज़ों से ज्यादा हमारा ही योगदान है. हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं.
और इस सत्य को छुपाने के लिए एक तरह से संस्कृति का ढिंढोरा बहुत जोर से पीटा जाता है. लेकिन अगर प्रजातंत्र में देखें संस्कृति का संकट तो यह बात जरूर कहनी पड़ेगी कि प्रजातंत्र के हिसाब से संस्कृति को हमेशा संदेह की दृष्टि से ही देखा जाएगा. और वह इसलिए देखा जाएगा, क्योंकि संस्कृति चाहे हमारी हो या फिर कोई और उसे राजनीति का केंद्र बनाते ही संकट पैदा हो जाता है. जो हाल हिंदुत्व का है वही, इस्लाम का हाल है, क्रिश्चियनिटी का भी.
विरासत में हमें जो संस्कृति मिली, उनका केंद्र बिंदु सामाजिक रूप में हमेशा किसी न किसी तरह की असमानता है, या तो जाति की असमानता है, जेंडर लिंग की असमानता है, तरह-तरह के असमानता उस संस्कृति में निहित है. और जब प्रजातंत्र के मापदंड से कोई संस्कृति नापी जाती है तो वह एक ही मापदंड से नापी जाती है- कि इसका समानता के प्रति क्या योगदान था. और आज जो संस्कृति की चर्चा है, जो भय है, वह यही है कि जो संस्कृति की चर्चा करेंगे, वह सिर्फ एक ही सवाल पूछेंगे, डॉक्टर अंबेडकर वाला सवाल. डॉक्टर अंबेडकर ने कई और तरह के सवाल भी पूछे थे, लेकिन वो एक तरह से आजकल धारणा बन गई इस सवाल को लेकर कि इस संस्कृति का समानता के दौर में क्या प्रयोजन और अगर कोई प्रयोजन नहीं है तो उस संस्कृति को नकार दिया जाए.
तो प्रजातंत्र में एक तरह से ये निहित है एक अहं प्रवृत्ति और खाली भारत में नहीं, सब देशों में कि क्योंकि जिन संदर्भों में संस्कृतियां उत्पन्न हुई थी, वह सब सामाजिक असमानता के संदर्भ थे. इस बात को स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. किसी सनातन धर्म के अनुयायी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लेकिन उस असमानता के साथ जो संस्कृति का रिश्ता है उससे जूझने का दम बहुत कम संस्कृतियों में है. अक्सर उस असमानता से जूझना उस संस्कृति को नकार के जूझना ज्यादा आसान लगता है. संस्कृति को नकारने के लिए कह दिया जा सकता है कि आख़िर सब जाति और पितृसत्ता है. महाभारत क्या था? और बचा क्या है उसमें? एक द्वंद्व है प्रजातंत्र में और संस्कृति में लेकिन इस इस द्वंद्व का उत्तर सांस्कृतिक प्रतिक्रियावादी दुहाई नहीं हो सकती.
आचरण के आईने में संस्कृति
इस द्वंद्व का उत्तर यही होगा कि अपने आचरण से क्या यह संस्कृति सिद्ध कर सकती है कि उसमें इस तरह के गुण हैं, इस तरह का आचरण है, जो नागरिकता के संदर्भ में भारत को उस समानता की ओर ले जाए. इसका जवाब दार्शनिक हो ही नहीं सकता. अगर आप कह दीजिए भारत का हिंदूवाद समानतावादी है, तो यह बात क्यों मानी जाए एक ऐतिहासिक यथार्थ की तरह? विश्वसनीयता तभी बनेगी, जब वह आपके आचरण में दिखलाई पड़ेगी. क्योंकि आचरण में जब कमी है तभी हमें संस्कृति की दुहाई देनी पड़ती है. आजकल जो प्रतिक्रियावादी विवरण है संस्कृति का, वह इस सत्य को समझता है. संस्कृति में और प्रजातंत्र के जो मूल तत्वों में बड़ा द्वंद्व है. व्यक्तिगत विचार की स्वाभाविकता और राजनीतिक समानता, इनमें एक बहुत बड़ा द्वंद्व है. इस संदर्भ में जब संस्कृति को हम राजनीति में लाते हैं तो वह संस्कृति हमारे जीवन के मार्ग की तरह हममें निहित नहीं है. और आधुनिक समय तो हो ही नहीं सकती या हो भी सकती है तो हमारे निजी स्पेस में हो सकती है, सिविल सोसाइटी में हो सकती है, निजी अभिव्यक्ति में हो सकती है, लेकिन वह एक सामूहिक संस्थात्मक रूप नहीं ले सकती. क्योंकि उस सामूहिक संस्था रूप का विखंडन समाज में हो चुका है. आज जो संस्कृति की दुहाई देता है वह यह नहीं कहता है चलो पुरानी व्यवस्था की तरफ लौट लें. कोई यह नहीं कहता कि हम ‘मॉडर्न स्टेट’ नहीं बनना चाहते हैं. तो संस्कृति सामूहिक संस्थात्मक कार्य नहीं कर सकती.
आधुनिकता के संदर्भ में तो अगर संस्कृति को राजनीति में लाया जाना है तो किस रूप में लाया जाएगा? और वह एक ही रूप है- राष्ट्रवाद का. समझने की ज़रूरत है कि राष्ट्रवाद क्या करता है. संस्कृति अब यह कहती है कि हम शाश्वत मूल्यों की बात नहीं करेंगे. उसे सत्य की खोज के सवाल से नहीं जोड़ेंगे. हमको इससे क्या मतलब कि यह चेतना क्या होती है, आत्मा क्या होती है, ब्रह्मांड क्या होता है? आधुनिकता के विखंडन के संदर्भ में ये अच्छे दार्शनिक विचार हैं. दार्शनिक लोग अशोका यूनिवर्सिटी के फिलॉसफी डिपार्टमेंट में पढ़ाते रहेंगे, कोई बात नहीं. लेकिन संस्थात्मक रूप में इन विचारों का क्या औचित्य है?
भारत की संस्कृति का एक ही मूल प्रश्न है वह है चेतना का स्वरूप.. द नेचर ऑफ कॉन्शसनेस.. यह एक सवाल हमारी परम्परा पूछती है.. जग्गी वासुदेव से लेकर श्रीश्री रविशंकर तक सब उसी चेतना की दुहाई देते हैं. अच्छी बात है, कइयों को मदद मिलती होगी. ये अच्छे दार्शनिक सवाल हैं . शायद आपके निजी जीवन में इनसे बल मिलता होगा, लेकिन इस मूल प्रश्न का हमारी जो व्यावहारिक संस्थात्मक सरंचना है, उससे क्या लेना-देना है ? क्या वह व्यावहारिक नैतिकता जो इस आधुनिकता के विखंडन से जूझ सके, सही मायने में उससे कोई नाता जोड़ के रख सके उसके लिए तो संस्कृति के मूल्य मददगार नहीं हो सकते. क्योंकि राजनीति के अपने खुद के मूल्य हैं.. एक तो वे जो संविधान ने परिभाषित कर रखे है. राजनीतिक समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता वे मूल्य हैं, वह नैतिकता है उसके लिए.
संस्कृति और राष्ट्रवाद
यह एक तरह से व्यर्थ का संवाद है कि हमारी चेतना का स्वरूप क्या है, आत्मा और ब्रह्मांड एक है कि नहीं.. बहुत बहुत गहन प्रश्न हैं, मैं उन्हें खारिज नहीं करना चाहता. लेकिन आधुनिकता के विखंडन में उन प्रश्नों की एक जगह है उन प्रश्नों की एक सीमा है, उनके बल पर समाज नियोजित नहीं किया जा सकता. तो फिर संस्कृति को कैसे लाएंगे? आपकी राजनीति का एक ही स्वरूप है वह है राष्ट्रवाद. अब आप यह कहना शुरू कर देंगे कि संस्कृति क्यों जरूरी है.. क्योंकि हम प्रजातंत्र हैं, प्रजातंत्र है तो प्रजा होनी चाहिए, प्रजा या जन होने चाहिए, जन है तो उसका एक स्वरूप होना चाहिए, उसकी एक पहचान होनी चाहिए. उस पहचान का आधार क्या होगा? उत्तर दिया जाएगा कि वह आधार है संस्कृति! और फिर द्वंद्व यह हो जाता है कि कौन सी संस्कृति? हिंदुत्व वाली संस्कृति या जवाहरलाल नेहरू ने जिस बहुलता की दुहाई दी थी वह? लेकिन संस्कृति आएगी हमारी राजनीति से सिर्फ उस पहचान के स्वरूप में, उस राष्ट्रवाद के स्वरूप में. यहीं एक रास्ता मिल जाता है संस्कृति को एक तरह से राजनीति में आने का. राष्ट्रवाद प्रजातंत्र के लिए अनिवार्य रहा है, लेकिन राष्ट्रवाद से ज्यादा प्रतिक्रियावादी आइडियोलॉजी और कोई नहीं है. राष्ट्रवाद हमेशा पहचान परिभाषित करने की कोशिश करता है. राष्ट्रवाद में और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हमेशा द्वंद्व रहेगा. राष्ट्रवाद हमेशा आपसे यह पूछेगा आपकी पहचान क्या है? आपको किस रूप से आपकी पहचान को परिभाषित किया जाए?
जवाहरलाल नेहरू ने इकबाल को चेतावनी दी थी, जबकि जवाहरलाल नेहरू मुसलमान नहीं थे. उनको शायद मुस्लिम थियोलॉजी आती भी नहीं होगी. लेकिन चेतावनी क्या कि अगर इस झंझट में फंस गए कि सच्चा मुसलमान कौन है और सच्चा हिंदू कौन है तो यह जो परिभाषित करने की प्रक्रिया है यही व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खत्म कर देगी. किसी भी रूप में इसे किया जाए , चाहे किया जाए धर्म के नाम पर, चाहे राष्ट्र के नाम पर. अगर संस्कृति है तो उसमें स्व का स्वर होना ही नहीं चाहिए. वह आपको अपनी पहचान से ऊपर किसी बाहरी तत्व की ओर किसी भाव की ओर, किसी ‘सत्य’ की ओर ले जाने की कोशिश है. जहां आपका, जहां आपकी पहचान आई, वहां आपकी स्वतंत्रता खत्म हुई, जहां आपकी पहचान आई, आप उन शाश्वत मूल्यों से एकदम अलग हो गए.
आज जो संस्कृति का संकट है कि संस्कृति की जो एक तरह से सार्वजनिक अभिव्यक्ति है, वह हर जगह राष्ट्रवाद का रूप ले रही है. वह राष्ट्रवाद एक तो आधुनिकता के बिखराव के संदर्भ में सफल हो नहीं सकता, क्योंकि वह उस बिखराव को खत्म नहीं कर सकता. वह एक तरह से एक भ्रम दिखाता है ‘होल वे ऑफ लाइफ’, ‘ऑर्गेनिक इंडियन कल्चर’ का. लेकिन वह हमको इस तरह से परिभाषित और सीमित करता है कि जो भी बचा खुचा है इस संस्कृति में एक तरह से खत्म हो जाता है. संस्कृति और राष्ट्रवाद एक तरह से प्रतिस्पर्धा में है. राष्ट्रवाद संस्कृति को सबसे बड़ा उपनिवेश बनाता है. और मैं यह समझता हूं कि इन्हीं सब कारणों की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने जो तीखी प्रक्रिया व्यक्त की कि आप कोई भी देश देख लीजिए दुनिया में ऐसा उदाहरण आपको शायद ही कहीं दिखे कि अगर आप संस्कृति को राजनीति के केंद्र में लाएंगे तो वो प्रतिक्रियावादी नहीं बनें.
आप निजी जीवन में उसका उसकी अभिव्यक्ति कर सकते हैं आप सिविल सोसाइटी में, अपने मंदिरों में, मस्जिदों में कहीं भी कर सकते हैं लेकिन अगर उसको राजनीति का केंद्र बनाया तो उस उस सवाल में ही फासिज्म निहित है. जर्मनी की त्रासदी यह नहीं थी कि बीथोवन का देश फासिस्ट कैसे बन गया, उसकी ट्रेजेडी यह थी कि बीथोवन जर्मन पहचान का प्रतीक बन गया, संगीत का प्रतीक नहीं बना.
इस संस्कृति के संकट से उभारने के लिए कोई नया जवाहरलाल नेहरू, कोई नया रामधारी सिंह दिनकर उत्पन्न होगा कि नहीं यह पता नहीं, अंत में मैं सिर्फ ध्यान दिलाना चाहूँगा जो रामधारी सिंह दिनकर की किताब के समर्पण पर : दिनकर ने उसे समर्पित किया है राजेंद्र प्रसाद को. उस समर्पण में दिनकर ने यह कविता उद्धृत की थी -
हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्रविड़-चीन,
शक-हूण-दल, पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन .
यह डेडिकेशन हमारे सामने एक गुत्थी है. पहली यह है कि जब दिनकर दुहाई दे रहे हैं एक देह होलो लीन.. यह किस बात की दुहाई दे रहे हैं? इसके दो मतलब निकाले जा सकते हैं एक अर्थ यह है कि आर्य अनार्य द्रविड़ चीन शक हूण पठान इन सबकी मिलकर एक पहचान बन गई है. और दूसरा अर्थ यह निकाला जा सकता है इनकी एक पहचान नहीं बनी है, लेकिन एक तरह से यह कह सकते हैं कि पूरे विश्व पर भारत का अधिकार है. दो अलग-अलग मतलब हैं. “द एनटायर वर्ल्ड इज आवर्स”: राधाकृष्णन का एक वाक्य है.’ एक देह होली लीन’ की जो बात है यह क्या एक नई स्पिरिचुअल नार्सिसिस्म, सेल्फ ऑब्सेशन, कलेक्टिव नार्सिसिस्म की तरफ और ले जाएगी या फिर हम यह जटिल सवाल वापस से पूछने का प्रयत्न करेंगे कि हमारे समाज की शाश्वत और नैतिक शर्तें क्या होनी चाहिए, अगर संस्कृति को बचाना है तो वही एक प्रश्न है न कि यह झंझट कि हमारी उत्पत्ति क्या है और पहचान क्या है.
समारोह का वीडियो:
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