#DeepDive | न्याय या सज़ा : जब न्याय की प्रक्रिया ही मुसलमानों के लिए सज़ा बन जाती है!
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
भारत की न्यायिक प्रक्रिया में अक्सर कहा जाता है कि “देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता।” लेकिन अब यह सवाल और भी खतरनाक रूप ले चुका है. जब प्रक्रिया ही सज़ा बन जाए, जब कोई बिना दोषी साबित हुए 10, 15, यहां तक कि 20 साल जेल में काट दे और फिर बाइज्जत बरी हो जाए, तो क्या यही है भारतीय लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था? हरकारा 'डीप डाइव' की इस महत्वपूर्ण बातचीत में मानवाधिकार कार्यकर्ता इरफान इंजीनियर बता रहे हैं कि कैसे यूएपीए जैसे कानूनों का इस्तेमाल कर के निर्दोष मुस्लिम युवाओं को सालों जेल में सड़ाया जाता है और फिर चुपचाप बरी कर दिया जाता है लेकिन तब तक उनकी ज़िंदगी, परिवार और भविष्य बर्बाद हो चुके होते हैं.
देश की जेलों में बंद मुसलमानों की संख्या 30% के आसपास, जबकि वे आबादी का मात्र 14.2% हैं. हालिया वर्षों में कई मामलों में देखा गया है कि 20 से 25 साल तक जेल में रहने के बाद निर्दोषों को बरी किया गया — तब तक उनकी ज़िंदगी, परिवार, रोज़गार, सबकुछ टूट चुका होता है.
यूएपीए, मकोका जैसे सख़्त कानूनों का बेहिसाब इस्तेमाल, जिसमें ज़मानत मिलना लगभग नामुमकिन है. मीडिया ट्रायल और अभियोजन पक्ष की लचर जांच, जिसमें आरोप लगाने के बाद उसे साबित करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं निभाई जाती. पुलिस की ‘नैरेटिव बिल्डिंग’ का असर – नाम जोड़ना, बिना सबूत के चार्जशीट, और मीडिया में ‘आतंकी’ की तरह पेश करना.’ रिपोर्ट में यह स्पष्ट हुआ कि कैसे जेल में बंद मुस्लिम पुरुषों की बीवियाँ, बच्चे, मां-बाप, सभी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक संकटों से टूट जाते हैं. कई मुस्लिम बच्चों को स्कूलों में भेदभाव, बहिष्कार और डर का माहौल झेलना पड़ता है.
इस संवाद का सबसे गहरा सवाल था — क्या भारत में अब न्याय केवल एक वर्ग के लिए ही है? क्या अब कानून की धाराएँ एक विचारधारा की रक्षा और दूसरी की हत्या के लिए इस्तेमाल हो रही हैं? देखिए यह पूरी बातचीत..