अपूर्वानंद : आख़िर हम कौन सी हिंदी बोलते हैं?
लड़ाई हमेशा से हिंदी को ‘शुद्ध’ करने, उसे विदेशीपन से मुक्त करने, और उसमें शामिल होने वाली बोलियों को सीमित करने की रही है.
यह लेख द वायर में मूल अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ. उसका हिंदी रूपांतर आज के हरकारा से.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कुछ टेलीविज़न चैनलों को नोटिस भेजकर, उन्हें अपने हिंदी कार्यक्रमों में उर्दू शब्दों को शामिल करने पर स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया है. उसने कहा कि वह एक नागरिक की शिकायत पर कार्रवाई कर रहा है. महाराष्ट्र के ठाणे के किन्हीं वास्तव ने मंत्रालय को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि चैनल हिंदी में प्रसारण का दावा करते हैं, लेकिन वे लगभग 30% उर्दू के शब्द इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने कहा, यह दर्शकों के साथ धोखाधड़ी है. इतना ही नहीं, यह एक अपराध है. मंत्रालय को उनकी आपत्ति में दम लगा और उसने तुरंत चैनलों को पत्र लिखकर मंत्रालय को अनुपालन रिपोर्ट भेजने को कहा.
मंत्रालय ने वास्तव से यह पूछने की ज़रूरत महसूस नहीं की कि वे हिंदी कार्यक्रमों में उर्दू के ‘30 प्रतिशत’ के इस सटीक आंकड़े पर कैसे पहुंचे. न ही उसने यह पूछा कि क्या हिंदी सिर्फ़ उर्दू शब्दों से ही भ्रष्ट होती है, या क्या अंग्रेज़ी के शब्द भी इसे उतना ही भ्रष्ट करते हैं. या शायद उनका मानना है कि उर्दू हिंदी को प्रदूषित करती है जबकि अंग्रेज़ी इसे आभूषण की तरह सजाती है? और वह कौन सा तर्क है जिसके आधार पर उर्दू, अंग्रेज़ी, या अरबी के शब्दों का इस्तेमाल एक ‘अपराध’ बन जाता है?
विडंबना यह है कि अपने ही पत्र में, मंत्रालय ने चैनलों पर ‘ग़लत’ (wrong) हिंदी का इस्तेमाल करने और इसके ‘इस्तेमाल’ (use) को समझाने का आरोप लगाया – ये दोनों ही शब्द उर्दू से लिए गए हैं. असल में, ‘हिंदी’ शब्द भी – क्या यह सच में उस अर्थ में हिंदी है, जिस अर्थ में वास्तव इसका इस्तेमाल कर रहे हैं? ‘हिंद’ शब्द किसने गढ़ा जिससे हिंदी शब्द निकला है? यह कहां से आया? अगर कोई हिंदी के ‘पूर्ण शुद्धिकरण’ की मांग करे, तो उसे इसी शब्द से शुरुआत करनी होगी.
ऐसा हुआ कि जब यह नोटिस की ख़बर द वायर हिंदी की संपादक मीनाक्षी के ज़रिये मुझ तक पहुंची, तो मैं पटना में चंद्रशेखर व्याख्यान श्रृंखला के हिस्से के रूप में आलोक राय को सुन रहा था. उनके व्याख्यान में इस कहानी का पता लगाया गया कि हिंदी कैसे हिंदी बनी. उनका कहना था कि जहां एक भाषा के रूप में हिंदी को एक स्पेक्ट्रम की तरह माना जा सकता है, वहीं एक ‘मानक हिंदी’ के निर्माण को लेकर एक वास्तविक ऐतिहासिक चिंता रही है.
दूसरे शब्दों में, लड़ाई हमेशा से हिंदी को ‘शुद्ध’ करने, उसे विदेशीपन से मुक्त करने और उसमें शामिल होने वाली बोलियों को सीमित करने की रही है. इसे दूसरे तरीक़े से कहें तो, यह घुसपैठियों को बाहर निकालने और केवल तथाकथित ‘मूल निवासियों’ को नागरिकता देने का एक प्रयास रहा है. आलोक राय ने हमें याद दिलाया कि आकांक्षा एक ऐसी हिंदी की थी जिसमें हवन की पवित्र अग्नि की महक हो – लोबान की ख़ुशबू से काम नहीं चलेगा.
यह वास्तव और उनका समर्थन करने वाले मंत्रालय को यह याद करने में मदद कर सकता है कि इतिहास में और किसने हिंदी के बारे में इस तरह सोचा था. वास्तव के लिए, हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल एक अपराध के बराबर है. लेकिन गांधी का एक ऐसी हिंदी पर ज़ोर देना जो अधिक मिलनसार हो, उर्दू के साथ मिलकर हिंदुस्तानी बनी हो, इसी बात ने उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को नाराज़ किया था.
क्यों गोडसे, जो एक मराठी भाषी थे, हिंदी में उर्दू के मिश्रण से नाराज़ हुए होंगे? गांधी की हत्या के अपने औचित्य में, उन्होंने गांधी के हिंदुस्तानी की वकालत को अक्षम्य अपराधों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया था:
“गांधी की मुस्लिम-समर्थक नीति भारत की राष्ट्रभाषा के सवाल पर उनके विकृत रवैये में साफ़ तौर पर दिखती है. यह काफ़ी स्पष्ट है कि प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने का सबसे पहला दावा हिंदी का है. भारत में अपने करियर की शुरुआत में, गांधी ने हिंदी को बहुत बढ़ावा दिया, लेकिन जब उन्होंने पाया कि मुसलमानों को यह पसंद नहीं है, तो वे हिंदुस्तानी के पैरोकार बन गए.
भारत में हर कोई जानता है कि हिंदुस्तानी नाम की कोई भाषा नहीं है; इसका कोई व्याकरण नहीं है; इसकी कोई शब्दावली नहीं है. यह महज़ एक बोली है, इसे बोला जाता है, लेकिन लिखा नहीं जाता. यह एक दोगली ज़बान है और हिंदी और उर्दू के बीच की एक संकर नस्ल है, और महात्मा का कुतर्क भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सका. लेकिन मुसलमानों को ख़ुश करने की अपनी इच्छा में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल हिंदुस्तानी ही भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. उनके अंधे अनुयायियों ने, निश्चित रूप से, उनका समर्थन किया और तथाकथित संकर भाषा का इस्तेमाल होने लगा. मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए हिंदी भाषा के आकर्षण और पवित्रता की बलि चढ़ाई जा रही थी. उनके सभी प्रयोग हिंदुओं की क़ीमत पर थे.”
उनका हिंदू राष्ट्रवाद इस ‘अशुद्धता’ को बर्दाश्त नहीं कर सका. उनका मानना था कि एक शुद्ध राष्ट्र को एक शुद्ध भाषा की ज़रूरत होती है, जो अकेले ही शुद्ध भारतीय पैदा कर सकती है. गोडसे की नज़र में गांधी ने दो अपराध किए थे: मुसलमानों और ईसाइयों को भारत के भीतर रखकर उसे अपवित्र करना; और हिंदी को उर्दू से प्रदूषित करना. गोडसे का मानना था कि इसकी एकमात्र सज़ा गांधी के लिए मौत थी. गोडसे के बाद से, उनके प्रशंसकों ने बार-बार हिंदी में उर्दू शब्दों का शिकार करने की कोशिश की है. दीनानाथ बत्रा ने हिंदी को शुद्ध करना अपना मिशन बना लिया. अपने शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के माध्यम से, उन्होंने और उनकी टीम ने पाठ्यपुस्तकों को जूं की कंघी की तरह खंगाला, और एक-एक करके उर्दू शब्दों को हटाया. 2017 में, उन्होंने एनसीईआरटी को एक पांच-पृष्ठीय रिपोर्ट सौंपी, जिसमें मोहल्ला, साल, दोस्त और मुश्किल जैसे शब्दों को हटाने की मांग की गई थी. यह शुद्धिकरण के लंबे अभियान का केवल एक हिस्सा था.
इसका एक परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने अपने पुलिस विभागों को हिंदी को अरबी और फ़ारसी शब्दों से मुक्त करने का निर्देश दिया. अधिकारियों से मुक़दमा, मुलज़िम, इल्ज़ाम, इत्तिला और चश्मदीद जैसे शब्दों को ‘शुद्ध’ हिंदी समकक्षों से बदलने के लिए कहा गया. इस अभियान ने हमेशा आरएसएस की हिंदी की समझ से प्रेरणा ली है. 2018 में, इसकी राष्ट्रीय सभा ने भारतीय भाषाओं में विदेशी शब्दों की मौजूदगी पर चिंता व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. इससे पहले, एम.एस. गोलवलकर ने ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ पुस्तक में घोषणा की थी कि केवल संस्कृत या उसकी उत्तराधिकारी हिंदी ही भारत को एक साथ रख सकती है, जबकि फ़ारसी-मिश्रित ‘विदेशी’ भाषा एक ख़तरनाक विचलन थी.
शुद्धता पर यह ज़ोर कोई नया नहीं है. दो दशक से भी अधिक समय पहले, आलोक राय ने, और उनसे पहले उनके पिता अमृत राय ने, उस प्रक्रिया का अध्ययन किया था जिससे हिंदी अस्तित्व में आई. आलोक राय ने बताया कि निर्णायक क्षण 19वीं शताब्दी के अंत में नागरी लिपि के लिए आधिकारिक मान्यता हासिल करने का अभियान था, जिसकी परिणति उर्दू और हिंदी के लिए अलग-अलग मान्यता के रूप में हुई. हम शायद ही इस बात पर ध्यान देते हैं कि जो कभी केवल नागरी थी — यहां तक कि मदन मोहन मालवीय के लिए भी — उसे बाद में देवनागरी का दर्जा दे दिया गया. तर्क यह था कि हिंदी को देवभाषा संस्कृत की सबसे बड़ी बेटी के रूप में प्रस्तुत करना था.
यदि संस्कृत भारतीय पहचान की आदिम आवाज़ थी, तो हिंदी को उसका सिंहासन विरासत में मिलना ही चाहिए. और संस्कृत की बेटी होने के नाते, इसे महज़ नागरी में नहीं बल्कि केवल देवनागरी में ही लिखा जा सकता था.
लेकिन कौन सी हिंदी, हिंदी कहलाने की हक़दार है? एक निबंध में, ओपन यूनिवर्सिटी के जसपाल नवील सिंह एक मार्मिक कहानी सुनाते हैं. उनके पिता, जो रावलपिंडी के पास पैदा हुए थे, विभाजन के नरसंहार से भागकर दिल्ली आ गए, और बाद में जर्मनी चले गए, जहां उन्होंने शादी की और एक परिवार बसाया. जसपाल जर्मन बोलते हुए बड़े हुए, और एक वयस्क के रूप में, उन्होंने हिंदी सीखकर अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की कोशिश की. एक दिन, उनके पिता ने उनकी पाठ्यपुस्तक देखने के लिए कहा – रूपर्ट स्नेल और साइमन वेटमैन की ‘टीच योरसेल्फ हिंदी: ए कम्प्लीट कोर्स’. जैसे ही उन्होंने इसके पन्ने पलटे, उन्होंने अस्वीकृति में अपना सिर हिलाया. उन्होंने कहा, किताब में दिए गए शब्द हिंदी नहीं थे. शायद हिंदुस्तानी, लेकिन हिंदी नहीं. शुक्रिया, मेज़, कुर्सी, किताब, बीमार, मगर, अगर, दरवाज़ा, खिड़की जैसे शब्द – उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ये सब विदेशी थे.
चौंकाने वाली बात यह है कि ये वे ही शब्द थे जिनका वह रोज़ाना इस्तेमाल करते थे. लेकिन एक पाठ्यपुस्तक में, वे अस्वीकार्य हो गए. इस अस्वीकृति के पीछे की स्मृति विभाजन के बाद दिल्ली में उनके स्कूली दिनों की थी. उन्होंने याद किया कि कैसे शिक्षक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर छात्रों को सज़ा देते थे: उनकी उंगलियों के बीच एक पेंसिल फंसाकर और उसे एक किताब से तब तक मारते थे जब तक कि पेंसिल टूट न जाए – या उंगलियां टूट न जाएं.
जसपाल लिखते हैं, “मेरे पिता ने भाषा को तोड़ा था, और अब शिक्षक उनकी कलम तोड़ देंगे – या उनकी उंगलियां भी. सत्ता के इस हिंसक शैक्षणिक प्रदर्शन का यही सरल नैतिक पाठ था.”
विभाजन के बाद, उनके जैसे अनगिनत बच्चों ने इस ‘भाषाई नस्लवाद’ की हिंसा को सहा. जैसा कि सिंह कहते हैं, लोग अपने जीवन में इस मिश्रित भाषा का स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल करते थे, लेकिन स्कूलों और आधिकारिक संदर्भों में, उन्हें एक शुद्ध, बहिष्करणवादी हिंदी को आत्मसात करने के लिए मज़बूर किया गया था.
जब तक मैं यह लिख रहा हूं, मंत्रालय एक स्पष्टीकरण जारी कर चुका है. अब उसका कहना है कि उसने केवल एक नागरिक की शिकायत को चैनलों को नियमित प्रक्रिया के अनुसार भेजा था, और अपनी ओर से कोई निर्देश जारी नहीं किया था. फिर भी, उसका पत्र चैनलों को 15 दिनों के भीतर यह बताने का निर्देश देता है कि उन्होंने क्या कार्रवाई की है.
जो खोज चल रही है वह ‘शुद्ध हिंदी’ की है – जैसे शुद्ध शाकाहारी भोजन की खोज. जो लोग साल भर मांस खाते हैं, वे पवित्र श्रावण मास में, शाकाहारी शुद्धता को बनाए रखने के लिए हत्या भी कर सकते हैं. इसी तरह का तर्क शुद्ध हिंदी की खोज को प्रेरित करता है.