09/12/2025: वोट चोरी पर संसद में राहुल | सरकारी योजनाओं का पैसा भाजपा ने बटोरा | ब्रैगमेन का रीथ लेक्चर 'शराफत की साजिश' पर | पान की दुकान और इंडिगो मैनेजमेंट | एफआईआई ने 11,820 करोड़ रु निकाले
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
राहुल की चुनाव आयोग को चेतावनी
सरकारी योजनाओं के नाम पर भाजपा का चंदा
मतदाता सूची से नाम हटाने पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती
इंडिगो संकट: रोज़ाना 230 उड़ानें रद्द होंगी
मध्य प्रदेश में मंत्री के भाई से गांजा बरामद
नमाज़ पढ़ने पर छात्रों से जबरन उठक-बैठक
भारत-रूस रिश्तों में ‘सभ्यतामूलक’ बदलाव
विदेशी निवेशकों ने 11,820 करोड़ रुपये निकाले
वोट चोरी सबसे बड़ी एंटी-नेशनल हरकत: राहुल
राहुल की चुनाव आयोग को सीधी चेतावनी; ‘हम कानून बदलेंगे और आपको ढूंढ निकालेंगे’
मंगलवार को लोकसभा में चुनावी सुधारों पर चर्चा के दौरान विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग (ईसीआई) के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया. राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग विपक्ष की चिंताओं पर कोई जवाब नहीं दे रहा है और चुनाव प्रचार कार्यक्रम पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आवश्यकताओं के अनुसार तैयार किए जा रहे हैं. उन्होंने चुनाव आयोग के अधिकारियों को चेतावनी देते हुए कहा, “हम कानून को भूतलक्षी प्रभाव से बदलेंगे और हम आपको ढूंढ निकालेंगे.”
राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि दिसंबर 2023 में मोदी सरकार ने कानून में बदलाव कर चुनाव आयुक्तों को ‘इम्युनिटी’ (सुरक्षा कवच) दे दी, ताकि पद पर रहते हुए उनके द्वारा किए गए किसी भी काम के लिए उन्हें सजा न दी जा सके. उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया.
सदन में बोलते हुए राहुल गांधी ने तीन तीखे सवाल पूछे और सुधारों की मांग की:
सीजेआई को हटाना: मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को चुनाव आयुक्तों के चयन पैनल से क्यों हटाया गया? राहुल ने कहा, “मैं उस पैनल में विपक्ष के नेता के तौर पर हूं, लेकिन मेरी कोई आवाज़ नहीं है क्योंकि मैं अल्पमत में हूं. सरकार अपनी पसंद का चुनाव आयुक्त चुनने के लिए इतनी उतावली क्यों है?”
सीसीटीवी फुटेज: 30 मई, 2025 को आए नए नियम के तहत चुनाव के बाद 45 दिनों के भीतर सीसीटीवी फुटेज नष्ट करने की अनुमति क्यों दी गई? उन्होंने इसे डेटा का मुद्दा मानने से इनकार करते हुए कहा कि यह सबूत मिटाने की साजिश है.
ईवीएम एक्सेस: विपक्षी दलों को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की वास्तुकला (आर्किटेक्चर) देखने की अनुमति क्यों नहीं दी जाती?
राहुल गांधी ने हरियाणा विधानसभा चुनाव का उदाहरण देते हुए दावा किया कि वहां चुनाव चोरी किया गया था. उन्होंने कहा, “हरियाणा की वोटर लिस्ट में एक ब्राजीलियन महिला का नाम 22 बार दर्ज था. एक अन्य महिला का नाम 200 बार आया. बिहार में 1.2 लाख डुप्लीकेट मतदाता क्यों हैं, इसका जवाब चुनाव आयोग ने आज तक नहीं दिया.” उन्होंने ‘वोट की चोरी’ को सबसे बड़ा ‘राष्ट्र विरोधी’ कृत्य करार दिया और कहा कि जब आप वोट को नष्ट करते हैं, तो आप देश के ताने-बाने को नष्ट करते हैं.
उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर भी निशाना साधते हुए कहा कि वे गांधी जी की हत्या के बाद से ही देश की हर संस्था पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं. इस पर बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने पलटवार करते हुए कहा कि कांग्रेस ने 1975 में आपातकाल लगाकर देश की सभी संस्थाओं को खत्म कर दिया था. वहीं, संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि राहुल गांधी मुद्दे पर बात करने के बजाय समय बर्बाद कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट में दलील
‘चुनाव आयोग के पास सूची में शामिल करने से रोकने या बाहर करने का कोई क्षेत्राधिकार नहीं’
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को पूछा कि क्या किसी संदिग्ध नागरिक के मामले में चुनाव आयोग को जांच करने से रोका गया है और क्या जांच-पड़ताल की प्रक्रिया उसकी संवैधानिक शक्ति के दायरे से बाहर है. यह टिप्पणी मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने बिहार सहित कई राज्यों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को चुनौती देने वाली याचिकाओं की अंतिम सुनवाई के दौरान की. वरिष्ठ वकील शादान फरासत ने मतदाता सूचियों को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और वैधानिक ढांचे का पता लगाया और कहा कि अनुच्छेद 324 से 329, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ मिलकर, अंतिम संसद के रूप में कार्यरत एक ही संविधान सभा द्वारा अधिनियमित “एकल संवैधानिक संहिता” बनाते हैं.
‘पीटीआई’ के अनुसार, उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 326 के तहत वयस्क मताधिकार के लिए केवल तीन शर्तों की संतुष्टि आवश्यक है: (एक)- भारतीय नागरिकता, (दो)- 18 वर्ष की आयु प्राप्त करना, और (तीन)-विशिष्ट अयोग्यताओं की अनुपस्थिति. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम इन्हीं आधारों को प्रतिबिंबित करते हैं, लेकिन मतदाता सूचियों से अपवर्जन (नाम हटाने) के लिए नए आधार नहीं बना सकते हैं.
फरासत ने कहा, “चुनाव आयोग के पास मुझे सूची में शामिल होने से रोकने या मुझे सूची से बाहर करने का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है,” और जोड़ा कि “यदि चुनाव आयोग को मेरी नागरिकता पर संदेह है, तो वह जांच केवल जिला मजिस्ट्रेट के पास संदर्भ तक ही जा सकती है. यह निर्धारण केवल केंद्र सरकार या विदेशियों के न्यायाधिकरण द्वारा ही किया जा सकता है.”
उन्होंने कहा कि वैधानिक योजना के तहत, पहली बार शामिल करने के लिए नागरिकता कोई पूर्व शर्त नहीं है, और गैर-नागरिकता सिद्ध करने का भार हमेशा राज्य पर होता है. उन्होंने आगे कहा कि एक बार जब कोई व्यक्ति पहले से ही सूची में होता है, तो उसकी स्थिति के साथ “मजबूत अनुमानित मूल्य” जुड़ जाता है और हटाने के लिए चुनाव अधिकारियों द्वारा “जांच-पड़ताल अभ्यास” नहीं, बल्कि एक “पूर्ण, स्वतंत्र निर्धारण” की आवश्यकता होती है.
पीठ ने पूछा, “निर्धारण और पूछताछ में अंतर है.क्या चुनाव आयोग संदिग्ध नागरिकों के मामले में जांच कर सकता है? ... क्या जांच-पड़ताल की प्रकृति वाली प्रक्रिया करना चुनाव आयोग के क्षेत्राधिकार से बाहर होगा, उसकी संवैधानिक शक्ति को ध्यान में रखते हुए?”
सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति बागची ने संबंधित कानून और इस ज़ोरदार दलीलों पर ध्यान दिया कि नागरिकता के मुद्दे का फैसला चुनाव पैनल द्वारा नहीं किया जा सकता है, जिसे यह विचार करना होगा कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है, 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का है, और एक निर्वाचन क्षेत्र में सामान्य रूप से निवास कर रहा है.
न्यायाधीश ने पूछा, “आप कहते हैं कि चुनाव आयोग के पास किसी व्यक्ति को विदेशी या गैर-नागरिक घोषित करने की कोई शक्ति नहीं है. लेकिन, यह स्थिति पर संदेह कर सकता है और मुद्दे को उचित अधिकारियों के पास भेज सकता है. क्या चुनाव आयोग नागरिकता के अनुमानित चरण का फैसला नहीं कर सकता है?”
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि पुनरीक्षण अभ्यास क्षेत्राधिकार के अतिक्रमण, प्रक्रियात्मक अनियमितता, और साधारण मतदाताओं पर नागरिकता सिद्ध करने के बोझ के असंवैधानिक स्थानांतरण से ग्रस्त है. वरिष्ठ वकील ने कहा कि चुनाव आयोग के पास किसी व्यक्ति को सूची में शामिल होने से रोकने या उसे सूची से बाहर करने का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है.
पीठ ने कहा, “नागरिकता एक संवैधानिक अनिवार्यता है. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 19 अनुच्छेद 325 के आधार पर अधिनियमित की गई है. एक अवैध अप्रवासी जो यहां लंबे समय से रह रहा है... मान लीजिए 10 साल से अधिक समय से... तो क्या उन्हें सूची में रहना चाहिए? यह कहना कि नागरिकता तब अनुमानित है जब निवास और आयु संतुष्ट हो जाती है, गलत होगा. यह निवास या आयु पर निर्भर नहीं करता है क्योंकि नागरिकता एक संवैधानिक आवश्यकता है. “
पीठ ने कहा कि जिस तरीके से चुनाव पैनल द्वारा क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया जा रहा है, उसे निष्पक्षता और उचितता की संवैधानिक अनिवार्यताओं के अनुरूप होना चाहिए. पीठ ने कहा, “जब आप सामूहिक बहिष्कार की बात करते हैं, जब आप संदिग्ध विदेशी स्थिति की बात करते हैं, ... तो ये वास्तव में अधीक्षण की मूलभूत संवैधानिक शक्ति में नहीं जाते हैं.” पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग की अधीक्षण की शक्ति का प्रयोग निष्पक्षता और अनुच्छेद 14 के संवैधानिक मानदंडों के अनुरूप किया जाना चाहिए. पीठ 11 दिसंबर को शेष याचिकाकर्ताओं की सुनवाई जारी रखेगी.
सरकारी योजनाओं के नाम पर बीजेपी ने जुटाया चंदा, आरटीआई से हुआ बड़ा खुलासा
एक ‘आरटीआई’ खुलासे ने भारतीय जनता पार्टी द्वारा चंदा इकट्ठा करने के तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी ने कथित तौर पर ‘स्वच्छ भारत’, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ और ‘किसान सेवा’ जैसी केंद्र सरकार की प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर जनता से अवैध रूप से चंदा इकट्ठा किया. यह खुलासा चेन्नई स्थित वरिष्ठ पत्रकार बी.आर. अरविंदक्षण द्वारा दायर आरटीआई के जवाबों से हुआ है.
रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर 2021 से फरवरी 2022 के बीच बीजेपी ने ‘नमो ऐप’ और ‘narendramodi.in’ पोर्टल के जरिए एक फंडरेजिंग अभियान चलाया था. 25 दिसंबर 2021 को बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने इस अभियान की घोषणा की थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसका समर्थन करते हुए खुद 1,000 रुपये का दान दिया था. इस अभियान में दानदाताओं को सरकारी योजनाओं का विकल्प चुनने के लिए कहा गया, लेकिन रसीद में पैसे को ‘पार्टी फंड’ के रूप में दिखाया गया.
अरविंदक्षण ने जब संबंधित मंत्रालयों से आरटीआई के जरिए सवाल पूछे, तो चौंकाने वाली जानकारी सामने आई:
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय: मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना के लिए नमो ऐप के जरिए फंड जुटाने की कोई विशेष अनुमति नहीं दी गई है.
जल शक्ति मंत्रालय: मंत्रालय ने कहा कि ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के लिए किसी एनजीओ या व्यक्ति द्वारा फंड जुटाने का कोई प्रावधान नहीं है.
पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय): प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब दिया कि पीएम के नाम पर कोई आधिकारिक ऐप नहीं है और नमो ऐप से पीएमओ का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड संबद्ध नहीं है.
अरविंदक्षण ने खुद जांच के तौर पर इन योजनाओं के नाम पर 100-100 रुपये दान किए और उन्हें बीजेपी कार्यालय से रसीदें मिलीं. उन्होंने आरोप लगाया है कि यह नागरिकों के साथ “धोखाधड़ी और विश्वासघात” है, क्योंकि लोगों ने यह सोचकर पैसा दिया कि वे सरकारी योजनाओं में मदद कर रहे हैं. उन्होंने इस मामले में चेन्नई पुलिस कमिश्नर और सीबीआई से जांच की मांग की है. उनका कहना है कि अगर केंद्र सरकार कार्रवाई नहीं करती है, तो वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.
पिछले सप्ताह विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाज़ार से 11,820 करोड़ रुपये निकाले, लुढ़कता रुपया वजह
‘एजेंसियों’ के मुताबिक, विदेशी निवेशकों ने इस महीने के पहले सप्ताह में भारतीय शेयरों से 11,820 करोड़ रुपये (1.3 अरब डॉलर) निकाल लिए हैं, जिसका मुख्य कारण रुपये की तेज़ी से गिरती कीमत (मूल्यह्रास) है. नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड (एनएसडीएल) डेटा के अनुसार, यह तेज़ निकासी नवंबर में हुई 3,765 करोड़ रुपये की शुद्ध निकासी के बाद हुई है, जिससे बाजारों पर और दबाव पड़ रहा है. इसके साथ ही 2025 के लिए कुल निकासी 1.55 लाख करोड़ रुपये हो गई है.
‘पीटीआई’ के अनुसार, अक्टूबर में संक्षिप्त विराम के बाद यह बहिर्वाह (आउटफ़्लो) हुआ है, जब विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने ₹14,610 करोड़ का निवेश किया था, जिससे बड़े पैमाने पर निकासी की तीन महीने की श्रृंखला—सितंबर में ₹23,885 करोड़, अगस्त में ₹34,990 करोड़ और जुलाई में ₹17,700 करोड़—टूट गई थी.
विश्लेषकों ने इस नए सिरे से बिकवाली का मुख्य कारण मुद्रा संबंधी चिंताओं को बताया है. जियोजित इन्वेस्टमेंट्स के मुख्य निवेश रणनीतिकार वीके विजयकुमार ने कहा कि इस साल रुपये में लगभग 5 प्रतिशत का मूल्यह्रास हुआ है, जिसने विदेशी निवेशकों को इस अवधि के दौरान पैसा निकालने के लिए प्रेरित किया है. एंजल वन के वरिष्ठ फंडामेंटल एनालिस्ट वाकर जावेद खान ने कहा कि इसमें वैश्विक निवेशकों द्वारा साल के अंत में पोर्टफोलियो पुनर्संरचना को जोड़ना, जो छुट्टियों के मौसम से पहले एक विशिष्ट दिसंबर ट्रेंड है, ने भी बिकवाली को तेज़ कर दिया है.
खान ने कहा कि भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने में देरी ने वैश्विक भावना को और कम कर दिया है. हालांकि, विजयकुमार ने कहा कि विदेशी निवक्षकों के पैसा निकालने के बावजूद, घरेलू भागीदारी के मज़बूत होने से बाज़ारों पर इसका असर कम हुआ है. घरेलू संस्थागत निवेशकों ने इसी अवधि के दौरान ₹19,783 करोड़ के शेयर खरीदे, जिससे विदेशी बिकवाली पूरी तरह से प्रतिसंतुलित हो गई. घरेलू संस्थागत निवेशकों के विश्वास को भारत के मज़बूत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों और आगे कॉर्पोरेट आय में सुधार की उम्मीदों से समर्थन मिला है.
5 दिसंबर को आरबीआई द्वारा 25 आधार अंकों की दर में कटौती के बाद इस भावना को अतिरिक्त बढ़ावा मिला, जब विदेशी निवेशकों का प्रवाह उस दिन ₹642 करोड़ के साथ सकारात्मक हो गया. यह बदलाव महत्वपूर्ण था, यह देखते हुए कि विदेशी निवेशकों ने 4 दिसंबर तक लगभग ₹13,000 करोड़ की बिकवाली कर दी थी. खान ने कहा, “आरबीआई ने न केवल दरों में कटौती की, बल्कि अपने वित्तीय वर्ष 2026 के विकास मार्गदर्शन को भी बढ़ाकर 7.3 प्रतिशत कर दिया, साथ ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पूर्वानुमान को 2 प्रतिशत तक कम कर दिया. एक मज़बूत विकास माहौल भारतीय शेयरों के लिए अच्छा संकेत है.”
आगे देखते हुए, वैश्विक तरलता को एक और बढ़ावा मिल सकता है. उन्होंने कहा कि सीएमई फेड वॉच टूल संकेत देता है कि फेडरल ओपन मार्केट कमेटी (एफओएमसी) से अगले सप्ताह 25 आधार अंकों की दर में कटौती की उम्मीद है, यह कदम आम तौर पर दुनिया भर में जोखिम वाली संपत्तियों को लाभ पहुंचाता है. उन्होंने कहा कि भारत एक प्रमुख लाभार्थी हो सकता है, हालांकि भारत-अमेरिका व्यापार समझौते का निष्कर्ष न निकलना एक जोखिम कारक बना हुआ है.
इस बीच, ऋण बाज़ार में, विदेशी निवेशकों ने सामान्य सीमा के तहत ₹250 करोड़ का निवेश किया, जबकि इसी अवधि के दौरान स्वैच्छिक प्रतिधारण मार्ग के माध्यम से ₹69 करोड़ की निकासी की.
मुंबई में 5 वर्षों में साइबर-वित्तीय धोखाधड़ी के 20,000 मामले, 2,000 करोड़ की चपत
मुंबई में साइबर वित्तीय धोखाधड़ी में भारी वृद्धि देखी जा रही है, जहां 2020 से अब तक लगभग पांच सालों में 20,000 मामले दर्ज किए गए हैं. यानी हर साल औसतन 4 हजार मामले. और इस दौरान पीड़ितों को 2,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम से हाथ धोना पड़ा है. जबकि वसूली बहुत कम है. “टाइम्स ऑफ इंडिया” में वी. नारायण के अनुसार, व्यवसायी महिलाओं से लेकर सेवानिवृत्त लोगों तक, पीड़ित खुद को न केवल कार्ड क्लोन करने और डेटा चुराने वाले शातिर धोखेबाजों से, बल्कि उन बैंकों से भी घिरा हुआ पा रहे हैं जो आरबीआई के ‘जीरो-लायबिलिटी’ (शून्य-देयता) नियमों के बावजूद नियमित रूप से मुआवज़ा देने से इनकार कर देते हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए वित्तीय प्रणाली की अपनी कमज़ोरियां ज़िम्मेदार हैं. ग्राहकों की सुरक्षा करने के बजाय, बैंक अक्सर यह बोझ उन्हीं पर डाल देते हैं, जिससे अनगिनत नागरिकों को धोखाधड़ी होने के बहुत बाद तक कानूनी नोटिसों, रिकवरी कॉलों और उदासीन नौकरशाही से जूझना पड़ता है.
इन मामलों में से, 4,132 एफआईआर क्रेडिट या डेबिट कार्ड धोखाधड़ी, एटीएम धोखाधड़ी, सिम स्वैप, क्लोनिंग, एक्टिवेशन और ओटीपी शेयरिंग के लिए दर्ज की गईं, जिसमें पीड़ितों ने 161.5 करोड़ रुपये खो दिए और पुलिस केवल 4.8 करोड़ रुपये ही बरामद कर पाई.
धोखाधड़ी के विभिन्न तरीकों में से एक उदाहरण में, साकीनाका निवासी रोमलजीत कौर मक्कड़, जो एक व्यवसायी महिला हैं, ने अपना क्रेडिट कार्ड क्लोन होने के बाद 2.5 लाख रुपये खो दिए. 3 अप्रैल को, जब वह मुंबई के एक कार्यालय में एक मीटिंग में थीं और उनका कार्ड उनके पास ही था, तभी लखनऊ में एक मर्चेंट मशीन पर धोखाधड़ी वाले लेनदेन किए गए.
इंडिगो का महासंकट
गंगवाल की ‘पान की दुकान’ वाली बात सच साबित, सरकार बेबस, ‘टू बिग टू टेम’ का अहंकार
दिसंबर की शुरुआत में बंगलुरु के केम्पेगौड़ा इंटरनेशनल एयरपोर्ट का नजारा किसी आपदा क्षेत्र जैसा था, जबकि वहां कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आई थी. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और हैदराबाद समेत देश के सभी बड़े हवाई अड्डों पर एक जैसा ही हाल था. भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो की 124 से अधिक उड़ानें एक ही दिन में डिपाचर बोर्ड से गायब हो गईं. एक ही हफ्ते के भीतर 2,000 से ज्यादा उड़ानें रद्द कर दी गईं. हजारों यात्री, जो छुट्टियों या जरूरी काम से जा रहे थे, टर्मिनलों में फंसे रह गए. यह संकट इसलिए और गहरा था क्योंकि इंडिगो कोई संघर्षरत स्टार्टअप नहीं है; यह 60% घरेलू बाजार पर कब्जा रखने वाली, 2.2 लाख करोड़ रुपये की वैल्यूएशन वाली और वित्त वर्ष 2024-25 में 7,250 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाने वाली कंपनी है.
मनीलाइफ की रिपोर्ट बताती है कि इस संकट की जड़ें 2019 में कंपनी के सह-संस्थापक और विमानन दिग्गज राकेश गंगवाल द्वारा दी गई एक चेतावनी में छिपी थीं. गंगवाल, जो यूएस एयरवेज के पूर्व सीईओ रह चुके हैं और इंडिगो की परिचालन सफलता के मुख्य वास्तुकार थे, ने सेबी (SEBI) को लिखे एक पत्र में कंपनी के गवर्नेंस (प्रशासन) के गिरते स्तर पर गंभीर सवाल उठाए थे.
गंगवाल का कहना था कि इंडिगो के दूसरे सह-संस्थापक राहुल भाटिया और उनका आईजीई समूह बिना पर्याप्त चेक और बैलेंस के कंपनी चला रहे हैं. उन्होंने आरोप लगाया था कि कंपनी में संस्थागत अखंडता खत्म हो रही है और बोर्ड के कामकाज का तरीका किसी ‘पान की दुकान’ जैसा हो गया है—यानी बिना किसी औपचारिक प्रक्रिया या जवाबदेही के चलने वाली सड़क किनारे की दुकान. उनका कहना था कि भाटिया के पास बोर्ड में 5 डायरेक्टर नियुक्त करने की शक्ति थी, जबकि गंगवाल के पास केवल एक, जिससे सत्ता का संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया था. गंगवाल ने चेतावनी दी थी कि यह एकतरफा नियंत्रण भविष्य में बड़े जोखिम पैदा करेगा. अंततः, गंगवाल ने अपनी हिस्सेदारी (लगभग 45,000 करोड़ रुपये) बेच दी और फरवरी 2022 में बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. आज का संकट साबित करता है कि उनकी चिंताएं कितनी वाजिब थीं.
यह संकट ‘फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन’ (एफडीटीएल) यानी पायलटों की थकान और आराम से जुड़े नए सुरक्षा नियमों को लागू करने में इंडिगो की विफलता के कारण हुआ. मनीलाइफ का विश्लेषण बताता है कि डीजीसीए ने 18 महीने पहले इन नियमों की घोषणा की थी. एयर इंडिया और अकासा जैसी अन्य एयरलाइनों ने इसके लिए भर्तियां कीं और तैयारी की, लेकिन इंडिगो ने अपने प्रभुत्व के अहंकार में इसे नजरअंदाज किया.
इंडिगो ने पहले इसे ‘तकनीकी खामी’ और ‘कोहरा’ बताकर छुपाने की कोशिश की, लेकिन असलियत पायलटों की कमी थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडिगो ने अपनी क्षमता का गलत आकलन किया और जब व्यवस्था ढह गई, तो उसने यात्रियों को बंधक बनाकर सरकार को झुका दिया. किंगफिशर और जेट एयरवेज के पतन के बाद यह तीसरी बार है जब एविएशन सेक्टर ने सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर किया है. डीजीसीए ने दबाव में आकर सुरक्षा नियमों को स्थगित कर दिया, जिसे पायलट यूनियनों ने ‘आपदा का नुस्खा’ बताया है. यह ‘रेगुलेटरी कैप्चर’ (नियामक पर कब्जा) का स्पष्ट उदाहरण है, जहां सबसे बड़ी एयरलाइन को नियमों में छूट दी गई जबकि अन्य ने उनका पालन किया.
ब्लूमबर्ग में अपने लेख में एंडी मुखर्जी लिखते हैं कि भारत का एविएशन संकट “अनियंत्रित समस्या” बन गया है. मुखर्जी के अनुसार, जब बाज़ार का दो-तिहाई हिस्सा एक ही खिलाड़ी (इंडिगो) के हाथ में हो, तो प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है और विकल्प सीमित हो जाते हैं.
मुखर्जी तर्क देते हैं कि भारत की दिवालियापन प्रक्रिया और भारी-भरकम टैक्स का ढांचा नई एयरलाइनों को पनपने नहीं देता. इसके अलावा, हवाई अड्डों का निजीकरण (अडाणी समूह का वर्चस्व) और महंगी फीस ने स्थिति को और खराब किया है. इंडिगो के एकाधिकार ने ‘शॉक एब्जॉर्बर’ को खत्म कर दिया है. जब किंगफिशर डूबी थी तो बाजार संभल गया था, लेकिन जब इंडिगो लड़खड़ाई, तो पूरा भारतीय एविएशन ठप हो गया.
मुखर्जी और मनीलाइफ दोनों का निष्कर्ष है कि सरकार ने सुरक्षा नियमों (पायलट थकान नियम) को वापस लेकर एक खतरनाक मिसाल कायम की है. यह घटना दिखाती है कि अगर आप काफी बड़े हो जाएं, तो कानून आपके हिसाब से मुड़ सकता है. राकेश गंगवाल ने सही कहा था—जब चेक और बैलेंस हटा दिए जाते हैं और गवर्नेंस कमजोर होती है, तो उसका खामियाजा अंततः शेयरधारकों और आम जनता को ही भुगतना पड़ता है.
इंडिगो के एयरलाइन ऑपरेशन में 10 प्रतिशत कटौती, रोजाना 230 फ्लाइट नहीं उड़ेंगी
देश भर के हवाई अड्डों पर उड़ान व्यवधानों के बने रहने के कारण, नागर विमानन मंत्रालय ने बुधवार को इंडिगो को अपनी अनुसूचियों को स्थिर करने और रद्दीकरण को कम करने के लिए अपने दैनिक परिचालन में 10% की कटौती करने का निर्देश दिया है. नागर विमानन मंत्री राम मोहन नायडू ने कहा कि पिछले सप्ताह यात्रियों को हुई असुविधा के पैमाने को देखते हुए यह कदम आवश्यक था.
“एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस” के अनुसार, इंडिगो औसतन प्रतिदिन 2,300 उड़ानें संचालित करती है, जिसका अर्थ है कि लगभग 230 सेवाएं अस्थायी रूप से उसके नेटवर्क से हटा दी जाएंगी.
नायडू ने कहा कि चल रहे संकट की व्याख्या के लिए इंडिगो के सीईओ पीटर एल्बर्स को मंत्रालय में तलब किया गया था. मंत्री ने कहा, “उन्होंने पुष्टि की कि 6 दिसंबर तक प्रभावित उड़ानों के लिए 100% धनवापसी कर दी गई है. शेष धनवापसी और सामान सौंपने में तेज़ी लाने के लिए एक सख्त निर्देश जारी किया गया था.”
उन्होंने कहा कि कई यात्रियों को “इंडिगो के चालक दल के रोस्टर, उड़ान अनुसूची और अपर्याप्त संचार के आंतरिक कुप्रबंधन” के कारण गंभीर असुविधा का सामना करना पड़ा था. स्थिरीकरण उपायों की समीक्षा करने और “सामान्य स्थिति की जल्द से जल्द बहाली” सुनिश्चित करने के लिए एयरलाइन के शीर्ष प्रबंधन के साथ बैठकों का एक दूसरा दौर भी आयोजित किया गया था.
इससे पहले मंगलवार को दिन में, नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने इंडिगो की स्वीकृत शीतकालीन अनुसूची पर एक अलग से 5% कटौती लगाई थी, विशेष रूप से उच्च-आवृत्ति वाले क्षेत्रों में. साथ में, दोनों निर्देश प्रभावी रूप से उन उड़ानों की संख्या को दोगुना करते हैं, जिन्हें इंडिगो को अपने दैनिक परिचालन से हटाना होगा.
डीजीसीए ने इंडिगो को एकल-उड़ान क्षेत्रों के संचालन से भी रोक दिया है और एयरलाइन को बुधवार शाम 5 बजे तक एक संशोधित अनुसूची प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है. डीजीसीए ने बताया कि अक्टूबर में शुरू हुई इंडिगो की शीतकालीन 2025-26 अनुसूची के लिए 15,014 साप्ताहिक प्रस्थानों को मंज़ूरी दिए जाने के बावजूद, एयरलाइन स्वीकृत उड़ानों का संचालन करने में असमर्थ रही है. जबकि इंडिगो को शीतकालीन अनुसूची में प्रति माह 403 विमानों का संचालन करने की अनुमति दी गई थी, यह अक्टूबर में केवल 339 और नवंबर में 344 विमानों का ही संचालन कर पाई.
नियामक ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि नवंबर के लिए 64,346 उड़ानों को मंज़ूरी दी गई थी, लेकिन इंडिगो ने केवल 59,448 उड़ानों का संचालन किया, जिसमें 951 उड़ानें रद्द हुईं. डीजीसीए के अनुसार, एयरलाइन इस विस्तारित अनुसूची को कुशलतापूर्वक संचालित करने की क्षमता प्रदर्शित करने में विफल रही है.
मध्य प्रदेश: मंत्री के भाई का नाम ड्रग तस्करी में आया, 46 किलो गांजा बरामद होने से हड़कंप
मध्य प्रदेश की मोहन यादव सरकार के लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई है. राज्य में मादक पदार्थों की तस्करी के एक मामले में सीधे तौर पर एक मंत्री के भाई की संलिप्तता सामने आई है. पुलिस ने सोमवार को राज्य मंत्री प्रतिमा बागरी के भाई अनिल बागरी को हिरासत में लिया है. इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक यह कार्रवाई पुलिस द्वारा एक छापे में भारी मात्रा में गांजा बरामद करने के बाद की गई.
सतना जिले के रामपुर बाघेलान इलाके में पुलिस ने एक टिन शेड पर छापा मारा था, जहां चावल की बोरियों में छिपाकर रखा गया 46 किलोग्राम गांजा बरामद हुआ. इसकी कीमत करीब 9.23 लाख रुपये आंकी गई है. पुलिस के मुताबिक, मुख्य आरोपी पंकज सिंह बघेल ने पूछताछ में खुलासा किया कि उसे यह ड्रग्स मंत्री के भाई अनिल बागरी और एक अन्य व्यक्ति शैलेंद्र सिंह ने सप्लाई किए थे.
इस घटना ने राज्य में सियासी तूफान खड़ा कर दिया है. कांग्रेस ने इसे लेकर बीजेपी सरकार पर तीखा हमला बोला है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने “एक्स” पर लिखा, “क्या जवाबदेही इतनी जटिल है कि मंत्री के घर से गांजा तस्करी के तार जुड़ रहे हैं और गृह मंत्री (जो खुद सीएम मोहन यादव हैं) चुप हैं? क्या ‘डबल इंजन’ सरकार अब ड्रग तस्करी का भी मॉडल बन गई है?”
विवाद बढ़ता देख मंत्री प्रतिमा बागरी ने अपनी सफाई दी है. उन्होंने कहा, “पुलिस अपना काम कर रही है. अपराधी चाहे किसी का भी रिश्तेदार हो, उसे बख्शा नहीं जाएगा. पुलिस प्रशासन पूरी मुस्तैदी से काम कर रहा है और कानून के मुताबिक सख्त कार्रवाई की जाएगी.”
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह मामला मंत्री प्रतिमा बागरी के लिए भारी पड़ सकता है. वह सतना जिले की रैगांव (सुरक्षित) सीट से विधायक हैं और मोहन यादव कैबिनेट की सबसे युवा मंत्रियों में से एक हैं. यह स्कैंडल ऐसे समय में सामने आया है जब राज्य में कैबिनेट विस्तार और मंत्रियों के परफॉरमेंस रिव्यू की चर्चा चल रही है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने स्वीकार किया कि आने वाले दिन मंत्री के लिए परीक्षा की घड़ी होंगे.
द रीथ लेक्चर्स 2025 | रटगर ब्रैगमैन | नैतिक क्रांति (मोरल रिवॉल्यूशन) | तीसरा भाषण
शराफ़त की साज़िश
रटगर ब्रैगमैन ने बीबीसी रीथ लेक्चर्स का तीसरा हिस्सा स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा यूनिवर्सिटी में पढ़ा. यह राजधानी शहर ब्रैगमेन के लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि किसी ज़माने में यह ‘स्कॉटिश एनलाइटनमेंट’ (स्कॉटिश ज्ञानोदय) का पालना हुआ करता था. एडिनबरा यूनिवर्सिटी में 18वीं और 19वीं सदी के दौरान, सदाचार या ‘वर्च्यू’ के विचारों ने उस दौर के सबसे महान विचारकों को घेरे रखा था. अब, 21वीं सदी में, वही सदाचार का विचार रटगर ब्रैगमैन की ‘नैतिक क्रांति’ सीरीज़ के केंद्र में है. वह पूछ रहे हैं कि हम अच्छाई को फिर से फैशनेबल कैसे बना सकते हैं? अब यह सवाल सुनने में तो बहुत सरल लगता है, लेकिन क्या इसका जवाब भी उतना ही सीधा है? अपनी बात बेबाकी से रखने के लिए मशहूर, रटगर ब्रैगमैन हमारे सोचने और जीने के तरीके में पूरी तरह से बदलाव की वकालत कर रहे हैं. उनका मानना है कि आम लोगों के छोटे-छोटे समूह अगर साथ मिलकर काम करें, तो वे पूरी दुनिया को बदल सकते हैं. इस तीसरे लेक्चर का शीर्षक है, ‘अ कॉन्सपिरेसी ऑफ डीसेंसी’ यानी ‘शराफ़त की साज़िश’. इस सीरीज़ के पहले और दूसरे हिस्से के हिंदी अनुवाद को आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं. एक और हिस्सा आना बाकी है.
रटगर ब्रैगमैन का तीसरा भाषण : सरकार सिर्फ चेक नहीं काटती. वह सबसे बड़े, सबसे साहसी जोखिम उठा सकती है.
हेलो, एडिनबरा. आज रात इतनी बड़ी तादाद में यहाँ आने के लिए आप सबका बहुत-बहुत शुक्रिया. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? हाँ? ठीक है, तो चलिए शुरू करते हैं.
1 अक्टूबर 1943 की रात, नाज़ियों ने डेनमार्क नाम के छोटे से देश में रहने वाले हर एक यहूदी को देश से बाहर भेजने के लिए एक अचानक छापे की योजना बनाई. उन्होंने यहूदी न्यू ईयर की पूर्व संध्या को चुना; उन्हें पूरा भरोसा था कि उनके शिकार जश्न मनाने के लिए अपने घरों पर ही मिलेंगे. लेकिन जब सिपाही आए, तो घर खाली पड़े थे. किसी ने उन्हें खबर कर दी थी. किसी ने यहूदी समुदाय को आगाह कर दिया था. गुपचुप तरीके से, हज़ारों आम मछुआरों, दुकानदारों, डॉक्टरों और पादरियों ने भागने के रास्ते तैयार किए और हज़ारों लोगों को सुरक्षित समंदर पार पहुंचाया. और अंत में, लगभग 99% डेनिश यहूदी उस युद्ध में बच गए. इस असाधारण घटना पर एक किताब है जिसका नाम है ‘अ कॉन्सपिरेसी ऑफ डीसेंसी’ (शराफ़त की साज़िश).
अब यह मुहावरा हमेशा मेरे ज़हन में अटक गया है. जब हम “कॉन्सपिरेसी” या साज़िश शब्द सुनते हैं, तो हम आमतौर पर उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो मानते हैं कि धरती चपटी है (फ्लैट अर्थर्स), या जो वैक्सीन के खिलाफ हैं, या वो लोग जो बेसमेंट में टिनफॉयल की टोपियां पहनकर बैठे हैं. हम, जो खुद को समझदार मानते हैं, अपनी आंखें घुमाते हैं और कहते हैं कि साज़िशें जैसी कोई चीज़ नहीं होती. लेकिन एक इतिहासकार के तौर पर, मुझे अच्छी तरह पता है कि साज़िशें होती हैं. असल में, मैं तो इनसे थोड़ा ऑब्सेस्ड हूँ. क्यूएनॉन (QAnon) या 9/11 के सच को लेकर जो पागलपन भरी कल्पनाएं हैं उनकी बात नहीं कर रहा, बल्कि बड़े विचारों वाले छोटे समूहों की असली साज़िशों की बात कर रहा हूँ.
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. एक दर्जन ईसा मसीह के शिष्य (अपोसल्स) जिन्होंने पूरे साम्राज्य में ईसाई धर्म फैलाया. जैकोबिन्स का एक डिबेटिंग क्लब, जिसने फ्रांसीसी राजशाही को उखाड़ फेंका. एक अनजान सा थिंक टैंक जिसने ‘नियोलिबरल कैपिटलिज़्म’ (नवउदारवादी पूंजीवाद) के उदय की रचना की.
जो मुझे उस पड़ाव पर लाता है जहाँ हम इन लेक्चर्स में हैं. मैंने वादा किया था कि मैं इन्हें एक क्लासिक तीन-भाग वाले उपदेश की तरह रखूंगा. पहला एक्ट है ‘दुख’. दूसरा एक्ट है ‘मुक्ति’. और तीसरा एक्ट है ‘आभार’ या शुकराना. लंदन को पहले ही ‘दुख’ मिल चुका है. लिवरपूल को ‘मुक्ति’ मिल गई. और अब आप, खुशकिस्मत हैं एडिनबर्ग, आपको ‘आभार’ मिल रहा है. अब, चर्च जाने के मेरे अनुभव में, उपदेश का तीसरा हिस्सा आमतौर पर सबसे ज्यादा नींद दिलाने वाला होता है. लेकिन देखते हैं कि क्या हम उस परंपरा को तोड़ सकते हैं. क्योंकि मेरी नज़र में, आभार का मतलब निष्क्रिय होना नहीं है. इसका मतलब हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं है. कृतज्ञता या आभार का मतलब है ज़िम्मेदारी. गुलामी खत्म करने वालों (एबोलिशनिस्ट्स) के प्रति आभारी होने का मतलब है एक और अधिक आज़ाद दुनिया का निर्माण जारी रखना. महिलाओं के वोट के अधिकार के लिए लड़ने वाली ‘सफ्राजेट्स’ के प्रति आभारी होने का मतलब है लोकतंत्र की रक्षा करना और उसका विस्तार करना. और उन डेनिश नागरिकों के प्रति आभारी होने का मतलब है कि जब आपके दरवाज़े पर दस्तक हो, तो आप अजनबियों के लिए खड़े हों.
उनकी शराफ़त की साज़िशें सिर्फ तारीफ करने वाली कहानियां नहीं हैं. वे अधूरे प्रोजेक्ट्स हैं जो हमें विरासत में मिले हैं. थॉमस क्लार्कसन, वो एबोलिशनिस्ट जिनके बारे में मैंने पिछले हफ्ते लिवरपूल में बात की थी, उन्होंने एक बार ‘क्वेकर्स’ का तीन-खंडों वाला इतिहास लिखा था—वो कट्टरपंथी प्रोटेस्टेंट संप्रदाय जिसने गुलामी के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई थी. उनकी एक खास प्रथा थी मृतकों को बिना निशान वाली कब्रों में दफनाना. उनका मानना था कि आप लोगों को महंगे पत्थरों से नहीं बल्कि कार्यों से सम्मानित करते हैं. क्लार्कसन के शब्दों में, “यदि आप एक अच्छे आदमी का सम्मान करना चाहते हैं, तो उसके सभी कार्यों को अपनी यादों में ज़िंदा रखें ताकि वे आपको लगातार उनके जैसा बनने के लिए जगाते रहें. इस तरह, आप दिखाएंगे कि आप वास्तव में उनकी स्मृति का सम्मान करते हैं.” अंत में, आभार का यही मतलब है. सिर्फ सराहना नहीं, बल्कि अनुकरण करना. अपनी खुद की ‘शराफ़त की साज़िश’ में शामिल होना.
आज मैं जिस सवाल का जवाब देना चाहता हूँ वो सरल है. ऐसी साज़िश कैसी दिखेगी? कौन सा विज़न, कौन सा प्रोग्राम हमारे समय में उदार लोकतंत्र (लिबरल डेमोक्रेसी) को फिर से नया कर सकता है? और क्या हम उन समूहों से कुछ सीख सकते हैं जिन्होंने अतीत में इसे कर दिखाया था?
चलिए वहीं से शुरू करते हैं और विशेष रूप से एक बागी समूह पर विचार करते हैं. द फैबियन सोसाइटी. वे 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश कुलीनों (elites) का एक समूह थे जिन्होंने राजनीति के इतिहास में सबसे साहसी साज़िशों में से एक को अंजाम दिया. और यहाँ सबसे खास बात यह है—यह काम कर गया. 1887 में, उन्होंने अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसका भव्य शीर्षक था ‘द ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ (सच्चा क्रांतिकारी कार्यक्रम). उन्होंने इसे ‘ट्रू रेडिकल’ कहा क्योंकि वे दूसरे रेडिकल्स से भी ज़्यादा रेडिकल होना चाहते थे. और वाकई, वह घोषणापत्र एक ‘यूटोपियन’ (आदर्शवादी) विश-लिस्ट जैसा लगता था. आठ घंटे का कार्यदिवस, महिलाओं के लिए वोट, संसद सदस्यों के लिए वेतन, प्रोग्रेसिव टैक्सेशन, सार्वजनिक शिक्षा, मुफ्त स्कूली खाना, और यहाँ तक कि रेलवे का राष्ट्रीयकरण.
उस समय, ऐसे विचारों को बिल्कुल ही अजीब और किनारे का माना जाता था. ऐसी योजनाएं जो केवल सनकी लोग ही कागज़ पर उतारेंगे. और फिर भी, एक-एक करके, हर एक मांग हकीकत बन गई. आज, ‘द ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ एक यूटोपियन विश-लिस्ट जैसा नहीं बल्कि आधुनिक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) के एक साधारण विवरण जैसा लगता है. यह कैसे हुआ? नामुमकिन चीज़ अपरिहार्य (inevitable) कैसे बन गई?
खैर, इस साज़िश की शुरुआत भी बिल्कुल साज़िश जैसी ही थी. इसकी शुरुआत किसी संसद या विश्वविद्यालय में नहीं बल्कि एक भूतिया घर में हुई थी. 1880 के दशक में, लंदन के कुलीनों के बीच अध्यात्मवाद (spiritualism) का बड़ा क्रेज़ था. भूतों से बात करना (seances), मेज़ थपथपाना, भूत का शिकार करना, यह उस दौर का छद्म-विज्ञान (pseudoscience) था. और दो नौजवान, एडवर्ड पीज़ और फ्रैंक पोडमोर, इसमें बहुत रुचि रखते थे. अब, एक रात, उन्हें नॉटिंग हिल में एक पुराने घर की चाबी मिल गई, उन्होंने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया और आधी रात को वापस आए, इस उम्मीद में कि उन्हें कुछ असामान्य देखने को मिलेगा. उस रात भूतों ने तो उन्हें बहुत निराश किया. लेकिन जब वे अंधेरे में जंजीरों के खड़कने का इंतज़ार कर रहे थे, उनकी बातचीत कुछ अधिक क्रांतिकारी चीज़ की ओर मुड़ गई—सामाजिक सुधार की संभावना. तो इस आधे-गंभीर भूत के शिकार से कुछ ज़्यादा गंभीर चीज़ निकली. पोडमोर, पीज़ और कुछ अन्य लोगों ने ‘द फैलोशिप ऑफ द न्यू लाइफ’ नाम की एक सोसाइटी की स्थापना की.
उनका मानना था कि सामाजिक बदलाव की शुरुआत व्यक्तिगत बदलाव से होनी चाहिए. क्योंकि अगर आप खुद को बदल सकें, तो दुनिया को बदलना बाएं हाथ का खेल होगा. सदस्यों ने उच्च गुणों के साथ जीने का संकल्प लिया. उन्होंने शांतिवाद, शाकाहार, सादा जीवन और बौद्धिक ईमानदारी की वकालत की. उनका उद्देश्य था उच्चतम नैतिक संभावनाओं के अनुसार समाज का पुनर्निर्माण. स्पष्टता और संयम का जीवन जीकर, इन ‘न्यू लाइफर्स’ को उम्मीद थी कि वे एक मिसाल कायम करेंगे जिसका दूसरे अनुसरण करेंगे, जो समय के साथ, खुद समाज को बदल देगा.
फिर भी, जैसे-जैसे उनकी बैठकें जारी रहीं, एक विभाजन दिखाई देने लगा. कुछ लोगों के लिए, यह फैलोशिप मुख्य रूप से एक नैतिक प्रोजेक्ट था. दूसरों के लिए, यह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट भी था. और जैसे-जैसे महीने बीतते गए, मज़दूरी और टैक्सेशन पर होने वाली बहसों ने धीरे-धीरे शांतिवाद और सादा जीवन की चर्चाओं को बाहर करना शुरू कर दिया. जब तक कि 4 जनवरी 1884 को, फैलोशिप के राजनीतिक विचारधारा वाले सदस्य अलग हो गए, और उन्होंने अपनी खुद की सोसाइटी बनाई. और वह भूत शिकारी फ्रैंक पोडमोर ही थे जिन्होंने अपने नए क्लब के लिए नाम प्रस्तावित किया—’द फैबियन सोसाइटी’.
उन्होंने वह नाम काफी साज़िशी कारणों से चुना. रोमन जनरल, क्विंटस फैबियस मैक्सिमस वेरूकोसस ने हैनिबल की सेना को सीधे युद्ध के ज़रिए नहीं बल्कि धैर्य और दृढ़ता के ज़रिए थकाया था. उनका उपनाम ‘द डिलेयर’ (देरी करने वाला) था. और यही वह भावना थी जिसे पोडमोर अपनाना चाहते थे. उनका मानना था कि समाजवाद पूंजीवाद के दरवाज़ों को तोड़कर ब्रिटेन को नहीं जीतेगा, बल्कि चुपचाप पिछले दरवाज़े से अंदर आएगा. कम्युनिस्टों के विपरीत, फैबियन यूटोपिया लाने के लिए एक हिंसक क्रांति में विश्वास नहीं करते थे. उनका चुना हुआ प्रतीक कछुआ था, जो धीमी, स्थिर प्रगति की छवि है. और उनके ‘कोट ऑफ आर्म्स’ में भेड़ की खाल में एक भेड़िया दिखाया गया था. ज़ाहिर है, पब्लिसिटी कारणों से, उस विशेष प्रतीक को बाद में छोड़ दिया गया.
शुरुआत से ही, धैर्य और विध्वंस के मिश्रण ने फैबियन्स को एक रहस्यमयी हवा दी. और बहुत जल्द ही ब्रिटेन के सबसे होनहार युवा दिमाग इसका हिस्सा बनना चाहते थे. फैबियन सोसाइटी ब्रिटेन के सबसे प्रतिभाशाली और, बेहतर शब्द न मिलने पर कहूँ तो, सबसे ‘कूल’ लोगों के लिए एक चुंबक बन गई. इसके सदस्यों में एच.जी. वेल्स, एमिलाइन पंकहर्स्ट, और बर्टरेंड रसेल जैसी हस्तियां शामिल थीं. इसमें शामिल होने वाले ज़्यादातर लोग ताज़ा यूनिवर्सिटी ग्रैजुएट्स थे जिन्हें बहस करना पसंद था. बातचीत उनका माध्यम थी, और बातचीत के ज़रिए ही उनके विचारों ने आकार लिया. जब कोई लेक्चर विशेष रूप से अच्छा होता, तो उसे एक पैम्फलेट या लेक्चर टूर में बदल दिया जाता, जो बदले में बहुत सारा मीडिया ध्यान खींच सकता था. इनमें से सबसे प्रभावशाली लेख तथाकथित सात फैबियन निबंधकारों (essayists) से आए, जिनमें नाटककार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भी शामिल थे, जो उस ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ के लेखक भी थे.
अपनी स्थापना के सिर्फ सात साल बाद, सोसाइटी ने लगभग 100,000 पैम्फलेट बांट दिए थे, जो उस समय के लिए एक आश्चर्यजनक संख्या थी. फैबियन्स के इतने फैशनेबल होने का एक कारण यह था कि वे मार्केटिंग के उस्ताद थे. उन्होंने लंबे समय से मरे हुए जर्मन दार्शनिकों पर लंबे-चौड़े लेख नहीं लिखे, बल्कि उन्होंने सरल भाषा में लिखा, जो सड़क पर किसी की भी समझ में आ सके. साथ ही, उन्होंने कुलीनों के सौंदर्यबोध का भी ख्याल रखा. उस दौर के ज़्यादातर क्रांतिकारी पैम्फलेट लापरवाही से डिज़ाइन किए गए थे और सस्ते, भद्दे कागज़ पर छापे जाते थे, जिससे उन्हें एक बदनाम छवि मिलती थी. गंदे, शौकिया, जिन्हें गंभीरता से न लिया जाए. इसके विपरीत, फैबियन्स ऐसी सामग्री बनाने में गर्व महसूस करते थे जो पॉलिश्ड और सुंदर दिखती थी. खून जैसे लाल कागज़ पर छपे चमकदार निमंत्रण कार्ड, ऐसी कॉन्फ्रेंस जो बिना किसी गलती के चलती थीं. जैसा कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने याद किया, “इन बारीकियों पर ध्यान देने के लिए हम पर अक्सर फब्तियां कसी जाती थीं और हमें ‘आर्मचेयर सोशलिस्ट’ कहा जाता था, लेकिन मुझे लगता है कि यह हमारी खूबियों में से एक थी.”
इस तरह, फैबियन सोसाइटी राजनीतिक प्रतिभाओं की नर्सरी बन गई. युवा, महत्वाकांक्षी आदर्शवादियों के लिए, फैबियन्स में शामिल होना सबसे ‘कूल’ कदम था जो आप उठा सकते थे. यह वो जगह थी जहाँ सबसे तीखी बहसें, सबसे ग्लैमरस सभाएं, और सबसे अच्छी पार्टियां होती थीं. और धीरे-धीरे, फैबियन सदस्यों ने स्कूल बोर्डों और स्थानीय परिषदों में सीटें लेनी शुरू कर दीं. और यह संस्थाओं के भीतर एक लंबे सफर की शुरुआत थी, क्योंकि फैबियन्स जानते थे कि आज के छोटे नौकरशाह कल के बड़े पावरब्रोकर बन सकते हैं. उन्होंने एक प्रभावशाली विरासत छोड़ी. फैबियन्स ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्थापना की और लेबर पार्टी के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई. अगली आधी सदी तक, फैबियनवाद ने माहौल तय किया, और जो कभी अकल्पनीय था वह हकीकत बन गया. सार्वजनिक शिक्षा, यूनिवर्सल हेल्थकेयर, आठ घंटे का कार्यदिवस, महिलाओं के लिए वोट, और प्रोग्रेसिव टैक्सेशन, जिसमें 1950 और 60 के दशक में अमीरों के लिए मार्जिनल रेट्स 90% तक चढ़ गए थे.
मृतकों को बुलाने में असफल होने के बाद, नॉटिंग हिल के प्रेत ढूंढने वालों (घोस्ट बस्टर्स) ने अंततः कुछ और अधिक शक्तिशाली चीज़ को बुलाया: आधुनिक सामाजिक लोकतंत्र (सोशल डेमोक्रेसी) की आत्मा.
आज, उस फैबियन विरासत का बहुत कुछ घेराबंदी में है. जैसा कि हम सभी जानते हैं, अमीरों के लिए टैक्स बहुत कम हो गए हैं, सामाजिक सेवाएं तनाव में हैं, और लोकतंत्र डगमगा रहा है. विडंबना यह है कि फैबियन प्रोजेक्ट का पतन भी एक साज़िश का ही परिणाम था. 10 अप्रैल, 1947 को, बुद्धिजीवियों का एक छोटा समूह स्विस गांव मोंट पेलेरिन (Mont Pèlerin) में इकट्ठा हुआ. वे खुद को ‘नियोलिबरल्स’ (नवउदारवादी) कह रहे थे. उनमें फ्रेडरिक हायेक जैसे दार्शनिक और मिल्टन फ्रीडमैन जैसे अर्थशास्त्री शामिल थे. उन्हें डर था कि राज्य की बढ़ती ताकत एक नई तरह की तानाशाही लाएगी, और इसलिए उन्होंने विद्रोह किया.
फैबियन्स की तरह, नियोलिबरल्स भी जानते थे कि प्रभावी प्रतिरोध में समय लगेगा. हायेक ने लिखा कि राय में बदलाव और नीति में उसके अनुरूप बदलाव के बीच का अंतराल आमतौर पर एक पीढ़ी या उससे भी अधिक होता है. और फ्रीडमैन इससे सहमत थे. उन्होंने कहा कि जो लोग अब देश चला रहे हैं, वे लगभग दो दशक पहले के उस बौद्धिक माहौल को दर्शाते हैं जब वे कॉलेज में थे. नियोलिबरल्स स्वहित (self-interest) की प्रधानता में विश्वास करते थे. समस्या चाहे जो भी हो, उनका जवाब एक ही था. “सरकार को पीछे हटाओ. व्यापार को खुला छोड़ दो.” सरकार को हेल्थकेयर से लेकर शिक्षा तक, हर क्षेत्र को बाज़ार (marketplace) में बदल देना चाहिए. और नियोलिबरल्स जानते थे कि वे मुख्यधारा से बहुत बाहर थे, लेकिन इसने उन्हें और प्रेरित किया. 1969 तक, टाइम मैगज़ीन ने फ्रीडमैन को “पेरिस के एक डिज़ाइनर” के रूप में वर्णित किया जिसका ‘हौते कूतू’ (महंगा फैशन) कुछ चुनिंदा लोग ही खरीदते हैं, लेकिन जो फिर भी लगभग सभी लोकप्रिय फैशन को प्रभावित करता है.
संकट फ्रीडमैन की सोच के केंद्र में थे. 1982 की अपनी उत्कृष्ट कृति ‘कैपिटलिज़्म एंड फ्रीडम’ की प्रस्तावना में, उन्होंने ऐसे शब्द लिखे जो एक नियोलिबरल मंत्र बन गए. मुझे लगता है कि उन्हें पूरा उद्धृत करना उचित होगा. फ्रीडमैन ने लिखा, “केवल एक संकट—वास्तविक या महसूस किया गया—असली बदलाव पैदा करता है. जब वह संकट आता है, तो जो कार्रवाई की जाती है वह उन विचारों पर निर्भर करती है जो आसपास मौजूद (lying around) होते हैं. मेरा मानना है कि यही हमारा मूल कार्य है: मौजूदा नीतियों के विकल्प विकसित करना, उन्हें तब तक जीवित और उपलब्ध रखना जब तक कि राजनीतिक रूप से असंभव, राजनीतिक रूप से अपरिहार्य न बन जाए.”
हैरानी की बात है कि यह नियोलिबरल रणनीति एक सदी पहले के फैबियन दृष्टिकोण की गूंज थी. 1884 के सबसे पहले फैबियन पैम्फलेट के शीर्षक पृष्ठ पर, हम पढ़ते हैं, “सही पल के लिए आपको इंतज़ार करना होगा,” जैसा कि फैबियस ने हैनिबल के खिलाफ युद्ध करते समय बहुत धैर्य से किया था. “लेकिन जब समय आता है, तो आपको ज़ोरदार प्रहार करना चाहिए.” और ठीक यही हुआ. जब 1970 के दशक के संकट आए—स्टैगफ्लेशन, तेल का झटका, भारी हड़तालें—तो नियोलिबरल्स ने ज़ोरदार प्रहार किया. उन्होंने थिंक टैंक, पत्रिकाओं और फाउंडेशनों का एक नेटवर्क बनाने में दशकों बिताए थे, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनके विचार ही वे विचार होंगे जो ‘आसपास मौजूद’ होंगे.
बाद के वर्षों में, एक नई ‘कॉमन सेंस’ (आम समझ) का जन्म हुआ. सरकार समस्या थी. बाज़ार समाधान थे. प्रगति का मतलब था डीरेगुलेट करना, निजीकरण करना, कटौती करना, ग्लोबलाइज़ करना. कदम-दर-कदम, सरकारी कंपनियों को बेचा गया, यूनियनों को कमज़ोर किया गया, और सामाजिक लाभों में कटौती की गई. रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर जैसे रूढ़िवादी नेताओं ने हायेक और फ्रीडमैन के कभी कट्टरपंथी माने जाने वाले सिद्धांतों को अपनाया. जल्द ही, उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी इसका पालन किया. बिल क्लिंटन ने घोषित किया कि “बड़ी सरकार का दौर खत्म हो गया है,” जबकि टोनी ब्लेयर ने अपनी ‘न्यू लेबर’ के साथ बाज़ार सुधारों को गले लगाया जो कभी दक्षिणपंथियों से जुड़े थे. और कुछ समय के लिए, नियोलिबरलिज़्म काम करता हुआ लग रहा था. महंगाई पर काबू पाया गया, विकास लौटा, और शेयर बाज़ार उछले.
लेकिन जैसे-जैसे दशक बीते, कीमत साफ होती गई. खोखले होते समुदाय, आसमान छूती असमानता, वित्तीय संकट और पारिस्थितिक विनाश. आज, वह विचारधारा जिसने 1980 के दशक से महामारी तक राज किया, अब प्रेरित नहीं करती. यह बौद्धिक रूप से थकी हुई, नैतिक रूप से दिवालिया और राजनीतिक रूप से ज़हरीली है. फिर भी इसका भूत अभी भी मंडरा रहा है, हमारी संस्थाओं को सता रहा है, हमारी कल्पनाओं को सीमित कर रहा है.
जब मैंने, 25 साल की उम्र में, अपनी पहली किताब ‘यूटोपिया फॉर रियलिस्ट्स’ लिखी, तो मैं इस भूत को भगाना चाहता था. मैं बस नियोलिबरल राजनीति से ऊब गया था. बहसें बहुत संकीर्ण और तकनीकी (technocratic) लगती थीं. वो बड़ा विज़न कहाँ था? वो साहसी विचार कहाँ थे जिन्होंने कभी समाजों को बदल दिया था? वह किताब एक राजनीतिक दिशा-सूचक (compass) के रूप में यूटोपिया को वापस पाने की मेरी कोशिश थी. यह दिखाने के लिए कि जो कभी कट्टरपंथी लगता था, जैसे महिलाओं का मताधिकार या वीकेंड की छुट्टियां, वह सामान्य ज्ञान बन गया था. और हम फिर से वही कर सकते हैं. विश्वास और प्रचुरता (abundance) का समाज बनाना.
उसके बाद के दशकों में, मुझे जो चाहिए था उसका लगभग आधा मिल गया है. राजनीति अब निश्चित रूप से उबाऊ नहीं है. पुरानी सहमति टूट चुकी है. दुनिया भर में, लोग बदलाव के लिए, बड़ी कहानियों के लिए, दिशा की भावना के लिए भूखे हैं. लेकिन उम्मीद के पुनर्जागरण के बजाय, हमने डर की वापसी देखी है. एकजुटता के बजाय, हमने नफरत का उदय देखा है. नियोलिबरलिज़्म मर चुका है, और इसकी जगह उन भड़काऊ नेताओं (demagogues) ने ले ली है जो महानता का वादा करते हैं जबकि नफरत और विभाजन बेचते हैं.
और इसलिए जो सवाल मैंने कभी आशावाद के साथ उठाया था, वह अब अधिक तात्कालिकता के साथ लौटता है. क्या हम एक बार फिर यूटोपिया को पुनः प्राप्त कर सकते हैं, एक भोले फंतासी के रूप में नहीं, बल्कि नवीनीकरण के लिए एक मार्गदर्शक सितारे के रूप में? क्योंकि संकट आ चुका है, इतिहास का लोहा गर्म है, और अब सब कुछ उन विचारों पर निर्भर करता है जो ‘आसपास मौजूद’ हैं.
फैबियनवाद और नियोलिबरलिज़्म में सुसंगति, दृढ़ विश्वास और एक रणनीति थी. उनके पास एक कहानी थी कि क्या गलत हुआ और आगे क्या करना है इसका एक विज़न था. उनके पास ऐसी संस्थाएं थीं जो लंबी पारी (long game) खेलने को तैयार थीं, और उन्होंने एक ‘काउंटर-एलीट’ बनाया जिसने दुनिया को नया रूप दिया. आज प्रगतिशील (progressive) पक्ष में इसके बराबर क्या है? नियोलिबरलिज़्म के बाद क्या आता है? ‘नियो फैबियन्स’ कहाँ हैं? आज का ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ कैसा दिखेगा? और अगली ‘शराफ़त की साज़िश’ कौन आयोजित कर रहा है?
चलिए अच्छी खबर से शुरू करते हैं. मुझे लगता है कि एक नए सामाजिक अनुबंध (social contract) की नींव पहले ही रखी जा रही है. हम आर्थिक और सामाजिक सोच में एक शांत पुनर्जागरण के बीच में हैं. पहली बात, हमने वह फिर से सीख लिया है जो फैबियन्स पहले से जानते थे. सरकार सिर्फ चेक नहीं काटती. वह सबसे बड़े, सबसे साहसी जोखिम उठा सकती है. सार्वजनिक निवेश के बिना, हमारे पास इंटरनेट, जीपीएस, या हमारे फोन पर टचस्क्रीन भी नहीं होता. यही बात उन mRNA वैक्सीन के लिए भी लागू होती है जिन्होंने कोविड के दौरान लाखों लोगों की जान बचाई. बार-बार, यह टैक्सपेयर्स रहे हैं, अरबपति नहीं, जिन्होंने बड़ी सफलता वाले दांव लगाए.
अब एक ऐसे राज्य की कल्पना करें जो इस नियम को पूरी तरह से अपनाता है, जहाँ सबसे प्रतिभाशाली दिमाग मैकिन्ज़ी (McKinsey) में पावरपॉइंट्स को चमकाने में अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करते, बल्कि हाई-स्पीड रेल बनाते हैं या बीमारियों के पूरे वर्गों का इलाज करते हैं. एआई (AI) और टेक्नोलॉजी से होने वाले भारी मुनाफे की कल्पना करें, जिसकी जड़ें दशकों के सरकार द्वारा वित्तपोषित शोध में हैं, जो एक राष्ट्रीय धन कोष (national wealth fund) में जा रहा है जो हर नागरिक को मासिक लाभांश (dividend) देता है.
मैं यहाँ एक सुस्त, लाल फीताशाही वाली सरकार की बात नहीं कर रहा हूँ. इसके विपरीत, डीरेगुलेशन (विनिमय मुक्ति) अभी भी मायने रखता है अगर हम प्रचुरता को वास्तविक बनाना चाहते हैं. शेयरधारकों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए नियमों में कटौती करने के पुराने नियोलिबरल अर्थ में नहीं, बल्कि उन बाधाओं (bottlenecks) को दूर करने के नए अर्थ में जो हमें उन चीज़ों को बनाने से रोकती हैं जिनकी लोगों को ज़रूरत है. हमारी बहुत सी समस्याएं हमारे खुद के बनाए नियमों से पैदा होती हैं. ज़ोनिंग कोड जो नए आवासों पर प्रतिबंध लगाते हैं, परमिट जो विंड फार्म्स को सालों तक कागजी कार्रवाई में फंसाते हैं, प्रक्रियाएं जो काम करने के बजाय टालने को पुरस्कृत करती हैं. ये मामूली असुविधाएं नहीं हैं. यही कारण है कि किराया आसमान छू रहा है, क्यों सफर (commute) करना दुखद है, और क्यों स्वच्छ ऊर्जा उतनी तेज़ी से नहीं आ रही है. यह डिज़ाइन द्वारा पैदा की गई कमी (scarcity by design) है, और यह उस आक्रोश को हवा देती है जो हमारी राजनीति पर हावी है.
बेशक, इन कृत्रिम बाधाओं को हटाना आधी लड़ाई है. प्रचुरता का समाज बनाने के लिए उस पैमाने पर संसाधनों की भी आवश्यकता होती है जिसकी कल्पना करने की हिम्मत हमने दशकों से नहीं की है. और लोग पूछते हैं, काफी हाल ही में, हम इस सबके लिए भुगतान कैसे करेंगे? मुझे लगता है कि यह एक ऐसी टैक्स प्रणाली से शुरू होता है जो निष्पक्ष, सरल और इस सिद्धांत पर बनी हो कि काम और धन को एक ही नियमों से खेलना चाहिए. बहुत लंबे समय से, नियमों ने काम से कमाए गए पैसे के बजाय पैसे से कमाए गए पैसे का पक्ष लिया है, और यही कारण है कि अरबपति अपने कर्मचारियों की तुलना में कम प्रभावी टैक्स दर का भुगतान कर सकते हैं.
अर्थशास्त्रियों के एक नए स्कूल, थॉमस पिकेटी और गेब्रियल ज़ुकमैन जैसे लोगों ने दिखाया है कि ऐसा होना ज़रूरी नहीं है. एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहाँ बैंक अपने आप खाते की जानकारी साझा करते हैं ताकि किस्मतें चुपचाप स्विस तिजोरियों या कैरेबियन शेल कंपनियों में गायब न हो सकें. जहाँ वैश्विक निगम अब आयरलैंड या बरमूडा में मुनाफा शिफ्ट नहीं करते बल्कि जहाँ वे काम करते हैं वहाँ न्यूनतम टैक्स दर का भुगतान करते हैं. जहाँ 200-मिलियन डॉलर की नौका वाला अरबपति उसी सीधे शर्तों पर योगदान देता है जैसे एक नर्स या एक शिक्षक.
दशकों तक, हमें बताया गया कि ऐसा नहीं किया जा सकता, कि अमीर हमेशा दरारों से निकल जाएंगे, अपने पैसे को ऑफशोर खातों और फैंसी ट्रस्टों में छिपा लेंगे. लेकिन अब हमारे पास उपकरण हैं, स्प्रेडशीट्स हैं, और टैक्स निष्पक्षता को हकीकत बनाने के लिए चरण-दर-चरण योजना है.
और जब हर कोई भुगतान करता है, तो समाज भुगतान कर सकता है. कल्पना करें कि हर माता-पिता के पास किफायती चाइल्ड केयर हो. ऐसे स्कूलों की कल्पना करें जहाँ पढ़ाना सबसे सम्मानित और सबसे अधिक भुगतान वाले व्यवसायों में से एक हो. ऐसे कॉलेज जो युवाओं को कर्ज के बजाय अवसरों में लॉन्च करें. ऐसी स्वास्थ्य सेवा जो सभी के लिए सुलभ हो, सिर्फ बीमारी को ठीक करने के लिए नहीं बल्कि हमें सबसे पहले स्वस्थ रखने के लिए.
बेशक, यह सिर्फ बुनियादी बातें होंगी. हम और आगे जा सकते हैं और हमें जाना चाहिए, और उतना ही यूटोपियन होना चाहिए जितना फैबियन्स थे. हम ऐसे देश बना सकते हैं जहाँ रहने का लोग सपना देखते हैं, जहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी बेहतरीन अर्थों में भव्य महसूस हो. जहाँ तकनीकी प्रगति का इनाम सभी को मिले, न कि कुछ लोगों द्वारा जमा किया जाए. जहाँ फुर्सत, सुंदरता और सुरक्षा हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार हो.
नियोलिबरलिज़्म ने हमें सिखाया कि ऐसी चीज़ें बहुत महंगी हैं. लेकिन कई मामलों में, जो महंगा दिखता है वह वास्तव में कुशल (efficient) है. गरीबी या बेघर होने की समस्या को हल करना, उसे प्रबंधित करने और पुलिसिंग करने की तुलना में बहुत कम खर्चीला है. और यहाँ कुछ ऐसा है जो बहुत से लोग महसूस नहीं करते हैं. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कला जैसे क्षेत्रों में लागत का फोन या फ्रिज जैसी चीज़ों की कीमत से तेज़ी से बढ़ना वास्तव में सामान्य है. अर्थशास्त्री विलियम बॉमोल ने 1960 के दशक में ही देखा था कि श्रम-गहन (labour-intensive) क्षेत्रों में कीमतें उन क्षेत्रों की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं जहाँ काम को आसानी से स्वचालित (automate) किया जा सकता है. एक फ्रिज को और भी सस्ते में बनाया जा सकता है, लेकिन वास्तविक मानवीय ध्यान (human attention) का एक घंटा नहीं. अर्थशास्त्रियों ने इस प्रवृत्ति को एक नाम दिया. उन्होंने इसे ‘बॉमोल्स कॉस्ट डिज़ीज़’ (Baumol’s cost disease) कहा.
लेकिन यहाँ विडंबना है. विलियम बॉमोल ने खुद इसे कभी समस्या के रूप में नहीं देखा. उन्होंने इसे एक वरदान के रूप में देखा. हमारी मशीनें और कंप्यूटर जितने अधिक कुशल होंगे, हम उतना ही अधिक समय उस चीज़ के लिए मुक्त कर सकते हैं जो वास्तव में मायने रखती है. कमज़ोरों की देखभाल करना, हमारे बच्चों को शिक्षित करना, और सुंदर कला बनाना. “इन चीज़ों को पाने में असली बाधा,” बॉमोल ने चेतावनी दी, “यह भ्रम है कि हम उन्हें वहन नहीं कर सकते (we cannot afford them).”
एक अच्छे जीवन की बुनियादी बातें विलासिता नहीं हैं जिन्हें हमें विकास (growth) के बदले में छोड़ना पड़े. वे विकास का लाभांश हैं. नियोलिबरलिज़्म ने कहा कि हमें चुनना होगा, लेकिन हमें नहीं चुनना है. हम समृद्धि और निष्पक्षता, दक्षता और गरिमा, सब पा सकते हैं. हम तरक्की और इन्साफ, दोनों एक साथ हासिल कर सकते हैं.
संक्षेप में, हमारे ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ की रूपरेखा आकार लेने लगी है. लेकिन फैबियन्स और नियोलिबरल्स की तरह, हमें याद रखना चाहिए कि सपने और इच्छाएं, योजनाएं और कार्यक्रम काफी नहीं हैं. विचार केवल तभी मायने रखते हैं जब वे संगठित हों, संस्थागत हों, और इतिहास के तूफानों के माध्यम से ले जाए जाएं. इसका मतलब है कि सिर्फ कुछ अच्छे भाषण नहीं. इसका मतलब है लोगों और संस्थाओं के टिकाऊ नेटवर्क बनाना, गहरी जेब वाले दानदाता जो चुनाव चक्रों के बजाय दशकों में सोचने को तैयार हों, पॉलिसी शॉप्स जो आदर्शों को कानून में बदल सकें, आंदोलन जो विविध निर्वाचन क्षेत्रों का दिल जीत सकें, और सांस्कृतिक मंच जो जनमत को आकार दे सकें—अदालत से लेकर कक्षा तक, ओपिनियन पेज से लेकर डिनर टेबल तक.
सबसे बढ़कर, इसके लिए दृढ़ता की आवश्यकता है. इतिहास दिखाता है कि विचारशील, प्रतिबद्ध नागरिकों के छोटे समूह क्या हासिल कर सकते हैं यदि वे लंबी पारी खेलें. ब्रिटिश सोसाइटी फॉर द एबोलिशन ऑफ द स्लेव ट्रेड के 12 संस्थापकों में से, केवल एक ही इतना लंबा जिया कि पूरे साम्राज्य में गुलामी को समाप्त होते देख सके. 1848 में संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं के अधिकारों के पहले सम्मेलन के लिए सेनेका फॉल्स में इकट्ठा हुई 68 महिलाओं में से, केवल एक ही तब तक जीवित थीं जब महिलाओं को आखिरकार वोट का अधिकार मिला. और वह उस दिन वोट डालने जाने के लिए बहुत बीमार थीं.
हमारा काम रातों-रात यूटोपिया खड़ा करना नहीं है, बल्कि जनरल फैबियस की दृढ़ता और धैर्य के साथ लड़ना है, उन नैतिक अग्रदूतों के नक्शेकदम पर चलना है जो हमसे पहले आए थे, नॉस्टेल्जिया के साथ नहीं बल्कि अनुकरण के साथ आभारी होना है. शुक्रिया.
हेट क्राइम
महाराष्ट्र में मुस्लिम छात्रों को जुमे की नमाज़ पर उत्पीड़न, छात्रों से जबरन उठक-बैठक करवाई गई
मकतूब मीडिया के रिपोर्ट के मुताबिक़ महाराष्ट्र के कल्याण ईस्ट स्थित आइडियल कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी में पिछले महीने कुछ मुस्लिम छात्रों को जुमे की नमाज़ अदा करने पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. 21 नवंबर को छात्रों ने विभागाध्यक्ष से अनुमति लेकर एक खाली कक्षा में नमाज़ पढ़ी थी. लेकिन परिसर के ही एक छात्र ने नमाज़ का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया. इसके बाद एक कथित दक्षिणपंथी समूह कॉलेज में घुस आया और छात्रों को जबरन सार्वजनिक माफी मांगने पर मजबूर किया.
वीडियो में देखा गया कि छात्रों को कान पकड़कर उठक-बैठक कराई गई और बार-बार माफी मंगवाई गई. उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज की तस्वीर के सामने जबरन पैर छूने को भी कहा गया, जबकि समूह “जय श्री राम” के नारे लगा रहा था. कॉलेज में कक्षाएं बाधित नहीं हुईं, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को लेकर चिंता बढ़ा दी है.
सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गेश गायकवाड़ ने कहा कि यह घटना नफ़रत फैलाने के बड़े माहौल का हिस्सा है.
“छात्रों ने नियमों का पालन किया था. लेकिन उन्हें इस तरह अपमानित करना उनकी गरिमा को तोड़ देने जैसा है,” उन्होंने कहा.
27 नवंबर को सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और वकीलों के बहुधर्मी प्रतिनिधिमंडल ने कॉलेज प्रशासन से मुलाक़ात की और घटना पर आपत्ति जताते हुए एक ज्ञापन सौंपा. उन्होंने धमकाने वालों पर FIR दर्ज करने, वीडियो बनाने वाले छात्र की पहचान कर कार्रवाई करने, पीड़ित छात्रों को काउंसलिंग उपलब्ध कराने और सभी धर्मों के छात्रों के लिए निर्धारित प्रार्थना स्थल बनाने की मांग की.
प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने बताया कि प्रभावित छात्र बेहद डरे हुए हैं और किसी से बात करने को तैयार नहीं हैं. SIO महाराष्ट्र साउथ ज़ोन के राज्य सचिव सलीम शेख़ ने कहा कि यह घटना छात्रों के धार्मिक और लोकतांत्रिक अधिकारों पर सीधा हमला है. उन्होंने सरकार और पुलिस से तत्काल सख्त कार्रवाई की मांग की. कॉलेज प्रशासन ने सुरक्षा में कमी स्वीकार की और सीसीटीवी जांच, अतिरिक्त गश्त और “हॉर्मनी-बिल्डिंग” कार्यक्रम शुरू करने का आश्वासन दिया. उन्होंने कहा कि परामर्श उपलब्ध कराया जाएगा और FIR दर्ज करने पर क़ानूनी सलाह ली जा रही है.
मकतूब मीडिया ने छात्रों से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने मीडिया से बात करने से इनकार कर दिया.
भारत-रूस संबंधों में आया ‘सभ्यतामूलक’ बदलाव, पश्चिमी देशों की कोशिशें नाकाम
टेलीग्राफ इंडिया में प्रकाशित केरोल शेफर के एक विस्तृत विश्लेषण में भारत और रूस के बदलते रिश्तों की गहराई को उकेरा गया है. लेख के अनुसार, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की हालिया भारत यात्रा और प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी गर्मजोशी (बियर हग) ने पश्चिमी देशों के उस अभियान को पूरी तरह विफल कर दिया है, जो पुतिन को एक अछूत वैश्विक नेता बनाना चाहते थे.
रिपोर्ट में आंकड़ों के जरिए बताया गया है कि चार साल के यूक्रेन युद्ध के बावजूद, भारत रूस के लिए एक अनिवार्य आर्थिक भागीदार बन गया है:
कच्चा तेल: युद्ध से पहले भारत रूस से ना के बराबर तेल खरीदता था, लेकिन 2023-24 तक भारत के कुल तेल आयात में रूसी तेल की हिस्सेदारी लगभग 36-38% हो गई है. इसने भारत को महंगाई पर काबू पाने में मदद की है.
व्यापार: द्विपक्षीय व्यापार 68.7 बिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है. दोनों नेता इसे 2030 तक 100 बिलियन डॉलर तक ले जाने की बात कर रहे हैं.
हथियार: हालांकि रूस से हथियारों का आयात 72% से घटकर 36% हो गया है, लेकिन अब ध्यान ‘खरीदने’ के बजाय ‘भारत में निर्माण’ और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर है.
लेखिका का तर्क है कि यह रिश्ता अब केवल व्यापारिक लेनदेन का नहीं रहा, बल्कि इसमें एक ‘सभ्यतामूलक सहमति’ भी जुड़ गई है. रूस में अलेक्जेंडर डुगिन का ‘यूरेशियानिज्म’ और भारत में ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा एक ही धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं—दोनों ही पश्चिमी उदारवाद, मानवाधिकारों के पश्चिमी पैमानों और बहुलवाद को संदेह की नजर से देखते हैं.
हालांकि, भारत के रणनीतिक यथार्थवादी इस ‘वैचारिक मिलन’ को खारिज करते हैं. उनका तर्क है कि यह सब राष्ट्रीय हितों, सस्ते तेल और चीन के खतरे को संतुलित करने के लिए किया जा रहा है. लेकिन लेख में चेतावनी दी गई है कि ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ और ‘वैचारिक संरेखण’ के बीच की रेखा बहुत महीन होती है. अगर भारत उन देशों के साथ खड़ा होता है जो क्षेत्रीय विजय के लिए युद्ध करते हैं, तो यह गुटनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों से भटकने जैसा हो सकता है. लेख का निष्कर्ष है कि पुतिन भारत से केवल बाजार नहीं, बल्कि अपनी विचारधारा के लिए वैधता भी मांग रहे थे, और दिल्ली में उन्हें वह मिल गई.
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