रीथ लेक्चर्स 2 | मॉरल रिवोल्यूशन
इतिहास उन लोगों द्वारा नहीं बदला जाता है जिनका अपना कोई दांव नहीं लगा है, निंदकों द्वारा नहीं जो समझाते हैं कि चीज़ें कभी काम क्यों नहीं करेंगी, या चतुर आवाज़ों द्वारा जो हर ख़ामी को इंगित करते हैं, कुछ ऐसा जो मैंने विशेष रूप से अक्सर पत्रकारों के बीच देखा है. परिवर्तन उन लोगों से आता है जो शर्मिंदगी का जोख़िम उठाते हैं, जो ग़लतियाँ करते हैं, जो गिर जाते हैं और फिर से खड़े हो जाते हैं. वो वे हैं जो अपने आराम से बड़े किसी उद्देश्य के लिए ख़ुद को समर्पित करने का साहस करते हैं. कभी वो जीतते हैं. अक्सर वो असफल हो जाते हैं.
बीबीसी के संस्थापक लॉर्ड जॉन रीथ की याद में होने वाले रीथ लेक्चर्स हर साल होते हैं. इस साल के लेक्चरर प्रख्यात डच इतिहासकार रुटगर ब्रेगमान हैं और ‘ह्यूमनकाइंड’ और ‘यूटोपिया फ़ॉर रियलिस्ट्स’ जैसी बेस्टसेलिंग किताबों के लेखक हैं. उन्होंने अपनी पहली किताब तब लिखी थी जब वो सिर्फ़ 25 साल के थे. उनकी किताबों ने लोगों के दिलों को छुआ है क्योंकि वो ऐसे वक़्त में उम्मीद जगाती हैं जब लगता है कि हम बेहद निराशाजनक समस्याओं से घिरे हैं. लेकिन जिस उम्मीद की वो बात करते हैं, उस तक पहुँचने के लिए वो बदले में कुछ माँगते भी हैं. उनका मानना है कि हमें अपनी ज़िंदगी जीने का तरीक़ा बदलना होगा. वो विवादों से घबराने वाले इंसान नहीं हैं. वो शायद सबसे ज़्यादा मशहूर हैं दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम पर बैंकर्स और अरबपतियों को खरी-खोटी सुनाने के लिए, जहाँ उन्होंने अमीरों द्वारा टैक्स चोरी को असली मुद्दा बताया था. उन्होंने कहा था कि ये वैसा ही है जैसे किसी फ़ायरफ़ाइटर की कॉन्फ़्रेंस में पानी के बारे में बात करने की इजाज़त न हो. इस लेक्चर सीरीज़ का नाम है ‘मोरल रेवोल्यूशन’. वो कहते हैं कि ये कार्रवाई करने की पुकार है. पेश है चार हिस्सों में हुए भाषण की दूसरी कड़ी. दूसरा भाषण लिवरपूल में दिया गया, जो एक ज़माने में गुलामों की बड़ी मंडी था, और दुनिया में गुलामी को खत्म करने की शुरूआत भी यहीं से हुई. हम अंशों में चारों भाषण न्यूज़लेटर में प्रकाशित करेंगे. पहली कड़ी आप यहां पढ़ सकते हैं.
रुटगर ब्रेगमान : कैसे शुरू करें एक नैतिक क्रांति
1917 की शरद ऋतु में पेत्रोग्राद की सड़कों पर माहौल क्रांतिकारी जोश का नहीं था. थकान, निराशावाद, उदासीनता थी. सालों की जंग, भूख और निराशा के बाद, ज़्यादातर रूसियों ने राजनीति से पूरी तरह तौबा कर ली थी. वो ज़ार और शाही परिवार से नफ़रत करते थे, लेकिन उन नाकाम उदारवादियों से भी जिन्होंने उनकी जगह ली थी. वो भ्रष्ट अधिकारियों, जनरलों, ज़मींदारों, पादरियों से नफ़रत करते थे. हर कोई उसी टूटी हुई व्यवस्था का हिस्सा था. तो जब लेनिन और उनके बोल्शेविक विंटर पैलेस पहुँचे, तो कई रूसियों ने कंधे उचका दिए. “ठीक है, ले लो. तुम भी छह हफ़्ते नहीं टिकोगे.” लेकिन बोल्शेविक टिके रहे. छह हफ़्ते नहीं. 70 साल. रूसी क्रांति एक पाठ्यपुस्तक का उदाहरण है कि कैसे उदासीनता तानाशाही का रास्ता तैयार करती है. जब केंद्र ढह जाता है, जब कोई किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता, जब पुरानी दुनिया इतनी बदनाम हो जाती है कि पागल भी बेहतर विकल्प लगने लगते हैं, तब इतिहास अंधेरे मोड़ की तरफ़ मुड़ जाता है.
अपने पहले रीथ लेक्चर में मैंने तर्क दिया था कि हम इसी तरह के उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहे हैं. मैंने बताया कि कैसे अनैतिकता और गैर-गंभीरता आज के अभिजात वर्ग की दो मुख्य पहचान बन गई हैं. मैंने अमेरिका की तुलना रोम के शानदार पतन से की और यूरोप की तुलना वेनिस की धीमी मौत से. पूरे पश्चिम में लोकतंत्र में विश्वास घट रहा है. लोग ध्यान हटा रहे हैं, स्वाइप करके आगे बढ़ रहे हैं, ट्यून आउट कर रहे हैं . वो राजनेताओं में, मीडिया में, अदालतों या चुनावों में विश्वास नहीं करते. उन्होंने बहुत ज़्यादा पाखंड देखा है, बहुत सारे टूटे वादे. यह आधुनिक समय के लेनिनों के लिए असाधारण अवसर का क्षण है. वो सूँघ सकते हैं कि उनका समय आ गया है. धार्मिक तानाशाहों से लेकर नव-फ़ासीवादी टेक-ब्रोज़ तक, कट्टरपंथी विचारधारावादी मौके की ताक में बैठे हैं . हर दिन वो ताक़त हासिल कर रहे हैं, इसलिए नहीं कि उनके विचार इतने आकर्षक हैं, बल्कि इसलिए कि विकल्प इतने बदनाम महसूस होते हैं. “उसे कोशिश करने दो,” लोग कहते हैं, अगले अरबपति मुक्तिदाता या संभावित मज़बूत नेता के बारे में. “इससे बुरा तो नहीं हो सकता, है ना?” लेकिन यह बुरा हो सकता है, बहुत बुरा.
पर यहाँ एक अच्छी ख़बर है. मैंने वादा किया था कि मैं इस सीरीज़ को क्लासिक तीन-भाग के उपदेश के रूप में संरचित करूँगा. पहला हिस्सा, दु:ख. दूसरा हिस्सा , मुक्ति. और तीसरा, कृतज्ञता. अब, लंदन के बेचारे लोगों को पहला भाग सुनना पड़ा, जिसका मतलब है कि आप यहाँ लिवरपूल में नरक की आग को छोड़कर सीधे मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं.
अतीत, आख़िर, सिर्फ़ आपदाओं का कब्रिस्तान नहीं है. यह उम्मीद का भंडार भी है. मुझे हमेशा से ज़िद्दी लोगों के उन छोटे समूहों में दिलचस्पी रही है जो इतिहास की दिशा बदल देते हैं. कभी बुरे के लिए - जैसे बोल्शेविक, लेकिन शानदार तरीक़े से बेहतर के लिए भी’. फ़्लोरेंस नाइटिंगेल और उन नर्सों ने जिन्होंने साक्ष्य-आधारित चिकित्सा की शुरुआत की. एमेलीन पैंकहर्स्ट और उन महिला मताधिकार समर्थकों या ‘सफ़्राजेट्स’ ने जिन्होंने महिलाओं के लिए मतदान का अधिकार जीता. नॉर्मन बोरलॉग और उन आविष्कारकों ने जिनकी हरित क्रांति ने लाखों लोगों को अकाल से बचाया. इन सभी लोगों में जो समानता थी वो थी एक स्पष्ट दृष्टि, एक स्केलेबल रणनीति, और अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अथक दृढ़ता. मार्गरेट मीड के अमर शब्दों में, कभी संदेह मत करो कि विचारशील, प्रतिबद्ध नागरिकों का एक छोटा समूह दुनिया बदल सकता है. दरअसल, यही एकमात्र चीज़ है जिसने कभी दुनिया को बदला है’ - ऑब्जेक्ट गायब है).
मुझे पता है कि कई इतिहासकार इस दृष्टिकोण के प्रति संशयवादी हैं. वो इतिहास की गहरी, अंतर्निहित शक्तियों पर ध्यान देना पसंद करते हैं. भूगोल, जनसांख्यिकी, तकनीक. ऐसे विद्वानों के लिए, व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते. इतिहास का तथाकथित महान सिद्धांत, वो तर्क देते हैं, हमारे शिल्प के लिए वही है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए ब्लडलेटिंग (रक्तमोक्षण) है. आज के अभिजात वर्ग की अनैतिकता और गैर-गंभीरता, वो सोचते हैं, गहरी शक्तियों के मात्र लक्षण हैं.
मैं सबसे पहले यह मानूँगा कि इस विश्लेषण में वास्तविक शक्ति है. और फिर भी, मुझे इससे दो समस्याएँ हैं. पहली, यह आकस्मिकता ( संयोग या अप्रत्याशित घटनाओं) के लिए बहुत कम जगह छोड़ती है, जिस तरह से इतिहास अचानक अप्रत्याशित दिशाओं में मुड़ सकता है. और दूसरी, यह हमारी एजेंसी (भूमिका या कर्ता भाव) से इनकार करती है. निश्चित रूप से, महान पुरुषों के साथ 19वीं सदी का जुनून सही तरीक़े से बचकाना , अभिजात्यवादी और सेक्सिस्ट कहकर ख़ारिज कर दिया गया है.
लेकिन यह इनकार करना भी मुश्किल है कि कुछ व्यक्तियों ने, लेनिन उनमें से एक हैं, असाधारण नुक़सान किया. और अगर यह सच है, तो शायद इसका उल्टा भी सच हो सकता है, कि मुट्ठी भर पुरुष और महिलाएँ इतिहास की धारा को न्याय की ओर मोड़ सकते हैं.
कुछ साल पहले, मैंने ऐसे लोगों का, अतीत के महान नैतिक अग्रदूतों का अध्ययन शुरू किया. और जल्द ही, मैंने ख़ुद को एक अप्रत्याशित भावना की चपेट में पाया जिसे मैं केवल नैतिक ईर्ष्या के रूप में वर्णित कर सकता हूँ. तब तक, मैंने अपने करियर का लगभग एक दशक विशेषज्ञों की दुनिया में बिताया था, किताबें और लेख लिखना, भाषण देना, ट्वीट्स पोस्ट करना, हमेशा उम्मीद करना कि कोई और इस दुनिया को बेहतर जगह बनाने का असली काम करेगा. और इस बीच, मैं किनारे पर था, देखते हुए, कमेंट्री करते हुए, और जितना ज़्यादा मैंने पढ़ा, उतना ही ज़्यादा ईर्ष्यालु मैं होता गया. इन दासता-विरोधी लोगों, महिला मताधिकार समर्थकों, और मानवतावादियों के संस्मरणों ने मुझे पूछने पर मजबूर किया, अपनी ख़ुद की ज़िंदगी के बारे में क्या? मेरी विरासत क्या होगी?
जैसा कि थियोडोर रूज़वेल्ट, इतिहासकार और राष्ट्रपति, ने एक बार कहा था, यह आलोचक नहीं है जो मायने रखता है. इतिहास उन लोगों द्वारा नहीं बदला जाता है जिनका अपना कोई दांव नहीं लगा है, निंदकों द्वारा नहीं जो समझाते हैं कि चीज़ें कभी काम क्यों नहीं करेंगी, या चतुर आवाज़ों द्वारा जो हर ख़ामी को इंगित करते हैं, कुछ ऐसा जो मैंने विशेष रूप से अक्सर पत्रकारों के बीच देखा है. परिवर्तन उन लोगों से आता है जो शर्मिंदगी का जोख़िम उठाते हैं, जो ग़लतियाँ करते हैं, जो गिर जाते हैं और फिर से खड़े हो जाते हैं. वो वे हैं जो अपने आराम से बड़े किसी उद्देश्य के लिए ख़ुद को समर्पित करने का साहस करते हैं. कभी वो जीतते हैं. अक्सर वो असफल हो जाते हैं. लेकिन जैसा कि रूज़वेल्ट ने हमें याद दिलाया, असफलता में भी, वो उन लोगों से ज़्यादा हासिल करते हैं जिन्होंने कभी कोशिश नहीं की, जिन्होंने सुरक्षा का रास्ता चुना’, जिन्होंने साहस के बजाय विडंबना को प्राथमिकता दी, और जिन्होंने कभी जीत का स्वाद या हार की शर्म नहीं जानी. ख़ुद रूज़वेल्ट ने, एक युवा व्यक्ति के रूप में, प्राचीन काल के नायकों की कहानियाँ पढ़ीं और फ़ैसला किया, “यही वो ज़िंदगी है जो मैं चाहता हूँ.” उन्होंने महान रूप से जीने का सचेत विकल्प चुना.
आज, मैं विचारशील, प्रतिबद्ध लोगों के एक छोटे समूह पर ज़ूम इन करना चाहता हूँ जिन्होंने वही विकल्प चुना. हम उन्हें मानव अधिकारों के महानतम आंदोलन के किक-स्टार्टर के रूप में याद करते हैं जो इस दुनिया ने कभी देखा है, गुलामव्यापार और ग़ुलामी के ख़िलाफ़ लड़ाई. और दिलचस्प बात यह है कि यह गहराई से ब्रिटिश कहानी है. जैसा कि हम सब जानते हैं, यूके ने सबसे क्रूर गुलामसाम्राज्यों में से एक का निर्माण किया. यहाँ लिवरपूल में, यहाँ तक कि छोटे दुकानदारों ने भी उत्साहपूर्वक इस राक्षसी व्यापार में शेयर ख़रीदे. फिर भी ब्रिटेन पृथ्वी के चेहरे से गुलामव्यापार को ख़त्म करने में प्रेरक शक्ति भी बन गया. और मुझे विश्वास है कि उस विरोधाभास में एक महत्वपूर्ण सबक़ है.
दासता-उन्मूलन सिर्फ़ इतिहास का एक अध्याय नहीं है; यह इस बात की याद दिलाने वाला भी है कि महत्वाकांक्षी आदर्शवादी क्या हासिल कर सकते हैं. और ऐसे क्षण में जब ब्रिटेन आत्मविश्वास खो रहा है, गिरावट में फिसल रहा है और नॉस्टैल्जिया में डूब रहा है, यह याद रखने लायक़ है कि इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि विजय या धन या साम्राज्य नहीं थी, यह मानव इतिहास की सबसे काली संस्थाओं में से एक को ख़त्म करने का साहस था.
मैं ब्रिटिश दासता-उन्मूलन के बारे में कुछ बुनियादी तथ्यों से शुरू करता हूँ. समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आंदोलन कितना अजीब था, कितना बिलकुल असंभव. पूर्वव्यापी तौर पर, ऐसा लगता था कि यह कहीं से भी आया था. किसी ने कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था. 1787 की गर्मियों में, यह देश भर में जंगल की आग की तरह फैल गया. यह हर अख़बार में था, और कॉफ़ीहाउसों में, और किसी चीज़ की बहुत कम बात होती थी. अगर आप सभी देशों के इतिहास का अध्ययन करते हैं, फ़्रांसीसी एलेक्सिस डे टोक्विले ने बाद में लिखा, मुझे संदेह है कि आपको कुछ इतना असाधारण या शानदार मिलेगा. इसके मास्टरमाइंड 12 आदमी थे काली टोपियों वाले. उस साल 22 मई को, वो लंदन के दिल में 2 जॉर्ज यार्ड में एक छोटे प्रिंट की दुकान में इकट्ठा हुए थे. और वहाँ, स्याही के कुएँ और कागज़ के ढेर के बीच, उन्होंने शायद पहली और सबसे प्रभावशाली मानव अधिकार अभियान शुरू किया. उन 12 का मिशन उतना ही सरल लगता था जितना असंभव अपने समय की सबसे बड़ी बुराई को जड़ से ख़त्म करना. एक देश में जहाँ 3% से कम आबादी और एक भी महिला वोट नहीं दे सकती थी, उन्होंने एक ऐसा आंदोलन शुरू किया जो सबसे पुरानी आर्थिक व्यवस्थाओं में से एक को उखाड़ फेंकने के लिए लाखों लोगों को जुटाएगा. यह दूसरों के अधिकारों के लिए पहला बड़ा राजनीतिक आंदोलन था. सभी मानवीय अनुभवों में, महान इतिहासकार एडम होशचाइल्ड टिप्पणी करते हैं, ऐसे अभियान के लिए कोई पूर्व उदाहरण नहीं था.
क़ानूनी ग़ुलामी के आधिकारिक उन्मूलन को प्रगति का अपरिहार्य परिणाम के रूप में देखना लुभावना है, कि यह वैसे भी कारों और कंप्यूटरों की दुनिया में ग़ायब हो गया होता, बिल्कुल उसी तरह जैसे स्टेजकोच और संदेशवाहक कबूतर हमारी ज़िंदगी से लुप्त हो गए हैं. फिर भी इतिहासकार हमें एक अलग कहानी बताते हैं. गहराई से खोदो, और आप महसूस करते हैं कि उन्मूलन कितना असंभव था. एक ऐतिहासिक दुर्घटना, एक प्रमुख विद्वान ने इसे कहा है, एक आकस्मिक घटना जो उतनी ही आसानी से कभी नहीं हुई होती. अन्य यूरोपीय देशों में, शायद ही कोई दासता-विरोधी आंदोलन था. पुर्तगाल में उन्मूलन का निर्णायक इतिहास स्पष्ट रूप से शीर्षक है ‘द साउंड्स ऑफ़ साइलेंस’ (चुप्पी की आवाज़ें). स्पेन में, ग़ुलामी शायद ही किसी मुद्दे के रूप में दर्ज हुई. फ़्रांसीसी दासता-विरोधी समाज के 18वीं शताब्दी के अंत में केवल 141 सदस्य थे और पाँच साल बाद बंद हो गया. अब, 50 साल बाद, डच समकक्ष अपने सदस्यों को बैठकों में दिखाने के लिए राज़ी करने में संघर्ष कर रहा था. या, जैसा कि एक ब्रिटिश दासता-विरोधी ने मेरे ख़ूबसूरत घर देश के बारे में लिखा, यह एक ठंडी और मृत जगह है.
और संयुक्त राज्य अमेरिका में, स्वतंत्र लोगों की भूमि? खैर, एकमात्र पार्टी जो ग़ुलामी का विरोध करती थी, लिबर्टी पार्टी, किसी भी ज़िले में एक भी बहुमत जीतने में असफल रही. यहाँ तक कि 1860 में, प्रमुख दासता-विरोधी अख़बार, द लिबरेटर, के केवल 3,000 सब्सक्राइबर थे. कठोर सच्चाई यह है कि दासता-विरोधी शब्द गाली का शब्द था (सुझाव: ‘अपशब्द’ माना जाता था). भविष्य के राष्ट्रपति, अब्राहम लिंकन के लिए एक प्रचारक ने एक बार शिकायत की कि उन्हें ढीठ, फ़ैशनपरस्त, अपरिपक्व, और सबसे बुरा, एक दासता-विरोधी बताया गया था. यह आज वीगन होने से भी बदतर था.
कोई आश्चर्य नहीं कि ज़्यादातर यूरोपीय और अमेरिकी दासता-विरोधी लोगों ने इतना कम हासिल किया. स्पेन, पुर्तगाल, फ़्रांस, और नीदरलैंड ने गुलामव्यापार पर केवल अनिच्छा से प्रतिबंध लगाया और केवल ब्रिटिश दबाव में. और वो दबाव भारी था. रॉयल नेवी ने गुलामव्यापार के ख़िलाफ़ एक बड़ा अभियान शुरू किया, जो इतिहास में अफ़्रीका की नाकाबंदी के रूप में दर्ज होगा. इसे आधुनिक इतिहास में सबसे महंगे अंतरराष्ट्रीय नैतिक प्रयास के रूप में वर्णित किया गया है. 2,000 गुलामजहाज़ ज़ब्त किए गए, और 200,000 ग़ुलाम बनाए गए लोग आज़ाद हुए. शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि सीधे ब्रिटिश प्रयासों ने वैश्विक गुलामव्यापार के 80% उन्मूलन के बारे में लाया. इसने इतिहासकारों को एक दिमाग चकरा देने वाले’ निष्कर्ष पर पहुँचाया है. ब्रिटिश आंदोलन की सफलता के बिना, ग़ुलामी को ग़ैरक़ानूनी घोषित होने में काफ़ी ज़्यादा समय लग सकता था, या यह कभी नहीं हुआ होता. अगर इतिहास ने एक अलग मोड़ लिया होता, तो क़ानूनी ग़ुलामी अभी भी व्यापक हो सकती थी.
जॉर्ज यार्ड की प्रिंट की दुकान बहुत पहले चली गई है. मैंने हाल ही में उस जगह का दौरा किया, और जहाँ इतिहास बना, वहाँ मुझे एक बदसूरत ऑफ़िस ब्लॉक मिला जिसमें एक प्राइवेट इक्विटी फ़र्म है. यह वो जगह है जहाँ आज हमारे तथाकथित सर्वश्रेष्ठ और सबसे चमकीले लोग जाकर बस जाते हैं’. अपने पहले रीथ लेक्चर में, मैंने उस प्रतिभा की बर्बादी के बारे में बात की. आज दुनिया में सबसे बड़ी समस्या जलवायु परिवर्तन, भविष्य की महामारियाँ, या लोकतांत्रिक पतन नहीं है. यह है कि बहुत ज़्यादा शानदार दिमाग़ उन समस्याओं को छोड़कर हर चीज़ पर काम कर रहे हैं.
फिर भी ऐसा नहीं होना चाहिए. जिस वजह से मैं ब्रिटिश दासता-उन्मूलन से इतना जुनूनी हो गया वो यह है कि यह एक अलग तरह की महत्वाकांक्षा, एक नैतिक महत्वाकांक्षा का उदाहरण प्रदान करता है. इसके युवा नेता आज के ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज स्नातकों की तरह ही महत्वाकांक्षी थे, लेकिन किसी तरह उनकी महत्वाकांक्षा एक अलग दिशा में चैनलाइज़ हुई . यह समझने के लिए कि यह कैसे हुआ, हमें ब्रिटिश सोसाइटी फ़ॉर द एबोलिशन ऑफ़ द स्लेव ट्रेड के संस्थापकों पर करीब से नज़र डालनी होगी. दिलचस्प बात यह है कि 12 में से 10 उद्यमी थे. जबकि फ़्रांसीसी दासता-उन्मूलन का नेतृत्व लेखकों और बुद्धिजीवियों ने किया, ब्रिटिश आंदोलन व्यापारियों और व्यापारियों द्वारा संचालित था. ये वे लोग थे जिन्होंने अपनी ख़ुद की कंपनियाँ बनाई और स्केल की थीं, और हाँ, कुछ इस प्रक्रिया में काफ़ी धनवान हो गए थे. लेकिन इसलिए नहीं हम उन्हें आज याद करते हैं. हम उन्हें याद करते हैं क्योंकि उन्होंने इतिहास की दिशा बदलने के लिए अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया.
मुझे यक़ीन है कि आप में से ज़्यादातर लोग विलियम विल्बरफ़ोर्स से परिचित होंगे, जो वास्तव में संस्थापकों में से एक नहीं थे लेकिन बाद में गुलामव्यापार को ख़त्म करने का ज़्यादातर श्रेय मिला. विल्बरफ़ोर्स एक दिलचस्प मामला था. एक छात्र के रूप में, उन्होंने अपने दिन जुआ खेलने और पीने में बिताए थे. 20 साल की उम्र में, उन्होंने सोचा कि संसद के लिए खड़े होना और अपने दादा से विरासत का उपयोग करके पर्याप्त लोगों को अपने लिए वोट देने के लिए रिश्वत देना मज़ेदार हो सकता है. यह उस समय काफ़ी मानक प्रक्रिया थी. लेकिन 25 साल की उम्र में, उन्होंने राजनीति से एक साल की छुट्टी लेने का फ़ैसला किया और यूरोप की सैर के लिए गए, जो उस समय भी अमीर बच्चों के बीच बहुत चलन में था . और 1785 की उस शरद ऋतु में, उन्हें रोशनी दिखाई दी. स्विस आल्प्स में लंबी पैदल यात्रा करते हुए, विल्बरफ़ोर्स ने अपने पापी अस्तित्व को पीछे छोड़ने और अपना जीवन भगवान को समर्पित करने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया. उन्होंने ईसाइयों के एक नए आंदोलन, इवेंजेलिकल्स, में शामिल हो गए, जिन्हें आम तौर पर ब्रिटिश अभिजात वर्ग द्वारा भलाई का ढोंग करने वाले के रूप में तुच्छ समझा जाता था. उस दिन से, विल्बरफ़ोर्स केवल ऊँचे मामलों पर अपना ध्यान लगाएंगे. और ग़ुलामी से लड़ने से ज़्यादा ऊँचा क्या हो सकता है?
ऐसे लोग थे जिन्होंने उनके इरादों पर संदेह किया और कहा कि वो ग़ुलाम बनाए गए लोगों की पीड़ा की तुलना में अपनी ख़ुद की आत्मा की ज़्यादा परवाह करते थे. लेकिन जो मायने रखता है वो यह है कि विल्बरफ़ोर्स ने अपना करियर गुलामव्यापार से लड़ने के लिए समर्पित किया. कम जाना-माना लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण एक और कैम्ब्रिज स्नातक थे थॉमस क्लार्कसन नाम के. वो सोसाइटी फ़ॉर द एबोलिशन ऑफ़ द स्लेव ट्रेड के संस्थापकों में सबसे युवा थे. और एक छात्र के रूप में, क्लार्कसन ने एक निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया था, जो उस समय अपने लिए नाम बनाने का मुख्य तरीक़ा था, टिकटॉक के बिना एक युग. छात्रों को लैटिन में एक शोध प्रबंध लिखना था, एक सरल सवाल को संबोधित करते हुए. क्या दूसरों को उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ ग़ुलाम बनाना जायज़ है? उस समय, क्लार्कसन 25 साल के थे और चर्च ऑफ़ इंग्लैंड में पादरी बनने की पढ़ाई कर रहे थे. मेरे पास कोई मकसद नहीं था लेकिन वही जो विश्वविद्यालय में अन्य युवा पुरुषों के पास ऐसे अवसरों पर था, उन्होंने बाद में लिखा, यानी, साहित्यिक सम्मान प्राप्त करने की इच्छा. और निश्चित रूप से, उनके निबंध ने पहला पुरस्कार जीता. लेकिन कैम्ब्रिज में पुरस्कार समारोह के बाद, वो विषय को अपने दिमाग़ से बाहर नहीं निकाल सके. उनके संस्मरणों में एक मशहूर क्षण है जब वो लंदन वापस जाने के रास्ते में थे और अपने घोड़े से उतर गए. वो सोच में डूबे थे और अपने तर्क में कुछ ग़लती खोजने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन जितना लंबा उन्होंने सोचा, उतना ही ज़्यादा सच्चाई उन पर उजागर हुई. जैसा कि वेड्समिल गाँव नज़र आया, क्लार्कसन सड़क के किनारे बैठ गए, निराशा में डूब गए.
“यहाँ यह विचार मेरे दिमाग़ में आया,” उन्होंने बाद में लिखा, “कि अगर इस निबंध की सामग्री सच थी, तो यह समय था कि कोई व्यक्ति इन विपत्तियों को उनके अंत तक देखे.” अचानक, क्लार्कसन ख़ुद को उस नायक के रूप में देख सकते थे जो गुलामव्यापार को ख़त्म करेगा. कुछ हफ़्तों बाद, कुछ अन्य दासता-विरोधियों के साथ रात के खाने पर, वो उठे और गंभीरता से शब्द बोले, “मैं इस उद्देश्य के लिए ख़ुद को समर्पित करने के लिए तैयार हूँ.”
यह थोड़ा प्रदर्शनकारी लग सकता है. और हाँ, आज क्लार्कसन के संस्मरणों को पढ़ते हुए, आप कभी-कभी अचरज से अपनी आँखें घुमाए बिना नहीं रह सकते. लेकिन वास्तविक दुनिया में, कार्य इरादों से ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं. और जो मायने रखता है वो यह है कि महत्वाकांक्षी छात्र ने अपना वचन रखा. इसे वर्च्यू सिग्नलिंग कहें, अगर आप चाहें. लेकिन यह असली वर्च्यू था. अपने शेष जीवन के लिए, 61 साल, क्लार्कसन ने ग़ुलामी से लड़ना जारी रखा. उन्होंने घोड़े पर यूनाइटेड किंगडम भर में 35,000 मील की यात्रा की, अक्सर रात में, और सैकड़ों स्थानीय समितियाँ स्थापित कीं और हज़ारों समर्थकों की भर्ती की. वो यहाँ तक कि शेर की मांद में भी गए, लिवरपूल, और उन्हें यहाँ गुलामों के व्यापारियों द्वारा लगभग मार दिया गया जिन्होंने उन्हें एक घाट से धक्का देने की कोशिश की.
क्रिस्टोफ़र लेस्ली ब्राउन, ब्रिटिश दासता-उन्मूलन के सबसे प्रमुख विशेषज्ञों में से एक, से एक बार पूछा गया कि हमें दासता-विरोधी इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में किसे देखना चाहिए. ब्राउन ने जवाब दिया कि अपने करियर की शुरुआत में, वो इन व्यक्तिगत नायकों को बहुत ज़्यादा ध्यान न देने के लिए दृढ़ थे. वो संरचनात्मक कारणों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते थे. लेकिन जितना ज़्यादा समय ब्राउन ने अभिलेखागार में बिताया, उतना ही ज़्यादा उन्होंने महसूस किया कि कुछ व्यक्तियों का बड़ा प्रभाव था. क्या विल्बरफ़ोर्स के बिना गुलामव्यापार ख़त्म हो गया होता? शायद. कुछ इतिहासकार यहाँ तक सोचते हैं कि एक चतुर राजनीतिज्ञ उन्मूलन को संसद के माध्यम से तेज़ी से आगे बढ़ा सकता था. लेकिन थॉमस क्लार्कसन? क्या यह उनके बिना हो सकता था? “एक और क्लार्कसन अकल्पनीय है,” उनके जीवनीकार कहते हैं. क्लार्कसन ने 1787 में एक महत्वपूर्ण क्षण में समिति को एक साथ लाया. उन्होंने अपना पूरा जीवन संघर्ष के लिए समर्पित किया. जो सेंट पॉल ईसाई धर्म के लिए थे, वही थॉमस क्लार्कसन दासता-उन्मूलन के लिए थे. उनके समकालीनों ने उन्हें एक नैतिक ‘स्टीम इंजन’ और एक विचार वाले विशालकाय के रूप में वर्णित किया.
ब्रिटिश दासता-उन्मूलन के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य है जिसका मैंने अभी तक उल्लेख नहीं किया है. इसका समय सब कुछ था. बिल्कुल 1917 में रूस की तरह और बिल्कुल आज की दुनिया की तरह, ब्रिटेन एक चौराहे पर था. 18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध भी पतन और गिरावट का युग था. राजनीतिक केंद्र असाधारण दबाव में था, वही दबाव जो चैनल के पार जल्द ही फ़्रांसीसी क्रांति, आतंक का शासन और एक राजा का सिर काटने को बढ़ावा देगा. लोग अपने नेताओं से तंग आ चुके थे. संसद से जिन की बू आती थी, और सांसद नियमित रूप से अपने भाषणों में लड़खड़ाते थे. राजा का बेटा, भविष्य का जॉर्ज चतुर्थ, एक कुख्यात शराबी और जुआरी था और एक निहायत ही घटिया इंसान , यहाँ तक कि शाही मानकों से भी. उनके शीर्ष सहयोगियों में से एक ने उनकी मृत्यु के बाद लिखा, “इतना अधिक तुच्छ, कायर, स्वार्थी, भावनाहीन कुत्ता मौजूद नहीं है.”
यह नैतिक सड़न महल और संसद से बहुत आगे फैल गई थी. लंदन दुनिया की सेक्स राजधानी बन गया था, पाँच में से एक महिला को वेश्यावृत्ति में मजबूर किया गया. सार्वजनिक तमाशे के रूप में फाँसी का मंचन किया गया जबकि जानवरों को नियमित रूप से सड़कों में पीटा और प्रताड़ित किया जाता था.
“अंग्रेज़ी राष्ट्र अनैतिकता में सभी दूसरों को पार करता है,” एक जर्मन आगंतुक ने देखा, और जो दुर्व्यवहार लत और भ्रष्टाचार के माध्यम से प्रकाश में आते हैं वे अविश्वसनीय हैं. संक्षेप में, वर्च्यू फ़ैशन में नहीं था. और बिल्कुल उस सड़ती हुई संस्कृति में, नैतिक नवीनीकरण के लिए एक आंदोलन पैदा हुआ.
दासता-विरोधी विद्रोहियों का एक छोटा समूह था, क्वेकर्स और इवेंजेलिकल्स, जिन्होंने सिर्फ़ गुलामव्यापार पर हमला नहीं किया. उन्होंने एक व्यापक नैतिक क्रांति की शुरुआत की. विल्बरफ़ोर्स, उदाहरण के लिए, अपने जीवन के मिशन को ग़ुलामी से लड़ने के रूप में वर्णित नहीं करते. उनके लिए, दासता-उन्मूलन कुछ बड़ी चीज़ का हिस्सा था, भलाई को फ़ैशनेबल बनाने का प्रयास.
लेकिन आप उस तरह की सांस्कृतिक क्रांति कैसे लाते हैं? उनका जवाब सरल था, जो आप उपदेश देते हैं उसका अभ्यास करके, एक योग्य उद्देश्य के लिए ख़ुद को प्रतिज्ञा करके. याद रखें, लोग अच्छे काम नहीं करते क्योंकि वो अच्छे लोग हैं. वो अच्छे काम करके अच्छे लोग बनते हैं, तब भी जब वो शुरू में घमंड से बाहर कार्य कर सकते हैं. बाद वाला केवल मानव प्रकृति है. हम सभी मान्यता की लालसा रखते हैं. हम में से ज़्यादातर लोग देखे जाना और प्रशंसा किए जाना चाहते हैं. लेकिन आज हमारे समाज में, हम ग़लत चीज़ों और ग़लत लोगों की प्रशंसा करते हैं. ब्रिटिश दासता-विरोधियों ने मुझे जो सिखाया वो यह है कि किसी राष्ट्र के सम्मान कोड को फिर से लिखना संभव है, एक अलग तरह की महत्वाकांक्षा को वायरल बनाना, भलाई को संक्रामक बनाना.
मेरी मूल योजना इतिहास के महान नैतिक अग्रदूतों के बारे में एक भारी-भरकम किताब लिखने में पाँच साल बिताना था, लेकिन पहला भाग, ब्रिटिश दासता-विरोधियों पर, ख़त्म करने के बाद, मैंने परियोजना को शेल्फ़ पर रख दिया. नैतिक ईर्ष्या बहुत मज़बूत हो गई थी. मैं अब केवल अखाड़े में लोगों के बारे में लिखना नहीं चाहता था. मैं उनमें शामिल होना चाहता था. तो, 2023 के अंत में, मैंने ‘द स्कूल फ़ॉर मोरल एंबिशन’ नाम की एक संस्था की सह-स्थापना की. हम ख़ुद को प्रतिभा के रॉबिन हुड के रूप में सोचना पसंद करते हैं, सबसे अच्छे और सबसे चमकीले लोगों को उनकी बोरिंग कॉर्पोरेट नौकरियों से बाहर निकालना और उन्हें हमारे समय के महान उद्देश्यों की ओर पुनर्निर्देशित करना. हमारे काम के केंद्र में एक सरल विश्वास है कि विचारशील, प्रतिबद्ध नागरिकों के छोटे समूह दुनिया बदल सकते हैं.
आज हमें सिर्फ़ बॉटम-अप प्रतिरोध की ज़रूरत नहीं है. हमें एक नए अभिजात वर्ग की भी ज़रूरत है, जन्म, धन या खोखली डिग्रियों का नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर सकारात्मक प्रभाव का. मैं जोखिम उठाने वाले’ अभिजात वर्ग के बारे में बात कर रहा हूँ, उन लोगों के बारे में जो जो उनके पास है उसका उपयोग करते हैं, उनकी मानवीय, वित्तीय और सांस्कृतिक पूँजी, एक बड़ा फ़र्क़ बनाने के लिए. हमारा लक्ष्य भविष्य के इतिहासकारों को गर्व महसूस कराना होना चाहिए.
यह बाएँ बनाम दाएँ के बारे में नहीं है. यह गंभीरता बनाम आलस के बारे में है, दृढ़ संकल्प बनाम उदासीनता, अच्छे बनाम बुरे. अगर हम युद्ध के बाद के लोकतांत्रिक आदेश को संरक्षित करना चाहते हैं, तो हमें साबित करना होगा कि हमारा तरीक़ा काम करता है. कि हम सिर्फ़ शिकायतकर्ताओं और निम्बीज़ (सिर्फ अपने पड़ोस की चिंता करने वालों’ का एक समूह नहीं हैं जो कभी कुछ नहीं करते. हमें दिखाना होगा कि उदार लोकतंत्र डिलीवर कर सकता है और हम इसके लिए लड़ने को तैयार हैं.
1917 में, ज़्यादातर रूसियों ने सोचा कि भविष्य पहले से ही लिखा हुआ था. उन्होंने मान लिया कि राजनीति से अब कुछ भी अच्छा नहीं निकल सकता. कि इतिहास एक धाँधली वाला खेल था, जहाँ शासकों का हर नया सेट आख़िरी जितना बुरा था. और वो निंदकता घातक साबित हुई. इसने एक तानाशाह के लिए दरवाज़ा खोल दिया जिसने मोक्ष का वादा किया और तबाही दी. लेकिन 1917 जो भी दिखाता है वो यह है कि संकट के क्षणों में, दुनिया असामान्य रूप से लचीली होती है. इसलिए ऐसे क्षण इतने ख़तरनाक और इतने संभावनाओं से भरे हैं. इतिहास का लोहा सबसे नरम होता है जब केंद्र सबसे कमज़ोर होता है.
और यहीं हम आज हैं. हमारा ख़ुद का मोहभंग का युग एक नए सत्तावादी युग की प्रस्तावना बन सकता है. या इसे उस क्षण के रूप में याद किया जा सकता है जब एक नई तरह की महत्वाकांक्षा ने पकड़ ली, एक नैतिक महत्वाकांक्षा जैसी दासता-विरोधियों ने एक बार मूर्त रूप दिया. वही उदासीनता जिसने लेनिन को उसकी शुरुआत दी, उतनी ही अच्छी तरह से क्लार्कसन या विल्बरफ़ोर्स जैसे किसी को उनका दे सकती थी.
1785 में, घोड़े पर एक युवा व्यक्ति वेड्समिल गाँव के पास सड़क के किनारे रुका और इतिहास बदलने का फ़ैसला किया. आज हमारा वेड्समिल क्षण हो सकता है. शुक्रिया.
पहला रीथ लेक्चर्स 1: डच इतिहासकार रटगर ब्रेगमैन को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.




