द रीथ लेक्चर्स 2025 | रटगर ब्रैगमैन | नैतिक क्रांति (मोरल रिवॉल्यूशन) | तीसरा भाषण
शराफ़त की साज़िश
रटगर ब्रैगमैन ने बीबीसी रीथ लेक्चर्स का तीसरा हिस्सा स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबरा यूनिवर्सिटी में पढ़ा. यह राजधानी शहर ब्रैगमेन के लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि किसी ज़माने में यह ‘स्कॉटिश एनलाइटनमेंट’ (स्कॉटिश ज्ञानोदय) का पालना हुआ करता था. एडिनबरा यूनिवर्सिटी में 18वीं और 19वीं सदी के दौरान, सदाचार या ‘वर्च्यू’ के विचारों ने उस दौर के सबसे महान विचारकों को घेरे रखा था. अब, 21वीं सदी में, वही सदाचार का विचार रटगर ब्रैगमैन की ‘नैतिक क्रांति’ सीरीज़ के केंद्र में है. वह पूछ रहे हैं कि हम अच्छाई को फिर से फैशनेबल कैसे बना सकते हैं? अब यह सवाल सुनने में तो बहुत सरल लगता है, लेकिन क्या इसका जवाब भी उतना ही सीधा है? अपनी बात बेबाकी से रखने के लिए मशहूर, रटगर ब्रैगमैन हमारे सोचने और जीने के तरीके में पूरी तरह से बदलाव की वकालत कर रहे हैं. उनका मानना है कि आम लोगों के छोटे-छोटे समूह अगर साथ मिलकर काम करें, तो वे पूरी दुनिया को बदल सकते हैं. इस तीसरे लेक्चर का शीर्षक है, ‘अ कॉन्सपिरेसी ऑफ डीसेंसी’ यानी ‘शराफ़त की साज़िश’. इस सीरीज़ के पहले और दूसरे हिस्से के हिंदी अनुवाद को आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं. एक और हिस्सा आना बाकी है.
रटगर ब्रैगमैन का तीसरा भाषण : सरकार सिर्फ चेक नहीं काटती. वह सबसे बड़े, सबसे साहसी जोखिम उठा सकती है.
हेलो, एडिनबरा. आज रात इतनी बड़ी तादाद में यहाँ आने के लिए आप सबका बहुत-बहुत शुक्रिया. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? हाँ? ठीक है, तो चलिए शुरू करते हैं.
1 अक्टूबर 1943 की रात, नाज़ियों ने डेनमार्क नाम के छोटे से देश में रहने वाले हर एक यहूदी को देश से बाहर भेजने के लिए एक अचानक छापे की योजना बनाई. उन्होंने यहूदी न्यू ईयर की पूर्व संध्या को चुना; उन्हें पूरा भरोसा था कि उनके शिकार जश्न मनाने के लिए अपने घरों पर ही मिलेंगे. लेकिन जब सिपाही आए, तो घर खाली पड़े थे. किसी ने उन्हें खबर कर दी थी. किसी ने यहूदी समुदाय को आगाह कर दिया था. गुपचुप तरीके से, हज़ारों आम मछुआरों, दुकानदारों, डॉक्टरों और पादरियों ने भागने के रास्ते तैयार किए और हज़ारों लोगों को सुरक्षित समंदर पार पहुंचाया. और अंत में, लगभग 99% डेनिश यहूदी उस युद्ध में बच गए. इस असाधारण घटना पर एक किताब है जिसका नाम है ‘अ कॉन्सपिरेसी ऑफ डीसेंसी’ (शराफ़त की साज़िश).
अब यह मुहावरा हमेशा मेरे ज़हन में अटक गया है. जब हम “कॉन्सपिरेसी” या साज़िश शब्द सुनते हैं, तो हम आमतौर पर उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो मानते हैं कि धरती चपटी है (फ्लैट अर्थर्स), या जो वैक्सीन के खिलाफ हैं, या वो लोग जो बेसमेंट में टिनफॉयल की टोपियां पहनकर बैठे हैं. हम, जो खुद को समझदार मानते हैं, अपनी आंखें घुमाते हैं और कहते हैं कि साज़िशें जैसी कोई चीज़ नहीं होती. लेकिन एक इतिहासकार के तौर पर, मुझे अच्छी तरह पता है कि साज़िशें होती हैं. असल में, मैं तो इनसे थोड़ा ऑब्सेस्ड हूँ. क्यूएनॉन (QAnon) या 9/11 के सच को लेकर जो पागलपन भरी कल्पनाएं हैं उनकी बात नहीं कर रहा, बल्कि बड़े विचारों वाले छोटे समूहों की असली साज़िशों की बात कर रहा हूँ.
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. एक दर्जन ईसा मसीह के शिष्य (अपोसल्स) जिन्होंने पूरे साम्राज्य में ईसाई धर्म फैलाया. जैकोबिन्स का एक डिबेटिंग क्लब, जिसने फ्रांसीसी राजशाही को उखाड़ फेंका. एक अनजान सा थिंक टैंक जिसने ‘नियोलिबरल कैपिटलिज़्म’ (नवउदारवादी पूंजीवाद) के उदय की रचना की.
जो मुझे उस पड़ाव पर लाता है जहाँ हम इन लेक्चर्स में हैं. मैंने वादा किया था कि मैं इन्हें एक क्लासिक तीन-भाग वाले उपदेश की तरह रखूंगा. पहला एक्ट है ‘दुख’. दूसरा एक्ट है ‘मुक्ति’. और तीसरा एक्ट है ‘आभार’ या शुकराना. लंदन को पहले ही ‘दुख’ मिल चुका है. लिवरपूल को ‘मुक्ति’ मिल गई. और अब आप, खुशकिस्मत हैं एडिनबर्ग, आपको ‘आभार’ मिल रहा है. अब, चर्च जाने के मेरे अनुभव में, उपदेश का तीसरा हिस्सा आमतौर पर सबसे ज्यादा नींद दिलाने वाला होता है. लेकिन देखते हैं कि क्या हम उस परंपरा को तोड़ सकते हैं. क्योंकि मेरी नज़र में, आभार का मतलब निष्क्रिय होना नहीं है. इसका मतलब हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं है. कृतज्ञता या आभार का मतलब है ज़िम्मेदारी. गुलामी खत्म करने वालों (एबोलिशनिस्ट्स) के प्रति आभारी होने का मतलब है एक और अधिक आज़ाद दुनिया का निर्माण जारी रखना. महिलाओं के वोट के अधिकार के लिए लड़ने वाली ‘सफ्राजेट्स’ के प्रति आभारी होने का मतलब है लोकतंत्र की रक्षा करना और उसका विस्तार करना. और उन डेनिश नागरिकों के प्रति आभारी होने का मतलब है कि जब आपके दरवाज़े पर दस्तक हो, तो आप अजनबियों के लिए खड़े हों.
उनकी शराफ़त की साज़िशें सिर्फ तारीफ करने वाली कहानियां नहीं हैं. वे अधूरे प्रोजेक्ट्स हैं जो हमें विरासत में मिले हैं. थॉमस क्लार्कसन, वो एबोलिशनिस्ट जिनके बारे में मैंने पिछले हफ्ते लिवरपूल में बात की थी, उन्होंने एक बार ‘क्वेकर्स’ का तीन-खंडों वाला इतिहास लिखा था—वो कट्टरपंथी प्रोटेस्टेंट संप्रदाय जिसने गुलामी के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई थी. उनकी एक खास प्रथा थी मृतकों को बिना निशान वाली कब्रों में दफनाना. उनका मानना था कि आप लोगों को महंगे पत्थरों से नहीं बल्कि कार्यों से सम्मानित करते हैं. क्लार्कसन के शब्दों में, “यदि आप एक अच्छे आदमी का सम्मान करना चाहते हैं, तो उसके सभी कार्यों को अपनी यादों में ज़िंदा रखें ताकि वे आपको लगातार उनके जैसा बनने के लिए जगाते रहें. इस तरह, आप दिखाएंगे कि आप वास्तव में उनकी स्मृति का सम्मान करते हैं.” अंत में, आभार का यही मतलब है. सिर्फ सराहना नहीं, बल्कि अनुकरण करना. अपनी खुद की ‘शराफ़त की साज़िश’ में शामिल होना.
आज मैं जिस सवाल का जवाब देना चाहता हूँ वो सरल है. ऐसी साज़िश कैसी दिखेगी? कौन सा विज़न, कौन सा प्रोग्राम हमारे समय में उदार लोकतंत्र (लिबरल डेमोक्रेसी) को फिर से नया कर सकता है? और क्या हम उन समूहों से कुछ सीख सकते हैं जिन्होंने अतीत में इसे कर दिखाया था?
चलिए वहीं से शुरू करते हैं और विशेष रूप से एक बागी समूह पर विचार करते हैं. द फैबियन सोसाइटी. वे 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश कुलीनों (elites) का एक समूह थे जिन्होंने राजनीति के इतिहास में सबसे साहसी साज़िशों में से एक को अंजाम दिया. और यहाँ सबसे खास बात यह है—यह काम कर गया. 1887 में, उन्होंने अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसका भव्य शीर्षक था ‘द ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ (सच्चा क्रांतिकारी कार्यक्रम). उन्होंने इसे ‘ट्रू रेडिकल’ कहा क्योंकि वे दूसरे रेडिकल्स से भी ज़्यादा रेडिकल होना चाहते थे. और वाकई, वह घोषणापत्र एक ‘यूटोपियन’ (आदर्शवादी) विश-लिस्ट जैसा लगता था. आठ घंटे का कार्यदिवस, महिलाओं के लिए वोट, संसद सदस्यों के लिए वेतन, प्रोग्रेसिव टैक्सेशन, सार्वजनिक शिक्षा, मुफ्त स्कूली खाना, और यहाँ तक कि रेलवे का राष्ट्रीयकरण.
उस समय, ऐसे विचारों को बिल्कुल ही अजीब और किनारे का माना जाता था. ऐसी योजनाएं जो केवल सनकी लोग ही कागज़ पर उतारेंगे. और फिर भी, एक-एक करके, हर एक मांग हकीकत बन गई. आज, ‘द ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ एक यूटोपियन विश-लिस्ट जैसा नहीं बल्कि आधुनिक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) के एक साधारण विवरण जैसा लगता है. यह कैसे हुआ? नामुमकिन चीज़ अपरिहार्य (inevitable) कैसे बन गई?
खैर, इस साज़िश की शुरुआत भी बिल्कुल साज़िश जैसी ही थी. इसकी शुरुआत किसी संसद या विश्वविद्यालय में नहीं बल्कि एक भूतिया घर में हुई थी. 1880 के दशक में, लंदन के कुलीनों के बीच अध्यात्मवाद (spiritualism) का बड़ा क्रेज़ था. भूतों से बात करना (seances), मेज़ थपथपाना, भूत का शिकार करना, यह उस दौर का छद्म-विज्ञान (pseudoscience) था. और दो नौजवान, एडवर्ड पीज़ और फ्रैंक पोडमोर, इसमें बहुत रुचि रखते थे. अब, एक रात, उन्हें नॉटिंग हिल में एक पुराने घर की चाबी मिल गई, उन्होंने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया और आधी रात को वापस आए, इस उम्मीद में कि उन्हें कुछ असामान्य देखने को मिलेगा. उस रात भूतों ने तो उन्हें बहुत निराश किया. लेकिन जब वे अंधेरे में जंजीरों के खड़कने का इंतज़ार कर रहे थे, उनकी बातचीत कुछ अधिक क्रांतिकारी चीज़ की ओर मुड़ गई—सामाजिक सुधार की संभावना. तो इस आधे-गंभीर भूत के शिकार से कुछ ज़्यादा गंभीर चीज़ निकली. पोडमोर, पीज़ और कुछ अन्य लोगों ने ‘द फैलोशिप ऑफ द न्यू लाइफ’ नाम की एक सोसाइटी की स्थापना की.
उनका मानना था कि सामाजिक बदलाव की शुरुआत व्यक्तिगत बदलाव से होनी चाहिए. क्योंकि अगर आप खुद को बदल सकें, तो दुनिया को बदलना बाएं हाथ का खेल होगा. सदस्यों ने उच्च गुणों के साथ जीने का संकल्प लिया. उन्होंने शांतिवाद, शाकाहार, सादा जीवन और बौद्धिक ईमानदारी की वकालत की. उनका उद्देश्य था उच्चतम नैतिक संभावनाओं के अनुसार समाज का पुनर्निर्माण. स्पष्टता और संयम का जीवन जीकर, इन ‘न्यू लाइफर्स’ को उम्मीद थी कि वे एक मिसाल कायम करेंगे जिसका दूसरे अनुसरण करेंगे, जो समय के साथ, खुद समाज को बदल देगा.
फिर भी, जैसे-जैसे उनकी बैठकें जारी रहीं, एक विभाजन दिखाई देने लगा. कुछ लोगों के लिए, यह फैलोशिप मुख्य रूप से एक नैतिक प्रोजेक्ट था. दूसरों के लिए, यह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट भी था. और जैसे-जैसे महीने बीतते गए, मज़दूरी और टैक्सेशन पर होने वाली बहसों ने धीरे-धीरे शांतिवाद और सादा जीवन की चर्चाओं को बाहर करना शुरू कर दिया. जब तक कि 4 जनवरी 1884 को, फैलोशिप के राजनीतिक विचारधारा वाले सदस्य अलग हो गए, और उन्होंने अपनी खुद की सोसाइटी बनाई. और वह भूत शिकारी फ्रैंक पोडमोर ही थे जिन्होंने अपने नए क्लब के लिए नाम प्रस्तावित किया—’द फैबियन सोसाइटी’.
उन्होंने वह नाम काफी साज़िशी कारणों से चुना. रोमन जनरल, क्विंटस फैबियस मैक्सिमस वेरूकोसस ने हैनिबल की सेना को सीधे युद्ध के ज़रिए नहीं बल्कि धैर्य और दृढ़ता के ज़रिए थकाया था. उनका उपनाम ‘द डिलेयर’ (देरी करने वाला) था. और यही वह भावना थी जिसे पोडमोर अपनाना चाहते थे. उनका मानना था कि समाजवाद पूंजीवाद के दरवाज़ों को तोड़कर ब्रिटेन को नहीं जीतेगा, बल्कि चुपचाप पिछले दरवाज़े से अंदर आएगा. कम्युनिस्टों के विपरीत, फैबियन यूटोपिया लाने के लिए एक हिंसक क्रांति में विश्वास नहीं करते थे. उनका चुना हुआ प्रतीक कछुआ था, जो धीमी, स्थिर प्रगति की छवि है. और उनके ‘कोट ऑफ आर्म्स’ में भेड़ की खाल में एक भेड़िया दिखाया गया था. ज़ाहिर है, पब्लिसिटी कारणों से, उस विशेष प्रतीक को बाद में छोड़ दिया गया.
शुरुआत से ही, धैर्य और विध्वंस के मिश्रण ने फैबियन्स को एक रहस्यमयी हवा दी. और बहुत जल्द ही ब्रिटेन के सबसे होनहार युवा दिमाग इसका हिस्सा बनना चाहते थे. फैबियन सोसाइटी ब्रिटेन के सबसे प्रतिभाशाली और, बेहतर शब्द न मिलने पर कहूँ तो, सबसे ‘कूल’ लोगों के लिए एक चुंबक बन गई. इसके सदस्यों में एच.जी. वेल्स, एमिलाइन पंकहर्स्ट, और बर्टरेंड रसेल जैसी हस्तियां शामिल थीं. इसमें शामिल होने वाले ज़्यादातर लोग ताज़ा यूनिवर्सिटी ग्रैजुएट्स थे जिन्हें बहस करना पसंद था. बातचीत उनका माध्यम थी, और बातचीत के ज़रिए ही उनके विचारों ने आकार लिया. जब कोई लेक्चर विशेष रूप से अच्छा होता, तो उसे एक पैम्फलेट या लेक्चर टूर में बदल दिया जाता, जो बदले में बहुत सारा मीडिया ध्यान खींच सकता था. इनमें से सबसे प्रभावशाली लेख तथाकथित सात फैबियन निबंधकारों (essayists) से आए, जिनमें नाटककार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भी शामिल थे, जो उस ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ के लेखक भी थे.
अपनी स्थापना के सिर्फ सात साल बाद, सोसाइटी ने लगभग 100,000 पैम्फलेट बांट दिए थे, जो उस समय के लिए एक आश्चर्यजनक संख्या थी. फैबियन्स के इतने फैशनेबल होने का एक कारण यह था कि वे मार्केटिंग के उस्ताद थे. उन्होंने लंबे समय से मरे हुए जर्मन दार्शनिकों पर लंबे-चौड़े लेख नहीं लिखे, बल्कि उन्होंने सरल भाषा में लिखा, जो सड़क पर किसी की भी समझ में आ सके. साथ ही, उन्होंने कुलीनों के सौंदर्यबोध का भी ख्याल रखा. उस दौर के ज़्यादातर क्रांतिकारी पैम्फलेट लापरवाही से डिज़ाइन किए गए थे और सस्ते, भद्दे कागज़ पर छापे जाते थे, जिससे उन्हें एक बदनाम छवि मिलती थी. गंदे, शौकिया, जिन्हें गंभीरता से न लिया जाए. इसके विपरीत, फैबियन्स ऐसी सामग्री बनाने में गर्व महसूस करते थे जो पॉलिश्ड और सुंदर दिखती थी. खून जैसे लाल कागज़ पर छपे चमकदार निमंत्रण कार्ड, ऐसी कॉन्फ्रेंस जो बिना किसी गलती के चलती थीं. जैसा कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने याद किया, “इन बारीकियों पर ध्यान देने के लिए हम पर अक्सर फब्तियां कसी जाती थीं और हमें ‘आर्मचेयर सोशलिस्ट’ कहा जाता था, लेकिन मुझे लगता है कि यह हमारी खूबियों में से एक थी.”
इस तरह, फैबियन सोसाइटी राजनीतिक प्रतिभाओं की नर्सरी बन गई. युवा, महत्वाकांक्षी आदर्शवादियों के लिए, फैबियन्स में शामिल होना सबसे ‘कूल’ कदम था जो आप उठा सकते थे. यह वो जगह थी जहाँ सबसे तीखी बहसें, सबसे ग्लैमरस सभाएं, और सबसे अच्छी पार्टियां होती थीं. और धीरे-धीरे, फैबियन सदस्यों ने स्कूल बोर्डों और स्थानीय परिषदों में सीटें लेनी शुरू कर दीं. और यह संस्थाओं के भीतर एक लंबे सफर की शुरुआत थी, क्योंकि फैबियन्स जानते थे कि आज के छोटे नौकरशाह कल के बड़े पावरब्रोकर बन सकते हैं. उन्होंने एक प्रभावशाली विरासत छोड़ी. फैबियन्स ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्थापना की और लेबर पार्टी के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई. अगली आधी सदी तक, फैबियनवाद ने माहौल तय किया, और जो कभी अकल्पनीय था वह हकीकत बन गया. सार्वजनिक शिक्षा, यूनिवर्सल हेल्थकेयर, आठ घंटे का कार्यदिवस, महिलाओं के लिए वोट, और प्रोग्रेसिव टैक्सेशन, जिसमें 1950 और 60 के दशक में अमीरों के लिए मार्जिनल रेट्स 90% तक चढ़ गए थे.
मृतकों को बुलाने में असफल होने के बाद, नॉटिंग हिल के प्रेत ढूंढने वालों (घोस्ट बस्टर्स) ने अंततः कुछ और अधिक शक्तिशाली चीज़ को बुलाया: आधुनिक सामाजिक लोकतंत्र (सोशल डेमोक्रेसी) की आत्मा.
आज, उस फैबियन विरासत का बहुत कुछ घेराबंदी में है. जैसा कि हम सभी जानते हैं, अमीरों के लिए टैक्स बहुत कम हो गए हैं, सामाजिक सेवाएं तनाव में हैं, और लोकतंत्र डगमगा रहा है. विडंबना यह है कि फैबियन प्रोजेक्ट का पतन भी एक साज़िश का ही परिणाम था. 10 अप्रैल, 1947 को, बुद्धिजीवियों का एक छोटा समूह स्विस गांव मोंट पेलेरिन (Mont Pèlerin) में इकट्ठा हुआ. वे खुद को ‘नियोलिबरल्स’ (नवउदारवादी) कह रहे थे. उनमें फ्रेडरिक हायेक जैसे दार्शनिक और मिल्टन फ्रीडमैन जैसे अर्थशास्त्री शामिल थे. उन्हें डर था कि राज्य की बढ़ती ताकत एक नई तरह की तानाशाही लाएगी, और इसलिए उन्होंने विद्रोह किया.
फैबियन्स की तरह, नियोलिबरल्स भी जानते थे कि प्रभावी प्रतिरोध में समय लगेगा. हायेक ने लिखा कि राय में बदलाव और नीति में उसके अनुरूप बदलाव के बीच का अंतराल आमतौर पर एक पीढ़ी या उससे भी अधिक होता है. और फ्रीडमैन इससे सहमत थे. उन्होंने कहा कि जो लोग अब देश चला रहे हैं, वे लगभग दो दशक पहले के उस बौद्धिक माहौल को दर्शाते हैं जब वे कॉलेज में थे. नियोलिबरल्स स्वहित (self-interest) की प्रधानता में विश्वास करते थे. समस्या चाहे जो भी हो, उनका जवाब एक ही था. “सरकार को पीछे हटाओ. व्यापार को खुला छोड़ दो.” सरकार को हेल्थकेयर से लेकर शिक्षा तक, हर क्षेत्र को बाज़ार (marketplace) में बदल देना चाहिए. और नियोलिबरल्स जानते थे कि वे मुख्यधारा से बहुत बाहर थे, लेकिन इसने उन्हें और प्रेरित किया. 1969 तक, टाइम मैगज़ीन ने फ्रीडमैन को “पेरिस के एक डिज़ाइनर” के रूप में वर्णित किया जिसका ‘हौते कूतू’ (महंगा फैशन) कुछ चुनिंदा लोग ही खरीदते हैं, लेकिन जो फिर भी लगभग सभी लोकप्रिय फैशन को प्रभावित करता है.
संकट फ्रीडमैन की सोच के केंद्र में थे. 1982 की अपनी उत्कृष्ट कृति ‘कैपिटलिज़्म एंड फ्रीडम’ की प्रस्तावना में, उन्होंने ऐसे शब्द लिखे जो एक नियोलिबरल मंत्र बन गए. मुझे लगता है कि उन्हें पूरा उद्धृत करना उचित होगा. फ्रीडमैन ने लिखा, “केवल एक संकट—वास्तविक या महसूस किया गया—असली बदलाव पैदा करता है. जब वह संकट आता है, तो जो कार्रवाई की जाती है वह उन विचारों पर निर्भर करती है जो आसपास मौजूद (lying around) होते हैं. मेरा मानना है कि यही हमारा मूल कार्य है: मौजूदा नीतियों के विकल्प विकसित करना, उन्हें तब तक जीवित और उपलब्ध रखना जब तक कि राजनीतिक रूप से असंभव, राजनीतिक रूप से अपरिहार्य न बन जाए.”
हैरानी की बात है कि यह नियोलिबरल रणनीति एक सदी पहले के फैबियन दृष्टिकोण की गूंज थी. 1884 के सबसे पहले फैबियन पैम्फलेट के शीर्षक पृष्ठ पर, हम पढ़ते हैं, “सही पल के लिए आपको इंतज़ार करना होगा,” जैसा कि फैबियस ने हैनिबल के खिलाफ युद्ध करते समय बहुत धैर्य से किया था. “लेकिन जब समय आता है, तो आपको ज़ोरदार प्रहार करना चाहिए.” और ठीक यही हुआ. जब 1970 के दशक के संकट आए—स्टैगफ्लेशन, तेल का झटका, भारी हड़तालें—तो नियोलिबरल्स ने ज़ोरदार प्रहार किया. उन्होंने थिंक टैंक, पत्रिकाओं और फाउंडेशनों का एक नेटवर्क बनाने में दशकों बिताए थे, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनके विचार ही वे विचार होंगे जो ‘आसपास मौजूद’ होंगे.
बाद के वर्षों में, एक नई ‘कॉमन सेंस’ (आम समझ) का जन्म हुआ. सरकार समस्या थी. बाज़ार समाधान थे. प्रगति का मतलब था डीरेगुलेट करना, निजीकरण करना, कटौती करना, ग्लोबलाइज़ करना. कदम-दर-कदम, सरकारी कंपनियों को बेचा गया, यूनियनों को कमज़ोर किया गया, और सामाजिक लाभों में कटौती की गई. रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर जैसे रूढ़िवादी नेताओं ने हायेक और फ्रीडमैन के कभी कट्टरपंथी माने जाने वाले सिद्धांतों को अपनाया. जल्द ही, उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी इसका पालन किया. बिल क्लिंटन ने घोषित किया कि “बड़ी सरकार का दौर खत्म हो गया है,” जबकि टोनी ब्लेयर ने अपनी ‘न्यू लेबर’ के साथ बाज़ार सुधारों को गले लगाया जो कभी दक्षिणपंथियों से जुड़े थे. और कुछ समय के लिए, नियोलिबरलिज़्म काम करता हुआ लग रहा था. महंगाई पर काबू पाया गया, विकास लौटा, और शेयर बाज़ार उछले.
लेकिन जैसे-जैसे दशक बीते, कीमत साफ होती गई. खोखले होते समुदाय, आसमान छूती असमानता, वित्तीय संकट और पारिस्थितिक विनाश. आज, वह विचारधारा जिसने 1980 के दशक से महामारी तक राज किया, अब प्रेरित नहीं करती. यह बौद्धिक रूप से थकी हुई, नैतिक रूप से दिवालिया और राजनीतिक रूप से ज़हरीली है. फिर भी इसका भूत अभी भी मंडरा रहा है, हमारी संस्थाओं को सता रहा है, हमारी कल्पनाओं को सीमित कर रहा है.
जब मैंने, 25 साल की उम्र में, अपनी पहली किताब ‘यूटोपिया फॉर रियलिस्ट्स’ लिखी, तो मैं इस भूत को भगाना चाहता था. मैं बस नियोलिबरल राजनीति से ऊब गया था. बहसें बहुत संकीर्ण और तकनीकी (technocratic) लगती थीं. वो बड़ा विज़न कहाँ था? वो साहसी विचार कहाँ थे जिन्होंने कभी समाजों को बदल दिया था? वह किताब एक राजनीतिक दिशा-सूचक (compass) के रूप में यूटोपिया को वापस पाने की मेरी कोशिश थी. यह दिखाने के लिए कि जो कभी कट्टरपंथी लगता था, जैसे महिलाओं का मताधिकार या वीकेंड की छुट्टियां, वह सामान्य ज्ञान बन गया था. और हम फिर से वही कर सकते हैं. विश्वास और प्रचुरता (abundance) का समाज बनाना.
उसके बाद के दशकों में, मुझे जो चाहिए था उसका लगभग आधा मिल गया है. राजनीति अब निश्चित रूप से उबाऊ नहीं है. पुरानी सहमति टूट चुकी है. दुनिया भर में, लोग बदलाव के लिए, बड़ी कहानियों के लिए, दिशा की भावना के लिए भूखे हैं. लेकिन उम्मीद के पुनर्जागरण के बजाय, हमने डर की वापसी देखी है. एकजुटता के बजाय, हमने नफरत का उदय देखा है. नियोलिबरलिज़्म मर चुका है, और इसकी जगह उन भड़काऊ नेताओं (demagogues) ने ले ली है जो महानता का वादा करते हैं जबकि नफरत और विभाजन बेचते हैं.
और इसलिए जो सवाल मैंने कभी आशावाद के साथ उठाया था, वह अब अधिक तात्कालिकता के साथ लौटता है. क्या हम एक बार फिर यूटोपिया को पुनः प्राप्त कर सकते हैं, एक भोले फंतासी के रूप में नहीं, बल्कि नवीनीकरण के लिए एक मार्गदर्शक सितारे के रूप में? क्योंकि संकट आ चुका है, इतिहास का लोहा गर्म है, और अब सब कुछ उन विचारों पर निर्भर करता है जो ‘आसपास मौजूद’ हैं.
फैबियनवाद और नियोलिबरलिज़्म में सुसंगति, दृढ़ विश्वास और एक रणनीति थी. उनके पास एक कहानी थी कि क्या गलत हुआ और आगे क्या करना है इसका एक विज़न था. उनके पास ऐसी संस्थाएं थीं जो लंबी पारी (long game) खेलने को तैयार थीं, और उन्होंने एक ‘काउंटर-एलीट’ बनाया जिसने दुनिया को नया रूप दिया. आज प्रगतिशील (progressive) पक्ष में इसके बराबर क्या है? नियोलिबरलिज़्म के बाद क्या आता है? ‘नियो फैबियन्स’ कहाँ हैं? आज का ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ कैसा दिखेगा? और अगली ‘शराफ़त की साज़िश’ कौन आयोजित कर रहा है?
चलिए अच्छी खबर से शुरू करते हैं. मुझे लगता है कि एक नए सामाजिक अनुबंध (social contract) की नींव पहले ही रखी जा रही है. हम आर्थिक और सामाजिक सोच में एक शांत पुनर्जागरण के बीच में हैं. पहली बात, हमने वह फिर से सीख लिया है जो फैबियन्स पहले से जानते थे. सरकार सिर्फ चेक नहीं काटती. वह सबसे बड़े, सबसे साहसी जोखिम उठा सकती है. सार्वजनिक निवेश के बिना, हमारे पास इंटरनेट, जीपीएस, या हमारे फोन पर टचस्क्रीन भी नहीं होता. यही बात उन mRNA वैक्सीन के लिए भी लागू होती है जिन्होंने कोविड के दौरान लाखों लोगों की जान बचाई. बार-बार, यह टैक्सपेयर्स रहे हैं, अरबपति नहीं, जिन्होंने बड़ी सफलता वाले दांव लगाए.
अब एक ऐसे राज्य की कल्पना करें जो इस नियम को पूरी तरह से अपनाता है, जहाँ सबसे प्रतिभाशाली दिमाग मैकिन्ज़ी (McKinsey) में पावरपॉइंट्स को चमकाने में अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करते, बल्कि हाई-स्पीड रेल बनाते हैं या बीमारियों के पूरे वर्गों का इलाज करते हैं. एआई (AI) और टेक्नोलॉजी से होने वाले भारी मुनाफे की कल्पना करें, जिसकी जड़ें दशकों के सरकार द्वारा वित्तपोषित शोध में हैं, जो एक राष्ट्रीय धन कोष (national wealth fund) में जा रहा है जो हर नागरिक को मासिक लाभांश (dividend) देता है.
मैं यहाँ एक सुस्त, लाल फीताशाही वाली सरकार की बात नहीं कर रहा हूँ. इसके विपरीत, डीरेगुलेशन (विनिमय मुक्ति) अभी भी मायने रखता है अगर हम प्रचुरता को वास्तविक बनाना चाहते हैं. शेयरधारकों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए नियमों में कटौती करने के पुराने नियोलिबरल अर्थ में नहीं, बल्कि उन बाधाओं (bottlenecks) को दूर करने के नए अर्थ में जो हमें उन चीज़ों को बनाने से रोकती हैं जिनकी लोगों को ज़रूरत है. हमारी बहुत सी समस्याएं हमारे खुद के बनाए नियमों से पैदा होती हैं. ज़ोनिंग कोड जो नए आवासों पर प्रतिबंध लगाते हैं, परमिट जो विंड फार्म्स को सालों तक कागजी कार्रवाई में फंसाते हैं, प्रक्रियाएं जो काम करने के बजाय टालने को पुरस्कृत करती हैं. ये मामूली असुविधाएं नहीं हैं. यही कारण है कि किराया आसमान छू रहा है, क्यों सफर (commute) करना दुखद है, और क्यों स्वच्छ ऊर्जा उतनी तेज़ी से नहीं आ रही है. यह डिज़ाइन द्वारा पैदा की गई कमी (scarcity by design) है, और यह उस आक्रोश को हवा देती है जो हमारी राजनीति पर हावी है.
बेशक, इन कृत्रिम बाधाओं को हटाना आधी लड़ाई है. प्रचुरता का समाज बनाने के लिए उस पैमाने पर संसाधनों की भी आवश्यकता होती है जिसकी कल्पना करने की हिम्मत हमने दशकों से नहीं की है. और लोग पूछते हैं, काफी हाल ही में, हम इस सबके लिए भुगतान कैसे करेंगे? मुझे लगता है कि यह एक ऐसी टैक्स प्रणाली से शुरू होता है जो निष्पक्ष, सरल और इस सिद्धांत पर बनी हो कि काम और धन को एक ही नियमों से खेलना चाहिए. बहुत लंबे समय से, नियमों ने काम से कमाए गए पैसे के बजाय पैसे से कमाए गए पैसे का पक्ष लिया है, और यही कारण है कि अरबपति अपने कर्मचारियों की तुलना में कम प्रभावी टैक्स दर का भुगतान कर सकते हैं.
अर्थशास्त्रियों के एक नए स्कूल, थॉमस पिकेटी और गेब्रियल ज़ुकमैन जैसे लोगों ने दिखाया है कि ऐसा होना ज़रूरी नहीं है. एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहाँ बैंक अपने आप खाते की जानकारी साझा करते हैं ताकि किस्मतें चुपचाप स्विस तिजोरियों या कैरेबियन शेल कंपनियों में गायब न हो सकें. जहाँ वैश्विक निगम अब आयरलैंड या बरमूडा में मुनाफा शिफ्ट नहीं करते बल्कि जहाँ वे काम करते हैं वहाँ न्यूनतम टैक्स दर का भुगतान करते हैं. जहाँ 200-मिलियन डॉलर की नौका वाला अरबपति उसी सीधे शर्तों पर योगदान देता है जैसे एक नर्स या एक शिक्षक.
दशकों तक, हमें बताया गया कि ऐसा नहीं किया जा सकता, कि अमीर हमेशा दरारों से निकल जाएंगे, अपने पैसे को ऑफशोर खातों और फैंसी ट्रस्टों में छिपा लेंगे. लेकिन अब हमारे पास उपकरण हैं, स्प्रेडशीट्स हैं, और टैक्स निष्पक्षता को हकीकत बनाने के लिए चरण-दर-चरण योजना है.
और जब हर कोई भुगतान करता है, तो समाज भुगतान कर सकता है. कल्पना करें कि हर माता-पिता के पास किफायती चाइल्ड केयर हो. ऐसे स्कूलों की कल्पना करें जहाँ पढ़ाना सबसे सम्मानित और सबसे अधिक भुगतान वाले व्यवसायों में से एक हो. ऐसे कॉलेज जो युवाओं को कर्ज के बजाय अवसरों में लॉन्च करें. ऐसी स्वास्थ्य सेवा जो सभी के लिए सुलभ हो, सिर्फ बीमारी को ठीक करने के लिए नहीं बल्कि हमें सबसे पहले स्वस्थ रखने के लिए.
बेशक, यह सिर्फ बुनियादी बातें होंगी. हम और आगे जा सकते हैं और हमें जाना चाहिए, और उतना ही यूटोपियन होना चाहिए जितना फैबियन्स थे. हम ऐसे देश बना सकते हैं जहाँ रहने का लोग सपना देखते हैं, जहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी बेहतरीन अर्थों में भव्य महसूस हो. जहाँ तकनीकी प्रगति का इनाम सभी को मिले, न कि कुछ लोगों द्वारा जमा किया जाए. जहाँ फुर्सत, सुंदरता और सुरक्षा हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार हो.
नियोलिबरलिज़्म ने हमें सिखाया कि ऐसी चीज़ें बहुत महंगी हैं. लेकिन कई मामलों में, जो महंगा दिखता है वह वास्तव में कुशल (efficient) है. गरीबी या बेघर होने की समस्या को हल करना, उसे प्रबंधित करने और पुलिसिंग करने की तुलना में बहुत कम खर्चीला है. और यहाँ कुछ ऐसा है जो बहुत से लोग महसूस नहीं करते हैं. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कला जैसे क्षेत्रों में लागत का फोन या फ्रिज जैसी चीज़ों की कीमत से तेज़ी से बढ़ना वास्तव में सामान्य है. अर्थशास्त्री विलियम बॉमोल ने 1960 के दशक में ही देखा था कि श्रम-गहन (labour-intensive) क्षेत्रों में कीमतें उन क्षेत्रों की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं जहाँ काम को आसानी से स्वचालित (automate) किया जा सकता है. एक फ्रिज को और भी सस्ते में बनाया जा सकता है, लेकिन वास्तविक मानवीय ध्यान (human attention) का एक घंटा नहीं. अर्थशास्त्रियों ने इस प्रवृत्ति को एक नाम दिया. उन्होंने इसे ‘बॉमोल्स कॉस्ट डिज़ीज़’ (Baumol’s cost disease) कहा.
लेकिन यहाँ विडंबना है. विलियम बॉमोल ने खुद इसे कभी समस्या के रूप में नहीं देखा. उन्होंने इसे एक वरदान के रूप में देखा. हमारी मशीनें और कंप्यूटर जितने अधिक कुशल होंगे, हम उतना ही अधिक समय उस चीज़ के लिए मुक्त कर सकते हैं जो वास्तव में मायने रखती है. कमज़ोरों की देखभाल करना, हमारे बच्चों को शिक्षित करना, और सुंदर कला बनाना. “इन चीज़ों को पाने में असली बाधा,” बॉमोल ने चेतावनी दी, “यह भ्रम है कि हम उन्हें वहन नहीं कर सकते (we cannot afford them).”
एक अच्छे जीवन की बुनियादी बातें विलासिता नहीं हैं जिन्हें हमें विकास (growth) के बदले में छोड़ना पड़े. वे विकास का लाभांश हैं. नियोलिबरलिज़्म ने कहा कि हमें चुनना होगा, लेकिन हमें नहीं चुनना है. हम समृद्धि और निष्पक्षता, दक्षता और गरिमा, सब पा सकते हैं. हम तरक्की और इन्साफ, दोनों एक साथ हासिल कर सकते हैं.
संक्षेप में, हमारे ‘ट्रू रेडिकल प्रोग्राम’ की रूपरेखा आकार लेने लगी है. लेकिन फैबियन्स और नियोलिबरल्स की तरह, हमें याद रखना चाहिए कि सपने और इच्छाएं, योजनाएं और कार्यक्रम काफी नहीं हैं. विचार केवल तभी मायने रखते हैं जब वे संगठित हों, संस्थागत हों, और इतिहास के तूफानों के माध्यम से ले जाए जाएं. इसका मतलब है कि सिर्फ कुछ अच्छे भाषण नहीं. इसका मतलब है लोगों और संस्थाओं के टिकाऊ नेटवर्क बनाना, गहरी जेब वाले दानदाता जो चुनाव चक्रों के बजाय दशकों में सोचने को तैयार हों, पॉलिसी शॉप्स जो आदर्शों को कानून में बदल सकें, आंदोलन जो विविध निर्वाचन क्षेत्रों का दिल जीत सकें, और सांस्कृतिक मंच जो जनमत को आकार दे सकें—अदालत से लेकर कक्षा तक, ओपिनियन पेज से लेकर डिनर टेबल तक.
सबसे बढ़कर, इसके लिए दृढ़ता की आवश्यकता है. इतिहास दिखाता है कि विचारशील, प्रतिबद्ध नागरिकों के छोटे समूह क्या हासिल कर सकते हैं यदि वे लंबी पारी खेलें. ब्रिटिश सोसाइटी फॉर द एबोलिशन ऑफ द स्लेव ट्रेड के 12 संस्थापकों में से, केवल एक ही इतना लंबा जिया कि पूरे साम्राज्य में गुलामी को समाप्त होते देख सके. 1848 में संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं के अधिकारों के पहले सम्मेलन के लिए सेनेका फॉल्स में इकट्ठा हुई 68 महिलाओं में से, केवल एक ही तब तक जीवित थीं जब महिलाओं को आखिरकार वोट का अधिकार मिला. और वह उस दिन वोट डालने जाने के लिए बहुत बीमार थीं.
हमारा काम रातों-रात यूटोपिया खड़ा करना नहीं है, बल्कि जनरल फैबियस की दृढ़ता और धैर्य के साथ लड़ना है, उन नैतिक अग्रदूतों के नक्शेकदम पर चलना है जो हमसे पहले आए थे, नॉस्टेल्जिया के साथ नहीं बल्कि अनुकरण के साथ आभारी होना है. शुक्रिया.
रीथ लेक्चर्स 1: डच इतिहासकार रटगर ब्रेगमैन को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
रीथ लेक्चर्स 2:डच इतिहासकार रटगर ब्रेगमैन को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.




