हरकारा डीप डाइव के इस एपिसोड में निधीश त्यागी और वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग उस घटना से शुरुआत करते हैं जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामनाथ गोयनका मेमोरियल लेक्चर में शिरकत की और भारतीय लोकतंत्र, मीडिया और बिहार में अपनी जीत की कहानी सुनाई. वही रामनाथ गोयनका जिनका नाम आपातकाल के खिलाफ प्रेस की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ा रहा, उसी मंच पर आज के प्रधानमंत्री का भाषण श्रवण गर्ग को “शॉक और डिसबिलीफ” की तरह लगा.
बातचीत में श्रवण गर्ग इंडियन एक्सप्रेस के उस दौर को याद करते हैं जब एस मुलगांवकर, कुलदीप नैयर, अरुण शौरी, अबू अब्राहम जैसे नाम इमारत की पहचान थे और सचमुच “जर्नलिज़्म ऑफ करेज” होता था. वह बताते हैं कि कैसे रामनाथ गोयनका असल में इंदिरा गांधी विरोधी और जनसंघ समर्थक थे, और कैसे आज के समय में प्रधानमंत्री को बुलाना किसी गलती से ज्यादा एक राजनीतिक निरंतरता भी है.
इंडियन एक्सप्रेस में राहुल गांधी के महाराष्ट्र “मैच फिक्सिंग” वाले लेख के छपने और अगले ही दिन उसी अखबार के संवाददाताओं और देवेंद्र फडणवीस के लेख से उसकी सार्वजनिक काट करने की घटना को श्रवण गर्ग एक मिसाल के रूप में रखते हैं. उनके अनुसार उत्तर भारत की ज़्यादातर मीडिया ने सत्ता के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया है, जबकि दक्षिण की कुछ संस्थाएं अभी भी प्रतिरोध और संतुलन की कोशिश कर रही हैं.
द वायर, न्यूज़ लॉन्ड्री, दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों पर ईडी और सीबीआई की कार्रवाइयों से लेकर पीएम केयर्स की अपारदर्शिता और आरटीआई के खोखले होते जाते ढांचे तक, यह बातचीत दिखाती है कि प्रेस की आज़ादी सिर्फ वैश्विक इंडेक्स में नहीं, हमारे रोज़मर्रा के अनुभवों में भी कैसे पीछे खिसक रही है. निठारी कांड की रिपोर्टिंग और उसी मामले के आरोपियों की रिहाई का उदाहरण देकर श्रवण गर्ग बताते हैं कि कैसे न्याय और पत्रकारिता दोनों पर भरोसा डगमगा रहा है.
अगर आप यह समझना चाहते हैं कि भारतीय मीडिया ने पिछले पचास साल में रामनाथ गोयनका के दौर से लेकर आज तक कैसी यात्रा तय की है, और क्यों हिंदी पत्रकारिता की गिरावट भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बनती जा रही है, तो यह बातचीत आपके लिए है.
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